पेज

शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2010

अनियमितता के लिए .......

ल सुबह श्री विष्णु बैरागी जी का संदेश मिला -
कई दिनों से मुझे 'अनवरत' नहीं मिला है। कोई तकनीकी गडबड है या कुछ और - बताइएगा। 
शाम  को सतीश सक्सेना  जी ने 'अनवरत' की पोस्ट "ऊर्जा और विस्फोट" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंप...": पर संदेश छोड़ा -
कहाँ अस्तव्यस्त हो भाई जी ! नया मकान तो अब तक ठीक ठाक हो चुका होगा...? 
 दैव मेरा प्रयत्न यह रहा है कि प्रतिदिन दोनों ही ब्लागों पर कम से कम एक-एक प्रकाशन हो जाए। मैं ने बैरागी जी को उत्तर दिया  -कुछ परिस्थितियाँ ऐसी बनी हैं कि मैं चाहते हुए भी दोनों ब्लागों पर नियमित नहीं हो पा रहा हूँ, लेकिन शीघ्र ही नियमितता बनाने का प्रयत्न करूंगा। मुझे उन का त्वरित प्रत्युत्तर मिला -
......सबसे पहली बात तो यह जानकर तसल्‍ली हुई कि आप सपरिवार स्‍वस्‍थ-प्रसन्‍न हैं। ईश्‍वर सब कुछ ऐसा ही बनाए रखे। आपकी व्‍यस्‍तता की कल्‍पना तो थी किन्‍तु इतने सारे कारण एक साथ पहली ही बार मालूम हुए। निपटाने ही पडेंगे सब काम और आप को ही निपटाने पडेंगे। मित्र और साथी एक सीमा तक ही साथ दे सकते हैं ऐसे कामों में। 
मैं ने बैरागी जी को तो उत्तर दे दिया, लेकिन सतीश जी को नहीं दिया। सिर्फ इसलिए कि सभी ब्लागर मित्रों और पाठकों के मन में भी यह प्रश्न तैर रहा होगा तो क्यों न इस का उत्तर ब्लाग पर ही दिया जाए।
मेरी गैर-हाजरी के कारण अज्ञात नहीं हैं। 19 सितंबर 2010 को मैं ने अपना आवास बदला, एक अक्टूबर को  बहुमूल्य साथी और मार्गदर्शक शिवराम सदा के लिए विदा हो लिए। आवास बदलने के साथ बहुत कुछ बदला है। और 40 दिन हो जाने पर भी दिनचर्या स्थिर नहीं हो सकी है। पुराने आवास से आए सामानों में से कुछ को अभी तक अपनी पैकिंग में ही मौजूद हैं। अभी मैं जिस आवास में आया हूँ वह अस्थाई है। संभवतः मध्य नवम्बर तक नए मकान का निर्माण आरंभ हो सकेगा जो अप्रेल तक पूरा हो सकता है। तब फिर एक बार नए आवास में जाना होगा। इन्हीं अस्तव्यस्तताओं के कारण दोनों ब्लागों पर अनियमितता बनी है। मैं इस अनियमितता से निकलने का प्रयत्न कर रहा हूँ। संभवतः दीवाली तक दोनों ब्लाग नियमित हो सकें। 
ब भी कोई व्यक्ति सार्वजनिक मंच पर नियमित रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज कराता रहता है तो वह बहुत से लोगों के जीवन में शामिल होता है और उस का दायित्व हो जाता है कि जो काम उस ने अपने जिम्मे ले लिए हैं उन्हें निरंतर करता रहे। मसलन कोई व्यक्ति सड़क के किनारे एक प्याऊ स्थापित करता है। कुछ ही दिनों में न केवल राहगीर अपितु आसपास के बहुत लोग उस प्याऊ पर निर्भर हो जाते हैं। प्याऊ स्थापित करने वाले और उस सुविधा का उपभोग करने वाले लोगों को इस का अहसास ही नहीं होता कि उस प्याऊ का क्या महत्व है। लेकिन अचानक एक दिन वह प्याऊ बंद मिलती है तो लोग सोचते हैं कि शायद प्याऊ पर बैठने वाले व्यक्ति को कोई काम आ गया होगा। लेकिन जब वह कुछ दिन और बंद रहती है तो लोग जानना चाहते हैं कि हुआ क्या है? यदि प्याऊ पुनः चालू हो जाती है तो लोग राहत की साँस लेते हैं। लेकिन तफ्तीश पर यह पता लगे कि प्याऊ हमेशा के लिए बंद हो चुकी है। तो लोग या तो उस प्याऊ को चलाने के लिए एक जुट हो कर नई व्यवस्था का निर्माण कर लेते हैं, अन्यथा वह हमेशा के लिए बंद हो जाती है। एक बात और हो सकती है ,कि प्याऊ स्थापित करने वाला व्यक्ति खुद यह समझने लगे कि इस के लिए स्थाई व्यवस्था होनी चाहिए और वह स्वयं ही प्याऊ को एक दीर्घकाल तक चलाने की व्यवस्था के निर्माण का प्रयत्न करे और ऐसा करने में सफल हो जाए।
फिलहाल अनवरत और तीसरा खंबा फिर से नियमित होने जा रहे हैं। लेकिन यह विचार तो बना ही है कि इन्हें नियमित ही रहना चाहिए और उस की व्यवस्था बनाना चाहिए। इस विचार को संभव बनाने के लिए मेरा प्रयत्न  सतत रहेगा।
सार्वजनिक मंच पर स्वेच्छा से लिए गए दायित्वों को यदि किसी अपरिहार्य कारणवश भी कोई व्यक्ति पूरा नहीं कर पाए तो भी वह लोगों को किसी चीज से वंचित तो करता ही है। ऐसी अवस्था में उस के पास क्षमा प्रार्थी होने के अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नहीं हो सकता।  अनवरत और तीसरा खंबा के प्रकाशन में हुई इन अनियमितताओं के लिए सभी ब्लागर मित्रों और अपने पाठकों से क्षमा प्रार्थी हूँ, यह अनियमितता यदि अगले छह माहों में लौट-लौट कर आए तो उस के लिए भी मैं पहले से ही क्षमायाचना करता हूँ। आशा है मित्र तथा पाठक मुझे क्षमा कर देंगे, कम से कम इस बात को आत्मप्रवंचना तो नहीं ही समझेंगे।

रविवार, 24 अक्टूबर 2010

"ऊर्जा और विस्फोट" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का अठारहवाँ और अंतिम सर्ग भाग-4

यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  सत्रह सर्ग आप अनवरत के पिछले अंकों में पढ़ चुके हैं।  प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। प्रत्येक युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिल्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम  तीन सर्ग  वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े होने से उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं था। अठारहवाँ सर्ग "ऊर्जा और विस्फोट" इस काव्य का अंतिम पड़ाव था। आज यहाँ इस का चतुर्थ और अंतिम भाग यहाँ प्रस्तुत है, यही इस काव्य का समापन अंश है ................ 


* यादवचंद्र *

अठारहवाँ सर्ग
ऊर्जा और विस्फोट
भाग चतुर्थ

और नगमा ?
उसे है फुर्सत कहाँ
जब तक न 
कारागार की
विधि-नीति-शिक्षा
राजसत्ता ध्वस्त होती
विश्व के 
हर गाँव से
वह दम न लेगी
जेल का
हर कायदा
कानून जब तक
मिट न जाए
विश्व के 
हर भाग से
वह दम न लेगी ।
जेलरों के शास्त्र
उस की कला-संस्कृति

सभ्यता
औ साख जब तक 
जल न जाए
ग्लोब से 
वह दम न लेगी ।


वो सुगबुगाती
रोशनी 
लिहाफ ओढ़े
तिमिर का,
जम्हुआइयाँ
लेने लगी
किरणें बजा कर
चुटकियाँ 
पर'
यह सवेरा
मुक्ति का
पहला चरण है,
कोटि कण्ठों 
में सवंरते
बोल का 
पहला परन है


यह सवेरा 
मुक्ति के 
शुभ यज्ञ की
प्रस्तावना है,
नृत्य निर्झर
ताल-लय की 
भावना है


यह सवेरा 
पात्र-परिचय
पूर्व का 
आर्केस्ट्रा है

बड़े झुल-फुल
घाट भरने 
चला यह
पहला घड़ा है
 
यह सवेरा
ज्ञान के
अभियान का 
आयाम पहला,
अन्तर्ग्रहों की
खोज में 
यह चंद्रमा-ज्यों
गाम पहला,

और नगमा ?
अभी नगमा
का सवँरना
खील भरना
अग्नि के 
भाँवर लगाना 
पीत-चूनर
ओढ़ माँ के
गले पड़ना
लिपट जाना 
               अभी बाकी। 

मेहंदी,
काजल रचाना
सिमट जाना
शर्म से
घूंघट हटाना
औ हजारों 
वर्ष का 
दुख भरा बचपन
भूल जाना
मुस्कुराना
        अभी बाकी - अभी बाकी 

नए पाहुन
का रुदन
भर जाय आंगन
नया जीवन
गोद ले
नगमा चले
बलमा छले
हर कली चटके
और भौंरे
गुनगुनाएँ
नये नगमे
       अभी बाकी--
अभी बाकी-अभी बाकी--अभी....
 

... इति ... आरंभ ... इति ... आरंभ ... इति ... आरंभ ...

 

शनिवार, 23 अक्टूबर 2010

"ऊर्जा और विस्फोट" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का अठारहवाँ और अंतिम सर्ग भाग-3

यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  सत्रह सर्ग आप अनवरत के पिछले अंकों में पढ़ चुके हैं।  प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। उस युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिल्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम  तीन सर्ग  वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। अठारहवाँ सर्ग "ऊर्जा और विस्फोट" इस काव्य का अंतिम पड़ाव है। इस का तीसरा भाग यहाँ प्रस्तुत है................ 
* यादवचंद्र *

अठारहवाँ सर्ग
ऊर्जा और विस्फोट
भाग तृतीय


मगर यह 
चार अरबों की धरा 
किस भाँति निर्भय हो ?
.......................................

अमर बलिदान की 
प्रतिमूर्तियों !
खुशियाँ मनाओ
शपथ खाओ--
अफ्रिकी
लातिन अमरिकी
कैदखानों 
दुर्ग पर
मोर्टार से
गोले गिराओ,
अनगिनत बलिदान की
तुम मूर्तियाँ
गढ़ते चलो
गढ़ते चलो--
बढ़ते चलो--

एरावदी
ब्रह्मपुत्र-गंगा
सिंधु-दजला
नीलघाटी
की धरा की 
मुक्ति बाकी
सुगबुगाते
हैं किनारे
रात की
खामोशियों में,
घुटन-कुंठा
त्रास में हैं
बुदबुदाते
जा रहे कुछ लोग
दाबे पाँव चुपके
इधर से 
उस ओर,
जेलर चौंकता है
नींद से-
पहरा घरों में
कोट में 
सिर को छुपाए
चीखता है पहरुआ-
हो S ओ S S S S
जागते रहो S S S S
फिर खामोश 
सन्नाटा ... ...
... ... ... ...

चमक कर 
जेल की 
दीवार पर
फिर सो गई रोशनी-ई-S S S
गड़ S ड़ S ड़ S-धड़ाम !
 ... ... ... ... 
निकलो कैदियों
दीवार टूटी
पूर्व से
भागो--
स्वचलित
कातिलों की गनें
बेबस चीखती हैं
आग की 
सौ सौ लकीरें
वक्र-वृत्ताकार-सीधी
काटती-कटती-परस्पर
भागती हैं
सीटियाँ
शैतान की 
टर्रा रही हैं.........
...  ...  ...  ...
सुबह के 
पहले पहर में
शोर-गुल
सब शान्त हो कर 
बैरकों में 
सिमट जाता है
कफन को 
ओढ़ कर
लॉ एण्ड ऑर्डर
दुबक जाता है

मगर,
कुछ कैदी
तुम्हारी मौत के सामान,
तो भग ही गए
जो बुन रहे हैं
नये ताने
नये बाने
घेर कर भूगोल
(न्यूजीलेंड से
अलास्का तक)


उभरी शिराएँ
बाहु मांसल 
आबनूसी रंग
ज्यों कोई पिरामिड
नापता हो
डगों से
जलता सहारा
इधर से
उस छोर तक,
उठता धुआँ
आकाश छूता
राह को 
रोके अड़ा है
ग्वाटमाला
औ पनामा
हंडुरस
ब्राजील वगैरह
आज-कल में
फैसला
इस नीच जैलर का
करेंगे औ सुनेंगे

ग्लोब के
इस पूर्व-उत्तर
भाग  का
यह लाल परचम
जो अभी
दो अरब जन का 
झूमता
सौभाग्य बन
द्रुत उड़ेगा
शेष भू पर ।
मुक्त श्रम 
जो रच रहा है
अर्ध जन गण
का शुभोदय,
द्रुत भरेगा
शेष भू का 
रिक्त हृदय

........ अठारहवें सर्ग 'ऊर्जा और विस्फोट' के अठारहवें सर्ग का तृतीय भाग समाप्त...

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010

शिवराम ..... दृढ़ संकल्पों और जन-जागरण की मशाल


प्रतिबद्ध संस्कृतिकर्मी शिवराम का अचानक चले जाना
नहीं बुझेगी दृढ़ संकल्पों और जन-जागरण की वह मशाल 
        
                                                                          -महेन्द्र नेह 
 सुप्रसिद्ध रंगकर्मी, साहित्यकार और मार्क्सवादी विचारक शिवराम इसी एक अक्टूबर को हृदयगति रूक जाने से अचानक ही हमारे बीच से चले गये।  जीवन के अंतिम क्षण तक वे जितनी अधिक सक्रियता से काम कर रहे थे, उसे देख कर किसी तौर पर भी यह कल्पना नहीं की जा सकती थी, कि वे इस तरह चुपचाप हमारे बीच से चले जायेंगे। देश भर में फैले उनके मित्र, सांस्कृतिक, सामाजिक व राजनैतिक आंदोलनों में जुटे उनके सहकर्मी, उनके साहित्य के पाठकों के लिए शिवराम के निधन की सूचना अकल्पनीय और अविश्वसनीय थी।  जिसने भी सुना स्तब्ध रह गया।  उनके निधन के बाद समूचे देश में, विशेष तौर पर जन प्रतिबद्ध और सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तन के उद्देश्यों में शामिल संस्थाओं द्वारा शोक-सभाओं एवं श्रद्धांजलि सभाओं का सिलसिला जारी है।
३ दिसम्बर, १९४९ को राजस्थान के करौली नगर के निकट गढ़ी बांदुवा गॉंव में जन्मे शिवराम ने अपने इकसठ वर्षीय जीवन में साहित्य, संस्कृति, वामपंथी राजनीति, सर्वहारा-वर्ग एवं बौद्धिक समुदाय के बीच जिस सक्रियता, विवेकशीलता और तर्क-संगत आवेग के साथ काम किया है, उसका मूल्यांकन आने वाले समय में हो सकेगा। लेकिन जिन्होनें उनके साथ किसी भी क्षेत्र में कुछ समय तक काम किया है, या उनके लेखन और सामाजिक सक्रियता के साक्षी रहे हैं, वे अच्छी तरह जानते-समझते हैं कि शिवराम बेहद सहज और सामान्य दिखते हुए भी एक असाधारण इन्सान और युग-प्रवर्तक सृजनधर्मी थे।  शिवराम का हमारे बीच से अकस्मात चला जाना मात्र एक प्राकृतिक दुर्घटना नहीं है।  यह उस आवेगमयी उर्जा-केन्द्र का यकायक थम जाना है जो दिन- रात अविराम इस समाज की जड़ता को तोड़ने, नव-जागरण के स्वप्न बॉंटने और एक प्रगतिशील-जनपक्षधर व्यवस्था निर्मित करने के अथक प्रयासों में लगा रहता था ।  
९६९ -७० में अजमेर से यांत्रिक इंजीनियरिंग से प्रथम श्रेणी में डिप्लोमा करते समय वे विवेकानन्द के विचारों से प्रभावित हुए और अपना पहला नाटक विवेकानन्द के जीवन पर लिखा। उसके बाद दूर-संचार विभाग ने उन्हॉंने छ: माह की ट्रेनिंग के लिए चेन्नई भेजा। वहॉं उन्हें हिंदी के सुप्रसिद्ध  कथाकार स्वयंप्रकाश मिले, जिनके साथ न केवल उनकी व्यक्तिगत मित्रता, अपितु गहरी वैचारिक दोस्ती भी पल्लवित हुई।  स्वयंप्रकाश से उन्हें मार्क्सवाद के वैज्ञानिक-समाजवादी सिद्धान्त की प्रारम्भिक जानकारी मिली जो उत्तरोत्तर उनके जीवन, चिंतन और कर्म की धुरी बनती चली गई ।
शिवराम की दूर संचार विभाग में पहली नियुक्ति कोटा के उप-नगर रामगंजमंडी में हुई जो कोटा स्टोन की खानों के कारण श्रमिक-बहुल इलाका है । श्रमिकों के क्रूर शोषण और दुर्दशा देख कर उनके मन में गहरा संताप हुआ।  तभी उन्होंने अपना पहला नाटक  "आगे बढ़ो" लिखॉ।  इस नाटक में एक-दो मध्यवर्गीय मित्रों के अलावा अधिकांश पात्र ही नहीं अभिनेता भी श्रमिक समुदाय के थे।  नाटक के रिहर्सल के दौरान् ही अभिनेता साथियों के साथ उनके गहरे सरोकार जुड़ गये।  नाटक का मंचन भी सैंकड़ों की संख्या में उपस्थित श्रमिकों के बीच हुआ।  सर्वाधिक उल्लेखनीय बात यह है कि नाट्य-प्रदर्शन के साथ ही कथाकार स्वयंप्रकाश एवं रमेश उपाध्याय ने उस आयोजन में कहानी पाठ किया, जिन्हें पूरे मनोयोग से सुना तथा सराहा गया ।
नाटकों का यह सिलसिला चलता गया और आगे बढ़ता गया।  शहीद भगतसिंह  के जीवन पर नाटक खेला गया और शनै: शनै: इस अभियान ने एक नाट्य- आंदोलन ही नहीं जन-आंदोलन की शक्ल अख्तियार कर ली।  नाटक के पात्रों की असल जिन्दगी की कशमकश ने इस बात की मांग की कि विचार और संवेदनाओं को यथार्थ की जमीन पर लाया जाए।  परिणामत: एक केन्द्रीय संस्थान के इंजीनियर होते हुए भी श्रमिकों के संगठन-निर्माण का दायित्व अपने कंधों पर लिया और पूरी निष्ठा और जिम्मेदारी के साथ उसे निभाया।  उन्होनें कोटा में तत्कालीन श्रमिक-संगठन ’सीटू’ के अग्रणी व जुझारू नेता परमेन्द्र नाथ ढन्ड़ा से सम्पर्क किया और श्रमिकों की यूनियन को रजिस्टर्ड कराया।  एक छोटे से लोहे के यंत्रों के उत्पादक कारखाने से प्रारंभ हुए संगठन की लहर पूरे पत्थर खान श्रमिकों के बीच फैल गई। संघर्ष छिड़ गये और पत्थर खान मालिकों के सरगना आंदोलनों के केन्द्र-बिन्दु बने शिवराम को हर-सूरत में नष्ट करने तथा रामगंजमंडी से उनकी नौकरी के स्थानांतरण कराने की मुहिम में जुट गये ।
अंतत: शिवराम का स्थानांतरण कोटा के ही दूसरे उप-नगर बाराँ में कर दिया गया। यहॉं उन्हें बड़ा क्षितिज मिला। वे प्राण-प्रण से श्रमिकों, किसानों-छात्रों-युवकों-साहित्यकारों व संस्कृतिकर्मियों को एकजुट करने की व्यापक मुहिम में जुट गये। हिन्दू कट्टरपंथियों के सबसे मजबूत गढ़ के रूप में स्थापित बाराँ सम्भाग की फिजाँ देखते-देखते ही बदलने लगी। केसरिया की जगह लाल-परचम फहराने लगे।  गॉंवों में कट्टरपंथियों के साथ हथियारबंद टकराहटें हुईं और आन्दोलनकारी युवकों ने बारॉं के रेल्वे स्टेशन को जला कर खाक कर दिया।  लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाले नगर के अनेकों बुद्धिजीवी इन आन्दोलनों के साथ जुड़ गये। शिवराम के बारॉं प्रवास के दौरान जो उपलब्धियॉं हुईं वे मामूली नहीं हैं।  बल्कि वे ऐसी बुनियाद हैं, जहॉं से शिवराम के भावी जीवन की उस भूमिका  का ताना-बाना बुना गया, जिसने उन्हें आम बुद्धिजीवी-साहित्यकारों एवं साम्यवादी नेताओं से भिन्न एक प्रखर वक्ता, विचारक एवं सक्रिय राजनैतिक-संस्कृति कर्मी के रूप में स्थापित किया।
 बाराँ में रहकर शिवराम ने साहित्यिक पत्रिका "अभिव्यक्ति" का प्रकाशन प्रारंभ किया, जो आज अपनी समझौताहीन सामाजिक-सांस्कृतिक छवि के कारण केवल वामपंथी बुद्धिजीवियों के बीच ही नहीं हिंदी के आम पाठकों और लोकतंत्र में आस्था रखने वाले ईमानदार समुदाय के बीच भी अपनी प्रखर लोक-सम्बद्धता के कारण विशिष्ट पहचान बनाये हुए है ।  उस दौरान ही उनका प्रसिद्ध नाटक "जनता पागल हो गई है" लिखा गया , जो हिंदी के सर्व-प्रथम नुक्कड़ नाटक के रूप में जाना जाता है।  शिवराम न केवल उसके लेखक बल्कि कुशल निर्देशक व अभिनेता के रूप में भी जाने गये।  लखनउ में "जनता पागल हो गई है" पर पुलिस द्वारा प्रतिबन्ध लगाये जाने पर, देश की लगभग सभी भाषाओं में रंगकर्मियों द्वारा यह नाटक खेला गया।  यह नाटक न केवल हिंदी के प्रथम नुक्कड नाटक के रूप में बल्कि सर्वाधिक खेले जाने वाले नुक्कड़ नाटकों में से भी है। बाराँ प्रवास के दौरान् ही शिवराम ने "आपात्काल" के विरूद्ध सांस्कृतिक मुहिम चलाई, जिसमें हिंदी क्षेत्र के अनेक महत्वपूर्ण साहित्यकार एकत्रित हुए और "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" के लिए व्यापक अभियान चलाया गया।  इसी दौरान ’जनवादी लेखक संघ’ के गठन की पूर्व पीठिका बनी तथा इलाहाबाद में जलेस के संविधान निर्माण में उन्होनें उल्लेखनीय भूमिका का निर्वाह किया । 
शिवराम उन लेखकों में से नहीं थे जो मानते हैं कि साहित्यकारों को राजनीति से दूर रहना चाहिए और केवल कविता लिख देने या नाटक खेलने से ही उनके कर्तव्य की पूर्ति हो जाती है । "कविता बच जायेगी तो धरती बच जायेगी, मनुष्यता बची रहेगी" जैसे जुमलों से उनका स्पष्ट और गहरा मतभेद था।  उनका मानना था कि जिस समाज में हम रह रहे हैं, वह एक वर्गीय समाज है, जिसमें प्रभु-वर्ग न केवल पूंजी की ताकत पर बल्कि सभी तरह के पिछड़े और प्रतिक्रियावादी विचारों और अप-संस्कृति के जरिये मेहनतकश जनता का निरंतर आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक शोषण-दमन कर रहा है । व्यापक जन समुदाय की वास्तविक आजादी और खुशहाली के लिए वर्तमान पूंजीवादी-सामन्ती-सम्प्रदायवादी शासक गठजोड़ की प्रभुता को नष्ट करके, देश में जनता की जनवादी क्रान्ति संपूरित करना व "जनता की लोकशाही" स्थापित करना अनिवार्य है।  वे शहीद भगतसिंह और उनके साथियों के शोषणविहीन समाज की स्थापना के प्रबल समर्थक थे ।
पने इन्हीं क्रान्तिकारी विचारों को अमल में लाने के लिए उन्होनें कोटा में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के जुझारू आन्दोलन में शामिल होकर पार्टी व जन-मोर्चों पर काम किया। लेकिन दुर्भाग्यवश आपात्काल की समाप्ति के पश्चात् सी.पी.आई.(एम.) के नेतृत्व पर संशोधनवादी गुट हावी हो गया तथा "जनता की जनवादी लोकशाही" स्थापित करने के मुख्य लक्ष्य को ठंडे बस्ते में डाल कर पार्टी में संसदवादी रूझान इतना बढ़ा कि जन आंदोलनों और संघर्ष के स्थान पर पार्टी पूंजीवादी संसदीय दलों की बगलगीर हो कर, खुले आम वर्ग-सहयोग के रास्ते पर बढ़ गई।  सी.पी.आई.(एम.) से पूरे देश में या तो वर्ग-संघर्ष और जनवादी क्रान्ति में विश्वास करने वाले साथियों को बाहर कर दिया गया, या फिर वे इन नीतियों का विरोध करते हुए पार्टी से बाहर आ गये।  इन सभी साथियों ने अपने-अपने प्रदेशों में अलग-अलग ढंग व नामों से कम्युनिस्ट पार्टियों का गठन किया तथा अपने विकास क्रम में एक देशव्यापी पार्टी एम.सी.पी.आई. (यूनाइटेड़) का गठन किया।  शिवराम की राजस्थान के अग्रणी साथियों के साथ पार्टी के गठन व निर्माण में केन्द्रीय भूमिका थी तथा इस दिशा में वे प्राण-प्रण से जुटे हुए थे ।    
शिवराम का यह भी पक्का विश्वास था कि यद्यपि देश में जनता की लोकशाही स्थापित करने के लिए राजनीतिक क्रान्ति अनिवार्य है, लेकिन न तो अकेले राजनीतिक उपकरणों से सत्ता-परिवर्तन आसान है और न ही उसे टिकाउ रखा जा सकता है।  अत: वे जितना जोर क्रान्ति के लिए जनता की जत्थेबंदी और वर्ग-संघर्ष को तेज करने पर देते थे, उतना ही सामाजिक-सांस्कृतिक-वैचारिक लड़ाई को भी व्यापक और घनीभूत करना आवश्यक मानते थे।  उनका मानना था कि जनता के बीच अपनी प्रत्यक्ष प्रभान्विति के कारण इस दिशा में नाटक सबसे प्रभावशाली विधा हॉ।  कालांतर में उन्हें लगा कि चूंकि प्रभु-वर्ग अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए सिनेमा, टी.वी.,मल्टी-मीड़िया, मोबाइल, धार्मिक सभाओँ, अवतारवाद, तंत्र-मंत्रवाद, भाग्यवाद, फूहड़तावाद, सेक्स-व्यभिचारवाद, विचारहीनता, कुलीनवाद, पद-पुरस्कार सम्मोहन आदि सभी संभव रीतियों और विधाओं को काम में ले रहा है, उनका यह विश्वास दृढ़ हुआ कि प्रगतिशील-जनवादी रचनाकर्मियों को भी हर संभव मीडिया और विधाओं के जरिये स्तरीय व लोकप्रिय साहित्य-कला सृजन के द्वारा देश भर में एक व्यापक सांस्कृतिक -सामाजिक अभियान चलाना चाहिए ।
सी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होनें बिहार व अन्य प्रदेशों के साथियों के साथ मिल कर "विकल्प" अखिल भारतीय जनवादी सांस्कृतिक सामाजिक मोर्चा" का गठन किया। वे मोर्चा के गठन से ही अ.भा. महामंत्री थे और अपनी अंतिम सांस तक अपनी जिम्मेदारी को निभाने के लिए काम कर रहे थे।  "विकल्प’ - अन्य लेखक संगठनों से इस मायने में एक भिन्न संरचना है, क्योंकि अन्य संगठन लेखकों की साहित्यिक भूमिका को ही प्राथमिक मानते हैं, जब कि "विकल्प" रचनाकारों की सामाजिक भूमिका को भी अनिवार्य मानता है ।  यह रेखांकित किये जाने योग्य बात है कि "विकल्प" की बिहार इकाई में मध्य-वर्गीय लेखकों के मुकाबले खेत मजदूरों, किसानों, शिक्षकों आदि की संख्या अधिक है। जो गॉंवों व कस्बों में गीतों, नाटकों, कविताओं , पोस्टरों आदि के द्वारा सामाजिक सांस्कृतिक जागरण की मुहिम चला रहे हैं।  उनका मानना था कि न तो कोई अकेला साहित्यकार और न ही कोई अकेला संगठन देश की सांस्कृतिक जड़ता को तोड़ सकता है।  अत: वे लेखन व संस्कृति के क्षेत्र में सामूहिक प्रयत्नों के लिए दिन रात प्रयासरत् थे। उन्होनें न केवल राजस्थान में अपितु जहॉं-जहां संभव हुआ, संस्कृतिकर्मियों के सामूहिक अभियान के प्रयास किये और उसमें उन्हें एक हद तक सफलता भी मिली ।
पने विचारों और व्यवहार में शिवराम कहीं भी व्यक्तिवादी या अराजकतावादी नहीं थे।  उनका मानना था कि मुक्ति के रास्ते न तो अकेले में मिलते हैं और न ही परम्परा के तिरस्कार द्वारा। वे कहते थे कि हमें इतिहास और परम्परा का गहरा अध्ययन करना चाहिए तथा अपने नायकों को खोजना चाहिए।  परम्परा के श्रेष्ठ तत्वों का जन आंदोलनों और जनहित में भरपूर उपयोग करना चाहिए।  लोक संस्कृति औेर लोक ज्ञान का उन्होंने अपनी रचनाओं मे सर्वाधिक कुशलता के साथ उपयोग किया है । 
"विकल्प" द्वारा राहुल, भारतेन्दु, फैज़, प्रेमचंद, सफदर हाशमी, आदि की जयन्तियों की एक गतिशील परम्परा और नव-जगरण की मुहिम के रूप में चलाना, शिवराम का परम्परा को भविष्य के द्वार खोलने के आवश्यक अवयव के रूप में उल्लेख किया जाना चाहिए। नि:संदेह वे अपनी कलम, उर्जा और अपनी संपूर्ण चेतना का उपयोग ठीक उसी तरह कर रहे थे, जिस तरह समाज में आमूलचूल परिवर्तन करने के लिए प्रतिबद्ध उनके पूर्ववर्ती क्रान्तिकारियों व क्रान्ति-दृष्टाओं ने किया ।
शिवराम  आज भले ही भौतिक रूप में हमसे बिछुड़ गये हों, लेकिन उनके द्वारा साहित्य, समाज व संस्कृति के क्षेत्र में किये गये काम हमारी स्मृतियों में एक भौतिक शक्ति के रूप में रहेंगे और हमारा व आने वाली पीढ़ियों का मार्ग दर्शन करेंगे।  वे हमारे सपनों, संकल्पों और संघर्षों में एक जलती  हुई तेजोदीप्त मशाल की तरह जीवित रहेंगे, हमेशा-हमेशा। हरिहर ओझा की काव्य-पंक्तियों के द्वारा मैं अपने संघर्षशील व क्रान्तिकारी विचारक साथी को सलाम करना चाहता हूँ :
" महाक्रांति की ताल/ समय की सरगम/ नूपुर परिवर्तन के /
और प्रगति की संगत पर /  जो जीवन / नृत्य करेगा / 
वह /नहीं मरेगा / नहीं मरेगा / नहीं मरेगा !"
                                            
         80- प्रतापनगर, दादाबाडी, कोटा    

मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

"ऊर्जा और विस्फोट" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का अठारहवाँ और अंतिम सर्ग भाग-2

यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  सत्रह सर्ग आप अनवरत के पिछले अंकों में पढ़ चुके हैं।  प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। उस युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिल्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम  तीन सर्ग  वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। अठारहवाँ सर्ग "ऊर्जा और विस्फोट" इस काव्य का अंतिम पड़ाव है। इस का दूसरा भाग यहाँ प्रस्तुत है................ 
ऊर्जा और विस्फोट
* यादवचंद्र *

सत्रहवाँ सर्ग

भाग द्वितीय

लाल सूरज
का मनोहर
देश ---
हँसते 
झूमते हैं  खेत,
श्रम है मुक्त
हल की 
नोक करती  
रूढ़ियों का  
मूल छेदन  
उड़ रहे   
वो -- लाल परचम  
लाल अभिवादन हनोई 
लाल अभिवादन ! 

मौत के टुकड़ो  
शपथ मेकांग की -- 
तुम, अमरिकी  
समराजियों के 
कैदखानों, 
तार वेष्टित 
नगर गाँवों, 
मौत के 
सौदागरों के  
घृणित अड्डों 
पर--करो हमले  
कि नापाम के   
नापाक कीड़े  
झुलस जाएँ  
और हो दानांग 
या खेसान 
या सैगोन  
--की हर इन्च धरती   
जेलरों की 
कब्र बन जाए  
सधे 
मोर्टार के गोले  
उड़ा दें  
टंकियाँ पेट्रोल की,
औ गगनचुम्बी 
आग की लपटें 
जला दें 
जेलरों के  
जंगली कानून,  
लिख दें 
मुक्ति के  
इतिहास में   
ऐसा नया मजमून  
अपने खून से   
रक्ताभ पट पर   
पूर्व के--  
जैसा न अब तक 
लिख सका कोई  
हजारों वर्षों में
हर गाँव   
बन कर व्यूह  
घेरे दुश्मनों को,   
पोर्ट के   
मजदूर मारें  
रात को छापे   
चलाएँ 
गोलियाँ   
फौजी केम्प के,   
सैगोन की   
सड़कें-गली  
हो लाल दमके,   
शहर के जो बीच से 
उट्ठी हुई है आग   
--धधके  
--और चमके   ---और धधके 
--और ..........

डूबते  
समराज की  
ये भागती  
औ दौड़ती  
बैचेन शक्लें !  
बच निकलने   
के लिए 
ये लड़खड़ाती  
क्षीण टांगें !  
आग से 
चम-चम चमकते 
जेल की  
दीवार पर  
बनती-बिगड़ती  
खड़ी-आड़ी  
झुकी-तिरछी  
दर्जनों   

बेडौल सूरत !  पेट के बल  
रेंगती   
अधमरी लाशें !  
डालरों पर 
पल रहे 
अखबार की 
औ राज्य की  
संदिग्ध खबरें !  
रेडियो पर 
चल रही है
उर्ध्व, उखड़ी साँस   
पेन्टागौन की 
समराजियों के 
अहम् की   
छल-छद्म की 
धोखाधड़ी की 
लो,
धड़ाकों पर धड़ाके !
सुनो, छापामार चिल्लाया
कि कारा तोड़ कर सूरज 
निकल आया !  निकल आया ! 
फरहरा
मुक्ति का फहरा 
गगन ने 
फूल बरसाये  
सुबह की 
लाल किरणों के 
हवा बारूद में लिपटी 
निखरने लग गई

औ गंध माटी की 
बिखरने लग गई 
औ मुक्ति के पंछी 
चहकने लग गए  
औ सौख्य के बच्चे  
बिदक कर जग गए 
संसार के 
नर पुंगवों 
जय हो !


मगर यह 
चार अरबों की धरा 
किस भाँति निर्भय हो ?

...... अठारहवें सर्ग 'ऊर्जा और विस्फोट' के अठारहवें सर्ग का द्वितीय भाग समाप्त...