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गुरुवार, 9 सितंबर 2010

"मृगतृष्णा" (बुर्जुआ जनतंत्र) यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का सोलहवाँ सर्ग



यादवचंद्र पाण्डेय
यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  पंद्रह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं।  इस काव्य के अंतिम  तीन सर्ग  वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। आज इस काव्य के सोलहवें सर्ग "मृगतृष्णा (बुर्जुआ जनतंत्र)" का प्रथम भाग प्रस्तुत है ................
* यादवचंद्र *

सोलहवाँ सर्ग
मृगतृष्णा (बुर्जुआ जनतंत्र)
भाग प्रथम 


दो कफन चिराग को कि,
राग मुस्कुरा उठे, थिरक उठे
दल कमल विहँस उठे कि,
ज्योति बंद मुक्त हो दमक उठे
प्राण की घुटन मिटे कि,
हर कली चटक उठे, चहक उठे
तब मजा बहार में कि,
बद्ध वज्र साधना बहक उठे
खिन्न मन लुटा विटप कि,
पत्र-पुष्प युक्त हो गमक उठे
हर फटे, बुझे नयन कि, 
मधुर स्वप्न में पगे, चमक उठे

विनत सत्व गर, निढ़ाल हो गया
आग धधक उठती है
विदित है कि रावण है महाजयी
लंका पर, जलती है 
शांति सदा अनय गोद में पली
हाथ सिसक मलती है
मुट्ठी भर शासक की कैद में
क्रुद्ध क्रांति पलती है
क्षुद्र अल्प संख्यक की चाकरी
बहुमत को खलती है
इसी द्विधा काल में प्रलय प्रिया
छम् -छम् कर चलती है

लिंकन
दर्द खोलता आँखों में ले
घूर रहा इंसान, बचो तुम
खड़ा स्वत्व पर कुपित ध्वंस-सा
धरती का भगवान, बचो तुम
पर्वत तोड़, अतल को भरने
आया है तूफान, बचो तुम
तूर्यनाद करता समता का 
काल बड़ा बलवान, बचो तुम
जनबल का अभियान, बचो तुम
 जागा है अभिमान, बचो तुम
रक्त स्नात वो - तिमिर कुण्ड से
निकला विहान, बचो तुम

युग की हुई गुहार - सुनो रे
भूत जन्य चीत्कार - सुनो रे
लिंकन की ललकार - सुनो रे
रहा तिलक हूँकार - सुनो रे
रूसो की टंकार - सुनो रे
लू-सुन की फूत्कार - सुनो रे

तिलक
मचता हाहाकार - उठो रे
हुँ हुँ आता संहार - उठो रे
गरजे पारावार - उठो रे
बरसे क्रुद्ध पहाड़ - उठो रे
पेरू की जलधारा गरजी
धड़क उठा संसार - उठो रे

पूरब में छाई है लाली 
बोलती जातियाँ - जय काली !
मस्जिद कहती - या अली, अली !
 मंदिर कहते - जय बजरंग बली !
पागोड़ा में - जय हिराकिरी ! 
गुरुद्वारों में कि, फतह गुरू की !
 

जंजीरें तड़ तड़ टूट रहीं
(उपधर्म) दासता छूट रही

लू-शुन
अफ्रिकी नग काल डोले
एशिया फोड़ता बम गोले
आजादी या फिर बर्बादी
जिस संग चाहे जग हो ले
जीवन की सुखद अवस्था दो
 जीवन में एक व्यवस्था दो
मुर्दों को नूतन प्राण मिले
दलितों को दुख से त्राण मिले
रिसते व्रण को उपचार मिले
टूटे मन को सुख प्यार मिले
रूठे भावों को छंद मिले
जीवन में मकरंद मिले
सूखे कण्ठों को गीत मिले
रूठा मेरा फिर मीत मिले
जो बाजी अब तक रहे हार
इस बार उसे तो जीत मिले !

रस्सी जली न ऐंठन छूटी अपने मुँह बनते काजी हैं
जनता का रूप भयंकर है राजे-रजवाड़े पाजी हैं
बुर्जुआ

रक्षक ही भक्षक बन बैठे
फिर जनता क्यों विश्वास करे
पूँजीपति गुमसुम सोच रहे हैं
अच्छा है दोनों लड़ें - मरें

इन नीच कमीने सामन्तों, की आँखों के हम भी काँटे 
क्या बुरा कि जन बल जाय उबल, जड़ दे शासक को दो चाँटे
क्रमशः ......
 
  

7 टिप्‍पणियां:

  1. रक्षक ही भक्षक बन बैठे
    फिर जनता क्यों विश्वास करे
    पूँजीपति गुमसुम सोच रहे हैं
    अच्छा है दोनों लड़ें - मरें
    परंपरा और विद्रोह का सटी3क चित्रण। यादव चन्द्र जी के प्रबन्ध काव्य को पडना बहुत अच्छा लगा धन्यवाद।

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  2. क्या यह पूरा प्रबंध काव्य प्रकाशित रूप में है? अगर हां तो इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है?

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  3. @ अशोक कुमार पाण्डेय
    पाण्डेय जी,
    यह काव्य प्रकाशित हुआ था। लेकिन अब इस की प्रतियाँ उपलब्ध नहीं हैं। मेरे पास भी एक फोटो प्रति ही उपलब्ध है। अनवरत पर इसे क्रमिक रूप से प्रकाशित कर इसे पुनर्जीवित करने का एक व्यक्तिगत प्रयास किया गया है। अब दो सर्ग और शेष रह गए हैं। उन के पूरा हो जाने पर यह काव्य पूरा हो जाएगा। तब इसे एक ई-बुक का रूप दिया जा सकेगा।
    वैसे इस के पुनर्प्रकाशन की व्यवस्था हो सके तो बहुत उत्तम हो। यह प्रबंध काव्य हिन्दी साहित्य का एक अनुपम ग्रंथ है।

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