आज हमारे देश के महान कृषि मंत्री जनाब-ए-आला शरद पंवार साहब ने कह ही दिया कि गरीबों को अनाज मुफ्त में दिया जाना संभव नहीं है, और कि सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश नहीं दिया था अपितु सुझाव दिया था। आप की इस बात का क्या अर्थ निकाला जाए? यही न कि हम अनाज सड़ा सकते हैं लेकिन बाँट नहीं सकते। सड़ाने में हमारा कुछ खर्च नहीं होता (सिवाय मलबे को साफ करने के) (और अनाज के सड़ने से फैलने वाली बीमारियों से निपटने के, लेकिन उस से क्या? वह तो स्वास्थ्य और चिकित्सा विभाग का काम है, उस से उन्हें क्या लेना देना)
चलिए हम मान लेते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव ही दिया था कोई निर्देश नहीं। लेकिन उस सुझाव में भी बात तो यही छिपी हुई थी ना कि जो अनाज आप ने जनता के पैसे से खरीदा है वह काम आए और सड़े नहीं। लेकिन लगता है कि शरद पंवार को बात आसानी से समझ नहीं आती। आए भी कैसे अभी जनता ने उन्हें शानदार सबक जो नहीं सिखाया। कोई बात नहीं, जनता किसी को भूलती नहीं और अवसर आने पर प्रसाद अवश्य ही बाँटती है। जल्द ही इस का सबूत भी देखने को मिल जाएगा। इस परिस्थिति में हमें इस पर अवश्य विचार करना चाहिए कि अनाज क्यों सड़ रहा है? निश्चित रूप से अनाज की फसल इतनी तो नहीं ही हुई है कि वह सड़ने लगे। फिर हुआ क्या है? देश की आबादी बढ़ी है और गोदाम भी बढ़े हैं फिर अनाज के भंडारण के लिए गोदाम कम क्यों पड रहे हैं?
अनाज गोदामों में ही नहीं भरा जाता। हर घर में इतनी जगह तो होती ही है कि परिवार के वर्ष भर का अनाज वहाँ सुरक्षित रखा जा सके। पहले यही होता था कि अधिकांश लोग चाहे उन की आर्थिक हैसियत कैसी भी क्यों न रही हो वे अपनी जरूरत के वर्ष, डेढ़ वर्ष का अनाज अपने घरों पर सुरक्षित कर के रखते थे। जिस के कारण बहुत सा अनाज लोगों के घरों में जा कर जमा हो जाता था। उन के भंडारण के लिए बड़े गोदामों की आवश्यकता नहीं होती थी। लेकिन वर्ष भर का अनाज घर में एक साथ खरीद कर रख लेने की आदत लोगों में कम हुई है। अधिकांश लोग या तो बाजार से सीधे आटा खरीद रहे हैं या फिर पचास किलो का बैग खरीद कर लाते हैं और उस के समाप्त होने पर फिर से बाजार पहुँच जाते हैं।
कुछ वर्ष पहले तक सभी सरकारी विभागों में अनाज की फसल आने पर अनाज अग्रिम कर्मचारियों को मिल जाता था। यहाँ तक कि इसी तर्ज पर अनेक उद्योगों में भी मजदूर यूनियनों ने यह मांग उठाई और मजदूरों को अनाज अग्रिम मिलने लगा था। लेकिन कुछ वर्षों से अनाज अग्रिम मिलने की बात सुनाई नहीं दे रही है। यह अनाज अग्रिम मिलने से कर्मचारी वर्ष भर का अनाज एक साथ खरीद लेते थे। इस तरह से वर्ष भर का अनाज लोगों के घरों में पहुँच जाता था और अनाज के भंडारण की समस्या ही नहीं होती थी।
पिछले कुछ वर्षों से अनेक कारणों से लोगों के घरों में वर्ष भर का अनाज खरीदने की प्रवृत्ति समाप्त हुई है और अनाज के भंडारण के लिए गोदामों की समस्या खड़ी हुई है। इस समस्या से निपटने के लिए अब देश भर में नए गोदाम बनाए जाएंगे। उस के लिए पूंजी खर्च की जाएगी। उस के लिए खेती करने वाली जमीनों को अधिग्रहीत किया जाएगा। गोदामों के निर्माण कार्यों में मंत्रियों से ले कर अफसरों और ठेकेदारों के वारे-न्यारे होंगे। राजनैतिक दलों के लिए चंदा इकट्ठा करने का एक और जरिया बनेगा। गोदामों की इस समस्या को हल करने का मुझे तो अब भी सब से बड़ा समाधान यही लगता है कि लोगों को साल भर का अनाज अपने घरों में खरीद कर रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। सरकारी कर्मचारियों को अनाज अग्रिम दिया जाए और उन्हें वर्ष भर का अनाज खरीदने का सबूत पेश करने को कहा जाए। निजि क्षेत्र के नियोजकों को भी कानून बना कर इस के लिए बाध्य किया जा सकता है कि वे अपने कर्मचारियों को अनाज अग्रिम दें। अनाज अग्रिम के लिए दिया गया धन कर्मचारियों के वेतन से प्रतिमाह कटौती के जरिए वापस नियोजकों को मिल जाएगा।
इस आदमी को तो ..........
जवाब देंहटाएंनहीं यह आदमी कहलाने लायक भी नहीं है
मैंने यह बात पहले जल प्रबंधन के संबंध में की थी कि जल की कमी नहीं, उसके भंडारण की कमी है। न तो घर-दुकान में घड़े-सुराही हैं, ना मुहल्लों-कालोनियों में हौद-कुयें, न शहरों-कस्बों में तालाब-चावड़ी। सभी चाह्ते हैं बटन दबाते ही पानी हाजिर हो जाये
जवाब देंहटाएंलगता है वही बात अनाज पर भी लागू हो रही
मुद्दा विचारणीय है
सहमत हूँ..
जवाब देंहटाएंदिनेशजी,
जवाब देंहटाएंअब हमारे ही हर में स्थिति बदल गयी है। लगभग सन १९९८-१९९९ तक हमारे घर में पूरे साल भर की खपत के बराबर गेहूँ, चावल, सरसों का तेल, मुख्य बिना पिसे मसाले एक साथ साल के उचित समय पर खरीदकर रख लिये जाते थे। २ बार तो पिताजी के साथ मैं भी गेंहूँ खरीदने गया था।
उसके बाद धीरे धीरे मैं घर से दूर रहने लगा, बडी बहन की शादी हो गयी और छोटी बहन अपनी नौकरी के चलते दूसरे शहर में चली गयी। रह गये माता और पिताजी, और उन्होने अब पैकेट बन्द आटा, मसाले इत्यादि लेना शुरू कर दिया।
जब मैं करीब १२-१३ साल का था तब बडा अच्छा लगा था कि कम से कम पिताजी की एक जिम्मेवारी कम कर दी। पिताजी माने नहीं, और मुझे साईकिल के कैरियर पर गेंहूँ से भरा कनस्तर (कैनिस्टर) लेकर इस शर्त पर जाने दिया कि पहली बार वो साथ में जायेंगे और देखेंगे कि मैं ठीक ठाक से गेहूँ पीसने वाले की दुकान तक जा पाता हूँ कि नहीं।
फ़िर, उसके कई साल बाद जब हम १२वीं में आये और थोडे ढीठ हो गये तो माताजी आटा समाप्त होने के ४ दिन पहले से कहना शुरू करती थीं और हम लगभग आखिरी दिन ही उनकी बात सुनते थे :)
सहमत हूँ..
जवाब देंहटाएंनीरज भाई ने जो कुछ कहा लगभग वही कथा मेरे घर की भी है । अब कम से कम शहरी परिवारों मे तो साल भर के संग्रह की प्रवृत्ति बहुत कम हो गई है । कुछ जगह यह स्थानाभाव की वज़ह से भी है । लेकिन यह एक सही सवाल आपने खड़ा किया है अनाज हो या जल इसके भन्दारण के उचित व्यवस्था नही होगी तो इसके परिणाम बहुत अच्छे नही हओंगे ।
जवाब देंहटाएंसही प्रस्ताव -हम छोटी छोटी बैटन से बड़े बड़े परिवर्तन ला सकते हैं मगर बड़ी बड़ी परियोजनाओं की फिर दलाली का क्या होगा ?
जवाब देंहटाएंअन्न भंडारण के लिये आपका सुझाव अच्छा है और जो नागरिक एक साथ क्रय की क्षमता ना रखते हों उन्हें सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से उधार / किश्तों में मूल्य चुकानें का विकल्प भी दिया जा सकता है !
जवाब देंहटाएंआपकी सोच सामयिक है और हमें पुनः अपने पुराने तरीकों पर उतर जाना चाहिये। इस व्यवस्था के सहारे बैठ गये तो, कल्याण नहीं होने वाला।
जवाब देंहटाएंEk Acchi Post ke liye Thanks, Lekin unka kya jo bechare roj kamate hain aur roj khate hain.
जवाब देंहटाएंLekin Bat ye hai ki Anaj Sada hi kyon : Beear banane wali aur Sharab banane wali companiyon ne Sharad Pawar Ko moti rakam di hai , anaj sadane ke liye
बहुत सही आपने.
जवाब देंहटाएंरामराम
बहुत ही तार्किक, तथ्याज्त्मक, सामयिक और व्यावहारिक आलेख है। कोई 'फटी बिवाईवाला' ही यह सब लिख सकता था। आपने पूरे देश की भावनाऍं व्यक्त कर दी। दुर्भाग्य यही है कि जिन्हे यह सब पढना चाहिए उन तक तो यह पहुँचेगा ही नहीं। बहरहाल, आपको बधाइयॉं भी और धन्यवाद भी।
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