- दिनेशराय द्विवेदी
जेठ तपी
धरती पर
बरखा की ये
पहली बूंदें
गिरें धरा पर
छन् छन् बोलें
और हवा में
घुलती जाएँ
टुकड़े टुकड़े
मेघा आएँ,
प्यास धरा की
बुझा न पाएँ
मेघा छितराए
डोलें नभ में
कैसे बिगड़ी
बात बनाएँ
मानें जो सरदार
की सब तो
बन सकती है
बात अभी भी
की सब तो
बन सकती है
बात अभी भी
खूब झमाझम
जा कर बरसो
वसुंधरा का
तन-मन सरसो
जा कर बरसो
वसुंधरा का
तन-मन सरसो
बहुत तपी है
जवाब देंहटाएंप्रिया तुम्हारी
और तनिक भी
मत तरसाओ
बहुत सुंदर कविता, कवि ने कविता मै ही शीतला डाल दी, धन्यवाद
बाऊ जी,
जवाब देंहटाएंनमस्ते!
अच्छा फ़ॉर्मूला बताया है आपने! एकता में शक्ति.....
खूब झमाझम
जवाब देंहटाएंजा कर बरसो
वसुंधरा का
तन-मन सरसो
वे माने तब न ? पूरे विद्रोह पर हैं वो ..अब इंद्र वज्र प्रहार करेगें ?
सरसों के बजाय हरषो कर दें तो ?
अच्छी कविता !
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी लगी यह कविता और मेघों को दिया गोल बनाने का फॉर्मूला भी।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
बहुत ही सुन्दर कविता।
जवाब देंहटाएंबरसात के मौसम में बढ़िया वर्षा गीत लिखा है आपने , शुभकामनायें सरदार
जवाब देंहटाएंअति सुंदर गीत.
जवाब देंहटाएंरामराम
रिमझिम बरसती कविता पढ़कर मेघों अब तो बरस जाओ।
जवाब देंहटाएंइस बार आपके लिए कुछ विशेष है...आइये जानिये आज के चर्चा मंच पर ..
जवाब देंहटाएंआप की रचना 06 अगस्त, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपने सुझाव देकर हमें प्रोत्साहित करें.
http://charchamanch.blogspot.com
आभार
अनामिका
सच में बहुत तपी है धरा
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति....बादलों को भी प्रेरणा दे दी की कैसे धरती को हरी बनाओ...गोल बनाओ फिर से जाओ ..
जवाब देंहटाएंइस कविता के पाठ की ध्वनि बारिश की ध्वनि की तर्ह लगती है
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