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गुरुवार, 5 अगस्त 2010

गोल बनाओ फिर से जाओ

गोल बनाओ फिर से जाओ
  •  दिनेशराय द्विवेदी

जेठ तपी
धरती पर
बरखा की ये
पहली बूंदें

गिरें धरा पर
छन् छन् बोलें
और हवा में
घुलती जाएँ


टुकड़े टुकड़े
मेघा आएँ,
प्यास धरा की
बुझा न पाएँ


मेघा छितराए
डोलें नभ में
कैसे बिगड़ी
बात बनाएँ

 
मानें जो सरदार
की सब तो
बन सकती है
बात अभी भी

मिलकर पहले
मेघा सारे
गोल बनाओ
फिर से जाओ

बहुत तपी है
प्रिया तुम्हारी
और तनिक भी
मत तरसाओ


खूब झमाझम
जा कर बरसो
वसुंधरा का
तन-मन सरसो

 

13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत तपी है
    प्रिया तुम्हारी
    और तनिक भी
    मत तरसाओ
    बहुत सुंदर कविता, कवि ने कविता मै ही शीतला डाल दी, धन्यवाद

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  2. बाऊ जी,
    नमस्ते!
    अच्छा फ़ॉर्मूला बताया है आपने! एकता में शक्ति.....

    जवाब देंहटाएं
  3. खूब झमाझम
    जा कर बरसो
    वसुंधरा का
    तन-मन सरसो
    वे माने तब न ? पूरे विद्रोह पर हैं वो ..अब इंद्र वज्र प्रहार करेगें ?
    सरसों के बजाय हरषो कर दें तो ?

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत अच्छी लगी यह कविता और मेघों को दिया गोल बनाने का फॉर्मूला भी।
    घुघूती बासूती

    जवाब देंहटाएं
  5. बरसात के मौसम में बढ़िया वर्षा गीत लिखा है आपने , शुभकामनायें सरदार

    जवाब देंहटाएं
  6. रिमझिम बरसती कविता पढ़कर मेघों अब तो बरस जाओ।

    जवाब देंहटाएं
  7. इस बार आपके लिए कुछ विशेष है...आइये जानिये आज के चर्चा मंच पर ..

    आप की रचना 06 अगस्त, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपने सुझाव देकर हमें प्रोत्साहित करें.
    http://charchamanch.blogspot.com

    आभार

    अनामिका

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुत सुन्दर प्रस्तुति....बादलों को भी प्रेरणा दे दी की कैसे धरती को हरी बनाओ...गोल बनाओ फिर से जाओ ..

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  9. इस कविता के पाठ की ध्वनि बारिश की ध्वनि की तर्ह लगती है

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