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बुधवार, 26 मई 2010

तात्कालिक मुनाफे की अर्थव्यवस्था के परिणाम

नंगे पहाड़
ज तक जितनी भी उत्पादन-प्रणालियाँ रही हैं, उन सब का लक्ष्य केवल श्रम के सब से तात्कालिक एवं प्रत्यक्षतः उपयोगी परिणाम प्राप्त करना मात्र रहा है। इस के आगे के परिणामों की, जो बाद में आते हैं तथा क्रमिक पुनरावृत्ति एवं संचय द्वारा ही प्रभावोत्पादक बनते हैं, पूर्णतया उपेक्षा की गई। भूमि का सम्मिलित स्वामित्व जो आरम्भ में था, एक ओर तो मानवों के ऐसे विकास स्तर के अनुरूप था जिस में उन का क्षितिज सामान्यतः सम्मुख उपस्थित वस्तुओं तक सीमित था, दूसरी ओर उस मे उपलब्ध भूमि का कुछ फ़ाजिल होना पूर्वमान्य था जिस से कि इस आदिम किस्म की अर्थव्यवस्था के किन्ही सम्भव दुष्परिणामों का निराकरण करने की गुंजाइश पैदा होती थी। इस फ़ाजिल भूमि के चुक जाने के साथ सम्मिलित स्वामित्व का ह्रास होने लगा, पर उत्पादन के सभी उच्चतर रूपों के परिणामस्वरूप आबादी विभिन्न वर्गों में विभक्त हो जाती थी और इस विभाजन के कारण शासक और उत्पीड़ित वर्गों का विग्रह शुरू हो जाता था। अतः शासक वर्ग का हित उस हद तक उत्पादन का मुख्य प्रेरक तत्व बन गया। जिस हद तक कि उत्पादन उत्पीड़ित जनता के जीवन-निर्वाह के न्यूनतम साधनों तक ही सीमित न था। पश्चिमी यूरोप में आज प्रचलित पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली में यह चीज सब से अधिक पूर्णता के साथ क्रियान्वित की गई है। उत्पादन और विनिमय पर प्रभुत्व रखने वाले अलग अलग पूँजीपति अपने कार्यों के सब से तात्कालिक उपयोगी परिणाम की चिन्ता करने में ही समर्थ हैं। वस्तुतः यह उपयोगी परिणाम भी - जहाँ तक कि प्रश्न उत्पादित और विनिमय की गई वस्तु की उपयोगिता का ही होता है - पृष्ठभूमि में चला जाता है और विक्रय द्वारा मिलने वाला मुनाफा एकमात्र प्रेरक तत्व बन जाता है।
मंदी
पूँजीपति वर्ग का सामाजिक विज्ञान - क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्र - प्रधानतया उत्पादन और विनिमय से सम्बन्धित मानव क्रियाकलापों के केवल सीधे-सीधे इच्छित सामाजिक प्रभावों को ही लेता है। वह पूर्णतया उस सामाजिक संगठन के अनुरूप है जिस की वह सैद्धान्तिक व्याख्या है। चूँकि पूँजीपति तात्कालिक मुनाफे के लिए उत्पादन और विनिमय करते हैं इसलिए केवल निकटतम, सब से तात्कालिक परिणामों का ही सर्वप्रथम लेखा लिया जा सकता है। कोई कारखानेदार अथवा व्यापारी जब तक सामान्य इच्छित मुनाफे पर किसी उत्पादित अथवा खरीदे माल को बेचता है वह खुश रहता है और इस की चिन्ता नहीं करता कि बाद में माल और उस के खरीददारों का क्या होता है।  इस क्रियाकलाप के प्राकृतिक प्रभावों के बारे में भी यही बात कही जा सकती है। जब क्यूबा में स्पेनी बागान मालिकों ने पर्वतों की ढलानों पर खड़े जंगलों को जला डाला और उन की राख से अत्यन्त लाभप्रद कहवा-वृक्षों की केवल एक पीढ़ी के लिए पर्याप्त खाद हासिल की, तब उन्हें इस बात की परवाह न हुई कि बाद में उष्णप्रदेशीय भारी वर्षा मिट्टी की अरक्षित परत को बहा ले जाएगी और नंगी चट्टाने ही छोड़ देगी !   जैसे समाज के सम्बन्ध में वैसे ही प्रकृति के सम्बन्ध में भी वर्तमान उत्पादन-प्रणाली मुख्यतया केवल प्रथम, ठोस परिणाम भर से मतलब रखती है।  और तब विस्मय प्रकट किया जाता है कि इस, उद्देश्य की पूर्ति के लिए किये गये क्रियाकलाप के दूरवर्ती प्रभाव दूसरे ही प्रकार के, बल्कि मुख्यतया बिलकुल उलटे ही प्रकार के होते हैं;  कि पूर्ति और मांग का तालमेल बिलकुल विपरीत वस्तु में परिणत हो जाता है (जैसा कि प्रत्येक दस वर्षीय औद्योगिक चक्र से, जिस का जर्मनी तक "गिरावट" के मौके पर आरम्भिक स्वाद चख़ चुका है, सिद्ध हो चुका है) ; कि अपने श्रम पर आधारित निजि-स्वामित्व अनिवार्यतः मजदूरों की संपत्तिहीनता में विकसित हो जाता है जब कि समस्त धन गैरमजदूरों के हाथों में अधिकाधिक केन्द्रित होता जाता है; कि [.....]* 

* लेख की पाण्डुलिपि यहीँ समाप्त हो जाती है।

 फ्रेडरिक एंगेल्स की पुस्तक 'वानर से नर बनने में श्रम की भूमिका' का समापन अंश।

"वानर के नर बनने की प्रक्रिया में श्रम की भूमिका" शीर्षक से यह आलेख फ्रेडरिक एंगेल्स द्वारा 1876 में लिखा गया था और सर्वप्रथम [डाई न्यू जित, बाइंडिंग-2 नं. 44, 1895-1896] में प्रकाशित हुआ था।  इसे आप ने छह कड़ियों में पढ़ा।  एक कड़ी के रूप में यह गूगल नॉल पर उपलब्ध है। मेरा प्रयास होगा कि यह ई-बुक के रूप में उपलब्ध हो सके तथा किसी न किसी प्रकार से एक ही कड़ी के रूप में भी इस का प्रकाशन हो।  

15 टिप्‍पणियां:

  1. पढ़ते पढ़ते एकाएक ब्रेक लग गया.

    आभार आपका इसे प्रस्तुत करने का.

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  2. एक जानकारी चाहूँगा.क्या इस पुस्तिका का पहले हिंदी में अनुवाद नहीं हुआ था? यह अनुवाद तो खैर बहुत अच्छा है. और क्या आप वानर की जगह 'एप' शब्द नहीं रख सकते, क्योंकि वानर तो आखर बंदर ही है और बन्दर से नर का विकास नहीं हुआ. बन्दर की अलग शाखा पहले निकल गयी थी.

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  3. @ Baljit Basi
    यह पुस्तिका पहले से हिन्दी में अनुदित है। यहाँ जो अनुवाद प्रस्तुत किया गया है वह भी मेरा न हो कर प्रगति प्रकाशन, मस्क्वा द्वारा कराया गया अनुवाद है। यह एक महत्वपूर्ण पुस्तिका है,अंग्रेजी में अंतर्जाल पर उपलब्ध भी है। लेकिन हिन्दी में उपलब्ध न होने के कारण इसे मैं ने अपने ब्लाग पर डाला है जिस से लोगों को यह पढ़ने को उपलब्ध हो सके।

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  4. @ Baljit Basi said...
    क्या आप वानर की जगह 'एप' शब्द नहीं रख सकते, क्योंकि वानर तो आखर बंदर ही है और बन्दर से नर का विकास नहीं हुआ.


    "ape" के लिए हिंदी में "कपि" शब्द का प्रयोग सामान्य है. सोवियत संघियों को शायद पता न रहा हो.

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  5. @ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
    कपि वानर का ही पर्यायवाची है। इस आलेख के अनुवादक सोवियत संघ के नहीं थे अपितु हिन्दी के ही एक साहित्यकार थे। मेरे विचार से इस आलेख में वानर शब्द ही सर्वाधिक उपयुक्त है। तुलसीदास जी स्वयं रामचरित मानस में हनुमान को कपि और वानर दोनों एक साथ कह चुके हैं। एप का जहाँ तक प्रश्न है वह तो वानर से नर के बीच विकास की एक कड़ी मात्र है।

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  6. टिप्पणीकार कृपया वा-नर विमर्श के बजाय लेख पर विमर्श केन्द्रित करें ।
    मैं तो 3-4 बाद पढ़ने के बाद ही कुछ कह पाऊँगा।

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  7. @ गिरिजेश राव
    आप के सुझाव के लिए धन्यवाद !

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  8. पूरा का पूरा वृत्तान्त ज्ञानवर्धक व उपयोगी रहा ।

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  9. विचारोत्तेजक लेखमाला के प्रस्तुतीकरण हेतु आपका हार्दिक आभार !

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  10. बहुत अच्छी ओर सुंदर जानकारी, जरुर यह पुस्तक पढेगे जी

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  11. लेकिन यह...
    "वानर के नर बनने की प्रक्रिया में श्रम की भूमिका" यह लिंक काम नही कर रहा, यानि नही खुल रहा

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  12. चलो आपने ये बुक भी पढ़वा दी हमें :)

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  13. यह 'सर्वकालिक' भले ही न हो, आज के सन्‍दर्भ में तो अत्‍यधिक विचारोत्‍तेजक है। एक बार पढने से काम नहीं चलनेवाला। इसे तो 'प्रिण्‍ट आउट' निकाल कर तसल्‍ली से पढना पडेगा।

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