पिताजी को भोजन बनाने, खिलाने और खाने का शौक था। वे अक्सर नौकरी पर रहते और केवल रविवार या किसी त्यौहार के अवकाश के दिन घर आते। अक्सर मौसम के हिसाब से भोजन बनाते। हर त्यौहार का भोजन भिन्न होता। गोगा नवमी को कृष्ण जन्मोत्सव पर मालपुए बनते, कभी लड्डू-बाटी कभी कुछ और। हर भोजन में उन के चार-छह मित्र आमंत्रित होते। उन्हें भोजन कराते साथ ही खुद करते।
श्राद्ध पक्ष में ब्राह्मण को भोजन कराने का नियम है। लेकिन उस से अधिक महत्व इस बात का है कि उस के उपरांत आप को परिजनों और मित्रों के साथ भोजन करना चाहिए। इस से हम अपने पूर्वजों के मूल्यों व परंपराओं को दोहराते हुए उन का का स्मरण करते है। श्राद्ध के कर्मकांड को एक तरफ रख दें, जिसे वैसे भी अब लोग विस्मृत करते जा रहे है, तो मुझे यह बहुत पसंद है। मामा जी अमावस के दिन नाना जी का श्राद्ध करते थे। दिन में ब्राह्मण को भोजन करा दिया और सांयकाल परिजन और मित्र एकत्र होते थे तो उस में ब्राह्मणों की अपेक्षा बनिए और जैन अधिक हुआ करते थे। मुझे उन का इस तरह नाना जी को स्मरण करना बहुत अच्छा लगता था। नाना जी को या उन के चित्र को मैं ने कभी नहीं देखा, लेकिन मैं उन्हें इन्हीं आयोजनों की चर्चा के माध्यम से जान सका। लेकिन मेरे मस्तिष्क में उन का चित्र बहुत स्पष्ट है।
यही एक बात है जो मुझे श्राद्ध को इस तरह करने के लिए बाध्य करती है। आज पिताजी का श्राद्ध था। सुबह हमारे एक ब्राह्मण मित्र भोजन पर थे। शाम को मेरे कनिष्ट, मुंशी और मित्र भोजन पर थे। नाटककार शिवराम भी हमारे साथ थे। उन की याद तो मुझे प्रातः बहुत आ रही थी। यहाँ तक कि कल सुबह की पोस्ट का शीर्षक और उस की अंतिम पंक्ति उन्हीं के नाटक 'जनता पागल हो गई है' के एक गीत से ली गई थी। रविकुमार ने उस गीत के कुछ अंश इस पोस्ट पर उद्धृत भी किए हैं। उन्हों ने न केवल इस पोस्ट को पढ़ा लेकिन यह भी बताया कि अब नाटक में मूल गीत में एक पैरा और बढ़ा दिया गया है। मेरा मन उसे पूरा यहाँ प्रस्तुत करने का था। लेकिन फिर इस विचार को त्याग दिया क्यों कि अब बढ़ाए गए पैरा के साथ ही उसे प्रस्तुत करना उचित होगा। वह भी उस नाटक की मेरी अपनी स्मृतियों के साथ। उन्हों ने बताया कि उन के दो नाटक संग्रहों का विमोचन 20 सितंबर को होने जा रहा है। उन पुस्तकों को मैं देख नहीं पाया हूँ। शिवराम ने आज कल में उन के आमुख के चित्र भेजने को कहा है। उन के प्राप्त होने पर उस की जानकारी आप को दूंगा।
फिलहाल यहाँ विराम देने के पूर्व बता देना चाहता हूँ कि शोभा ने पूरी श्रद्धा और कौशल के साथ हमें गर्मागर्म मालपुए, खीर, कचौड़ियाँ, पूरियाँ खिलाईं। शिवराम अंत में कहने लगे आलू की सब्जी इन दिनों बढ़िया नहीं बन रही है लेकिन आज बहुत अच्छी लगी। केवल आलू की सब्जी खा कर भोजन को विश्राम दिया गया। स्वादिष्ट भोजन बना कर मित्रों को खिलाना और साथ खाने के आनंद का कोई सानी नहीं। नगरीय जीवन में यह आनंद बहुत सीमित रह गया है।
सत्य वचन सर,
जवाब देंहटाएंमहानगरों में अब इंसान बसते कहां हैं...रोबोटों का दिल थोड़े होता है जो दूसरे के दर्द को देखकर पिघले...दूसरे की खुशियों को देखकर आनंद की अनुभूति करे...उसके पास पुरखों को तो छोड़ ज़िंदा अपनों के लिए भी सोचने का वक्त नहीं है...
...और...और...सारा जहां इकट्टा कर लेने की होड़ में ये भी भूल जाता है कि कफ़न में कोई जेब नहीं होती...
आपका यह विवरण कुछ दिनों में दुर्लभ हो जायेगा । संवेदना की सिकुड़न इसकी गवाह है ।
जवाब देंहटाएंसच कहा आपने नगरीय जीवन में यह आनन्द बहुत सीमित रह गया है ।
स्वादिष्ट भोजन बना कर मित्रों को खिलाना और साथ खाने के आनंद का कोई सानी नहीं।
जवाब देंहटाएं-बिल्कुल सही कहा. अच्छा रहा आपका आज का अनुभव सुनना.
पिता जी की पुण्य स्मृति को नमन.
हमें पता था...आप एक दम से पलटी मार देंगे...अभी तो कल ..भूख लगे तो गाना गा का अभ्यास कर ही रहे थे...कि आपने भोजन की चर्चा कर दी....हमारे यहां तो इस पक्ष में ..बस यही सब चलता है..कभी मित्र हमारे घर ...तो कभी हम मित्र के घर ....कहूं कि चलता था...जहां घर था...अब तो इस दिल्ली के मुंए..मकान को घर कहने का ही मन नहीं करता...मित्र सब भी ऐसे ही मकानों में फ़ंस गये हैं...आपकी पोस्ट ने देखिये कितना कुछ याद दिला दिया.
जवाब देंहटाएंआत्मीयता और प्रेम का बहुत ही शोभित स्वरूप है मित्रों को अपने हाथ से बनाकर खिलाना । यदा कदा घर में मैं यदि चाय भी बनाता हूँ तो उससे बड़ी ही संतुष्टि मिलती है । बुजुर्गों से हमें सदैव सीखते रहना चाहिये ।
जवाब देंहटाएंकुछ लोगों को बना कर खिलाने में बहुत आनंद आता है..वैसे कुछ काम ऐसे होते है जो दिल से करे तो अद्भुत आनंद की प्राप्ति होती है..
जवाब देंहटाएंबढ़िया संस्मरण.. अच्छा लगा..
इससे ज्यादा आनंद की कोई बात हो ही नही सकती. बहुत शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंरामराम.
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जवाब देंहटाएंतो पंडित जी का श्रद्धा पर्व पूरे भोजन भात के साथ चल रहा है !पूज्य पितरों को नमन !
जवाब देंहटाएंदिनेश जी नमस्कार, आप का लेख पढ कर मुझे भी कई बातो का पता चल गया, मेरे पिता जी का भी पहला श्राद है, ओर मां का भी, वेसे यहां किसी को इन बातो के बारे कुछ पता नही, इस लिये हम सब अन्जान है, लेकिन एक ब्राहमण परिवार की महिला हमे कुछ ना कुछ बता देती है,
जवाब देंहटाएंइस शनि वार को हम ने मां के जाने के बाद जो शुद्धिकरण करना है, क्योकि पहले कई रुकावटे आती रही, ओर जब कुछ मित्रो को बुलाया तो इस महिला ने हमे श्राद की याद दिलाई ओर सब बाते मोटी तोर पर बताई, सो कल पिता जी के, ओर मां के नाम से हमारी बीबी कुछ खाना बनायेगी, ओर हम घर पर खुद ही माथा टेक लेगे, ओर उन के नाम से कुछ पेसा अलग निकाल कर रख लेगे, जब भी कभी भारत आये तो इस पैसे को गरीबो के बच्चो को दे देगे, शायद इस से हमारे मां बाप को कुछ पुन्य मिले,
ओर फ़िर शनिवार को सुंदरकांड का पाठ फ़िर हवन, फ़िर आरती ओर फ़िर मित्र को भोजन.
आप के लेख पढ कर बहुत कुछ पता चल जाता है
दूसरों को तृप्त करने में जो आनन्द है वह और किसी अन्य कृत्य मे नहीं। हमारी अधिकतर परम्पराएँ भी इसी आधार पर बनी हैं। किन्तु दुख की बात तो यह है कि अब लोग इन परम्पराओं को भूलते जा रहे हैं।
जवाब देंहटाएंप्रसिद्ध फिल्म संगीतकार स्व॰ मदनमोहन के विषय में भी मैंने पढ़ा था कि वे जितना मधुर भारतीय संगीत पर आधारित धुनें तैयार करते थे उतना ही स्वादिष्ट पाश्चात्य भोजन बनाने में भी दक्ष थे। उनके मित्र पहले उनका बनाया खाना खाते थे बाद में उनकी धुनें सुनते थे।
बहुत अच्छा विवरण लिखा है द्विवेदी जी. मुझे इसे पढ़ कर अपनी छोटी दादी ( डैडी की चाची) के हाथ का बनाया खाना याद आ गया...तब मैं बहुत छोटी थी पर अभी भी याद है कि छोटी दादी बडे श्रम से पूरे परिवारजनों को( उस समय सँयुक्त परिवार था जिसमें करीब 20 लोग हुआ करते थे) अपने हाथ से बना कर स्वादिष्ट खाना खिलाती थी.. उनका बनाया मूली का सलाद हमेशा रहेगा याद...
जवाब देंहटाएंहम भी पधार रहे हैं, आपको यह आनंद प्राप्त करवाने के लिए...
जवाब देंहटाएंचलिए अभी तो हम भिंड़ी से काम चला लेते हैं...
भूख लगी है...
मन के भावो के साथ रिश्ते बंधे रहते है..आपने सच लिखा है..आजकल भौतिकता में बहुत कुछ कही खो गया है..
जवाब देंहटाएंगर्मागर्म मालपुए, खीर, कचौड़ियाँ, पूरियाँ !?
जवाब देंहटाएंकोटा की ट्रेन का टाईमटेबल देखना पड़ेगा :-)
बी एस पाबला