मुझे उन से मिलने का सौभाग्य कोटा में दो बार मिला। एक बार वे अपना पूरा नाट्य-दल ले कर कोटा आए थे और 'समरथ को नहीं दोष गुसाईं' तथा 'कफन' नाटक प्रस्तुत किए। कफन में वे स्वयं अभिनेता थे। जितना डूब कर उनका अभिनय देखा वैसा मैं ने कुछ ही अभिनेताओं का देखा है। यहाँ उन की एक कविता कन्या भ्रूण हत्या पर प्रस्तुत है। जो न केवल अपने कथन में श्रेष्ठ है, अपितु शिल्प की दृष्टि से नए कवियों को सीखने को बहुत कुछ देती है ......
मेरी हत्या न करो माँ
- यादवचंद्र
महाप्राण जगत-गुरू
शंकराचार्य जी
क्यों कहा आप ने
'माता कुमाता न भवति'?
अरे पूंजीवाद में खूब भवति
और मिडिल क्लासे तो
थोक भाव में भवति
भ्रूण मध्ये पलित बालिका
कान लगाकर सुनो
कि क्या कहती आचार्य जी!
" माँ
मेरी हत्या न करो माँ
मैं तेरा ही अंश हूँ माँ
मैं तेरा ही वंश हूँ माँ
एक बार, सिर्फ एक बार
मुझे कलेजे से लगा लो
पिताजी को समझा दो माँ
पिताजी को मना लो माँ
एक बार मुहँ देख लूंगी
फिर मुझे चाकू लगा देना
नमक या ज़हर चटा देना
डस्टबिन में फेंक देना
या कुत्तों को खिला देना
पर मुझे डॉक्टर के हवाले
न करो माँ न करो..न करो..."
" तेरा भला होगा डॉक्टर
एक बार तो झूठ बोल
एक बार तो मुहँ खोल
कि गर्भस्थ शिशु बेटी नहीं
वह बेटा है! बेटा है
मेरी जान बच जाएगी डॉक्टर
सारे देश की बेटियाँ
तेरे पाँव पड़ती हैं
तेरी मिन्नतें करती हैं डॉक्टर
तेरे हाथ जोड़ती हूँ डॉक्टर
पिताजी की फीस लौटा दे
लौटा दे डॉक्टर, लौटा दे
लौटा दे....."
"तेरा चौका-बर्तन
झाड़ा-बुहारी
चूल्हा-चक्की सब संभाल दूंगी
तेर पोते की धाय बन कर
अपनी सारी जिन्दगी गुजार लूंगी
सिर्फ एक बार पिताजी को
भर आँख दिखला दे डॉक्टर
कि बाप कहलाने वाले की
अरे शक्ल कैसी होती है
उस की नस्ल कैसी होती है
बस, एक बार दिखा दे .. एक
बार....."
मैं एक लाचार चीख हूँ
तुमसे भीख मांगती हूँ डॉक्टर
कि पिताश्री के आने के पर
अपना चाकू उन्हें थमा देना
और कहना-
कि मैं भी
जिंदगी से जुड़ना चाहती थी
मैं भी गरुड़ की तरह
तूफान में उड़ना चाहती थी
अपनी साठ करोड़ बहनों को
बाघिन, शेरनी बनाना चाहती थी
और सारी दरिंदगी, हैवानियत को
इक बारगी ग्रस जाना चाहती थी
शोषण के तमाम ठिकानों पर
बदन से बम बांधकर
निर्व्याज बरस जाना
चाहती थी ... एक छत्र ...
मैं ने सिंदूर जैसा लाल
अपना वतन बनाना चाहा था
जाँबाज बेटियों का
बारूदी लहू
और सेतु हिमालय
बिछाना चाहा था
ताकि दुनिया का एक भी
कत्लगाह सबूत बच न पाए
और मातृत्व का गला घोंटने
कोई भी यहाँ
न आए ... न आए.........। >>>>>>><<<<<<<
गजब की कविता है। चेतना को पूरी तरह झकझोर देती है। यह कहते हुए शर्मिंदगी महसूस हो रही है कि इस तरह की यथार्थवादी कविता के रचनाकार को हम जानते तक न थे। आपसे निवेदन है कि बाबा यादवचन्द्र पाण्डेय की कुछ और रचनाएं पढ़वाएं... आज की कलम तो सिर्फ पद, पैसा और पुरस्कार की ओर भागती है।
जवाब देंहटाएंसंस्मरण व सुंदर कवित-प्रस्तुती हेतु आभार.
जवाब देंहटाएंश्री यादव चँद्र पाँडेय जी को मेरी नमन श्रधाँजली और इस मार्मिक कविता ने आँखों को नम कर दिया आभार्
जवाब देंहटाएंबहुत ही मार्मिक। इस कविता की कापी निकालकर सब गाइनेकोलोजिस्टों के नोटिस बोर्ड पर लगा देना चाहिए।
जवाब देंहटाएंक्या इनकी रचनाओं का संकलन निकला है? नागार्जुन की रचानाओं का संकलन राजकमल प्रकाशन ने निकाला है, जिसे मैंने हाल में खरीदा है।
यदि नहीं, तो किसी को ज्लद इस दिशा में प्रवृत्त होना चाहिए, वरना बहुत सारी रचनाएं खो जाएंगी।
जिंदगी से जुड़ना चाहती थी
जवाब देंहटाएंमैं भी गरुड़ की तरह
तूफान में उड़ना चाहती थी
__ये पंक्तियां वाकई दिल को छू गईं।
बहुत ही सुंदर .
जवाब देंहटाएंद्विवेदी जी!
जवाब देंहटाएंबढ़िया पोस्ट लगाने के लिए आपका आभार।
श्री यादव चँद्र पाँडेय जी को सादर नमन. बेहद मार्मिक पोस्ट. शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएं---
चर्चा । Discuss INDIA
पता नही वो केसे मां बाप है जो ऎसा करते है, क्यो करते है,...
जवाब देंहटाएंआप की कविता पढ कर आंखो मै आंसू आ गये, ्बहुत सुंदर बाबा यादवचन्द्र पाण्डेय ओर आप का धन्यवाद
jhakjhorne valee rachna.....
जवाब देंहटाएंनिःशब्द हूँ।
जवाब देंहटाएंगज़ब!! अद्भुत!!
जवाब देंहटाएंबहुत आभार इसे प्रस्तुत करने का.
अन्दर तक हिलाकर रख दिया. आपको इस लेख और कविता के लिये बहुत-बहुत साधुवाद.
जवाब देंहटाएंbhahi mere naam rashi pahle hi bahut kuch kah chuke hain
जवाब देंहटाएंpar maaf kiijiye yahan bhi bas kumata tak hi pahunch paye hain kubaap ki koi baat nahi?
yah bhi apne tarah ka poorvagrah hai.
इस कविता में बड़ी सहजता से भ्रूण-हत्या के दोषियों को धिक्कारा गया है। धारा-प्रवाह पढ़ते हुए अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंउद्वेलित और नतमस्तक...
जवाब देंहटाएंसच, इसे कहते हैं कविता, हिला के रख दिया!
जवाब देंहटाएंसर जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार।
आपने "द फोटुगेलेरी" पर पधार कर मान बढाया शुक्रियाजी!
मैं ने सिंदूर जैसा लाल
अपना वतन बनाना चाहा था
जाँबाज बेटियों का
बारूदी लहू
और सेतु हिमालय
बिछाना चाहा था
ताकि दुनिया का एक भी
कत्लगाह सबूत बच न पाए
और मातृत्व का गला घोंटने
कोई भी यहाँ
न आए ... न आए.........।
आपकी कविता का मेने वाचन किया, बडी ही सुन्दर व अर्थ पुर्ण बात है इसम॥ आप जैसे प्रखर लेखक, वकील हिन्दी ब्लोग जगत के लिए गोरव की बात है।
आभार/शुभमगलसहीत
हे प्रभु यह तेरापन्थ
मुम्बई टाईगर
द फोटू गेलेरी
अन्दर तक झकझोर देने वाली रचना...
जवाब देंहटाएंuff!
जवाब देंहटाएंबड़े दिनों बाद कोई ऐसी कविता पढ़ी है जो पूरे अस्तित्व को झकझोर गयी..