मानसून जब भी आता है तो किसी मंत्री की तरह तशरीफ लाता है। पहले उस के अग्रदूत आते हैं और छिड़काव कर जाते हैं। उस से सारा मौसम ऐसे खदबदाने लगता है जैसे हलवा बनाने के लिए कढ़ाई में सूजी को घी के साथ सेंक लेने के बाद थोड़ा सा पानी डालते ही वह उछलने लगता है। कुछ देर में उस में से भाप निकलती है। सिसकियों की आवाज के साथ और पानी की मांग उठने लगती है। पानी न मिले तो सूजी जलने लगती है, ठीक ठीक मिल जाए तो हलुआ और अधिक हो जाए तो लपटी, जो प्लेट में रखते ही अपना तल तलाशने लगती है।
पिछले सप्ताह यहाँ ऐसा ही होता रहा। पहले अग्रदूतों ने बूंदाबांदी की। फिर दो रात आधा-आधा घंटे बादल बरसे। दिन में तेज धूप निकलती रही। हम बिना पानी के प्यासे हलवे की तरह खदबदाते रहे। फिर दो दिन रात तक अग्रदूतों का पता ही नहीं चला, वे कहाँ गए? साधारण वेशधारी सुरक्षा कर्मी जैसे जनता के बीच घुल-मिल जाते हैं ऐसे ही वे अग्रदूत भी आकाश में कहीं विलीन हो गए। हमें लगा कि मानसून धोखा दे गया। नगर और पूरा हाड़ौती अंचल तेज धूप में तपता रहा। यह हाड़ौती ही है जो इस तरह मानसून के रूखेपन को जुलाई माह आधा निकलने तक भी बर्दाश्त कर जाता है और घास-भैरू को स्मरण नहीं करता । कोई दूसरा अंचल होता तो अब तक मैंढकियाँ ब्याह दी गई होतीं। वैसे मानसून हाड़ौती अंचल पर शेष राजस्थान से कुछ अधिक ही मेहरबान रहता है। उस का कारण संभवतः इस का प्राकृतिक पारियात्र प्रदेश का उत्तरी हिस्सा होना है और पारियात्र पर्वत से आने वाली नदियों के कारण यह प्रदेश पानी की कमी कम ही महसूस करता है। यहाँ इसी कारण से वनस्पतियाँ अपेक्षाकृत अधिक हैं।
तभी खबर आई कि राजस्थान में मानसून डूंगरपुर के रास्ते प्रवेश कर गया है । उदयपुर मंडल में बरसात हो रही है, झमाझम! हम इंतजार करते रहे कि अगले दिन तो यहाँ आ ही लेगी। पर फिर पुलिसिये बादल ही आ कर रह गए और बूंदाबांदी करके चले गए। जैसे ट्रेफिक वाले भीड़भाड़ वाले इलाके में रेहड़ी वालों से अपनी हफ्ता वसूली कर वापस चले जाते हैं। पहले रात को हुई आधे-आधे घंटों की जो बरसात ने आसमान में उड़ने वाली धूल और धुँए को साफ कर ही दिया था। धूप निकलती तो ऐसे, जैसे जला डालेगी। आसोज की धूप को भी लजा रही थी। लोग बरसात के स्थान पर पसीने में भीगते रहे। आरंभिक बूंदा बांदी के पहले जो हवा चलती थी तो बिजली गायब हो जाती, जो फिर बूंदाबांदी के विदा हो जाने के बाद भी बहुत देर से आती। फिर कुछ दिन बाद बिजली वाले गली गली घूमने लगे और तारों पर आ रहे पेड़ों को छाँटने लगे। हमने एक से पूछा -भैया! ये काम पन्द्रह दिन पहले ही कर लेते, जनता को तकलीफ तो न होती। जवाब मिला -वाह साहब! कैसे कर लेते? पहले पता कैसे लगता? जब बिजली जाती है तभी तो पता लगता है कि फॉल्ट कहाँ कहाँ हो रहा है?
कल शाम सूरज डूबने के पहले ही बादल छा गए और चुपचाप पानी पड़ने लगा। न हवा चली और न बिजली गई। कुछ ही देर में परनाले चलने की आवाजें आने से पता लगा कि बरसात हो रही है। घंटे भर बाद बरसात कुछ कम हुई तो लोग घरों से बाहर निकले दूध और जरूरत की चीजें लेने। पर पानी था कि बंद नहीं हुआ कुछ कुछ तो भिगोता ही रहा। फिर तेज हो गया और सारी रात चलता रहा। सुबह लोगों के जागने तक चलता रहा। लोग जाग गए तब वह विश्राम करने गया। फिर वही चमकीली जलाने वाली धूप निकल पड़ी। अदालत जाते समय देखा रास्ते में साजी-देहड़ा का नाला जोरों से बह रहा था। सारी गंदगी धुल चुकी थी। सड़कों पर जहाँ भी पानी को निकलने को रास्ता न था, वहाँ डाबरे भरे थे। चौथाई से अधिक अदालत भूमि पर तालाब बन चुका था। पानी के निकलने को रास्ता न था। उस की किस्मत में या तो उड़ जाना बदा था या धीरे धीरे भूमि में बैठ जाना। पार्किंग सारी सड़कों पर आ गई थी। जैसे तैसे लोग अपना-अपना वाहन पार्क कर के अपने-अपने कामों में लगे। दिन की दो बड़ी खबरें धारा 377 का आंशिक रुप से अवैध घोषित होना और ममता दी का रेल बजट दोनों अदालत के पार्किंग में बने तालाब में डूब गए। यहाँ रात को हुई बरसात वीआईपी थी।
धूप अपना कहर बरपा रही थी। वीआईपी बरसात के जाने के बाद बादल फिर वैसे ही चौथ वसूली करने में लगे थे। अपरान्ह की चाय पीने बैठे तो बुरी तरह पसीने में तरबतर हो गए। मैं ने कहा -लगता है बरसात आज फिर अवकाश कर गई। एक साथी ने कहा -नहीं आएगी शाम तक। शाम को भी नहीं आई। अब रात के साढ़े ग्यारह बजे हैं। मेरे साथी घरों को लौटने के लिए दफ्तर से बाहर आ जाते हैं। मैं भी उन्हें छोड़ने बाहर गेट तक आता हूँ। (छोड़ने का तो बहाना है, हकीकत में तो गेट पर ताला जड़ना है और बाहर की बत्ती बंद करनी है) हवा बिलकुल बंद पड़ी है, तगड़ी उमस है। बादल आसामान में होले-होले चहल कदमी कर रहे हैं, जैसे वृद्ध सुबह पार्क में टहल रहे हों। वे बरसात करने वाले नहीं हैं। चांद रोशनी बिखेर रहा है। पर कभी बादल की ओट छुप भी जाता है। लगता है आज रात पानी नहीं बरसेगा। साथी कहते हैं - भाई साहब! उधर उत्तर की तरफ देखो बादल गहराने लगे हैं। पता नहीं कब बरसात होने लगे। हवा भी बंद है। मैं उन्हें जल्दी घर पहुँचने को कहता हूँ और वे अपनी बाइक स्टार्ट करें इस के पहले ही गेट पर ताला जड़ देता हूँ।
मैं अन्दर आ कर कहता हूँ -आखिर मौसम बदल ही गया। वकीलाइन जी कहती हैं -आज तो बदलना ही था। देव आज से सोने जो चले गए हैं। बाकायदे चातुर्मास आरंभ हो चुका है। चलो यह भी ठीक रहा, अब कम से कम रात को जीमने के ब्याह के न्यौते तो न आएँगे। पर उधर अदालत में तो आज का पानी देख गोठों की योजनाएँ बन रही थीं। उन में तो जाना ही पड़ेगा। लेकिन वह खाना तो संध्या के पहले ही होगा। मैं ने भी अपनी स्वास्थ्यचर्या में इतना परिवर्तन कर लिया है कि रात का भोजन जो रात नौ और दस के आसपास करता था, उसे शामं को सूरज डूबने के पहले करने लगा हूँ। सोचा है पूरे चातुर्मास यानी दिवाली बाद देवों के उठने तक संध्या के बाद से सुबह के सूर्योदय तक कुछ भी ठोस अन्नाहार न किया करूंगा। देखता हूँ, कर पाता हूँ या नहीं।
लेकिन हम लोग तो अभी तरस ही रहे हैं .
जवाब देंहटाएंकुछ इंतजार करें। वहाँ भी पहुँचता ही होगा, मॉनसून! जरा स्वागत की तैयारियाँ रखिएगा। आज कल वीआईपी जो हो गया है।
जवाब देंहटाएंइस बार मानसून दगा दे गया है किसी गफलत में न रहें !
जवाब देंहटाएंहम तो अभी भी पपीहा बने हुए हैं इधर अहमदाबाद में! पर आपको बधाई!
जवाब देंहटाएंद्विवेदी जी!
जवाब देंहटाएंआप भाग्यशाली हैं।
ीआपकी देखा देखी हमने भी शाम को ही खाना शुरु कर दिया है हमारे यहाँ तो खूब बरसे है शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंदिनेश जी हमारे यहाँ ..अभी तो ट्रेलर ही दिखा है...सिनेमा तो अगले हफ्ते तक रिलीज़ हो पायेगी..भीगी भीगी पोस्ट में मजा आ गया...
जवाब देंहटाएंहम भी कोशीश करते हैं कि शाम का भोजन दिन रहते ही कर लिया जाये. यह एक बढिया बात बताई आपने.
जवाब देंहटाएंरामराम.
खालिश टकसाली लिखाई। हम तो धन्य हो गए। कहते हैं काव्य वह अच्छा जो अभिधा में हो। कई जगहों पर काव्य ही तो रचा है आप ने! कहीं कहीं तो बाल्मीकि के शरद वर्णन की गरिमा सी है। बधाई।
जवाब देंहटाएंबारिश के बहाने पूरा शहर घूम आए। चित्र भी सुन्दर हैं। अनुमति हो तो पेंड़ पौधों के पृष्ठपटल वाली बारिश का चित्र चुरा लूँ ! बेचने के लिए नहीं, ब्लॉग पर कभी कहीं सहेजने के लिए।
हमें कब से इसका इंतजार था।
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
सोचा है पूरे चातुर्मास यानी दिवाली बाद देवों के उठने तक संध्या के बाद से सुबह के सूर्योदय तक कुछ भी ठोस अन्नाहार न किया करूंगा। देखता हूँ, कर पाता हूँ या नहीं।
जवाब देंहटाएंनई वेराइटी का रोज़ा है या हिन्दू धर्म में पहले से कोडीफाईड है?
दिनेश जी आप को बहुत बधाई, बहुत सुंदर चित्र, देख कर भीगने को मन करता है.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
aaderneey
जवाब देंहटाएंdinesh ji....
gajab ka sanyog.....
aapka lekh pad raha hu aour bahar rimjhim ho rahi hai....
barish to yaha 4-5 dino se sham ko ho rahi thee...
par aaj to aapke lekh ne kara di.....
@ज्ञानदत्त पाण्डेय | Gyandutt Pandey
जवाब देंहटाएंहम लोगों की आदत है कि हर बात को धर्म से जोड़ कर देखते हैं। जिसे व्यापकता प्राप्त होनी चाहिए वह संकुचित हो जाती है। वास्तविकता तो यह है कि इसका किसी धर्म से कोई संबंध नहीं। यह तो आचुर्विज्ञान की ऋतुचर्या है जो वर्षों से भारत में प्रचलित है। इसे विभिन्न धर्मावलम्बियों ने अपनाया है। सुबह साढ़े नौ बजे खा कर निकलना दिन मे लंच न हो तो शाम तक भूख लग आती है। लेकिन उस भूख को उल्टा सीधा खा कर मार लेने और फिर रात को नौ-दस बजे या उस से भी देर से खाना। स्वास्थय के लिए हानिकारक है। अब दो दिन से अच्छा चल रहा है। सुबह नौ-दस के बीच भोजन फिर दिन में सिर्फ कॉफी और शाम को सात बजने तक शाम का भोजन। रात को बारह बजे तक पेट हलका हो लेता है अच्छी नींद आती है। जैन धर्मावलम्बियों से तो साल भर यही करने की अपेक्षा की जाती है और बहुत से लोग यह करते भी हैं। चातुर्मास करने वाले तो एक समय ही भोजन करते हैं। मैं भी करते हुए देख रहा हूँ कि इस का जीवन और स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है। निर्मला कपिला जी और ताऊ जी ने भी इस व्यवहार को अपनाने की इच्छा जाहिर कर दी है। अब मेरी इच्छा हो रही है कि डे-ईटर्स क्लब बन जाए और इस के सदस्य अपने अनुभव साझा करें तो हमें इस के लाभ-हानि भी पता लगें।
humare yahan bhi badra apnee jhalak dikha jate hain....fir antardhyaan ho jate hai....
जवाब देंहटाएंदिल्ली में तो अभी कुछ नखरे से बरस रहा है मानसून ..आपका लिखा मानसूनी प्रभाव दे गया .आइडिया पसंद आया आपका डे-ईटर्स क्लब वाला ...इसके बहुत फायदे हुए हैं ..
जवाब देंहटाएंसम्पूर्ण पोस्ट !
जवाब देंहटाएंहम जैसे लोग आपसे बहुत कुछ सीख रहे हैं .