हे, पाठक!
यूँ तो जब भी आप-हम मिलते हैं, तो कोई न कोई बात होती है। कुछ मैं कहता हूँ, कुछ आप टिपियाते हैं। पर इन दिनों मौसम का मिजाज कुछ अलग है। एक तो वह बदलाव के दौर में है, ऊपर से चुनाव आ टपके हैं। वैसे ही इस मौसम में डाक्टर-वैद्य बहुत व्यस्त होते हैं। सारे बैक्टीरियाओं और वायरसों के लिए मौसम अनुकूल जो होता है। होता तो इंन्सान के लिए भी अनुकूल ही है, पर वह जो खुराफातें फागुन-चैत में करता है, उस के परिणाम बहुत देर से सावन-भादों दिखाई देने लगते हैं और देश के जच्चाखानों में जगह कम पड़ने लगती है। लेकिन बैक्टीरियाओं, वायरसों और उन के वाहकों की खुराफातों के परिणाम जल्दी ही सामने आने लगते हैं। दूसरे-दूसरे वाहकों पर क्या गुजरती है? ये तो वे ही जानें। जाने उन के यहाँ डाक्टर-वैद्य होते या नहीं। शायद नहीं ही होते हैं। तभी तो कभी उन की भरमार हो जाती है और कभी बिलकुल गायब नजर आते हैं। इन भरमार के दिनों में वे इन्सान को भी अपना असर दिखाने लगते हैं। इस असर की शुरुआत होती है इन्सान के शरीर में हरारत के साथ।
हे, पाठक!
तब ताप महसूस होने लगता है। बीन्दणी सुबह-सुबहअपना हाथ आगे कर अपने बींद से कहती है- मुझे पता नहीं क्या हुआ है? जरा मेरा हाथ तो देखो जी। बींद सहज ही हाथ पकड़ने का अवसर देख, हाथ को पकड़ता है कुछ देर पकड़े रह कर कहता है, ठीक तो है। वह पूछती है, गरम नहीं लगा? जवाब मिलता है, नहीं तो। वह निराश हो जाती है। फिर बींद का हाथ अपने हाथ में पकड़ कर अपने माथे से छुआती है और कहती है, यहाँ देखो। अब न होते हुए भी बींद को कहना पड़ता है हाँ कुछ गरम तो लगता है। इस के बाद बींद गले के नीचे छाती के ऊपर अपना हाथ छुआ कर देखता है और घोर आश्चर्य कि बींदणी जरा भी प्रतिरोध नहीं करती और न यह सुनने को मिलता कि, अजी क्या कर रहे हो।
हे, पाठक!
ऐसा ही कुछ शाम को बींद के साथ होने लगता है। वह दफ्तर से लौटता है और ड्राइंगरूम के सोफे पर या दीवान पर या सीधे बेडरूम के बेड पर धराशाई हो जाता है। अब पैर जमीन पर हैं और शरीर सोफे या दीवान या बेड पर लंबायमान। जूते भी नहीं खोलता। उस की हालत वैसी दीख पड़ती है जैसी खेत में ओले पड़ने के बाद पकते गेहूँ की फसल की होती है। बींदणी देखती है, पानी का एक गिलास ले कर आती है और पूछती है, क्या हुआ जी? आते ही पड़ गए, जूते भी नहीं खोले? कुछ नहीं कुछ हरारत सी हो रही है। बिचारी बींदणी, वह बींद के माथे पर हाथ रख कर देखती है और कहती है, ठीक तो है, गरम तो नहीं लग रहा है, लगता है आज काम ज्यादा करना पड़ा है? थक गए होंगे? बींद कहता है वह तो रोज का काम है लेकिन आज कुछ बदन टूटा-टूटा लग रहा है। बींद पानी का गिलास ले लेता है और उसे उदरस्थ कर वापस बींदणी को पकड़ा देता है। वह खाली गिलास ले कर चल देती है। बींद को पता है वह चाय बनाने रसोई में घुस गई है। वह उठ कर जूते खोलने लगता है।
हे, पाठक!
ये दो सीन हैं, बिलकुल घरेलू आइटम। लेकिन इन दिनों इन्सानों के साथ साथ शहर को भी हरारत हो रही है। कल मैं अदालत के लिए निकला तो गर्ल्स कॉलेज के आगे अंटाघर चौराहे की ट्रेफिक बत्ती हरी थी। हमने निकलने को एक्सीलेटर पर दबाव बढ़ाया तो वह दगा दे गई पीली हो गई। उधर चौराहे पर पुलिसमैन बिलकुल चौकस दिखे। मुझे लगा कि मैं निकल गया और बत्ती लाल हो गई, तो मुझे बीच चौराहे पर ही टोक देगा। मेरा पैर एक्सीलेटर छोड़ कर अचानक ब्रेक पर चला गया। बगल में बैठे सहायक ने कहा निकल लो पीछे पुलिस की गाड़ियाँ आ रही हैं। पैर वापस एक्सीलेटर पर गया और चौराहा पार करते-करते, बत्ती लाल। मैं ने पिछवाड़ा दर्शन शीशे में देखा तो तेजी से बहुत सारी पुलिस गाड़ियाँ आ रही थीं। पहले तो लगा कि मेरा पीछा कर रही हैं। फिर लगा कि मेरी कार को टक्कर मार देंगी। फिर सड़क पर एक सिपाही दिखा जो मुझे कार बाएँ करने का इशारा कर रहा था। तभी सहायक बोला, मुख्यमन्तरी आ रहा है, सारे सिपाही एक दम लकदक हैं। मैंने कार बाएँ कर ली। पुलिस की जीपें एक-एक कर मुझे ओवरटेक कर गईं। हर जीप से निकले हाथ ने मुझे कार बाएँ रखने का इशारा किया। तब तक सर्किट हाउस आ गया और सब उस के मुहँ में घुस गईं। मुख्यमन्तरी के वाहन का कुछ पता नहीं था। सहायक ने बताया, यह मुख्यमंतरी को सर्किट हाउस तक लाने का रिहर्सल था।
हे, पाठक !
अदालत आ चुकी थी। पार्किंग में कोई जगह खाली न थी। कार को कलेक्ट्री परिसर में घुसाया और सबसे आखिरी में तहसील के सामने की जगह में पेड़ के नीचे पार्क किया। सहायक ने बताया, आज भूतपूर्व और वर्तमान दोनों ही मुख्यमंतरी शहर में हैं। हम काम में लग गए। दोपहर बाद कुछ समय मिला तो वकीलों को गपियाते देख हम भी शामिल हो गए। बहुत साल पहले वायरस पार्टी से बैक्टीरिया पार्टी में शामिल हो कर नोटेरी बने और वापस वायरस पार्टी में लौटे वकील साहब को कोई वकील कह रहा था, तुम मिल आए सर्किट हाउस? टिकट नहीं मांगा? मेरी हँसी छूटते-छूटते बची। मैं बोल पड़ा क्यों बाम्भन को छेड़ रहे हो? क्यों अच्छी खासी चलती दाल-रोटी छुड़वाना चाहते हो? टिकट मिल भी गया होता तो इन से उठता नहीं और उठा कर ले आते तो अदालत तक आते-आते कहीं रास्ते में पटक देते। जैसे रावण ने जनकपुरी में शिव जी का धनुष छोड़ दिया था।
हे, पाठक!
आज की कथा यहीं तक। फिर मिलेंगे। बोलो हरे नमः, गोविन्द माधव हरे मुरारी .....
hare namah gobind madhav hare murari he nath narayan vasudeva jai ho
जवाब देंहटाएंअथ: बींद बींदणी वाया द्विवेदी जी प्रथम अध्याय: समाप्तम.:)
जवाब देंहटाएंरामराम.
ये गोविन्द माधव हरारत का कौन सा खेल खेल रहे -फागुन तो कब का बीत चुका !
जवाब देंहटाएंये वर्णन ऋतुसंहार तक पहुंचता नज़र आ रहा है।
जवाब देंहटाएंसखि, फिर आई चुनावी बेला!!!
'हरे नमः, गोविन्द माधव हरे मुरारी' अच्छा हुआ आपने 'जय हो !' नहीं लिखा वर्ना कांग्रेस पार्टी का चुनाव प्रचार भी हो जाता :-) चुनावी माहौल है कुछ लिखने में भी सोचना पड़ता है. पता नहीं कब क्या नारा बन जाए !
जवाब देंहटाएंवकीक साहब . घर की हरारत के बहाने शरारत से लेकर चुनाव तक का मजेदार किस्सा कह डाला है .
जवाब देंहटाएंमजेदार पोस्ट. आभार.
जवाब देंहटाएंम्हारी बीन्धणी तो चुनाव चर्चा से अलग टीवी रिमोट थाम सीरियल देखती रहती हैं। हमसे भी न तो पोलिटिकल चर्चा करी, न स्वास्थ्य चर्चा और न नाराज भईं।
जवाब देंहटाएंकल तो फरमैश पर बेसन का हलवा भी बना कर खिला दिया। हम तो प्रसन्नमन हैं जी घरेलू फ्रण्ट पर।
बाकी आपने लिखा चोखा है!
बींद बींदणी की कथा नए मस्त कर दिया था, लेकिन कमबखत यह पुलिस पता नही क्यो बीच मै आ गई.बहुत सुंदर लगी अप की यह कथा.
जवाब देंहटाएंधन्य्वाद
वाह वाह !! यह शैली कैसे मिल गई आप को!! बहुत ही मजेदार, व्यंग का पुट मिला कर, लिख रहे हैं आप.
जवाब देंहटाएंपहले पूरी परंपरा पढ लूँ, तब असली टिप्पणी लिखूँगा.
सस्नेह -- शास्त्री