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रविवार, 25 जनवरी 2009

वह, पति कब था

  • दिनेशराय द्विवेदी
वह,
पति कब था?

उस ने सिर्फ
हथिया लिया था
कब्जा/स्वामित्व
मेरे शरीर पर

मैं समझी थी
कम से कम
मकान और जमीन की
तरह ही शायद करे
मेरी देखभाल

लेकिन, औरत?
होती है
जीती जागती,
वह तो वस्तु भी नहीं

क्यों करे?
कोई और
उस की चिंता  

और मैं
नहीं समझ पायी
यही एक बात,

मुझे ही करना है
सब कुछ
मेरे लिए

जीने के लिए भी, और
मुक्ति के लिए भी। 


* * *  * * *  * * *  * * *  * * *  * * * 

12 टिप्‍पणियां:

  1. अरे यह केसे, शादी की किस लिये?? क्या ओरत के दिल नही होता ? आत्मा नही होती?? वह पति कब था ? अरे वो इंसान ही कब था?? जिसे अपनी अर्धागनि से भी सहनूभुति ना हो, हम तो जानवर भी पालते है तो उस के जज्बातो को भी पढते है, कही बेचारे का दिल ना दुखे,
    ओर वो तो हमारी बीबी होती है, हमारे बंस की जननी.
    धन्यवाद,

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  2. पति,पत्नी तो
    एक दूजे के
    पूरक हैँ
    - लावण्या

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  3. बहुत गहन दर्शन. आभार कहेंगे इस रचना के लिए, बधाई नहीं.

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  4. कटु यथार्थ का सटीक चित्रण।

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  5. अच्छी और सच्ची रचना।गणतंत्र दिवस की बधाई।

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  6. बहुत गहरी बात कह दी आपने एक नारी के मन की।

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  7. क्या बात है सर...क्या बात है....इस छोटी सी कविता या नज़्म कह लूं,में संपूर्ण तस्वीर उतार कर रख दी द्विवेदी जी आपने...

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  8. ऐसी कविताएं आज भी प्रासंगिक और सामयिक हैं, इससे बडी विडम्‍बना और क्‍या होगी?

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  9. बहुत बढ़िया कविता है दिनेश जी...

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  10. पहली बार आपकी कविता पढ़ी...इतने कड़वा सच शब्दों में उतार दिया है आपने. बहुत कुछ सोचने को प्रेरित करती है कविता...मुक्ति भी, ख़ुद ही तलाशनी है.

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