- दिनेशराय द्विवेदी
वह,
पति कब था?
पति कब था?
उस ने सिर्फ
हथिया लिया था
कब्जा/स्वामित्व
मेरे शरीर पर
मैं समझी थी
कम से कम
मकान और जमीन की
तरह ही शायद करे
मेरी देखभाल
लेकिन, औरत?
होती है
मैं समझी थी
कम से कम
मकान और जमीन की
तरह ही शायद करे
मेरी देखभाल
लेकिन, औरत?
होती है
जीती जागती,
वह तो वस्तु भी नहीं
क्यों करे?
कोई और
उस की चिंता
और मैं
नहीं समझ पायी
यही एक बात,
मुझे ही करना है
सब कुछ
मेरे लिए
जीने के लिए भी, और
मुक्ति के लिए भी।
अरे यह केसे, शादी की किस लिये?? क्या ओरत के दिल नही होता ? आत्मा नही होती?? वह पति कब था ? अरे वो इंसान ही कब था?? जिसे अपनी अर्धागनि से भी सहनूभुति ना हो, हम तो जानवर भी पालते है तो उस के जज्बातो को भी पढते है, कही बेचारे का दिल ना दुखे,
जवाब देंहटाएंओर वो तो हमारी बीबी होती है, हमारे बंस की जननी.
धन्यवाद,
पति,पत्नी तो
जवाब देंहटाएंएक दूजे के
पूरक हैँ
- लावण्या
आत्मज्ञान !
जवाब देंहटाएंबहुत गहन दर्शन. आभार कहेंगे इस रचना के लिए, बधाई नहीं.
जवाब देंहटाएंकटु यथार्थ का सटीक चित्रण।
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक, आभार आपका.
जवाब देंहटाएंरामराम.
अच्छी और सच्ची रचना।गणतंत्र दिवस की बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत गहरी बात कह दी आपने एक नारी के मन की।
जवाब देंहटाएंक्या बात है सर...क्या बात है....इस छोटी सी कविता या नज़्म कह लूं,में संपूर्ण तस्वीर उतार कर रख दी द्विवेदी जी आपने...
जवाब देंहटाएंऐसी कविताएं आज भी प्रासंगिक और सामयिक हैं, इससे बडी विडम्बना और क्या होगी?
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया कविता है दिनेश जी...
जवाब देंहटाएंपहली बार आपकी कविता पढ़ी...इतने कड़वा सच शब्दों में उतार दिया है आपने. बहुत कुछ सोचने को प्रेरित करती है कविता...मुक्ति भी, ख़ुद ही तलाशनी है.
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