जी हाँ, जब से घर में रोटियाँ बनती देखीं, गेहूँ की ही देखी। बनाने में आसान और खाने में आसान, स्वादिष्ट भी। पर कभी कभी दादी ज्वार की रोटियाँ थेपती थी और तवे पर सेकने के बाद आग में सेकती थी। उस का स्वाद कुछ और ही हुआ करता था। हमारे इलाके में उस जमाने में मक्का का प्रचलन कम था। लेकिन मेरे ननिहाल में बहुत। मेरी माँ को मक्का की याद आती तो वह मक्का की बनाती। मक्का के ढोकले भी बनाती जिसे हम तिल्ली के तेल के साथ खाते। बाजरा हमारे यहाँ बिलकुल नहीं होता। लेकिन जिस तरह लोग बाजरे की रोटियों का उल्लेख करते हम सोचते रह जाते।
फिर कोटा आए तो हम शौक से हर साल मक्का की रोटियां सर्दी में खाने लगे। फिर ज्वार का भी साल में कुछ दिन उपयोग करने लगे। लेकिन इस साल हम तीनों ही अनाज खूब खा रहे हैं। इस का कारण तो नहीं बताऊंगा। लेकिन अपना अनुभव जरूर बताऊंगा।
जब से ये तीनों अनाज हम खाने लगे हैं। पेट में गैस बनना कम हो गयी है। कब्ज बिलकुल नहीं रहती। कारण पर विचार किया तो पाया कि। गेहूँ की अपेक्षा इन अनाजों के आटा मोटा पिसता है और उस में चौकर की मात्रा अधिक रहती है। गेहूँ की अपेक्षा इन अनाजों में संभवतः कैलोरी भी कम होती है जिस से आप का पेट खूब भर जाता है और शरीर में कैलोरी कम जाती है। यदि मक्का को छोड़ दें तो ज्वार और बाजरे के दाने छोटे होते हैं जिस से उन के छिलके का फाइबर भी खूब पेट में जा रहा है।
मुझे एक बात और याद आ रही है। एक शाम हम शहर के बाहर एक पिकनिक स्पॉट पर घूमने गए तो वहाँ नया ग्रिड स्टेशन बनाने का काम शुरू हो गया था और नींव की खुदाई के लिए मजदूर लगे थे। ये सभी झाबुआ (म.प्र.) से आए थे। शाम को पास में ही बनाई गई अपनी झौंपड़ियों के बाहर पत्थर के बनाये चूल्हों पर औरतें रोटियाँ सेंक रही थी। हम पास गए तो देखा। औरतें सफाई से खूबसूरत बड़ी-बड़ी मक्का की रोटियाँ थेप कर तवे पर डाल रही थीं। सिकाई भी ऐसी कि एक भी दाग न लगे और रोटी पूरी सिक जाए। मैं ने पास में टहल रहे एक मजदूर से बात की। उस ने बताया कि वे मक्का ही खाते हैं। उन्हें इसी की आदत है। हालांकि यहाँ मक्का का आटा गेहूँ से महंगा मिलता है। वह बताता है कि गेहूँ की रोटी एक दो दिन लगातार खाने पर उन्हें दस्त लग जाते हैं। जब कि मक्का सुपाच्य है।
मुझे लगता है कि शहरी जीवन में जिस तरीके से शारीरिक श्रम कम हुआ है और मोटा अनाज खाना छोड़ दिया गया है उस से भी पेट के रोगों में वृद्धि हुई है। यदि हम सप्ताह में एक-दो बार मोटे अनाजों की रोटियाँ खाने लगें तो शायद पेट के रोगों से अधिक बचे रहें। अब पूरी सलाह तो कोई चिकित्सक ही दे सकते हैं।
उपयोगी !
जवाब देंहटाएंद्विवेदी जी बिल्कुल सही सुझाव , किंतु आरामतलबी की जिन्दगी गुजर रहे शहरी मध्यवर्ग से अमल की उम्मीद नही है |
जवाब देंहटाएंद्विवेदी जी, चिकित्सक तो सलाह तभी देंगे जब आप ने कोई बात उन के कहने लायक छोड़ी हो ---जी हां, आप का लेख पढ़ कर बहुत ही अच्छा लगा -- बिल्कुल सहज भाव से अपनी बात पाठकों तक पहुंचा दी।
जवाब देंहटाएंहम भी मक्के की रोटियां दो-तीन दिन के बाद खा ही लेते हैं ---लेकिन आज दुकानें खुलने पर बाजरे का आटा लाना पडे़गा --उस की रोटियों को गुड़ के साथ खाए लगभग दो साल हो गये हैं।
धन्यवाद, इस कोहरे से भरी सुबह में मक्के, बाजरे की रोटियों की बात छेड़ कर आप ने तो इस ठिठुरन में भी गर्मी का अहसास दिला दिया।
PS... द्विवेदी जी, मेरे जैसे लोगों के लिये जिन का हिंदी का ज्ञान अल्प है, इस तरह की ही हल्की-फुल्की भी कभी कभी ज़रूर लिखा करें।
बहुत बहुत धन्यवाद।
दिनेशजी,
जवाब देंहटाएंजब घर में रहते थे तो सर्दियों में माताजी बाजरे की रोटी पे खूब सारा घी लगाकर और साथ में गुड अथवा बथुये के रायते के साथ खाना खिलाती थीं । बथुये का रायता खाये तो अब बरसों हो गये ।
इसके अलावा गेंहूँ के आटे में थोडा चने का आटा मिलाकर मिस्सी रोटी भी बनती थी जिसकी अभी भी याद आती है । मौज है आपकी, ऐश कीजिये :-)
हम लोग मेलों में ही ज्वर, बाजरे आदि की रोटियाँ खा पाते हैं. सरसों के साग के साथ मक्के की रोटी भी ढाबों से ही मिल जाती है. हमारे यहाँ गेहूँ की रोटी ही बन जाए तो बड़ी बात है. जिस दिन भी होता है, घर के तीनों सदस्य मिल कर बनाते हैं. अच्छा मार्ग दर्शन दिया. आभार.
जवाब देंहटाएंसर जी ! इन तीनो का सेवन अक्सर हमारे यहां चलता है ! पर हमको इससे दूर ही रखा जाता है ! कारण कि ये मोटे अनाजो की रोटियों को जब तक घी से नही भरो तब तक गले के नीचे उतरने को तैयार नही और घरवाली प्राण देदे पर हमको घी की तरफ़ देखने भी नही देती ! :)
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी बात बताई आपने ! बिना घी की खाई जानी चाहिये और घी खाना मना नही हो तो स्वर्ग यहीं है !
रामराम !
@ ताऊ जी,
जवाब देंहटाएंमैं ने रोटिय़ों के साथ घी खाना दो तीन साल से बंद कर रखा है। बिना घी के ही खाता हूँ। बिना डाक्टर की सलाह के ही। उस के अच्छे परिणाम सामने आए कि सभी तरह का कोलेस्ट्रोल और शुगर अपनी सीमा में भी निचली तरफ रहते हैं।
sach sabhi anaaz khane chahiye,hamare yaha gehu aur jawar banta hai par makka nahi.
जवाब देंहटाएंसही और उपयोगी जानकारी। हमारे बडॆ बुढे कहते रह गए और हम सुनते रह गए जी। वैसे पुराने बुर्जुगों की सेहत यही राज है।
जवाब देंहटाएंअरहर की दाल की चुनी निकलती है उसकी रोटी भी बहुत शानदार बनती है बस उसके अच्छे होने के लिए आग में बनना जरूरी होता है घी की कमी घर में निकले ताजे मक्खन से पूरी की जाय तो कोलेस्ट्राल का भय ज्यादा नही रहता
जवाब देंहटाएंमेने बचपन मे ज्वार की रोटी खाई थी, सन १९६१ मै, वेसे तो हमारे घरो मे मक्का, ओर गेंहू की ही रोटी बनती है, हरियाणा मै आने के बाद पहली बार बाजरे की रोटी शक्कर ओर खुब घी के साथ खाई, लेकिन जब से इन फ़िरंगियो के देश मै आ गये तो गेंहू की रोटी ही खाते है, साल मै कभी कवार मक्का की रोटी मिल जाती है.
जवाब देंहटाएंआप ने बहुत अच्छी बात बताई, चलिये हम भी यहा ट्राई करते है, पुरी तरह से नही तो गेहूमै मक्का मिला कर रोटी बनबाते है अपनी माल्किन से.आप का धन्यवाद
बहुत सह कहा। सर्दियों में मक्का और बाजरा का प्रयोग हमारा भी बढ़ जाता है।
जवाब देंहटाएंरात कोई दस बजे आपकी पोस्ट पढी तो मानो, सवेरे-सवेरे ही, रोटी बना रही मां के सामने, चूल्हे के पास बैठ गया ।
जवाब देंहटाएंमक्का की रोटी सर्दी में बेहतर होती है । इससे पेट बहुत जल्दी भर जाता है । यह जल्दी पच जाती (और चूंकि सर्दी के दिन छोटे होत हैं, सो) शाम को जल्दी भूख लग आती है । किन्तु लोक मान्यता है कि इससे 'बादी' होती है ।
ज्वार की रोटी ग्रीष्म त्रतु में अत्यधिक लाभदायक होती है । यह 'ठण्डी तासीर' वाली होती है । यह अत्यधिक स्वास्थ्यानुकूल होती है । ज्वार की रोटी को यदि छाछ में मसल कर खाई जाए तो संग्रहणी जैसा रोग भी भाग जाता है । ज्वार को तो 'माता' कह कर पुकारा गया है ।
बाजरे की रोटी के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं है (और खाई तो लगभग नहीं ही है) किन्तु सुना है कि इसकी तासीर काफी गर्म होती है और इसीलिए इसे, बिना चिकनाई के नहीं खानी चाहिए । चिकनाई में यदि घी हो तो अधिक अच्छा ।
बहरहाल, सर्दी के इस मौसम में आपने काफी गर्मी ला दी ।
एक दम सुस्वादु पोस्ट है -
जवाब देंहटाएंहमेँ तो ये सभी रोटीयाँ पसँद हैँ
- लावण्या