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शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008

हो जाती जय सिया राम

  आप सभी ने महेन्द्र 'नेह' की कवितओं और गीतों का रसास्वादन किया है। आज पढ़िए उन का एक सुरीला व्यंग्य लेख ......
'व्यंग्य - लेख' 
हो जाती जय सिया राम                * महेद्र नेह


कहते हैं जिसका सारथी यानी ड्राइवर अच्छा हो, आधा युद्ध तो वह पहले ही जीत जाता है। लेकिन अपने भाई साब जी की राय इस मामले में बिलकुल भिन्न है। ये डिराइवर नाम का जीव उन्हें बिलकुल पसंद नहीं। चूँकि इस मृत्युलोक में डिराइवर के बिना काम चल ही नहीं सकता, अत: यह उनकी मजबूरी है। दरअसल वे छाछ के जले हुए हैं, अत: दूध को भी फूँक-फूँक कर पीते हैं।


अपनी आधी सदी की जिंदगी में भाई साब जी को डिराइवरों को लेकर कई खट्टे- मीठे अनुभवों से गुजरना पड़ा है। डिराइवरों के बारे में अपने अनुभव सुनाते हुए वे कहते हैं- भर्ती होकर आयेंगे तो मानों साक्षात राम भक्त हनुमान धरती पर उतर आये हों। सारी जिम्मेदारियाँ और मुसीबतें अपने सर ले लेंगे। अरे भाई, तुम्हारा काम है- कार चलाना। स्टीरिंग को ढंग से सम्भालो और कार को झमाझम रखो। बाकी चीजों से तुम्हें क्या लेना देना। मगर नहीं। भाई साब जी जूता पहनने बढ़े तो जूते, मफलर पहनना हो तो मफलर, टोपी तो टोपी। गले से मालाएँ उतारनी हों तो उसमें भी सबसे आगे। कोई जरा जोर से बोले तो बाँहें चढ़ाने लग जायेंगे।

आप अपने भाई-बन्दों से, बाल-बच्चों से, धर्म पत्नी से, यहाँ तक कि पी.ए. से भी बहुत सी चीजें छुपा सकते हैं, मगर डिराइवर से तो कुछ भी छुपाना मुश्किल है। अपनी सीट पर बैठा-बैठा सब कुछ गुटकता रहेगा। अन्दर की, बाहर की, उपर की, नीचे की सारी बातें हजम कर जायेगा। कान और आंखें एकदम ऑडियो-वीडियो की तरह काम करती है। ढोल में कुछ पोल बचती ही नहीं है।


और ढोल की ये पोल, अगर पब्लिक को मालूम पड़ जाये तो समझ लो हो गया बेड़ा गरक। भाई साब जी ने कितने जतन से ये कार-बँगले-खेत-प्लाट-पेट्रोल पम्प-होटल और कारखाने खड़े किये हैं। साथ ही कितनी होशियारी से अपनी जन सेवक की इमेज भी कायम रखी है। यदि इसकी कलई खुल जाय, तो बंटाढार ही समझो। सारा शहर जानता है, भाई साब जी के घर की स्थिति शरणार्थियों से भी गई बीती थी। मगर चौदह साल में तो घूरे के दिन भी फिर जाते हैं। उनके दिन फिर गये तो न जाने क्यों लोग-बाग अन्दर ही अन्दर जलते-सुलगते रहते हैं?

अरे भाई, यदि धन-दौलत आयेगी तो उसका उपभोग भी होगा। जब आज के जमाने के सन्त-महात्मा ही पुराने जमाने के साधु-सन्तों जैसे नहीं रहे तो आखिर वे तो गृहस्थ ठहरे। इस आधुनिक युग में सब कुछ होते हुए भी, कोई माई का लाल चौबीसों घन्टे खद्दर के कपड़े पहन के तो दिखा दे। अरे, उस दिन साध्वी जी के अनुरोध पर उन्होंने स्वीमिंग सूट पहन लिया और उनके साथ स्वीमिंग-पूल के निर्मल जल में दो चार गोते लगा भी लिये तो कौन सा बड़ा भारी अनर्थ हो गया? बड़े मंत्री जी तो नित्य ही बिना नागा बोतल पर बोतल साफ कर देते हैं। उन्होंने उस दिन दो-चार पैग चढ़ा लिये तो कौन सी किसी की भैंस मार दी?

उस सुसरे छदम्मी लाल डिराइवर की हिम्मत तो देखो। पहले तो बिना पूछे स्वीमिंग-पूल के अन्दर घुसा क्यों? और फिर अगर घुस भी गया तो उसे दुधमुँहे बच्चे की तरह अपने दीदों को चौड़ाने की क्या जरूरत थी? पत्रकार जी आये थे हमारा इंटरव्यू लेने के लिए, महाराजाधिराज जी खुद ही उसे इंटरव्यू देने लग गये- ""भाई साब जी ये कर रहे थे, भाई साब जी वो कर रहे थे...'' बच्चू को यह नहीं मालूम कि पत्रकार जी तो रहे हमारे पुराने लंगोटिया और हमारी संस्कारवान पार्टी के खास कार्यकर्ता। हाँ, उनकी जगह उस दिन कोई और होता तो समझ लो उसी दिन हो जाती अपनी जय सिया राम...।

17 टिप्‍पणियां:

  1. डिराइवर लोगों के कारण तो नेताओं की पॉल खुलती है. हमारे मुहल्ले में एक पी.एच.दी.किया हुआ तांत्रिक महाराज रहते हैं. एक बार जजमान उन्हें ले गये अपने फार्म हाउस और वही सब हुआ था. अब पॉल खुल गयी. बज़ार ठप हो गया.
    सुंदर कटाक्ष. आभार.

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  2. जी, बिल्कुल सही है ! डिराईवर और सकेरेटरी इन दोनो को जो सम्भाल ले उसी की इज्जत बची रहती है ! वर्ना तो इनकी मेहरवानी पर है कि कितने समय आपकी इज्जत साबुत बचती है ? :)

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  3. धन्यवाद, द्विवेदी जी. आनंद आ गया ऐसा सटीक व्यंग्य पढ़कर. ऐसे इंटरव्यू के बाद उस डिराइवर की तो राम नाम सत्य ही समझो.

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  4. बहुत बढिया! पढ़ कर आनंद आ गया।धन्यवाद।

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  5. मेने इसी लिये तो ड्राईवर नही रखा ( बीच की बात ईतनी हिम्मत नही) बस जनाब खुद ही चलाते फ़िरते है अपनी खाटारा,दिनेश जी आप ने बिलकुल सही कहा, बाकी घर का नोकर भी सब कुछ जानता होता है.
    धन्यवाद

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  6. एक उच्च स्तर की व्यंग रचना पढ़वाने के लिये धन्यवाद तभी...
    जब इनकी पुस्तकें मिलने का पता बतायेंगे !
    बेहतरीन प्रस्तुति है, यह !

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  7. हा..हा पढने मे बहुत मजा आया। वैसे मेरे पास तो साईकल है और वो मै चलाता नही।

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  8. ये चालक महाशय सबकी पोल पट्टी जानते है ..ओर गहरे भेदी भी.....हमें एक बुजर्ग ने कभी सलाह दी थी की पंगा मत लेना इस कौम से .खास तौर पे जब बाहर हो....उन्होंने बताया की एक बार वे अपने जी .एम् के साथ सफर में थे .जो बार बार उसे भला बुरा कहते ,ग़लत तरह से व्यवहार करते ....उसने आगे जाकर एक बाजार में गाड़ी रोक दी .बोला इसे ठीक करने में घंटा भर लग जायेगा ....जी एम् साहब रिक्शा कर निकल गए ,जब वे जाने लगे उसने उन्हें इशारे से रोक लिया "बोला साहब आप चिंता न करे .अभी ठीक करे देता हूँ.........छोड़ दूँगा ......

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  9. ये चालक हैं या चालाक ?
    सुन्‍दर व्‍यंग्‍य ।

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  10. श्री कृष्ण पार्थ सारथी ना बनते तब कुरुक्षेत्र के युध्ध की विजय श्री
    पाँडवोँ के हाथ कदापि ना लगती
    अच्छा लिखा है
    लावण्या

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  11. अच्छा व्यंग है. मुझे तो इन कार ड्राइवरों और देश के ड्राइवरों में कोई फर्क नजर नहीं आता. एक व्यंग उन पर भी आना चाहिए.

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कैसा लगा आलेख? अच्छा या बुरा? मन को प्रफुल्लता मिली या आया क्रोध?
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