एक टिप्पणी चर्चा
राजस्थान चुनाव के नतीजे और मेरी संक्षिप्त टिप्पणी पर बहुमूल्य विचार प्रकट हुए। ताऊ रामपुरिया तीसरे विकल्प के बारे में निराश दिखाई दिए उन्हें जनतंत्र के ही किसी कलपुर्जे में खोट दिखाई दिया-
"अब चाहे कांग्रेस (नागनाथ) हो या भाजपा ( सांपनाथ ) हों ! क्या फर्क पड़ना है ? आप बात कर रहे हैं तीसरे विकल्प की तो आप देख लेना की तीसरा विकल्प भी अजगर नाथ ही निकलेगा ! उत्तर-प्रदेश में तीसरे विकल्प का भी हाल देख चुके हैं ! मुझे ऐसा लगता है की ये तो प्रजातंत्र की शायद कोई बेसिक कमी है जिसका इलाज अभी किसी को नही दिखाई दे रहा है !"
डा. अमर कुमार ने कहा क्या फर्क पड़ता है?
"दद्दू, औकात बतायी हो या ना बतायी हो..
हम तो उसी विचारधारा के हैं..
'होईहें कोऊ नृप हमें का हानि.. "
सुरेश चिपलूनकर ने जातिवाद को अंतिम सत्य मानते हुए शिक्षा को उस के मुकाबले कमजोर अस्त्र माना-
"ताऊ, प्रजातंत्र में बेसिक कमी नहीं है, बेसिक कमी तो लोगों में ही है, यदि वसुन्धरा गुर्जरों-मीणाओं के दो पाटन के बीच न फ़ँसी होती तो तस्वीर कुछ और भी हो सकती थी, लेकिन भारत में "जातिवाद" हमेशा सभी बातों पर भारी पड़ता रहा है, चाहे हम कितने ही शिक्षित हो जायें…"
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, ने ताऊ की टिप्पणी पर सहमति प्रकट करते हुए अपनी सांख्यिकी से उन के प्रमेय को सिद्ध करने का प्रयत्न किया-
"अब चाहे कांग्रेस (नागनाथ) हो या भाजपा (सांपनाथ) हों ! क्या फर्क पड़ना है ? आप बात कर रहे हैं तीसरे विकल्प की तो आप देख लेना की तीसरा विकल्प भी अजगर नाथ ही निकलेगा ! उत्तर-प्रदेश में तीसरे विकल्प का भी हाल देख चुके हैं ! मुझे ऐसा लगता है की ये तो प्रजातंत्र की शायद कोई बेसिक कमी है जिसका इलाज अभी किसी को नही दिखाई दे रहा है ! ताऊजी की उक्त टिप्पणी से सहमत। सौ लोगों में से १२ लोगों का समर्थन (वोट) पाने वाला कुर्सी पा जाता है क्यों कि शेष ८८ में से ५० लोग वोट डालने गये ही नहीं, ५-६ के वोट दूसरों ने डाल दिए, और बाकी ३०-३२ के वोट दूसरे दर्जन भर उम्मीदवारों ने अपनी जाति, धर्म, लिंग, क्षेत्र बताकर या दारू पिलाकर बाँट लिए। यही हमारे देसी प्रजातन्त्र का हाल है।"
विष्णु बैरागी ने पते की बात की कि नागरिक की जिम्मेदारी केवल मतदान तक सीमित नहीं उन्हें चौबीसों घण्टे जागरूक, सतर्क और सचेत रहने को चेताया-
. "वह सत्ता ही क्या जो पदान्ध-मदान्ध न करे ? सो, कुर्सी में धंसते ही सबसे पहले तो कांग्रेसी अपनी पुरानी गलतियां भूलेंगे । वे तो यह मानकर चल रहे होंगे कि नागरिकों ने प्रायश्चित किया है और वे (कांग्रेसी) सरकार में बैठकर नागरिकों पर उपकार कर रहे हैं । वस्तुत: 'लोक' को चौबीसों घण्टे जागरूक, सतर्क और सचेत रहना होगा, अपने नेताओं को नियन्त्रित किए रखना होगा और नेताओं को याद दिलाते रहना होगा कि वे 'लोक-सेवक' हैं 'शासक' नहीं । वे 'लोक' के लिए हैं, 'लोक' उनके लिए नहीं । लोकतन्त्र की जिम्मेदारी मतदान के तत्काल बाद समाप्त नहीं होती । वह तो 'अनवरत' निभानी पडती है । ऐसा न करने का दुष्परिणाम हम भोग ही रहे हैं - हमारे नेताओं का उच्छृंखल व्यवहार हमारी उदासीनता का ही परिणाम है।"
मेरी बात
लेकिन बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती है। बकौल बैरागी जी बात आगे चलती है। भले ही मतदान कर कुछ लोगों ने कर्तव्य की इति श्री कर ली हो और परिणामों का विश्लेषण करने में जुट गए हों। बहुत लोग हैं जो बिना किसी राजनीतिबाजी के अभी से कमर कस लिए हैं कि नई सरकारों को उन के कर्तव्य स्मंरण कराते रहना है। ये वे लोग हैं जो शायद इस चुनाव अभियान में कहीं नजर नहीं आए हों। लेकिन वे लगातार जनता के बीच काम भी कर रहे थे, उन में चेतना जगाने के लिए। भले ही ताऊ और त्रिपाठी जनतंत्र के नतीजों के प्रति आश्वस्त हों कि उन से नागनाथ और सांपनाथ के स्थान पर कुछ और निकला तो वह अजगरनाथ ही निकलेगा। सुरेश चिपलूनकर जी ने लाइलाज जातिवाद को उस का प्रमुख कारण बताया। डॉक्टर अमर कुमार कहते हैं 'कोई नृप होय हमें का हानि', हम तो बकरे हैं ईद के पन्द्रह दिन पहले हम मंडी में बिके, खरीददार ने हमें सजाया संवारा और ईद आते ही ज़िबह कर दिया। यहाँ वे हानि के स्थान पर लाभ लिखते तो भी उतना ही सटीक होता जितना मानस में है।
तीसरे विकल्प के प्रति नैराश्य अवश्य ही राजनीतिकअवसाद का प्राकट्य है। यदि इस तंत्र से नागनाथ, सांपनाथ और अजगरनाथ के अलावा कुछ भी नहीं उपजना है तो इस तंत्र को ठीक करने या विस्थापित करने की तरफ आगे बढ़ने का विचार आना चाहिए नैराश्य नहीं। मनुष्य एक जमाने में वनोपज का संग्राहक ही था। वहाँ से वह कुछ वर्षों की आवश्यकता के खाद्य संग्रहण की अवस्था तक पहुँचा है। उस ने धरती के संपूर्ण व्यास को नापा है। और अपने कदम चाँद पर धरे हैं। अपनी निगाहों को लंबा कर मंगल की सतह पर और सौर मंड़ल के आखरी छोर तक पहुँचाया है। मानव में असंख्य संभावनाएँ हैं इस लिए नैराश्य का तो उस के जीवन में कोई स्थान होना ही नहीं चाहिए।
यह सही है कि तीसरा विकल्प वोट की मशीन से नहीं आएगा। इन वोट लेने और वोटर को भूल जाने वाले दलों की रेसीपियों से भी नहीं निकलेगा। उसे निकालने के लिए तो जनता को कुछ करना होगा। वोटर जब तक अकेला बना रहेगा कुछ न होगा, वह अकेली लकडी़ की तरह तोड़ा जा कर भट्टी में झोंका जाता रहेगा। वोटर को लकड़ियों का गट्ठर बनना होगा। हमें तंत्र के तिलिस्म को तोड़ना होगा। तंत्र ने वोटरों के कोटर बनाए हैं। आप ने वोटर लिस्टें देखी होंगी। वे न भी देखी हों तो किसी उम्मीदवार की पर्चियाँ आप के घर जरूर आयी होंगी। उन्हें एक बार निहार लें। उन पर भाग संख्या लिखा होता है। हर मतदान केन्द्र में लगभग दो हजार लोगों की लिस्ट होती है वही एक भाग कहलाता है। आप जिस भाग में रहते हैं उस को पहचान लीजिए। कोशिश कीजिए कि इस भाग के मतदाताओं से पहचान कर लें। उन सभी मतदाताओं से स्थानीय समस्याओं के प्रति जागरूक होने बात करिए। यदि हम एक भाग के मतदाताओं की एक जुटता बनाने में सफल हो जाएँ और अपने क्षेत्र के जनप्रतिनिधि ( एमपी, एमएलए, पार्षद, पंच) के सामने उसे दिखा सकें तो आप समझ लें कि आप जनतंत्र को आगे बढ़ाने में सफल हो सकते हैं। आप चाहे कुछ भी कहें। जनप्रतिनिधि एक-एक वोटर की परवाह नहीं करते लेकिन वे वोटरों के गट्ठरों से अवश्य ही भय खाते हैं।
"आप बात कर रहे हैं तीसरे विकल्प की तो आप देख लेना की तीसरा विकल्प भी अजगर नाथ ही निकलेगा ! उत्तर-प्रदेश में तीसरे विकल्प का भी हाल देख चुके हैं ! मुझे ऐसा लगता है की ये तो प्रजातंत्र की शायद कोई बेसिक कमी है जिसका इलाज अभी किसी को नही दिखाई दे रहा है !"
जवाब देंहटाएंउपर्युक्त कथन से सहमत हूं.
किसी कारणवश आपकी पोस्ट पर टिप्पणी नहीं दे पाया था. पर टिप्पणियों को चर्चा का विषय बना कर एक पूरी पोस्ट लिखना अच्छा लगा. धन्यवाद.
बहुत ही वैज्ञानिक विवेचना है हमेशा की तरह।'कोउ नृप होय ' कहने वाले भी जाने-अनजाने यथास्थिति
जवाब देंहटाएंके पक्ष में व परिवर्तन के विरोध में ही खड़े दिखाई
देते हैं।
डेमोक्रसी हमेँ वोट तो डालने का हक्क देती है पर अच्छे उमीदवार हमीँ मेँ से आगे आना भी जरुरी है
जवाब देंहटाएंअच्छा लिखा है आपने
स स्नेह,
- लावण्या
मंजिल पाने के लिए पहला कदम तो उठाना होगा..आपका सुझाव उस पहले कदम का आगाज है.
जवाब देंहटाएंA thought provoking discussion !
जवाब देंहटाएंसिर्फ़ सोचना ही काफी नहीं है, समाधान पाने के लिए और समाधान पाने तक रचनात्मक सोच ज़रूरी है. तीसरा नहीं तो चौथा, पांचवां, ...
जवाब देंहटाएंमुझे ऐसा लगता है की ये तो प्रजातंत्र की शायद कोई बेसिक कमी है जिसका इलाज अभी किसी को नही दिखाई दे रहा है !"
जवाब देंहटाएंmain is baat se sahmat hoon ...
जब तक इस देश का सामन्य जन शिक्षित व विवेकी नहीं बनता तब तक कोई नुस्खा कारगर हो ही नहीं सकता। जनता के बौद्धिक स्तर को बढ़ाने की एक व्यापक नीति केनिर्माण व क्रियान्वयन की घोर महती आवश्यकता है।
जवाब देंहटाएंआपके तर्क और विद्वजनों की बात से सहमत हूँ ! फ़िर भी मुझे मेरे सवाल का जवाब नही मिल पा रहा है की अंतत: तो इन्ही तीनो में से कोई मेरा भाग्य विधाता बनेगा !
जवाब देंहटाएंया तो इन तीनो को ही जनता इतना त्रस्त कर दे की ये नैतिक मूल्यों को मानने के लिए तैयार हो जाए ! लेकिन आक्रोश पूर्वक दिए गए वोट की शकल में यह सम्भव नही हो पायेगा ! उसका परिणाम तो फ़िर से अजगरनाथ ही होगा !
वैसे बहस चलती रहे तो कुछ ना कुछ उपयुक्त विचार किसी के दिमाग से प्रकट हो ही सकता है !
राम राम !
कुछ सवाल जेहन में आते हैं - जैसे ठुसी हुई रेलगाड़ी को देख कर लगता है कि लोग इतनी यात्रा क्यों करते हैं? या सरकार को कोसते देख कर यह लगता है कि सरकार की अहमियत कम से कमतर क्यों नहीं होती जाती?
जवाब देंहटाएं@ ताऊ जी
जवाब देंहटाएंद्विवेदी जी ने जो सुझाव दिए हैं वे वास्तविक हैं और अपनी टिप्पणी में स्मार्ट इंडियन जी स्पष्ट कर देते हैं की आगे का रास्ता क्या हो सकता है
पहला, दूसरा नही तीसरा चौथा नही तो फ़िर अगर द्विवेदी जी के सुझाव से लोग एकजुट होना शुरू करते हैं तो एक अपने ख़ुद के विकल्प के बारे में सोचा जा सकता है.
अगर विकल्प नही सही हैं तो अपने विकल्प बनाने होंगे.
कोई दल और उसकी नीतियां कितनी अच्छी क्यों न हो जब हमारा प्रतिनिधि ही नही सही होगा तो चीजें सही हो ही नही सकती.
ज्ञानजी ने कहा है सरकार की अहमियत कम से कमतर क्यों नहीं होती जाती?
जवाब देंहटाएंमैं भी सदा से ही इस बात का समर्थक रहा हूँ. ज्यादा से ज्यादा काम आम जनता ही करे मगर हमारे यहाँ दूध बेचने से लेकर रेल चलाने तक का काम सरकार करती है. बस वही नहीं करती जो उसे करना चाहिए.
दिनेशरायजी की राजनैतिक लाइन मजबूत हो । 'कोऊ नृप होए हमे का हानि' की अगली लाइन मन्थरा वृत्ति को स्पष्ट कर देती है - 'चेरी छोड़ न होईहो रानी'।
जवाब देंहटाएंआपने मुझे दोहरा सम्मान दिया - एक तो मेरी टिप्पणी को शामिल कर और दूसरे - मेरी ही बात को आगे बढा कर । कोटिश- धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंआपका मन्तव्य सामयिक, आवश्यक और काच की तरह साफ है ।
उम्मीद करें कि हम सब मिल कर दशा-दिशा बदलने की शुरुआत करेंगे ।
ईश्वर हमें शक्ति दे ।
हां, आपकी इस पोस्ट ने मुझसे एक पोस्ट लिखवा दी है । अभी-अभी पोस्ट की है । इसके लिए अतिरिक्त धन्यवाद और आभार ।
हा हा सवाल पर सवाल हैं सर और जवाब पर बवाल हैं.
जवाब देंहटाएंये मगर सिद्ध हो चला है अब तो ---
हम नृप भए, हमहूँ कै हानि !
चेरी बनै, कबहूँ नै रानी !!
आदरणीय द्विवेदी जी.
जवाब देंहटाएंयह कथन पूर्णतया सत्य है, कि हर नेतृत्व ने जनता को ठगा मात्र है, बजाय कुछ देने के. लेकिन परिस्थितियों के परिवर्तन के लिए हमें प्रयत्न तो करना ही पड़ेगा.
आपका चर्चा का यह अंदाज बेहद पसंद आया, और देश में ग्रासरूट लेवल पर राजनीतिक चेतना विकसित करने का उपाय भी.
राजनीति की समझ तो नहीं है मुझे और ना ही समझने की चेष्टा करता हूँ...बस आपके लेखन का कायल हूँ सो आ कर पढ़ लिया
जवाब देंहटाएंएक जमाने में भारतीय लोगों के जीवन को धर्म नियंत्रित करता था । आज राजनीति ने वह स्थान ले लिया है । लेकिन हम में से आज भी 50 प्रतिशत से अधिक लोग इस सच को या तो समझते ही नहीं या अपने आलस्य के कारण अनदेखा कर देते हैं । व्यस्तता का बहाना या सच्चाई जो भी कह लो सबके पास है ही । सबको अपनी अपनी रोज़ी रोटी तो कमानी ही है । तो सच को जानते समझते भी जब तक को दुर्घट हमारे ही साथ प्रत्यक्षत: नहीं हो जाता, हम अनजान या निरपेक्ष ही बने रहते हैं ।
जवाब देंहटाएंआपने बहुत अच्छी तरह समझाया कि कैसे हम अपने इलाके के प्रतिनिधि को वोटरों की एकजुटता की शक्ति से संचालित कर सकते हैं । लेकिन इस एकजुटता के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है , प्रत्येक वोटर के मन में पैठा अहं । कोई भी वोटर इसका विसर्जन कर अपने को कम नहीं दिखाना चाहता । जो कोई भी अपने इलाके वोटरों को एकजुट करने के काम को सम्पन्न करने के लिए आगे आएगा, उसकी नि:स्वार्थ प्रवुत्ति पर शंका की जाएगी ।
फिर भी आपका प्रयास बहुत सार्थक है जिसने हम सब को सोचने पर विवश किया । लेकिन यह सोच कर्म में परिवर्तित हो सके, अपने स्तर पर इसका प्रयास करूंगी । बाकी सबके लिए भी यही कामना करूंगी कि जो हम सोचते हैं उसे कर्म-व्यवहार में उतारने की शक्ति भी अर्जित कर सकें ।