अनवरत के आलेख पर एक टिप्पणी आई .....
आज तक जैसे लोग चुनकर आए और जिस तरह आए, उससे तो यही मानना पड़ता है कि जनता पागल नहीं तो कम से कम बेवकूफ ज़रूर है। वरना क्यों कोई सडांध और बीमारी के बीच रहना चाहेगा? वह भी तब जब सारे काम ईमानदारी से करवाने का ब्रह्मास्त्र जनता के ही हाथ में हो?
इस टिप्पणी से सहमति की बात तो कोसों दूर है, इस ने मेरा दिल गहरे तक दुखाया। ऐसा नहीं है कि यह वाक्य पहली बार जेहन में पड़ा हो। रोज, हाँ लगभग रोज ही कोई न कोई यह बात मेरे कान में डाल देता है। लेकिन या तो उसे लोगों की नासमझी समझ कर छोड़ देता हूँ। ऐसी ही बात कोई सुधी कहता है तो पता लगता है, हम ने ही उसे गलत समझा था। उसे अभी सुध आने में वक्त लगेगा।
उन मित्र का नाम मुझे पता नहीं, वे बनावटी नाम से ही ब्लॉग जगत में उपस्थित हैं। पहचान छुपाने के पीछे उन की जरूर कोई न कोई विवशता रही होगी। मुझे उन का नाम जान ने में भी कोई रुचि नहीं है। वैसे भी मुझे जीवन में जब जब भी लगा कि कोई व्यक्ति अपनी पहचान छुपाना चाहता है तो मैं ने उसे जान ने का प्रयत्न कभी नहीं किया। जान भी लूँ तो उस से हासिल क्या? जब कभी मुझे लगा कि मैं कहीं अवाँछित हूँ, तो मैं वहाँ से हट गया। बहुत ब्लॉग हैं जहाँ लगा कि मैं टिप्पणीकार के रूप में अवांछित हूँ तो मैं ने वहाँ जाना बन्द कर दिया। आखिर हर किसी को अपनी निजता को बनाए रखने का अधिकार है। मैं हर किसी कि निजता की रक्षा का हामी हूँ, सिर्फ अपनी खुद की निजता के सिवा।
मुझे संदर्भित टिप्पणीकार की समझ से भी कोई परेशानी नहीं है। लेकिन जनता एक समष्टि है, उस के प्रति तनिक भी असम्मान मैं कभी बरदाश्त नहीं कर पाया। मुझे लगता है जैसे मेरे ईश्वर का अपमान कर दिया गया है। लगता है जैसे मेरी अपनी भावनाएँ किसी ने चीर दी हैं।
आखिर यह जनता क्या है?
जी, जनता में मैं हूँ, आप हैं, सारे ब्लागर हैं, सारे टिप्पणीकार हैं, सारे पाठक हैं।
जनता में मेरे माता-पिता हैं, ताई है, चाची है, ताऊ हैं, चाचा हैं। बेटे और बेटी हैं, भतीजे-भतीजी हैं।मुहल्ले के बुजुर्ग हैं, स्कूल और कॉलेज में पढने वाले बच्चे हैं, और वे भी हैं जो किसी कारण से स्कूल का मुँह नहीं देख पाए या कॉलेज तक नहीं जा सके। आप के हमारे नाती है पोते हैं।
जनता में मेरे अध्यापक हैं, गुरू हैं। जनता में राम हैं, जनता में कृष्ण हैं, जनता में ही ईसा और मुहम्मद हैं। जनता में ही बुद्ध हैं, गुरू-गोविन्द हैं।
कुदरत ने इन्सान को दिमाग दिया, कि वह कुछ सोचे, कुछ समझे और फिर फैसले करे। मैं भी ऐसा ही करता हूँ। लेकिन कभी मेरा इन्सान फंस जाता है। दिमाग काम करने से इन्कार कर देता है। तब मेरे पास एक ही रास्ता बचता है, जनता के पास जाऊँ। मैं जाता हूँ। वह मुझे बहुत प्रेम करती है। मुझे समझती है। वह प्यार से मुझे बिठाती है, थपथपाती है, मुझे आराम मिलता है, वह फिर से सोचना सिखाती है। जब फूल मुऱझा कर गिरने को होता है तो वह उसे फिर से जीवन देती है। जब अंधेरा छा जाता है, तो वही मार्ग दिखाती है। वह मुझे प्राण देती है, मैं जी उठता हूँ।
पश्चिम से ले कर पूरब तक सब परेशान हैं, मंदी का जलजला है, बड़े बड़े किले गिर रहे हैं, प्राचीरें ढह रही हैं, लोग उन के मलबे के नीचे दबे कराह रहे हैं, कुछ उन के नीचे दफ्न हो गए हैं कभी वापस न लौटने के लिए। हर कोई कांप रहा है। फिर भी विश्वास व्यक्त किया जाता है -यह तूफान निकल जाएगा, जितना नुकसान करना है कर लेगा। लेकिन दुनिया फिर से चमन होगी, बहारें लौटेंगी। फिर से खिलखिलाहटें और ठहाके गूंजेंगे। लेकिन इस आस-विश्वास का आधार क्या है?
वही जनता न? वह फिर से कुछ करेगी, और खरीददारी के लिए बाजार आएगी।
1975 से 1977 तक देश एक जेलखाना था। नेता बंद थे और जनता भी। जेलखाने से पिट कर निकले तो उत्तर-दक्षिण, पूरब-पच्छिम एक साथ हो लिए। उन्हें कतई विश्वास नहीं था कि कुछ कर पाएँगे। वह जनता ही थी जिसने एक तानाशाह के सारे कस-बल निकाल दिए और उन्हें सब-कुछ बना दिया। लेकिन जब पूरब,पश्चिम,उत्तर,दक्षिण जनता को मूर्ख मान फिर से अपनी ढपली अपना राग गाने लगे, तो उसी ने उन्हें ठिकाने लगा दिया। बताया कि तुम से तो कस-बल निकला तानाशाह अच्छा।
वह चाहती तो न थी, कि तानाशाह वापस आए, चाहे उस के कस-बल निकल ही क्यों न गए हों। पर विकल्प कहाँ था? विकल्प आज भी कहाँ है? इधर कुआँ है उधर खाई है। दोनों में से एक को चुनना है। क्या करे? वह स्तंभित खड़ी है, एक ही स्थान पर। जिधर से झोंका आता है, बैलेंस बनाने को उसी ओर हो जाती है। यही एक मार्ग है उस के पास, जब तक कि खाई न पटे, या कुंएँ के पार जाने की कोई जुगत न लग जाए। जिस दिन जुगत लग जाएगी, उस दिन दिखा देगी कि वह क्या है?
सच कहूँ, मेरे लिए, जनता भगवान है, वही दुनिया रचती है, वही ध्वंस भी करती है और फिर रचती है।
कैसे कहूँ वह मूरख है? वह तो ज्ञानी है। उस सा ज्ञानी कोई नहीं।
तो मूरख कौन?
सब तें मूरख उन को जानी। जनता जिन ने मूरख मानी।।
सच कहूँ, मेरे लिए, जनता भगवान है, वही दुनिया रचती है, वही ध्वंस भी करती है और फिर रचती है।
जवाब देंहटाएंकैसे कहूँ वह मूरख है? वह तो ज्ञानी है। उस सा ज्ञानी कोई नहीं।
आपकी बात से सौ प्रतिशत सहमत हूँ ! जनता ने १९७७ में सीधा चमत्कार दिखाया था पहली बार और तुंरत १९८० में दिखा दिया ! जबकी दोनों बार ही उम्मीद के विपरीत किया ! जनता जब तक सहन कर रही है , कर रही है पर इससे ऊपर कोई नही है ! बहुत सटीक और सुंदर आलेख ! आपको बहुत धन्यवाद और शुभकामनाएं !
बहुत बढिया, सटीक व सामयिक लेख लिखा है।बधाई स्वीकारें।
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों बाद फुरसत में नेट पर आया हूं.. सो पुराने पोस्ट कि भी चर्चा यहीं करता जाऊंगा..
जवाब देंहटाएंवो शादी के निमंत्रण वाली कविता बहुत शानदार लगी.. उनको मेरी तरफ से बधाई..
प्रत्याशियों और कचरे संबंध भी जबरदस्त लगा..
और आठवें विषय में एम.ए. करने वाले महोदय जी से प्रभावित हुये बिना नहीं रहा जा रहा है..
अब आते हैं आज के पोस्ट पर..
"जनता में मेरे माता-पिता हैं, ताई है, चाची है, ताऊ हैं, चाचा हैं। बेटे और बेटी हैं, भतीजे-भतीजी हैं।मुहल्ले के बुजुर्ग हैं, स्कूल और कॉलेज में पढने वाले बच्चे हैं, और वे भी हैं जो किसी कारण से स्कूल का मुँह नहीं देख पाए या कॉलेज तक नहीं जा सके। आप के हमारे नाती है पोते हैं।
जनता में मेरे अध्यापक हैं, गुरू हैं। जनता में राम हैं, जनता में कृष्ण हैं, जनता में ही ईसा और मुहम्मद हैं। जनता में ही बुद्ध हैं, गुरू-गोविन्द हैं। "
यह लाईन मुझे बहुत अच्छी और सच्ची लगी.. कुल मिला कर एक संदेश देता हुआ पोस्ट..
बहुत सधी हुई बात. पढ़ कर अच्छा लगा .
जवाब देंहटाएंपी. डी. भाई की तर्ज पर हम भी पूरी नजर रख रहे हैं लेकिन टिप्पणी हर बार नहीं लिख पाते आलस में, :-)
जवाब देंहटाएंजनता तो बेवकूफ़ कहना बहुत आसान है, ऐसे भी बहुत पढे लिखे मिले हैं जो अपने से कम पढे लोगों के मताधिकार पर ही प्रश्नचिह्न लगाते हैं । कभी ऐसे ही लोग मार्शल ला या फ़िर डिक्टेटरशिप की वकालत करते नजर आते हैं ।
आपका लेख बहुत सुलझा हुआ है, हम जब भी ऐसा लिखना चाहते हैं तो अपने विचारों में उलझ के रह जाते हैं ।
अभी हमारे यहाँ कुछ छुट्टियाँ होने वाली हैं, खाली समय में खूब पोस्ट लिखी जायेंगी, कम से कम ऐसी संभावना तो है :-)
जनता के बिना सब सुन है जी, हम भी सहमत है आप के सम्पुरण लेख से.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
आपने सही कहा । जनता ही जनार्दन है । ये 'पब्लिक' है, सब जानती है । जनता बोलती नहीं, चारों खाने चित कर देती है । जो धरती छोड देते हैं, उन्हें उनकी औकात बता देती है । जिसने जनता को न माना, वह कहीं का नहीं रहा ।
जवाब देंहटाएंअपनी अपनी सोच है
जवाब देंहटाएंजनता का फैसला आखिरी रहता है चाहे श्रीमान राज कपूर की फिल्म ही क्योँ ना हो ~~~
जवाब देंहटाएं(like Mera Naam Joker jo flop ho gayee )
या इँदिरा जी का सरकारी राज !
आप ने सही कहा -
- लावण्या
भई जनता सब जानती है पर करे भी तो क्या? इधर कुआं है उधर खाई, इधर नागनाथ है उधर सांप्नाथ। अब अपना वोट दें या ओट में रखे। और फिर, बूथ कैप्चर है हि, वोट तो बात की तरह है - बातों का क्या........
जवाब देंहटाएंसहज-सरल भाषा में बहुत गम्भीर विषय उठाया है आपने।साधुवाद!
जवाब देंहटाएंसही है, जनता जो है सो है, नेता जो है सो है। बाकी जनता या नेता को गरियाने वालों को मौका दे दीजिये तो शायद और भी गुड़ गोबर कर दें। :)
जवाब देंहटाएंआपके विचारों से मै १००% सहमत हूं।... आज की भारतीय राजनीति की वास्तविकता प्रस्तुत की है आपने, धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंजनता के पास लंबा इलास्टिक है .काफ़ी दूर तक खिचता है ...पर फ़िर झटके से टूट भी जाता है .जनता ऐसी ही है
जवाब देंहटाएंप्रजातंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का यही तो मज़ा है । कोई सदुपयोग करता है , तो कोई दुरुपयोग ......। किसी भी मुद्दे पर नज़रिए के फ़र्क से कभी बात बनती है , तो कई मर्तबा बनी बात बिगड जाती है ।
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