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रविवार, 2 नवंबर 2008

तकिए पर पैर

  

तकिए पर पैर
दिनेशराय द्विवेदी

सबसे नीचे, पैर!
दिन भर ढोते 
शरीर ,

बीच में,  उदर
भोजन का संग्रह,

सब से ऊपर, सिर
नियंत्रित करता
सब को,

वहीं एक छिद्र
भकोसता हुआ
पेट के लिए,

रात चारपाई पर
होते सब बराबर
लंबायमान 
एक सतह पर,

टूट जाते अहम्
सिर और पेट के,


कभी  होते
सिर के बजाय पैर
 तकिए पर।
***********************************************

26 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया बात कही गुरूजी आपने, पैर तकिये पर. अहा अनुभवी लोग सदा गहरी और ऊंची बात ही करते हैं.

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  2. आज तो आनंद आ गया ! कवि ह्रदय की लम्बी उड़ान के लिए शुभकामनाएं !

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  3. आदरेय पंडित जी, एक सुझाव देना चाहूँगा...
    इससे पहले कृपया सुनिश्चित कर लें, कि आपको संरक्षण देने वाला
    कोई अन्य लठैत किसिम का गाली-गलौज करने वाला ब्लागर भाई तो नहीं है ?
    कृपया एक बार यह खूबसूरत कविता, लेफ़्ट एलाइनमेन्ट में कर के देखें..
    मज़ा द्विगुणित हो जायेगा, क्योंकि यह लाइनें दोहे ( धोये ), छंद, मात्रा, पाई, इंगला इत्यादि के नियमों से मुक्त अतुकांत श्रेणी में है,
    सो, लेफ़्ट एलाइनमेन्ट अधिक फ़बेगा !

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  4. पहले लगा नही नही ये कविता कही ओर होगी ....आज रविवार आपका मूड देखकर खुशी हुई ...इशारो में आपने कम शब्दों में काफ़ी कुछ समझा दिया जीवन के बारे में ....डॉ अमर कुमार के मशवरे पर ध्यान दे वकील साहब

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  5. @ डा. अमर कुमार,
    आप सुझव नहीं आदेश दे सकते हैं।

    @ डॉ .अनुराग
    और आप भी।

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  6. प्रभुता पाई काहि मद नाहीं.
    पर टूटते तो हैं ही.

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  7. द्विवेदी जी को प्रणाम!
    वैसे मैं कविताओं की ज्यादा समझ नही रखता , इसीलिए साहित्यिक मोर्चे पर कम्मेंट्स नहीं देने की हिम्मत पड़ा करती है / वैसे जहाँ तक समझता हूँ की हर व्यक्ति के अन्दर एक कवि है , जरूरत है केवल उसके प्रस्फुटित होने की/
    आपको इस प्रस्फुटन के लिए शुभ कामनाएं!

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  8. शरीर की सीमाओं का ज्ञान कराती
    एक सार्थक रचना के लिए आभार.
    ==========================
    डॉ.चन्द्रकुमार जैन

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  9. कविता का मैदान मार लिया/समतल कर दिया आपने !

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  10. बहुत ही सुंदर।
    पर विडंबना देखिए। चेहरा चमकाने का सब को ध्यान रहता है पर जो जिंदगी भर पूरे शरीर को ढ़ोता है वही सबसे ज्यादा उपेक्षित रहता है।

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  11. बहुत सुन्दर कविता, लेकिन अगर शाम के समय हम रोजाना अपने पेरो को दो तकियो के ऊपर रखे, ओर सर के नीचे कोई तकिया ना रखे तो हमारे शरीर का रक्त सही काम करता है, ओर तांगो मे दर्द भी धीरे धीरे ठीक हो जाता है, ओर हमारे यहां तो ऎसे तकीये भी मिलते है,
    मुझे कविता का ग्याण तो नही लेकिन इस कविता के बहाने मुझे अपनी बात याद आ गई.
    धन्यवाद

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  12. बहुत सुंदर. एक यथार्थ से परिचित कराती है आपकी कविता.

    जो कहते हैं ख़ुद को बड़े,
    क्यों नहीं सोते खड़े-खड़े?

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  13. रोज़ रात को पैर तकिये पर रख कर ही सोता हूं,मगर आपने तो कमाल कर दिया।गज़ब की बात कही है।

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  14. ये भी कर के देखा है ..
    आराम मिलता है ..
    कविता अच्छी है ..
    लिखा कीजिये :)

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  15. कविता में आपकी सूक्ष्म निरीक्षण की क्षमता झलकती है। साधुवाद।

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  16. जब पैरों में बहुत कुढन होती है तो तकिये पर पैर रखकर सोने से आराम पाता रहा हूं । लेकिन यह बात इस तरह इतनी कही जा सकती है, कल्‍पना भी नहीं थी । सुन्‍दर ।

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  17. मैं समझ नहीं पा रहा हूँ आज सुबह इतनी सारी जगह टिप्पणी की, वो सब आखिर गई कहाँ??? यहाँ भी की थी..बह्हूहूहू.....;(

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  18. अच्छी कविता ,बहुत कुछ कह गयी !

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  19. वाह ! बहुत बढ़िया !
    घुघूती बासूती

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  20. अब तकिये पर से पैर हटा भी लो, पंडित जी !
    अब कुछ आगे भी लिखो, अपनी मस्त लेखनी से.. !

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  21. देर से नहीं,आपके पैर तकिये से हटने के बाद कुछ कह रहा हूँ .
    बायलोजी वाले आपसे पढने की तैयारी कर रहे हैं

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