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शनिवार, 31 मई 2008

प्रजातंत्र की जय हो!


Republic Nepal

राजा तब तक ही राजा रह सकता है जब तक जनता को प्रिय होता है। जनता के लिए अप्रिय होने पर पहला अवसर प्राप्त होते ही जनता राजा को उखाड़ फेंकती है। यही सब कुछ हुआ नेपाल में भी। नेपाल की राजशाही समाप्त हुई। अब नेपाल गणतंत्र है। नेपाली गण की इस विजय और गणतंत्र की स्थापना के भावों को संजोया है महेन्द्र "नेह" ने इस ग़जल में.........

प्रजातंत्र की जय हो!

* महेन्द्र 'नेह' *



उछली सौ-सौ हाथ मछलियाँ ताल की।

चौड़े में उड़ गईं धज्जियाँ जाल की।


गूँज उठी समवेत दहाड़ कहारों की।

नहीं ढोइंगे राजा 'जू' की पालकी।


आजादी के परचम फहरे शिखरों तक।

खुशबू फैली गहरे लाल गुलाल की।


उमड़ पड़े खलिहान, खेत, बस्तियाँ गाँव।

कुर्बानी दे पावन धरा निहाल की।


टूट गया आतंक फौज बन्दूकों का।

शेष कथा है विक्रम औ बैताल की।


सामराज के चाकर समझ नहीं पाए।

बदली जब रफ्तार समय की चाल की।


प्रजातंत्र की जय हो, जय हो जनता की।

जय हो जन गण उन्नायक नेपाल की।

nepal Republic 1

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सोमवार, 26 मई 2008

जानलेवा और मारक हो चुकी है आरक्षण की औषध ------------ कोई नई औषध खोज लाएँ अनुसंधानकर्ता

गुर्जर आंदोलन पर मुख्यमंत्री वसुन्धरा के रवैये को समझा जा सकता है। वे कहती हैं - सब्र की भी सीमा होती है: वसुंधरा अगर हम आज की राजनीति के चरित्र को ठीक से समझ लें। उसी तरह गुर्जर आंदोलन के नेता बैसला के इस बयान से कि पटरियों पर होगा फैसला: बैसला आंदोलन के चरित्र को भी समझा जा सकता है।

पिछड़ेपन को दूर करने के लिए आरक्षण की जो चिकित्सा संविधान ने तय की थी उसे वोट प्राप्ति के लिए रामबाण समझ लेने और लगातार बढ़ाए जाने से जो स्थितियाँ उत्पन्न हुई हैं, गुर्जर आंन्दोलन उसी का उप-उत्पाद है। एक लम्बे समय तक किसी औषध का प्रयोग होता रहे तो उस के साइड इफेक्टस् भी खतरनाक होने लगते हैं और वह जानलेवा भी साबित होने लगती है। सभ्य समाज ऐसी औषधियों का प्रयोग और उत्पादन प्रतिबंधित कर देती है। ऐसा भी होता है कि अगर आप कब्ज या ऐसे ही किसी मर्ज के रोगी हों, और कब्ज को दूर करने के लिए किसी एक औषध को लगातार लेते रहें तो वह औषध का रूप त्याग कर नित्य भोजन का अत्यावश्यक भाग बन जाती है। धीरे धीरे वह अपना असर भी खोना प्रारंभ कर देती है। फिर औषध की या तो मात्रा बढ़ानी पड़ती है, या फिर औषध ही बदल देनी पड़ती है।
आरक्षण जिसे एक रोग की चिकित्सा मात्र के लिए औषध के रूप में लाया गया था। यहाँ तक कि उस की "एक्सपायरी डेट" तक भी निर्धारित कर दी गई थी। उसे अब औषध की सूची से निकाल कर खाद्य की सूची में शामिल कर लिया गया है। इस लिए नहीं कि वह रोग की चिकित्सा है या रोगी के लिए जीवन रक्षक है। अपितु इसलिए कि कथित चिकित्सक समझ रहे हैं कि अगर यह दवा बन्द कर दी गई तो रोगी उस के कब्जे से भाग लेगा और इस से उस के धन्धे पर असर पड़ेगा। चिकित्सक शोध नहीं करते शोधकर्ता और ही होते हैं। जब कोई औषध बेअसर होने लगती है तो वे नयी औषध के लिए अनुसंधान करते हैं, और नयी औषध लाते हैं। तब जानलेवा औषधियों को प्रतिस्थापित किया जा सकता है।
इस गुर्जर आंदोलन की आग नहीं बुझेगी। कोई समझौते का मार्ग तलाश भी कर लिया जाए तो वह केवल आग पर राख डालने जैसा होगा। आग अन्दर- अन्दर ही सुलगती रहेगी। ये न समझा जाए कि वह अन्य समाजों में न फैलेगी। कहीं ऐसा न हो कि यह वाकई एक दावानल का रूप ले ले।
ये चिकित्सक (राजनैतिक दल) कभी भी नयी औषध का आविष्कार नहीं करेंगे। क्यों कि ये धन्धा करने आए हैं। चिकित्सा की परंपरा को विकसित करने नहीं। इन के भरोसे समाज, देश और मानव जाति को नहीं छोड़ा जा सकता है। अनुसंधानकर्ता ही कोई नयी औषध ले कर आएंगे तो मानव जाति बचेगी।
मेरा विनम्र आग्रह है उन सामाजिक अनुसंधानकर्ताओं से जो समाज के प्रति अपने दायित्व  को पहचानते हैं, कि वे इस काम मे लगें। कोई नयी औषध तलाश कर लाएँ, जिस से इस मारक, जानलेवा औषध आरक्षण को प्रतिस्थापित किया जा सके। वरना इतिहास न तो इन चिकित्सकों को माफ करेगा और न ही अनुसंधानकर्ताओं को।

रविवार, 25 मई 2008

गुर्जर-2............यह आँदोलन है या दावानल ?

कोटा के आज के अखबारों में गुर्जर आंदोलन छाया हुआ है।

अखबारों ने जो शीर्षक लगाए हैं, उन्हें देखें.....................

सिकन्दरा में कहर - हालात बेकाबू, 23 और मरे, दो दिन में 39 लोग मारे गए, 100 से अधिक घायल - जवानों ने की एसपी व एसडीएम की पिटाई - हिंसक आंदोलन बर्दाश्त नहीं...वसुन्धरा - तीन कलेक्टर दो एसपी बदले - मौत का बयाना - कोटा में आज दूध की सप्लाई बंद, हाइवे पर जाम लगाएँगे - रेल यातायात ठप, बसें भी नहीं चलीं - टिकट विंडो भी रही बन्द - कोटा-दिल्ली-आगरा के बीच रेल सेवाएँ ठप,यात्रियों ने आरक्षण रद्द कराए, परेशानी उठानी पड़ी, रेल प्रशासन को करोड़ों का नुकसान, कई परीक्षाएँ स्थगित - लाखों के टिकट रद्द - श्रद्धांजली देने के खातिर गूजर नहीं बाँटेंगे दूध - ट्रेनें रद्द होने से कई परीक्षाएँ रद्द - एम.एड. परीक्षा टली - प्री बी.एड परीक्षा बाद में होगी - रेलवे ट्रेक की भी क्षति - श्रद्धांजलि देने की खातिर गुर्जर नहीं बाँटेंगे दूध - गुर्जर आंन्दोलन की आँच हाड़ौती में भी फैली - नैनवाँ पुलिस पर हमला - चार पुलिसकर्मी घायल- गर्जरों ने पहाड़ियों पर जमाया मोर्चा - राष्ट्रीय राजमार्ग 76 पर बाणगंगा नदी के पास जाम - कोटा शिवपुरी ग्वालियर सड़क संपर्क दो घंटे बन्द रहा - बून्दी बारां व झालावाड़ में जाम - स्टेट हाईवे 34 पर आवागमन बन्द - रावतभाटा रोड़ पर देर रात जाम - बून्दी जैतपुर में जाम पुलिसकर्मी पिटे - झालावाड़ बसें बन्द - 17 गुर्जर बन्दियों ने दी अनशन की धमकी - सेना सतर्क, बीएसएफ पहुँची, आरफीएसएफ की एक कम्पनी बयाना जाएगी - हर थाने को दो गाड़ियाँ - रात को दबिश - हाड़ौती के कई कस्बों में आज बन्द - राजस्थान विश्व विद्यालय की परीक्षाएं स्थगित - पटरी पर कुछ भी नहीं - ... प्रदेश में अशांति की अंतहीन लपटें - भरतपुर बयाना के हालात=पटरियाँ तोड़ी फिश प्लेटें उखाड़ी - दूसरे दिन बयाना में पहुँची सेना, शव लेकर रेल्वे ट्रेक पर बैठे रहे बैसला - डीजीपी ने हेलीकॉप्टर से लिया जायजा - चिट्ठी आने तक नहीं हटेंगे बैसला- गुर्जर आन्दोलन = गुस्सा+ जोश= पाँच किलोमीटर - यह तो धर्मयुद्ध है - जोर शोर से पहुँची महिलाएँ - चाहे चारों भाई हो जाएँ कुर्बान - मेवाड़ में सड़कों पर उतरे गुर्जर - राजसमन्द में हाईवे जाम - हजारों गुर्जरों का बयाना कूच - छिन गया सुख चैन- ठहरी साँसें - अटकी राहें - सहमी निगाहें - हैलो भाई तुम ठीक तो हो - कई रास्ते बंद जयपुर रोड़ पर खोदी सड़क - 8 कार्यपालक मजिस्ट्रेट नियुक्त - किशनगढ़ भीलवाड़ा बन्द सफल - दो गुर्जर नेता गिरफ्तार - करौली -टोक में सड़कें सुनसान - चित्तौड़गढ़ अजमेर अलवर और करौली आज बन्द - सहमे रहे लोग आशंकाओं में बीता दिन - शकावाटी में भी बिफरे गुर्जर - नीम का थाना में एक बस को आग के हवाले किया - चार बसों में तोड़ फोड़ - बस चालक घायल कई जगह रास्ता जाम- पाटन में सवारियों से भरी बस को आग लगाने का प्रयास - सीकर झुन्झुनु के गुढ़ागौड़ जी व खेतड़ी में गुर्जरों की सभाएँ और सीएम का पुतला फूँका ............

..........................................आपने पढ़े खबरों के हेडिंग ये एक दिन के एक ही अखबार से हैं। दूसरे अखबार से शामिल नहीं किये गए हैं। अब आप अंदाज लगाएँ कि यह आँदोलन है या दावानल ?

इस दावानल का स्रोत कहाँ है? वोटों के लिए और सिर्फ वोटों के लिए की जा रही भारतीय राजनीति में ?  पूरी जाति,  वह भी पशु चराने और उन के दूध से आजीविका चलाने वाली जाति से आप क्या अपेक्षा रख सकते हैं। यह पीछे रह गए हैं तो उस में दोष किस का है? इन के साथ के मीणा अनुसूचित जाति में शामिल हो कर बहुत आगे बढ़ गए हैं। गुर्जरों को यह बर्दाश्त नहीं। उन्हें राजनीतिक हल देना पड़ेगा। पर मीणा वोट अधिक हैं। उन्हें नाराज कैसे करें?

  

पिछड़ेपन को दूर करने की नाकाम दवा आरक्षण के जानलेवा साइड इफेक्टस हैं ये।

ये आग भड़क गई है। नहीं बुझेगी आरक्षण से। पीछे कतार में अनेक जातियाँ खड़ी हैं।

आरक्षण को समाप्ति की ओर ले जाना होगा। पिछड़ेपन को दूर करने और समानता स्थापित करने का नया रास्ता तलाशना पड़ेगा। मगर कौन तलाशे?

बुधवार, 21 मई 2008

क्या आप एक प्रोफेशनल हैं?

इस प्रश्न पर कि क्या आप एक प्रोफेशनल हैं? साइंटोलॉजी (सत्य का अध्ययन) के प्रवर्तक एल. रॉन हबार्ड क्या कहते हैं?  जरा उस की बानगी देखिए-

आप कैसे देखते हैं? बात करते हैं , लिखते हैं, कैसे चलते हैं? और कैसे काम करते हैं? ये बातें यह निर्धारित करती हैं कि आप एक प्रोफेशनल हैं, या एक शौकिया।  कोई भी समाज प्रोफेशनलिज्म के महत्व पर जोर नही देता, इसलिए लोगों का मानना है कि शौकिया काम करने के तरीके सामान्य श्रेणी के हैं।

विद्यालय और विश्वविद्यालय उन छात्रों को भी स्नातक का तमगा दे देते हैं, जो अपनी भाषा को भी ठीक से पढ़ना नहीं जानते। ड्राइविंग लायसेंस के लिए टेस्ट देते समय आप जरूरी सवालों में से साठ प्रतिशत के सही और बाकी के गलत जवाब देकर भी लायसेंस प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन यह शौकिया रवैया है।

प्रोफेशनल रवैया इस से अलग है। कोई भी चाहे तो अपने रवैये में बदलाव कर के खुद को प्रोफेशनल बना सकता है। यही बात चिट्ठाकार, लेखक और कोई भी अन्य काम करने वाले के लिए सही है। ऐसा किया जा सकता है, बशर्ते कि आप अपनी कुछ बातों पर ध्यान दें।

  • आप कभी भी, कुछ भी यह सोच कर नहीं करें कि आप एक शौकिया काम कर रहे हैं।
  • आप कुछ भी करें,  तो उसे यह सोच कर करें कि आप एक प्रोफेशनल हैं, और प्रोफेशनल स्तर के अनुरूप करने का प्रयास करें।
  • अगर आप कोई भी काम यह सोच कर करते हैं कि आप केवल खेल रहे हैं, या आनंद ले रहे हैं तो इस काम को करने से आप को कोई संतोष नहीं मिलेगा। क्यों कि इस काम को करने पर आप खुद पर गर्व नहीं कर सकते।
  • आप अपने दिमाग को इस तरह से ढालें कि जो भी आप को करना है, वह एक प्रोफेशनल की तरह करना है और काम की गुणवत्ता को प्रोफेशनल स्तर तक ले जाना है।
  • आप अपने बारें में लोगों को यह कहने का मौका नहीं दें कि आप एक शौकिया जीवन जी रहे हैं।
  • प्रोफेशनल्स परिस्थिति का अध्ययन करते हैं और उस का सामना करते हैं, वे उन से कभी भी शौकिया के तौर पर नहीं निपटते।
  • इसलिए इसे जीवन के प्रथम सबक के रूप में सीख लेना चाहिए कि जिनका दृष्टिकोण प्रोफेशनल होगा वे किसी भी क्षेत्र में सफल हो सकेंगे, यहाँ तक कि जिन्दगी को जीने में भी, और वे ही अपने को अच्छा प्रोफेशनल बना पाएंगे।

सोमवार, 19 मई 2008

अटक जाती है सुई, चूड़ी-बाजे की तरह

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शायद नए लोगों को तो पता भी नहीं होगा कि डीवीडी के पहले सीडी और उस से भी पहले कैसेट, और उस से भी पहले म्युजिक रिकॉर्ड करने के लिए एक साधन हुआ करता था ग्रामोफोन। इस में एक थाली के आकार की प्लेट पर ध्वनि वलयों के रुप में अंकित होती थी। इसी कारण ग्रामोफोन को "चूड़ी-बाजा" भी कहते थे।इस प्लेट को ग्रामोफोन रिकॉर्ड कहा जाता था, इस के मध्य में एक सूराख होता था। ग्रामोफोन की डिस्क जिस के मध्य में एक कील सी होती थी। इस डिस्क पर ग्रामोफोन रिकार्ड को उस के मध्य के सूराख को कील में फंसा कर चढ़ा दिया जाता था। फिर यांत्रिक चाबी के जरिए उस डिस्क को घुमाया जाता था, जिस से रिकॉर्ड भी घूमते हुए नाचने लगता था। इस के घूमना शुरु करने के बाद ग्रामोफोन पर लगे एक हाथनुमा छड़ को जिस के एक सिरे पर एक सुई लगी होती थी सुई के सहारे रिकॉर्ड के बाहरी सिरे पर रख दिया जाता था। नाचते हुए रिकार्ड पर सुई सरकती हुई मध्य में कील की तरफ सरकते हुए रिकॉर्ड पर दर्ज ध्वन्यांकन को पढ़ती थी जिसे बाद में इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से स्पीकर तक पहुंचा कर मधुर संगीत का आनन्द लिया जाता था।

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कभी कभी सुई सरकने के स्थान पर एक ही वलय पर अटक जाती थी और उस एक वलय पर अंकित ध्वनि ही दोहराई जाती रहती थी। जैसे - वहाँ अगर "मैं जाऊं" अंकित होता तो ग्रामोफोन "मैं जाऊं" "मैं जाऊं" "मैं जाऊं" "मैं जाऊं" ही दोहराता रहता था जब तक कि उसे मैनुअली ठीक नहीं किया जाता था।

अब आप कहेंगे। मैं इस पुराण को क्यों बाँच रहा हूँ तो इस की वजह यह है कि इस सीडी डीवीडी के जमाने में न्यूज चैनलों की सुई रोज किसी न किसी वलय पर अटक जाती है। बाकी का रिकॉर्ड बजता ही नहीं है। सिर्फ एक वलय ही बजता रहता है।

मार्के की बात यह कि यह सुई मैनुअली भी तब तक नहीं हटती है। जब तक कि रिकार्ड टूट न जाए। रिकार्ड का श्रवण तक अधूरा रह जाता है।

एक टूटते ही चैनल वाले फिर दूसरा रिक़ार्ड चढा देते हैं, वह चलता रहता है टूटने तक। ये चैनल वाले अपनी सुई क्यों नहीं बदल देते जो हर बार अटकती रहती है, बार-बार अटकती है। कोई रिकार्ड पूरा बजने ही नहीं देती।

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शुक्रवार, 16 मई 2008

छिपा आतंकवाद, खुला आतंकवाद

जयपुर धमाकों ने अनेक जानें ले लीं। अनेक घायल हुए, उन में अनेक ऐसे होंगे जो अब कभी भी सामान्य जीवन व्यतीत नहीं कर पायेंगे। अनेक ऐसे भी होंगे जो कदमों की दूरी से इन हादसों के दर्शक रहे होंगे, और उन के दिलों-दिमागों पर इन घटनाओं ने जो असर छोड़ा होगा वह शायद जीवन भर न जाए। हफ्तों, महीनों और बरसों तक उन के मस्तिष्क में वे धमाके गूँजते रहेंगे। शवों के परखच्चे दिखाई देते रहेंगे। अनेक होंगे जो हादसों की जगह जाने से न जाने कितने दिनों तक कतराते रहेंगे, और आने जाने के लिए लम्बे रास्ते चुनते रहेंगे। न जाने कितनी माँएँ होंगी जो अपने बच्चों को महिनों तक भीड़ भरे मंदिरों तक जाने से रोकती रहेंगी और मुहल्ले की हदों से आगे न जाने की हिदायत देती रहेंगी। बमों से निकले छर्रों का विश्लेषण पुलिस और फोरेंसिक विशेषज्ञ कर लेंगे। लेकिन इन हादसों से निकल कर दहशत के जो छर्रे अनेक लोगों के दिलों-दिमागों में जा जमे हैं, न तो उन का कोई विश्लेषण करेगा और न ही उन छर्रों से घायल मानुषों की कोई चिकित्सा हो पाएगी। इन घायलों को न कोई मुआवजा मिलेगा और न कोई सहानुभूति ही। वे दर्द के उन दरियाओं में बह निकलेंगे, जो न जाने कितने बरसों से मानुषों की बस्तिय़ों के बीच से गुजरते हैं। वे जगह बदल लेते हैं, गहरे और उथले हो जाते हैं, पर लगातार बह रहे हैं।

दर्द का एक दरिया उस घर में भी बह रहा होगा जिसे चलाने वाला ही हादसे के साथ चला गया है। मंदिर के सामने फूल-माला, प्रसाद और पूजा बेचने वाले की जगह खाली रहेगी, यही कोई तेरह दिन। इन तेरह दिनों में से किसी दिन उस दुकान (?) को खुलाने की रस्म पूरी होगी। पर क्य़ा दुकान खुल पाएगी? कौन बैठेगा उस पर? कोई महिला जो चूल्हे की जिम्मेदारियों को छोड़, घर चलाने की जिम्मेदारी उठाएगी। या कोई  नाबालिग किशोर जिसे अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ेगी। जिस पर अपनी माँ के सिवा अपने भाई, बहनों और बूढ़े दादा-दादी की रोटी का भी भार  आ पड़ा है। या कोई नहीं आएगा उस परिवार से वहाँ, या कोई और उस जगह को खरीद लेगा, अपना परिवार चलाने के लिए। धमाके की गूँज रोटी की जरूरत के नीचे दब जाएगी।

ऐसे में कोई मदद बाँट कर अपनी फोटो अखबार में छपवा रहा होगा। इधर दूसरे ही दिन से रक्तदान के कैम्प सजने लगे हैं। लोग माला पहन, तिलक लगवा कर टेण्ट हाउस के बिस्तरों पर लेट फोटो खिंचवा रहै हैं। दो चार दिन यह सब चलेगा।  कुछ दिनों के लिए रक्त बैंकों के सामने लगे 'रक्त चाहिए' के होर्डिंगों पर से ब्लड ग्रुप गायब हो जाएंगे। लेकिन कुछ दिनों बाद सभी वापस दिखने लगेंगे।

हादसे की रात ही शहर बंद का ऐलान आ गया। दूसरे दिन सुबह के अखबारों में छपा भी। शहर शोक में बंद रहा या आतंक की छाया में? उत्तर सब जानते हैं, मगर कोई नहीं जानता। सुबह ही लोग पीले-केसरिया पटके कांधो पर सजाए टोलियों में निकले। जो दुकान खुली मिली उसी पर कहर बरपा गए। शहर पूरा बंद रहा। बंद स्वैच्छिक था? अखबारों में बंद की तस्वीरें हैं और खबरें भी। जयपुर के एक अखबार में हवामहल समेत सामने की वीरान सड़क का रंगीन छाया चित्र छपा है, बिना किसी चिड़िया और पिल्ले के। कैप्शन है "बंद के दौरान जयपुर"। इधर खबर यह भी छपी है कि इस इलाके में कर्फ्यू था, जो कुछ घण्टों की छूट के अलावा अब भी जारी है।

कोटा के बंद की खबरें यहाँ के सब अखबारों में हैं। आप खुद इस खबर का जायजा लें....................

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पढ़ ली, खबर? ये है, आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई का चेहरा। छिपे आतंकवाद के सामने खुले आतंकवाद का प्रदर्शन। आप पकड़िये आतंकवाद को। यही लोग पैरवी कर रहे हैं, फिर से पोटा जैसा कानून लाने की। किस के खिलाफ उपयोग करेंगे इस कानून का। जो इन के बंद में दुकान खोलने की जुर्रत करेगा? या खुले आतंकवाद का सामना करने के लिए सामने आएगा? 

गुरुवार, 15 मई 2008

उन्हें भी अपनी रोटी का जुगाड़ करना है

कल शाम जब से जयपुर बम विस्फोट का समाचार मिला है मन एक अजीब से अवसाद में है। आखिर इस समाज और राज्य को क्या हो गया है? जिस में आतंकवाद की कायराना हरकतों को अंजाम देने वाले लोगों को पनाह मिल जाती है। लोग उन के औजार बनने को तैयार हो जाते हैं। वे अपना काम कर के साफ निकल जाते हैं।

लगता है कि न समाज है और न ही राज्य। ये नाम अपना अर्थ खो चुके हैं। पहले से चेतावनी है, लेकिन उस से बचाव के साधन भोंथरे सिद्ध हो जाते हैं। समाज को कोई चिन्ता नहीं है, उस ने अपने अस्तित्व को कहाँ विलीन कर दिया है? कुछ पता नहीं। जैसे ही घटना की सूचना मिलती है। चैनल उस पर टूट पड़ते हैं जैसे कोई शिकार हाथ लग गया हो और एक प्रतिद्वंदिता उछल कर सामनें आती है। कहीं कोई दूसरा उस से अधिक मांस न नोच ले। चित्र दिखाए जाते हैं, इस चेतावनी के साथ कि ये आप को विचलित कर सकते हैं। लोग इन्हें ब्लॉग तक ले आते हैं। विभत्सता प्रदर्शन, कमाई और नाम पाने का साधन बन जाती है। कुछ चैनल अपने को शरलक होम्स और जेम्स बॉण्ड साबित करने पर उतर आते हैं।

मंत्रियों की बयानबाजी आरम्भ हो जाती है। मुख्यमंत्री को तुरन्त प्रतिक्रिया करने में परेशानी है। जैसे यह देश और प्रान्त में पहली बार हो रहा है। वे पहले जायजा (सोचेंगी और राय करेंगी कि किस में उन का हित है, जनता और देश जाए भाड़ में) लेंगी फिर बोलेंगी। प्रान्त के सब से बड़े अस्पताल का अधीक्षक गर्व से कहता है उन पर सब व्यवस्था है, कितने ही घायल आ जाएं। पर व्यवस्था आधे घंटे में ही नाकाफी हो जाती है। रक्त कम पड़ने लगता है। रक्तदान की अपीलें शुरू हो जाती हैं। अपील सुन कर इतने लोग आते हैं कि रक्त लेने के साधन अत्यल्प पड़ जाते हैं। घायलों को जो पहली अपील के बाद सीधे बड़े अस्पताल पहुँचते हैं उन्हें दूसरे अस्पतालों को भेजा जा रहा है। पहले ही पास के अस्पताल पहुंचने की अपील करने का ख्याल नहीं आया।

मुख्यमंत्री जानती हैं कि उन पर दायित्व आने वाला है। आखिर आंतरिक सुरक्षा राज्यों की जिम्मेदारी है. केन्द्र की नहीं तो वे फिर से पोटा या उस जैसा कानून लागू नहीं करने के लिए केन्द्र को कोसना प्रांऱभ कर देती हैं। यह उन के दल का ऐजेण्डा है और केन्द्रीय नेता उस पर बयान दे चुके हैं।

अगले दिन राज्य भर में राजकीय शोक की घोषणा कर दी जाती है। स्कूल, कॉलेज, सरकारी दफ्तर और अदालतें बन्द रहती हैं। एक दल को बन्द की याद आती है। वह बन्द की घोषणा कर देते हैं। (सब से आसान है, तोड़फोड़ के आतंक से लोग दुकानें, व्यवसाय बन्द करते ही हैं) बस कुछ रंगीन पटके ही तो गले में डाल कर घूमना है। बन्द रामबाण इलाज है हर मर्ज का। बाजार बन्द कर दो। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी। एक आतंक की शिकार जनता के सामने दूसरा आतंक परोस दो। पहले वाले की तीव्रता कुछ तो कम होगी। वकीलों ने शोक सभा करनी है, शोक के राजकीय अवकाश से बन्द अदालतों के कारण संभव नहीं हुआ। अब अगले दिन शोक-सभा होगी, फिर अदालतों का काम बन्द। इस के अलावा कोई चारा भी नहीं, काम के बोझ से कमर तुड़ाती अदालतें दो दिन का काम करेंगी तो पेशियाँ बदलने के सिवा क्या कर सकती हैं? वैसे भी हर रोज 80% काम तो वे ऐसे ही निपटाती हैं।

वे साजिश रचते हैं, कामयाब होते हैं। आप अभी सूत्र तलाश कर रहे होते हैं। तक वे अपनी कामयाबी के मेक की वीडियो चैनलों को मेल कर देते हैं। चैनल चीखने लगते हैं, उन्हीं का स्वर। उन के  हाथ बटेर लग गई है। अखबारों में शोक संदेशों की 'क्यू'लगी है। अमरीका के झाड़ बाबा से ले कर राष्ट्रीय पार्टी के जातीय प्रकोष्ठ की मुहल्ला कमेटी के मंत्री तक के बयान आए जा रहे हैं। संपादक देख रहा है उसे कौन, कैसे नवाजता है? किस से कितना बिजनेस मिलता है और मिल सकता है? किस का शोक छापना है किस का नहीं?

सायकिल और बैग बेचने वाले नहीं जानते उन से माल किस ने खरीदा, या उन्हों ने किस को बेच दिया। उन को केवल सेल्स से मतलब है। वे बता देते हैं उन्हों ने बच्चों और महिलाओं को बेचे हैं। कफन बेचने वाले को पता नहीं कफन किस के लिए खरीदा जा रहा है? जीवित के लिए या मृत के लिए, या कि कल बेचा हुआ कफन कल उसी के लिए तो काम नहीं लिया जाएगा?

अचानक इस्पाती समाज भंगुर दिखाई देने लगता है। न जाने कब इस की भंगुरता टूटेगी? टूटेगी भी या नहीं। या ऐसे ही यह विलुप्त हो जाएगा। एक से एक-एक में, कई एकों में। वह बूढ़ा याद आता है जो मरने के पहले अपने बेटों से अकेली लकड़ियाँ तुड़वा रहा था और गट्ठर किसी से न टूटा अब गट्ठर भी टूट रहा है। बस पहले उसे बाँधने वाली रस्सी की गाँठ खोल लो, फिर एक एक लकड़ी.......

और ......... यह हम भारत के लोगों द्वारा रचा गया गणराज्य? अब गण की उपेक्षा करता हुआ। विदेशी साम्राज्य को विदा कर अस्तित्व में आया और अब कह रहा है हम विश्व अर्थव्यवस्था से अछूते नहीं रह सकते, और विश्व आतंकवाद से भी।

आज आज और रहेगा याद यह आतंकवाद। कल भुलाएंगे और परसों से कोई और ब्रेकिंग न्यूज होगी चैनलों पर। फिर से बयानों की क्यू होगी। बधाई या शोक संदेश? कुछ भी। आज भोंचक्के लोग परसों फिर रोटी की जुगाड़ में होंगे, और चैनल भी, उन्हें भी अपनी रोटी का जुगाड़ करना है।

रविवार, 11 मई 2008

माँ

मातृ दिवस पर प्रस्तुत है कवि महेन्द्र 'नेह' की कविता "माँ"

माँ

*महेन्द्र नेह*

जब भी मैं सोचता हूँ कि

कैसे घूमती होगी पृथ्वी

अहर्निश अपनी धुरी पर, और

सूर्य के भी चारों ओर

परिक्रमा करती हुई

मेरी चेतना में तुम होती हो माँ।

सबह सुबह जब उषा

अंधेरे को बुहारी लगाती हुई

जगाती है सोते हुए प्राणियों को

दोपहर की तपन को चुनौती देती हुई

कोई बच्ची दौड़ रही होती है

सड़क पर नंगे पाँव

या फिर शाम के धुंधलके में

कोई नारी आकृति

अपने सिर पर लकड़ियों का गट्ठर लिए

उतर रही होती है जंगल की पहाड़ी से

मुझे तुम याद आती हो माँ।

यकीन ही नहीं होता कि

अभावों से जूझते हुए एक छोटे से कमरे में

किस तरह पले बढ़े

अपना वर्तमान और भविष्य संवारने

आते रहे ना जाने कितने छोर

तुम्हारी निश्छल किन्तु दृढ़ आस्थाओं की

छाँह में पनपे न जाने कितने बिरवे

और बने छतनार वृक्ष।

याचना के लिए कभी नहीं फैले

तुम्हारे हाथ और

नहीं झुका माथा कभी

कथित सामर्थ्यवानों के आगे।

फिर भी तुम्हारी रसोई

बनी रही द्रोपदी की हाँडी।

तुम थीं

प्रकृति का कोई वरदान

या फिर स्वयं थीं प्रकृति

अपनी ही धुरी पर घूमती

सूर्य का परिभ्रमण करती

तुम थीं, मेरी माँ।

***************************

अच्छी खबर यह है कि महेन्द्र 'नेह' का पैर प्लास्टर से बाहर आए महीना हो चुका है, और वे अब अपने दुपहिया से शहर में आने जाने लगे हैं। हाँ चलने में अभी तकलीफ है। लेकिन फीजियो से व्यायाम करवा रहे हैं। यह कसर भी शीघ्र ही दूर होगी।

शनिवार, 10 मई 2008

प्रोफेशनलिज्म क्या है?

मैं ने, अपनी 28 अप्रेल 2008 की पोस्ट में सवाल किया था कि "क्या चिट्ठाकारों को प्रोफेशनल नहीं होना चाहिए?" इस पोस्ट पर आई 12 टिप्पणियों में से 10 की राय थी कि चिट्ठाकार को प्रोफेशनल होना चाहिए। एक साथी जवाब का इन्तजार के इन्तजार में थे। एक राय यह भी थी कि बेतरतीबी से लगने वाले विज्ञापन चिट्ठों को विज्ञापनों के होर्डिंगों से पाट दिए जाने से असुन्दर हुए नगरों की भांति असुन्दर बना रहे हैं। जिन्हों ने चिट्ठाकार को प्रोफेशनल होने की राय दी थी मुझे लगा कि उन्हों ने भी 'प्रोफेशनलिज्म' को भिन्न भिन्न तरीके से समझा है।
प्रोफेशनलिज्म पर दुनियाँ भर के विद्वानों ने अपने अध्ययन और शोध के आधार पर कुछ मानदण्ड स्थापित करने का यत्न किया है और कुछ सर्वमान्य बिन्दुओं को तलाशा गया है। ग्लासगो विश्वविद्यालय के नैतिक दर्शन में प्रोफेसर रॉबिन डॉनी ने प्रोफेशनलिज्म पर विस्तार से आवश्यक प्रकृति के मौजूदा प्रोफेशनों का अध्ययन कर एक प्रोफेशनल की जरूरी विशेषताओं को छह बिन्दुओं में समेटने का प्रयत्न किया है। उन के द्वारा परिभाषित विशेषताओं का सार संक्षेप इस प्रकार हैं-
  1. प्रोफेशनल को व्यापक ज्ञान पर आधारित दक्षता से सम्पन्न और अपने प्रोफेशन के विषय के कार्यों का विशेषज्ञ होना चाहिए।

  2. प्रत्येक प्रोफेशनल द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाओं का आधार उस के उपभोक्ताओं से उस का विशेष संबंध है, जिस में जन-कल्याण का संतुलित व अखंडित दृष्टिकोण सन्निहित हो, और जिस में निष्पक्षता व ईमानदारी के साथ-साथ उस की प्रोफेशनल संस्था और आम जनता द्वारा अपेक्षित अधिकार और कर्तव्य सम्मिलित हों।

  3. प्रोफेशनल के कामों का परिणाम हो कि जन कल्याण की नीतियों और न्याय जैसे सामाजिक मामलों पर राय रखने की उस की अधिकारिता को उस के विशिष्ठ सेवार्थियों के साथ-साथ आम जनता भी मान्यता देने लगे।

  4. अपने प्रोफेशनल दायित्वों को निभाते हुए प्रोफेशनल सरकार और वाणिज्य के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त रहे।

  5. प्रोफेशनल प्रशिक्षित नहीं अपितु शिक्षित हो, जिस का अर्थ है एक व्यापक और विस्तृत परिप्रेक्ष्य में स्वयं को और अपनी दक्षता को देखने की क्षमता, और मानवीय मूल्यों की सीमा में अपने ज्ञान और कौशल को विकसित करते हुए अपनी इस क्षमता को लगातार निखारना।

  6. एक प्रोफेशनल का अपने काम पर सक्षम अधिकार हो। आम जनता की दृष्टि में विश्वसनीय प्रोफेशनल्स का अपना संगठन हो जो अपने सदस्यों के ज्ञानाधार को विकसित करते रहने और सदस्यों के शिक्षण के लिए सक्रिय रहे और प्रोफेशनल उस के स्वतंत्र और अनुशासित सदस्य के रूप में प्रतिष्ठित हो। इन मानदण्ड़ों पर खरा प्रोफेशनल नैतिकता के उच्च मूल्यों से संम्पन्न होगा और निश्चय ही समाज उसे सम्मान के साथ सुनेगा।

उक्त विशेषताओं को आप चिट्टाकारों की पंचायत के सामने रखते हुए पुनः उसी प्रश्न को दोहरा रहा हूँ, "क्या चिट्ठाकारों को प्रोफेशनल नहीं होना चाहिए?"
........(जारी)

मंगलवार, 6 मई 2008

साँड, मई दिवस और स्त्रियाँ

ज्ञान दत्त पाण्डेय के आलेख "मुन्सीपाल्टी का साँड" पर एक टिप्पणी।

बड़े भाई। आप का कोई वाहन नहीं, आप सफर करते हैं गाड़ी में, और आप के सामने आ गया वाहन। भोलेशंकर समझदार थे उन्हों ने उसे वाहन बनाया था, जिस से वह छुट्टा न घूमे। उन्हें क्या पता था दिन में लोग पांच बार उन्हें जल जरुर चढ़ा देंगे, 24 घंटों जलेरी में रखेंगे, जिस से वे गरम नहीं हों, पर वाहन के मामले में उन का अनुसरण नहीं करेंगे।
सीधे बैठने की हिम्मत न हुई तो उसे गाड़ी में जोत दिया। सदियों तक जोतते रहे। लेकिन वह पिछड़ गया गति में। न गाड़ी में जोता जाता है और न ही हल में। अब वह जाए तो कहाँ जाए। अब इन्सान को मादा की तो जरुरत है, लेकिन नर की नहीं, है भी तो केवल वंश वृद्धि के लिए। कितनों की? जितने मुन्सीपैल्टी दाग देती थी। बाकी का क्या। आप ने सारे रास्ते चौबीस देखे। इस से अधिक तो यहाँ कोटा के शास्त्रीनगर दादाबाड़ी में मिल जाएंगे। कभी कभी तो एक साथ 15 से 20 कतार में एक के पीछे एक, जैसे उन की नस्ल बदल गई , साँड नहीं, मैंढे हो गए हों। अब तो जंगल भी नही जहाँ ये रह सकते हों। गौशालाएँ गउओं के लिए भी कम पड़ती हैं।
मई दिवस तो शहादत का दिन है। लेकिन अक्सर शहादतों को पीछे से दलालों ने भुनाया है। वे भुनाएंगे। क्यो कि शोषण का चक्र जारी है। शोषक को दलाल की जरूरत है। शोषितों की मुक्ति के हर प्रतीक को वे बदनाम कर देना चाहते हैं, जिस से कोई इन शहादतों से प्रेरणा नहीं ले सके। लेकिन मुक्ति तो मानव का अन्तिम लक्ष्य है। कितनी ही कोशिशें क्यों न कर ली जाएं, मानव को मुक्त तो होना ही है। एक प्रतीक टूटेगा तो नया बनेगा। मानव को इस जाल से मुक्ति नहीं मिलेगी, तो सम्पूर्ण मानवता ही नष्ट हो लेगी।
घरों में बन्द स्त्रियाँ बाहर आ रही हैं, तेजी से पुरुषों के सभी काम खुद सम्भालने को तत्पर हैं। अभी भी अनेक पुरुष पी-कर, खा-कर सिर्फ जुगाली करते हैं। धीरे धीरे इन की संख्या भी बढ़ रही है। विज्ञान संकेत दे रहा है कि प्रजनन के लिए भी पुरुषों की जरुरत नहीं। कहीं ये छुट्टे घूमते साँड मानव पुरुषों के भविष्य का दर्शन तो नहीं हैं।

शनिवार, 3 मई 2008

चाय की रेट और गाँजा-सिगरेट

सुबह की अदालतें साढ़े सात बजे आरम्भ होती हैं, हम अधिकतर दीवानी काम करने वाले वकील साढ़े आठ तक अदालत पहुँचते हैं। एक-दो जरुरी काम निपटाते हैं, तब तक साढ़े नौ हो जाते हैं और चाय का वक्त भी। चाय पीने पहुँचे तो आज आफ्टर लंच आन्ट्रॅप्रॅनर (Entrepreneur) वाली दुकान बन्द थी। हम दूसरी दुकान पर सरक लिए।

बैठे ही थे कि हमारे साथी ने बताना शुरु किया, कल सुबह-सुबह आन्ट्रॅप्रॅनर पर खूब तमाशा हुआ। मैं ने जानना चाहा- क्या?

कलुआ ( दुकान का सीनियर नौकर) सुबह सुबह दारू पीकर आ गया और लगा गालियाँ देने मालिक को। माँ... तुमने हमारा जीना हराम कर दिया है। एक तो चाय के अलावा कुछ बेचते नहीं। बनाने भी नहीं देते। चाय देते हो चार रुपए की कट, पांच रुपए की पूरी। दिन की आधी दुकन्दारी भी नही होती, कि गाँजा भर सिगरेट पी कर लाट हो जाते हो। किसी को भी कुछ भी बोलते रहते हो। सारे ग्राहक दुकान छोड़ कर दूसरी जगह जाने लगे हैं। हमें भी भूखे मारोगे, और खुद भी भूखे मरोगे।

उपरोक्त सभी डायलॉग शुद्धिकृत हैं। वह कुछ भी बके जा रहा था। मालिक था सन्न, और ग्राहक तमाशा देख रहे थे। थोड़ी देर में सभी जूनियर नौकर भी कलुआ के साथ हो लिए। कलुआ की हिम्मत बढ़ गई। उस ने मालिक को कहा- निकल बाहर हम दुकान चलाएंगे। हमारा भी पेट भरेंगे और तेरा भी। उन्होंने सचमुच मालिक को दुकान से हटा दिया। मालिक दूर जा कर खड़ा हो गया। नौकर दुकान चलाने लगे। ग्राहकों को बता दिया गया कि दुकान पर आज से चाय तीन रुपए की, और कट पाँच रुपए की दो मिलेगी, काँफी चार रुपए में मिलेगी। दो-चार दिन बाद दूसरा माल भी बनाया-बेचा जाएगा। ग्राहक जम गए। नौकरों ने चाय बना-बना कर देना शुरु कर दिया।

मैं बोला -तभी दोपहर में मैं आया तो जूनियर नौकर बता रहा था अब से चाय-कॉफी कम रेट पर मिलेगी।

हमारा साथी फिर आगे बताने लगा। जब दुकान चलने लगी मालिक दुकान के पास आ गया तो कलुआ ने उसे कहा -क्यों आ गए तुम यहाँ, तुम्हारी यहां कोई जरूरत नहीं। तुम्हारा रोज का मुनाफा पहुँच जाएगा। मालिक वहाँ से चला गया।

फिर थोड़ी देर बाद वापस लौटा। नौकरों से बोलने लगा - मुझे ग्राहक समझ कर चाय तो पिला दो। तो नौकर बोला निकालो तीन रुपए। मालिक ने तीन रुपए दे कर अपनी ही दुकान पर चाय पी। नौकरों से बोला -ठीक है, कल से चाय इसी रेट पर बिकेगी। दुकान पर तो आने दोगे?

नौकर बोले गाँजा सिगरेट बन्द करनी होगी। हाँ, हाँ कल से बन्द, बिलकुल बन्द।

उस हादसे के बाद आज दुकान बन्द थी। हम कयास लगा रहे थे कि, क्यों बन्द है?

साथी ने जवाब दिया -सिगरेट छूटने के अवसाद में। कल से दुकान फिर पहले की तरह चलने लगेगी। उन्हीं पुराने नौकरों के साथ।

चाय की रेट और गाँजा-सिगरेट का क्या?

उस का पता तो दो-चार दिन बाद ही लगेगा।

गुरुवार, 1 मई 2008

नारकीय जीवन का जुआ उतार फेंकने के संकल्प का दिन

अनेक देशों में पहली मई को वसंत के आगमन, पृथ्वी पर जीवन व नयी फसलों के आगमन और मनुष्य जीवन में खुशियों के स्वागत के लिए मनाया जाता रहा। लेकिन 122 वर्ष पूर्व हुए एक बड़े कत्लेआम और उस के फलस्वरूप खून से रंग कर लाल हुई सड़कों ने इस का स्वरूप ही बदल कर रख दिया।

खुशियों के स्वागत के इस दिन, पहली मई 1886 को अमरीका के श्रमजीवी शिकागो, न्यूयॉर्क, पिटस्बर्ग और कुछ अन्य नगरों में लाखों की संख्या में संख्या में एकत्र हुए और उन्हों ने काम के घंटे आठ किए जाने की मांग के लिए प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन को नाइटस् ऑफ लेबर, न्यू अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर, विभिन्न श्रमिक अराजकतावादियों और समाजवादियों का समर्थन प्राप्त था। इन प्रदर्शनों को अमरीका के कारखाना मालिकों के अखबारो ने अमरीका में पेरिस कम्यून जैसी अवस्था कायम करने की कोशिश करार दिया था।

पहली मई के तीन दिन बाद श्रम अराजकतावादियों ने एक विरोध प्रदर्शन आयोजित किया जिस पर पुलिस दमन में सैंकड़ों प्रदर्शनकारी मारे गए, आठ को गिरफ्तार कर मुकदमा चलाया गया, जिन में से चार को मृत्युदण्ड दे दिया गया।

इस के बाद 1889 में पेरिस में हुई समाजवादियों और अन्य श्रमिक कार्यकर्ताओं की अन्तर्ऱाष्ट्रीय बैठक में यह तय हुआ कि पहली मई को आठ घंटों के काम की मांग के लिए दुनियाँ भर में प्रदर्शन किए जाएंगे। 1890 में इस दिन को प्रतिवर्ष प्रदर्शन किये जाने का निर्णय कर लिया गया।

आठ घंटों के काम के दिन के लिए प्रारंभ हुए इस संघर्ष का आज 120 सालों के बाद भी कोई अंत नहीं है। एक ओर दुनियाँ भर में बेरोजगारी है, और दूसरी ओर लोग अपने जीवन यापन और जीवन स्तर को बनाए रखने के लिए 20-20 घंटो तक काम करना पड़ रहा है। कुछ एक देशों को छोड़ दें तो सारी दुनियाँ में यही व्यवस्था जारी है। जिस का अर्थ है कि विकास का मूल्य अपने श्रम को बेचकर जीवनयापन कर रहे आम श्रमजीवी ही चुका रहे हैं।

आज की विश्व व्यवस्था ने इन श्रमजीवियों को मजदूर, सुपरवाइजर, अधिकारी, प्रबन्धक और वकील, डाक्टर, सलाहकार आदि श्रेणियों में बांट दिया है। लालच दिखाने के लिए इन में से कुछ को अच्छे वेतन, मानदेय, व शुल्क दिए जाते हैं, किन्तु इन सभी श्रेणियों के श्रमजीवियों के सामान्य सदस्यों को जिनकी संख्या 95 प्रतिशत से भी अधिक है अपने वर्तमान जीवन स्तर को बचाने के प्रयत्नों में कठोर संघर्ष की लपटों के बीच जीवन भर झुलसते रहना पड़ता है। फिर भी वे अपना जीवन स्तर बनाए नहीं रख पाते और नीचे की श्रेणियों में जाने को विवश हैं।

श्रमजीवियों के वेतनों, मजदूरियों, मानदेयों व शुल्कों को उत्पादन से जोड़ कर उनके काम के घण्टों की सीमा को समाप्त कर दिया गया है। अपने जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन्हें बारह से बीस-बीस घण्टों तक प्रतिदिन काम करना पड़ रहा है।

इस अवस्था ने एक ओर नौजवानों के लिए नियोजनों के अवसरों को सीमित कर बेरोजगारी को तेजी से बढ़ाया है, तो दूसरी ओर असीमित काम के घण्टों, माल व सेवा उत्पादनों की जिम्मेदारियों ने नियोजित श्रमजीवियों के जीवन को नारकीय कर दिया है। उनका पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन नष्ट हो रहा है। पर्याप्त शारीरिक-मानसिक विश्राम के अभाव में लोग तनाव में जी रहे हैं। अवसाद (डिप्रेशन) के शिकार हो रहे हैं। उन की पत्नियां/पति उन का साथ छोड़ रहे है, सन्तानें राहच्युत हो रही हैं। अनेक आत्महत्या करने को विवश हैं, तो अधिकांश मानसिक और शारीरिक रोगों के ग्रास बन कर जीवनभर कष्ट भोगते हुए अपनी-अपनी मृत्यु की ओर कदम बढ़ाने को अभिशापित कर दिए गए हैं।

इस मई दिवस पर सभी श्रेणियों के श्रमजीवियों से मेरा आग्रह है कि क्या उन्हें अपने इस नारकीय जीवन को ऐसे ही चलते हुए, और अधिक नारकीय होते सहन करते रहना चाहिए? क्या इस का अन्त नहीं होना चाहिए? क्यों कि मेरा मानना है कि उन के जीवन के लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं, नारकीय जीवन का जुआ वे खुद अपने काँधों पर ढोए हुए हैं। कोई भी उन के इस जुए को उतारने के लिए नहीं आएगा। उन्हें यह जुआ खुद ही उतारना होगा। बस देर है तो इकट्ठा होने और संकल्प कर यह तय करने की कि वे यह जुआ कब उतारने जा रहे हैं।