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गुरुवार, 1 मई 2008

नारकीय जीवन का जुआ उतार फेंकने के संकल्प का दिन

अनेक देशों में पहली मई को वसंत के आगमन, पृथ्वी पर जीवन व नयी फसलों के आगमन और मनुष्य जीवन में खुशियों के स्वागत के लिए मनाया जाता रहा। लेकिन 122 वर्ष पूर्व हुए एक बड़े कत्लेआम और उस के फलस्वरूप खून से रंग कर लाल हुई सड़कों ने इस का स्वरूप ही बदल कर रख दिया।

खुशियों के स्वागत के इस दिन, पहली मई 1886 को अमरीका के श्रमजीवी शिकागो, न्यूयॉर्क, पिटस्बर्ग और कुछ अन्य नगरों में लाखों की संख्या में संख्या में एकत्र हुए और उन्हों ने काम के घंटे आठ किए जाने की मांग के लिए प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन को नाइटस् ऑफ लेबर, न्यू अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर, विभिन्न श्रमिक अराजकतावादियों और समाजवादियों का समर्थन प्राप्त था। इन प्रदर्शनों को अमरीका के कारखाना मालिकों के अखबारो ने अमरीका में पेरिस कम्यून जैसी अवस्था कायम करने की कोशिश करार दिया था।

पहली मई के तीन दिन बाद श्रम अराजकतावादियों ने एक विरोध प्रदर्शन आयोजित किया जिस पर पुलिस दमन में सैंकड़ों प्रदर्शनकारी मारे गए, आठ को गिरफ्तार कर मुकदमा चलाया गया, जिन में से चार को मृत्युदण्ड दे दिया गया।

इस के बाद 1889 में पेरिस में हुई समाजवादियों और अन्य श्रमिक कार्यकर्ताओं की अन्तर्ऱाष्ट्रीय बैठक में यह तय हुआ कि पहली मई को आठ घंटों के काम की मांग के लिए दुनियाँ भर में प्रदर्शन किए जाएंगे। 1890 में इस दिन को प्रतिवर्ष प्रदर्शन किये जाने का निर्णय कर लिया गया।

आठ घंटों के काम के दिन के लिए प्रारंभ हुए इस संघर्ष का आज 120 सालों के बाद भी कोई अंत नहीं है। एक ओर दुनियाँ भर में बेरोजगारी है, और दूसरी ओर लोग अपने जीवन यापन और जीवन स्तर को बनाए रखने के लिए 20-20 घंटो तक काम करना पड़ रहा है। कुछ एक देशों को छोड़ दें तो सारी दुनियाँ में यही व्यवस्था जारी है। जिस का अर्थ है कि विकास का मूल्य अपने श्रम को बेचकर जीवनयापन कर रहे आम श्रमजीवी ही चुका रहे हैं।

आज की विश्व व्यवस्था ने इन श्रमजीवियों को मजदूर, सुपरवाइजर, अधिकारी, प्रबन्धक और वकील, डाक्टर, सलाहकार आदि श्रेणियों में बांट दिया है। लालच दिखाने के लिए इन में से कुछ को अच्छे वेतन, मानदेय, व शुल्क दिए जाते हैं, किन्तु इन सभी श्रेणियों के श्रमजीवियों के सामान्य सदस्यों को जिनकी संख्या 95 प्रतिशत से भी अधिक है अपने वर्तमान जीवन स्तर को बचाने के प्रयत्नों में कठोर संघर्ष की लपटों के बीच जीवन भर झुलसते रहना पड़ता है। फिर भी वे अपना जीवन स्तर बनाए नहीं रख पाते और नीचे की श्रेणियों में जाने को विवश हैं।

श्रमजीवियों के वेतनों, मजदूरियों, मानदेयों व शुल्कों को उत्पादन से जोड़ कर उनके काम के घण्टों की सीमा को समाप्त कर दिया गया है। अपने जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन्हें बारह से बीस-बीस घण्टों तक प्रतिदिन काम करना पड़ रहा है।

इस अवस्था ने एक ओर नौजवानों के लिए नियोजनों के अवसरों को सीमित कर बेरोजगारी को तेजी से बढ़ाया है, तो दूसरी ओर असीमित काम के घण्टों, माल व सेवा उत्पादनों की जिम्मेदारियों ने नियोजित श्रमजीवियों के जीवन को नारकीय कर दिया है। उनका पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन नष्ट हो रहा है। पर्याप्त शारीरिक-मानसिक विश्राम के अभाव में लोग तनाव में जी रहे हैं। अवसाद (डिप्रेशन) के शिकार हो रहे हैं। उन की पत्नियां/पति उन का साथ छोड़ रहे है, सन्तानें राहच्युत हो रही हैं। अनेक आत्महत्या करने को विवश हैं, तो अधिकांश मानसिक और शारीरिक रोगों के ग्रास बन कर जीवनभर कष्ट भोगते हुए अपनी-अपनी मृत्यु की ओर कदम बढ़ाने को अभिशापित कर दिए गए हैं।

इस मई दिवस पर सभी श्रेणियों के श्रमजीवियों से मेरा आग्रह है कि क्या उन्हें अपने इस नारकीय जीवन को ऐसे ही चलते हुए, और अधिक नारकीय होते सहन करते रहना चाहिए? क्या इस का अन्त नहीं होना चाहिए? क्यों कि मेरा मानना है कि उन के जीवन के लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं, नारकीय जीवन का जुआ वे खुद अपने काँधों पर ढोए हुए हैं। कोई भी उन के इस जुए को उतारने के लिए नहीं आएगा। उन्हें यह जुआ खुद ही उतारना होगा। बस देर है तो इकट्ठा होने और संकल्प कर यह तय करने की कि वे यह जुआ कब उतारने जा रहे हैं।

6 टिप्‍पणियां:

  1. मजदूरों के हितों की रक्षा होनी चाहिये और मजदूरों के नाम पर केवल मौज करते, मात्र अधिकारों की बात करने वाले और कामचोरी वालों का भी कुछ होना चाहिये। ये कुछ मछलियां है जो पूरे ताल को गन्दा करती हैं और श्रम के महत्व को डीग्रेड करती हैं।

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  2. ज्ञान जी से पूरी सहमति है। मजदूर आंदोलन की हवा इन मछलियों ने ही निकाली है। यहाँ कोटा में एक ग्रुप है जिसे मैं 1980 से ही इन मछलियों के खिलाफ लड़ते देख रहा हूँ। कल के दिन भी वे एक महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ने जा रहे हैं और मछलिय़ाँ यहाँ भी घात में हैं। कभी इसे अनवरत पर ले कर आउँगा।

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  3. दिनेश जी कई लोग अपने बास को खुश करने के लिये भी २० २० घण्टे काम करते हे, अब इन का कया करे, ओर यह लोग बहुत ऊची पोस्ट पर काम करने वाले ही हे,
    आप का लेख बहुत अच्छा लगा आप एक गलती सुधार ले **पहली मई 1986 को अमरीका के श्रमजीवी शिकागो,मुझे लगता हे **1886 होगा.

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  4. मजदूरोँ के श्रम से ही इस विश्व को गति मिली है
    अच्छा आलेख - सामयिक -
    - लावण्या

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  5. बेहतरीन पोस्ट! एक ओर दुनियाँ भर में बेरोजगारी है, और दूसरी ओर लोग अपने जीवन यापन और जीवन स्तर को बनाए रखने के लिए 20-20 घंटो तक काम करना पड़ रहा है। कुछ एक देशों को छोड़ दें तो सारी दुनियाँ में यही व्यवस्था जारी है। जिस का अर्थ है कि विकास का मूल्य अपने श्रम को बेचकर जीवनयापन कर रहे आम श्रमजीवी ही चुका रहे हैं। दुखद सच!

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  6. मई दिवस पर
    आपके दुरुस्त विचारों के
    सम्मान में पेश है दुष्यंत का ये शेर

    कौन कहता है आसमाँ में सुराख हो नहीं सकता
    एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों
    ==============================
    हालात को अपनी कमज़ोरी बना लेने के खिलाफ
    बुलंद समझाइश दी है आपने.

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