कल आलेख पोस्ट होने के तुरन्त बाद ही एक और कविता महेन्द्र नेह से प्राप्त हुई। मुझे लगा कि वे इसे कल अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर आप तक पहुँचाना चाहते थे। तब तक ब्लॉगर पर कुछ अवरोध आ गया। मैं ने उन्हें नहीं बताया। लेकिन आज इस कविता “विश्व सुंदरी” को आप के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ.............
“विश्व सुंदरी”
चलते चलते
राह में ठिठक गई
इस एक अदद औरत को क्या चाहिए?
इस के पावों को चाहिए
दो गतिमान पहिए
ले जाएँ इसे जो
धरती के ओर-छोर
इसे चाहिए
एक ऐसा अग्निकुण्ड
जिस में नहा कर
पिघल जाए
इस की पोर-पोर में जमी बर्फ
दुनियाँ के शातिर दिमाग
लगा रहे हैं हिसाब
कितने प्रतिशत आजादी
चाहिए इसे?
गुलामी से कितने प्रतिशत चाहिए निजात?
ये, कहीं बहने ना लग जाए
नदी की रफ्तार
कहीं उतर न आए सड़क पर
लिए दुधारी तलवार..........
इस से पहले कि
बाँच सके यह
किताब के बीच
फड़फड़ाते काले अधर
सजा दिए जाएँ
इस के जूड़े में रंगीन गजरे
गायब कर दी जाए
इस की असल पहचान
स्वयं के ही हाथों
उतरवा लिए जाएँ
बदन पर बचे खुचे परिधान
गहरे नीले अंधेरे के बीच
अलंकृत कर दिया जाए
इस के मस्तक पर
“विश्व सुंदरी” का खिताब
इस से पहले
कि हो सके यह
सचमुच आजाद.............
* * * * * * *
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कैसा लगा आलेख? अच्छा या बुरा? मन को प्रफुल्लता मिली या आया क्रोध?
कुछ नया मिला या वही पुराना घिसा पिटा राग? कुछ तो किया होगा महसूस?
जो भी हो, जरा यहाँ टिपिया दीजिए.....