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गुरुवार, 10 जनवरी 2008

किताबों में बन्द। कानून का राज?

और क्या हाल हैं? कोई भी मिलते ही पूछता है।

इस सवाल के अनेक जवाब हो सकते हैं। मगर सब के सब पिटे हुए, घिसे हुए। इन जवाबों में ही एक घिसा-पिटा जवाब यह भी है कि '' बस आप के राज में जी रहे हैं।

यह आप का, उन का, मेरा, काँग्रेस, बीजेपी, वाम-मोर्चा, माया, मुलायम, ममता, जया, लालू या और किसी का राज ही खतरे की घंटी है। हमारे देश में सामान्यतया इन में से ही किसी का राज चलता रहता है। संविधान इसे जनता के लिए, जनता के द्वारा जनता पर राज कहता है। मगर इस बात को कोई मानता नहीं। मानता इसलिए नहीं कि ऐसा कोई राज इस देश में कभी आया ही नहीं। तो फिर राज किसका है? जनता जानती है, और कहती भी है। पर बात ये नहीं है। बात यह है कि राज किस का? और कैसा होना चाहिए?

-वास्तव में होना चाहिए, कानून का राज।

-यह कैसा होता है? कैसे होगा?

-कानून का राज, मतलब उन कानूनों का राज, जो किताबों में दर्ज हैं। जिन्हें हमारी संसद और विधानसभाओं ने बनाया है और जिन्हें वह वक्त-जरुरत बनाती रहती है, और बनाती रहेगी। यानी देश के राष्ट्रपति, राज्यपाल, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, दूसरे मंत्री, सारे नौकरशाह, सारे सरकारी - गैर सरकारी कर्मचारी, सारे पूंजीपती, जमींदार, दुकानदार, व्यापारी, सारी सेना, पुलिस, सारे साहित्यकार, कलाकार, सारे किसान मजदूर जिस कानून को मानते हों और उसी के अनुसार चलते हों।

अब आप सोच रहे होंगे कि 'ऐसा भी कोई होता है क्या? कानून को न मानने वाले भी तो होते हैं। अगर सभी कानून को मानने वाले हों तो फिर राज की जरूरत ही क्या रह जाएगी। पुलिस, वकील और कचहरी की जरूरत भी नहीं होगी। सब लोग अपने आप चलते रहेंगे, समाज भी चलता रहेगा। नहीं, नहीं ऐसा तो हो ही नहीं सकता। और हो जाए तो ये पुलिस वाले, वकील, जज, ये अदालतों के बाबू-मुंशी टाइपिस्ट, ये सब कहाँ जाऐंगे? क्या करेंगे?

आप ने सही सोचा। वैसे कुछ लोग कहते हैं - राज नाम की चीज पहले नहीं हुआ करती थी। यह बाद में पैदा हुई। अब आचार्य बृहस्पति कह गए हैं कि जो पैदा होता है वह मरेगा। इसॉलिए मान लेते हैं कि राज भी कभी पैदा हुआ था तो मरेगा भी। यानी ऐसा भी वक्त आएगा जब राज नहीं रहेगा। इसलिए भी माने लेते हैं कि ये बात है मजेदार। वाकई, मजेदार। क्या बात है? सचमुच ऐसा भी वक्त आएगा जब राज ही नहीं रहेगा। वाकई मजेदार है।

लो आप मजा लेने में लग गए। मैं बात कर रहा था कानून के राज की और आप बे-राज का मजा लेने लगे। भाई मैं एक सीरियस बात करना चाहता हूँ। इसे मजाक में मत उड़ाओ।

-मजाक में न लें, तो करें क्या? संसद, विधानसभाएं कानून बनाती हैं, इसलिए कि देश मे, समाज में सब कुछ ठीक चले। पर लोग हैं कि कहाँ मानते हैं। कानून रख देते हैं ताक पर, अपने हिसाब से चलते रहते हैं।

-कानून को मनवाने का कानून भी तो साथ में बनाते हैं।

-बनाते हैं तो क्या? सिर्फ दिखाने के लिए। सजा तो तब हो जब पुलिस चालान करे। पुलिस चालान करती कहाँ है?

-करती क्यों नहीं? करती तो है?

-सिर्फ दिखाने के लिए। पब्लिक को बताने के लिए। पुलिस को चालान करने के लिए हेड कांस्टेबल या उस से ऊँचे अफसर चाहिए। वो हैं नहीं।

-कहाँ गए?

-थोड़े से हैं। उन्हें मंत्री जी की सुरक्षा, अफसरों की सुरक्षा में लगा दिया। बचे जो चुनाव कराने में लगे हैं। बाकी दंगे कराने, दंगे मिटाने और घर से भाग कर शादी करने वाली लड़कियों को ढूंढ़ने में लगे है।

-फिर कोई रपट दर्ज कराए तो उस पर तो कार्रवाई करते होंगे, .... मेरा मतलब करनी पड़ती होगी।

-करते हैं। समझाते हैं, रपट दर्ज करने वालों को। दुनियांदारी समझाते हैं। बताते हैं, क्या क्या करना होगा? फिर अदालत जाना होगा। वकील, मुन्शी, बाबू, रीड़र, जज सब से निपटना पड़ेगा। समझा कर समझौता कराते हैं।

-ऐसा? पर क्यों कराते हैं जी समझौता।

-बस अदालतें कम हैं जी, बहुत कम। पुलिस भी कम है।

-ऐसा? तो फिर क्या होगा जी?

-बस। ऐसे ही चलता रहेगा। काँग्रेस, बीजेपी, वाम-मोर्चा, माया, मुलायम, ममता, जया, लालू या और किसी का राज। संसद, विधानसभाऐं कानून बनाती रहेंगी। कानून रहेगा किताबों में कैद और राज चलता रहेगा।

और वो कानून का राज?

किताबों में बन्द।

ऐं............, किताबों में बन्द।

3 टिप्‍पणियां:

  1. कानून का किताबों में बन्द होना खतरे की घण्टी है। पहली बात तो यह कि लोग कानून की अवज्ञा करते हैं। दूसरे - कानून लागू करने की मशीनरी अक्षम है। तीसरे - कानून बड़ा जटिल और बोझिल है; जो समझ नहीं आता।
    मुझे तो ये तीनों लगते हैं।

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  2. आप की बात बिलकुल सही है। लेकिन समस्या यह है कि जो बात देश को बहुत-बहुत पीछे ले जाने वाली है। उस की ओर किसी का ध्यान ही नहीं है। उसी की कोशिश में लगा हूँ। कल यहां संभागीय स्तर पर इसी बात को लेकर एक सेमीनार बार की ओर से करने का सिलसिला शुरू हुआ है। बाद में संभाग और राजस्थान की सभी बार ऐसोसिएशनों में ऐसा करने और इस के लिए प्रान्तों की बार काउंसिलों और बार काउंसिल ऑफ इण्डिया तक को इस काम को हाथ में लेने के लिए प्रेरित करने का प्रयास है। देखते हैं, क्या कुछ कर पाते हैं।

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  3. सही!

    किताबों में बंद कानून
    पढ़ता कौन है आज किताबें
    सजती है बस किताबें यहां-वहां
    कब किताबें है बनी शो पीस
    उनमें बंद कानून भी हुआ शो पीस!

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