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शनिवार, 23 दिसंबर 2023

पैंतालीस साल



बी
एससी के बाद जब एलएल.बी. में एडमिशन लिया तब केवल कानून पढ़ने का इरादा था और पत्रकार बनने का। पर फिर कुछ ऐसा हुआ कि जनवरी 1978 में सारे सपने पीछे छोड़ वकील बनने का इरादा कर लिया। 1978 मई में एलएल.बी. का आखिरी पर्चा देने के दिन रात 12 बजे अपने घर बाराँ पहुँचा। अगले दिन सुबह साढ़े नौ बजे एडवोकेट हरीशजी गोयल के दफ्तर में था। मुझे देख उन्होंने पूछा, “तेरी परीक्षा हो गयी?” मैंने कहा, “कल आखिरी पर्चा था।“ वे पूछने लगे, “अब क्या करना?” मैंने कहा, “करना क्या है? आज से आपकी फाइलों का बस्ता लेकर अदालत चलना है, वकालत का अभ्यास शुरू।” उन्होंने कहा, “बस्ता संभालने के लिए तो मुंशी जी हैं। आ, खाना खा लेते हैं फिर चलते हैं अदालत।“ मैंने बताया कि “मैं तो खा कर आया हूँ। आप भोजन करके आइए।“

उस दिन से अदालत जाना शुरू हो गया। परीक्षा का परिणाम आ गया। बार कौंसिल राजस्थान में एनरोलमेंट के लिए आवेदन कर दिया। उस वक्त इंटरनेट का जन्म नहीं हुआ था। न वेबसाइटें थीं और न ई-मेल। टेलीफोन कुछ व्यवसाइयों के पास या केवल नगर के बड़े घरों और सरकारी दफ्तरों में हुआ करते थे। कभी तुरन्त कम्युनिकेशन की जरूरत पड़ती तो लाइटनिंग कॉल करनी पड़ती थी। डाक से आने वाली चिट्ठियाँ ही कम्युनिकेशन का प्रमुख साधन थीं। तब लिखने-पढ़ने और पत्रकारिता का भूत खूब सवार रहता था। मेरे लिए रोज कम से कम चार-पाँच जरूर चिट्ठियाँ आतीं जो दोपहर को घर पर डिलीवर होतीं। अदालत जाते समय पोस्ट ऑफिस रास्ते में पड़ता था। सुबह दस-सवा दस बजे पोस्टमेन डाक छाँट कर डिलीवरी के लिए निकलने की तैयारी में होते थे। मैं पोस्ट ऑफिस होते हुए अदालत के लिए निकलता और अपनी डाक पोस्टमेन से वहीं वसूल लेता था।

साल 1978 के 23 दिसम्बर का दिन था। यह संयोग ही है कि आज 45 वर्ष बाद भी इस दिन शनिवार ही है। तब चौथा शनिवार होने से अदालतों और सरकारी दफ्तरों में अवकाश है। लेकिन तब सरकार और अदालतों में केवल दूसरे शनिवार को अवकाश हुआ करता था। चौथे शनिवार को अदालतें और दफ्तर गुलजार रहा करते थे। उस दिन मैंने अदालत जाने समय पोस्ट ऑफिस से अपनी डाक वसूल की। डाक में एक खाकी रंग का लिफाफा था जो बार कौंसिल से आया था। मैंने सबसे पहले उसे खोल कर देखा तो उसमें पत्र था जिसमें सूचना दी गयी थी कि 3 दिसम्बर 1918 बैठक में मुझे बार कौंसिल ऑफ राजस्थान की रोल पर 544/ 1978 क्रम पर एनरोल कर लिया गया है। उस चिट्ठी के मिलते ही मैं एक प्रशिक्षु से वकील हो गया था। अदालत पहुँचने पर भाई साहब हरीश जी मिले मैंने वह चिट्ठी उन्हें दे दी। चिट्ठी पढ़ कर बहुत प्रसन्न हुए। वे कुछ सप्ताह पहले ही सिल कर आया नया काला कोट पहने थे। उन्होंने अपना कोट उतारा और मुझे पहना दिया। मुझे कोट पहना हुआ देख कर सारे वकील पूछने लगे, “सनद आ गयी लगती है?” मैंने बताया कि आज ही पत्र मिला है।

उन दिनों बार एसोसिएशन बाराँ के सभी वकील लंच की चाय एसोसिएशन के हॉल में ही पीते थे। लंच हुआ तो सभी हॉल में पहुँचने लगे। जैसे ही हरीश जी और मैं हॉल में पहुँचे। सीनियर वकील मोहम्मद खाँ जी ने बोले,”हरीश” मिठाई कहाँ है? आज तेरा पहला चेला वकील हो गया।“ तभी मुंशी जी मिठाई का डब्बा लिए हॉल में दाखिल हुए, नमकीन मिक्सचर भी साथ था। बस संक्षिप्त सी पार्टी हो गयी। उसके बाद बार एसोसिएशन बाराँ में मेरा नाम सदस्य के रूप में पंजीकृत किया गया। उस दिन से वकालत शुरु हुई तो कभी इस प्रोफेशन ने दामन न छोड़ा। वकालत में बहुत लोगों का आशीर्वाद मिला।

मैं साल पूरा होने के पहले ही बाराँ छोड़ कोटा आ गया। बाराँ में तो हरीश जी और उनके सभी मित्र वकीलों का मुझे आशीर्वाद मिला। कोटा आने के बाद मैं हमेशा पशो-पेश में रहा कि किस सीनियर वकील का दफ्तर जोइन करूँ। मैं मजदूरों की पैरवी करता था। किसी भी नामी दफ्तर में खुद को इनकसिस्टेंट पाता। इसलिए स्वतंत्र रूप से काम करने लगा। लेकिन हमेशा किसी सीनियर वकील के वरदहस्त की जरूरत होती तो मुझे कोटा के नामी वकीलों, पण्डित रामशरण जी शर्मा, सज्जनदास जी मोहता, पानाचंद जी जैन, शिव कुमार शर्मा, महेश जी गुप्ता आदि सीनियर वकीलों का आशीर्वाद मुझे जीवन पर्यन्त मिलता रहा। पानाचंद जी और शिवकुमार जी शर्मा उच्च न्यायालय में जज हुए तो कोटा छोड़ गए। पानाचंद जी जैन और महेश जी गुप्ता अभी मौजूद हैं उनका का आशीर्वाद जब भी चाहता हूँ मुझे मिलता रहता है। कोटा में मजदूर वर्ग के नेताओं का साथ मुझे मिला। उनके साथ के बिना मैं जो आज हूँ कभी नहीं हो सकता था। उनका उल्लेख किसी अन्य अवसर पर फिर करता हूँ।

मित्रों¡ वह अद्भुत दिन था। शायद ही किसी नए वकील को यह अवसर मिला होगा कि सनद मिलने की सूचना मिलने पर सीनियर उसे अपना कोट पहना दे। मैंने वह कोट लगभग पाँच बरस पहना और लगभग बीस वर्ष तक संभाल कर रखा भी। आज वकालत में पैंतालीस साल पूरे हुए। आप सब की शुभकामनाएँ रहीं तो पचास भी इसी तरह सफलतापूर्वक पूरे होंगे।

गुरुवार, 14 दिसंबर 2023

'कहानी' गिरगिट -अन्तोन चेखॉव

पुलिस का दारोगा ओचुमेलोव नया ओवरकोट पहने, बगल में एक बण्डल दबाये बाजार के चौक से गुजर रहा था। उसके पीछे-पीछे लाल बालोंवाला पुलिस का एक सिपाही हाथ में एक टोकरी लिये लपका चला आ रहा था। टोकरी जब्त की गई झड़गरियों से ऊपर तक भरी हुई थी। चारों ओर खामोशी।…चौक में एक भी आदमी नहीं। ….भूखे लोगों की तरह दुकानों और शराबखानों के खुले हुए दरवाजे ईश्वर की सृष्टि को उदासी भरी निगाहों से ताक रहे थे, यहां तक कि कोई भिखारी भी आसपास दिखायी नहीं देता था।

“अच्छा! तो तू काटेगा? शैतान कहीं का!” ओचुमेलोव के कानों में सहसा यह आवाज आयी, “पकड़ तो लो, छोकड़ो! जाने न पाये! अब तो काटना मना हो गया है! पकड़ लो! आ…आह!”

कुत्ते की पैं-पैं की आवाज सुनायी दी। आचुमेलोव ने मुड़कर देखा कि व्यापारी पिचूगिन की लकड़ी की टाल में से एक कुत्ता तीन टांगों से भागता हुआ चला आ रहा है। कलफदार छपी हुई कमीज पहने, वास्कट के बटन खोले एक आदमी उसका पीछा कर रहा है। वह कुत्ते के पीछे लपका और उसे पकड़ने की काशिश में गिरते-गिरते भी कुत्ते की पिछली टांग पकड़ ली। कुत्ते की पैं-पैं और वहीं चीख, “जाने न पाये!” दोबारा सुनाई दी। ऊंखते हुए लोग दुकानों से बाहर गरदनें निकालकर देखने लगे, और देखते-देखते एक भीड़ टाल के पास जमा हो गयी, मानो जमीन फाड़कर निकल आयी हो।

“हुजूर! मालूम पड़ता है कि कुछ झगड़ा-फसाद हो रहा है!” सिपाही बोला।

आचुमेलोव बाईं ओर मुड़ा और भीड़ की तरफ चल दिया। उसने देखा कि टाल के फाटक पर वही आदमी खड़ा है। उसकी वास्कट के बटन खुले हुए थे। वह अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाये, भीड़ को अपनी लहूलुहान उंगली दिखा रहा था। लगता था कि उसके नशीले चेहरे पर साफ लिखा हुआ हो “अरे बदमाश!” और उसकी उंगली जीत का झंडा है। आचुमेलोव ने इस व्यक्ति को पहचान लिया। यह सुनार खूकिन था। भीड़ के बाचोंबीच अगली टांगे फैलाये अपराधी, सफेद ग्रे हाउंड का पिल्ला, छिपा पड़ा, ऊपर से नीचे तक कांप रहा था। उसका मुंह नुकिला था और पीठ पर पीला दाग था। उसकी आंसू-भरी आंखों में मुसीबत और डर की छाप थी।

“यह क्या हंगामा मचा रखा है यहां?” आचुमलोव ने कंधों से भीड़ को चीरते हुए सवाल किया। “यह उंगली क्यों ऊपर उठाए हो? कौन चिल्ला रहा था?”

“हुजूर! मैं चुपचाप अपनी राह जा रहा था, बिल्कुल गाय की तरह,” खूकिन ने अपने मुंह पर हाथ रखकर, खांसते हुए कहना शुरू किया, “मिस्त्री मित्रिच से मुझे लकड़ी के बारे में कुछ काम था। एकएक, न जाने क्यों, इस बदमाश ने मरी उंगली में काट लिया।..हुजूर माफ करें, पर मैं कामकाजी आदमी ठहरा,… और फिर हमारा काम भी बड़ा पेचिदा है। एक हफ्ते तक शायद मेरी उंगुली काम के लायक न हो पायेगी।क मुझे हरजाना दिलवा दीजिए। और हुरूर, कानून में भी कहीं नहीं लिखा है कि हम जानवरों को चुपचाप बरदाश्त करते रहें।..अगर सभी ऐसे ही काटने लगें, तब तो जीना दूभर हो जायेगा।”

“हुंह..अच्छा..” ओचुमेलाव ने गला साफ करके, त्योरियां चढ़ाते हुए कहा, “ठीक है।…अच्छा, यह कुत्ता है किसका? मैं इस मामले को यहीं नहीं छोडूंगा! कुत्तों को खुला छोड़ रखने के लिए मैं इन लोगों को मजा चखाउंगा! जो लोग कानून के अनुसार नहीं चलते, उनके साथ अब सख्ती से पेश आना पड़ेगा! ऐसा जुरमाना ठोकूंगा कि छठी का दूध याद आ जायेगा।बदमाश कहीं के! मैं अच्छी तरह सिखा दूंगा कि कुत्तों और हर तरह के ढोर-डगार को ऐसे छुट्टा छोड़ देने का क्या मतलब है! मैं उसकी अकल दुरुस्त कर दूंगा, येल्दीरिन!”

सिपाही को संबोधित कर दरोगा चिल्लाया, “पता लगाओ कि यह कुत्ता है किसका, और रिपोर्ट तैयार करो! कुत्ते को फौरन मरीवा दो! यह शायद पागल होगा।…..मैं पूछता हूँ, यह कुत्ता किसका है?”

“शायद जनरल जिगालोव का हो!” भीड़ में से किसी ने कहा।

“जनरल जिगालोव का? हुंह…येल्दीरिन, जरा मेरा कोट तो उतारना। ओफ, बड़ी गरमी है।…मालूम पड़ता है कि बारिश होगी। अच्छा, एक बात मेरी समझ में नही आती” कि इसने तुम्हें काटा कैसे?” ओचुमेलोव खूकिन की ओर मुड़ा, “यह तुम्हारी उगली तक पहुंचा कैसे? ठहरा छोटा-सा और तुम हो पूरे लम्बे-चौड़े। किसी कील-वील से उंगली छी ली होगी और सोचा होगा कि कुत्ते के सिर मढ़कर हरजाना वसूल कर लो। मैं खूब ससमझता हूँ! तुम्हारे जैसे बदमाशों की तो मैं नस-नस पहचानता हूँ!”

“इसने उसके मुंह पर जलती सिगरेट लका दी थी, हुजूर! यूं ही मजाक में और यह कुत्ता बेवकूफ तो है नहीं, उसने काट लिया। यह शख्स बड़ा फिरती है, हुजूर!”

“अब! झूठ क्यों बोलता है? जब तूने देखा नहीं, तो गप्प क्यों मारता है? और सरकार तो खुद समझदार हैं। वह जानते हैं कि कौन झूठा है और कौन सच्चा। अगर हैं, खुद मेरा भाई पुलिस में है।..बताये देता हूँ….हां….”

“बंद करो यह बकवास!”

“नहीं, यह जनरल साहब का कुत्ता नहीं है,” सिपाही ने गंभीरता पूर्वक कहा, “उनके पास ऐसा कोई कुत्ता है ही नहीं, उनके तो सभी कुत्ते शिकारी पौण्डर हैं।”

“तुम्हें ठीक मालूम है?”

“जी सरकार।”

“मैं भी जनता हूँ। जनरल साहब क सब कुत्ते अच्छी नस्ल के हैं, एक-से-एक कीमती कुत्ता है उनके पास। और यह! तो बिल्कुल ऐसा-वैसा ही है, देखो न! बिल्कुल मरियल है। कौन रखेगा ऐसा कुत्ता? तुम लोगों का दिमाग तो खराब नहीं हुआ? अगर ऐसा कुत्ता मास्का या पीटर्सबर्ग में दिखाई दे तो जानते हो क्या हो? कानून की परवा किये बिना, एक मिनट में उससे छुट्टी पाली जाये! खूकिन! तुम्हें चोट लगी है। तुम इस मामले को यों ही मत टालो।…इन लोगों को मजा चखाना चाहिए! ऐसे काम नहीं चलेगा।”

“लेकिन मुमकिन है, यह जनरल साहब का ही हो,” सिपाही बड़बड़ाया, “इसके माथे पर तो लिखा नहीं है। जनरल साहब के अहाते में मैंने कल बिल्कुल ऐसा ही कुत्ता देखा था।”

“हां-हां, जनरल साहब का तो है ही!” भीड़ में से किसी की आवाज आयी।

“हूँह।…येल्दीरिन, जरा मुझे कोट तो पहना दो। अभी हवा का एक झोंका आया था, मुझे सरदी लग रही है। कुत्ते को जनरल साहब के यहां जाओ और वहां मालूम करो। कह देना कि मैने इस सड़क पर देखा था और वापस भिजवाया है। और हॉँ, देखो, यह कह देना कि इसे सड़क पर न निकलने दिया करें। मालूम नहीं, कितना कीमती कुत्ता हो और अगर हर बदमाश इसके मुंह में सिगरेट घुसेड़ता रहा तो कुत्ता बहुत जल्दी तबाह हो जायेगा। कुत्ता बहुत नाजुक जानवर होता है। और तू हाथ नीचा कर, गधा कहीं का! अपनी गन्दी उंगली क्यों दिखा रहा है? सारा कुसूर तेरा ही है।”

“यह जनरल साहब का बावर्ची आ रहा है, उससे पूछ लिया जाये।…ऐ प्रोखोर! जरा इधर तो आना, भाई! इस कुत्ते को देखना,तुम्हारे यहां का तो नहीं है?”

“वाह! हमारे यहां कभी भी ऐसा कुत्ता नहीं था!”

“इसमें पूछने की क्या बात थी? बेकार वक्त खराब करना है,” ओचुमेनलोव ने कहा, “आवारा कुत्ता यहां खड़े-खड़े इसके बारे में बात करना समय बरबाद करना है। तुमसे कहा गया है कि आवारा है तो आवारा ही समझो। मार डालो और छुट्टी पाओ?

“हमारा तो नहीं है,”प्रोखोर ने फिर आगे कहा, “यह जनरल साहब के भाई का कुत्ता है। हमारे जनरल साहब को ग्र हाउ।ड के कुत्तों में कोई दिलचस्पी नहीं है, पर उनके भाई साहब को यह नस्ल पसन्द है।”

“क्या? जनरल साहब के भाई आये हैं? ब्लादीमिर इवानिच?” अचम्भे से ओचुमेलोव बोल उठा, उसका चेहरा आह्वाद से चमक उठा। “जर सोचो तो! मुझे मालूम भी नहीं! अभी ठहरंगे क्या?”

“हां।”
कहानी गिरगिट के नाट्य रूपान्तरण के मंचन का एक दृश्य


“वाह जी वाह! वह अपने भाई से मिलने आये और मुझे मालूम भी नहीं कि वह आये हैं! तो यह उनका कुत्ता है? बहुत खुशी की बात है। इसे ले जाओ। कैसा प्यारा नन्हा-सा मुन्ना-सा कुत्ता है। इसकी उंगली पर झपटा था! बस-बस, अब कांपो मत। गुर्र…गुर्र…शैतान गुस्से में है… कितना बढ़िया पिल्ला है!

प्रोखोर ने कुत्ते को बुलाया और उसे अपने साथ लेकर टाल से चल दिया। भीड़ खूकिन पर हंसने लगी।

“मैं तुझे ठीक कर दूंगा।” ओचुमेलोव ने उसे धमकाया और अपना लबादा लपेटता हुआ बाजार के चौक के बीच अपने रास्ते चला गया।

शनिवार, 2 दिसंबर 2023

एग्नोडिस : प्राचीन ग्रीस की पहली स्त्री चिकित्सक

प्राचीन ग्रीस में, स्त्रियों के लिए चिकित्सा का अध्ययन करना वर्जित था। 300 ईस्वी पूर्व में जन्मी, एग्नोडिस ने अपने बाल काटे और एक पुरुष के रूप में वस्त्र धारण करके अलेक्जेंड्रिया मेडिकल स्कूल में प्रवेश किया।


अपनी चिकित्सा शिक्षा पूरी करने के बाद एथेंस की सड़कों पर चलते समय, एग्नोडिस ने प्रसव पीड़ा में तड़प रही एक स्त्री की कराहट सुनाई दी। वह उस स्त्री के यहाँ पहुँच गयी। दर्द से कराहती स्त्री नहीं चाहती थी कि एग्नोडिस उसे छुए क्योंकि उसे लगा कि वह एक पुरुष है। किन्तु एग्नोडिस ने अपने कपड़े उतारकर साबित किया कि वह एक स्त्री है। उसने प्रसव कराया जिससे स्त्री ने बच्चे को जन्म दिया।

इस घटना का समाचार स्त्रियों में फैल गया और सभी महिलाएं जो बीमार थीं, एग्नोडिस के पास जाने लगीं। ईर्ष्यालु, पुरुष डॉक्टरों ने एग्नोडिस पर जिसे वे पुरुष मानते थे, आरोप लगाया कि उसने महिला रोगियों को धोखा दिया है। एग्नोडिस पर अदालत में मुकदमा चलाया गया और उसे मौत की सजा सुना दी। तब एग्नोडिस ने बताया कि वह एक स्त्री है, पुरुष।

यह जानने पर कि उसने स्त्री होते हुए भी पुरुष वेश धारण कर चिकित्सा अध्ययन किया है एग्नोडिस को स्त्री होते हुए भी छद्म पुरुष वेश धारण करने के लिए मौत की सजा सुना दी गयी। तब स्त्रियों ने विद्रोह कर दिया जिसमें सजा सुनाने वाले न्यायाधीशों की पत्नियाँ भी सम्मिलित थीं।

कुछ ने कहा कि अगर एग्नोडिस को मृत्युदंड दे दिया गया, तो वे उसके साथ अपने प्राण भी त्याग देंगी। अपनी पत्नियों और अन्य स्त्रियों के दबाव का सामना करने में असमर्थ, न्यायाधीशों ने एग्नोडिस को दोष मुक्त कर दिया। तब से स्त्रियों को भी चिकित्सा का अभ्यास करने की अनुमति दी गई, बशर्ते कि वे केवल स्त्रियों की देखभाल करें।

एग्नोडिस ने इतिहास में पहली स्त्री चिकित्सक और स्त्री रोग विशेषज्ञ के रूप में अपनी पहचान बनाई।

शुक्रवार, 10 नवंबर 2023

धन्वन्तरि जयन्ती

आज धन्वन्तरि जयंती है। कहते हैं धन्वन्तरि उज्जयनी के राजा विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्न थे। उन्हें विष्णु का एक अवतार भी कहा जाता है।

यह भी कहते हैं कि 800 या 600 वर्ष ईसा पूर्व प्राचीन काल के महान शल्य चिकित्सक सुश्रुत ने धनवन्तरि से वैद्यक की शिक्षा ग्रहण की थी।

इसी तरह की बहुत सी विरोधाभासी सूचनाएँ हैं जो विभिन्न माध्यमों में मिल जाती हैं।

मनुष्य आदिकाल से बीमारियों और स्वास्थ्य रक्षा के लिए प्रयत्न करता रहा है। जिसने जो खोजा, जो ज्ञान प्राप्त किया उसे आने वाली पीढ़ी को हस्तान्तरित कर दिया। मोर्य और गुप्त काल में जब चिकित्साशास्त्र को संहिताबद्ध किया जा रहा था तो इस विद्या के लिए एक काल्पनिक देवता का आविष्कार कर लिया गया जिसे धन्वन्तरि कहा गया। पुराणों में धन्वन्तरि की उत्पत्ति समुद्र मंथन से कही जाती है। जब समुद्र मंथन का आख्यान रचा गया। चिकित्सा के व्यवसाय में अधिकांश ब्राह्मण ही थे। पुराणों की रचना के दौरान मनुष्य का समस्त ज्ञान और कृतित्व ईश्वर को समर्पित कर दिया गया। तभी चिकित्सा के लिए हुए तब तक के तमाम प्रयास और प्राप्त ज्ञान को भी ईश्वर को समर्पित कर दिया गया।

दादाजी थोड़े बहुत, और पिताजी पूरे वैद्य थे। मैंने भी आयुर्वेद की शिक्षा ग्रहण की। दिल्ली विद्यापीठ से वैद्य विशारद किया और आयुर्वेदिक चिकित्सालय में इन्टर्नशिप भी की। बचपन से ही निकट के आयुर्वेद औषधालयों में धनतेरस के दिन भगवान धन्वन्तरि की पूजा होती देखी है और उन पूजाओं में शामिल भी हुआ हूँ। यह पूजा भारतीय चिकित्साशास्त्र में अपना योगदान करने वाले तमाम चिकित्सकों का स्मरण और आभार प्रकट करने का अवसर है। इस अवसर का हमें कभी त्याग नहीं करना चाहिए। जब से धनतेरस का मिथक धन-संपदा के साथ जुड़ा है तब से धन्वन्तरि को लोग विस्मृत करते चले जा रहे हैं। आज धन्वन्तरि का स्मरण करने वाले बहुत उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। दूसरी ओर बाजार आज जगमग है, भारी भीड़ है। लोग एक दूसरे से सटे हुए निकल रहे हैं।

आज धन्वन्तरि जयन्ती के इस अवसर पर भारत के तथा दुनिया भर के चिकित्सकों और चिकित्साशास्त्र में अपना योगदान करने वाले तमाम वैज्ञानिकों का आभार प्रकट करता हूँ। अनन्त शुभकामनाएँ कि सभी को चिकित्सा और स्वास्थ्य प्राप्त हो।

 

सोमवार, 9 अक्टूबर 2023

इमोजियाँ

पहले मात्र इशारे थे और थे स्वर
व्यंजन सभी भविष्य के गर्भ में छिपे थे
शनैः शनैः मनुष्य ने उच्चारना सीखा
तब जनमें व्यंजन
 
वह पत्थरों पर पत्थरों से
उकेरता था चित्र
वही उसकी अभिव्यक्ति थी

शनैः शनैः चित्र बदलते गए अक्षर लिपियों में
अक्षर लिपियों और उच्चारण के
संयोग से जनमी भाषाएँ

लिखना बदला टंकण में
और कम्प्यूटर के आविष्कार के बाद
चीजें बहुत बदल गईं दुनिया में
अभिव्यक्ति के नए आयाम खुले

अब शब्दों ही नहीं वाक्यों को भी
प्रकट करती हैं इमोजियाँ
लगता है मनुष्य वापस लौट आया है
चित्र लिपियों के युग में

मैंने अपने आप को देखा
मैं खड़ा था बहुत ऊँचे
मैं नीचे झाँका
तो वहाँ बहुत नीचे
ठीक मेरी सीध में दिखाई दिए
आदिम मनुष्य द्वारा अंकित चित्र
और चित्र लिपियाँ

लौट आया था मैं उसी बिन्दु पर
लेकिन नहीं था ठीक उसी जगह
उससे बहुत ऊँचाई पर था।
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गुरुवार, 31 अगस्त 2023

रुक गए और पीछे को लौट रहे लोगों को साथ लेने की कोशिश भी जरूरी है

कल मैंने राखी बांधने के सन्दर्भ को लेकर मुहूर्तों की निस्सारता पर एक पोस्ट लिखी थी। उस पर मुझे दो गंभीर उलाहने मिले। पहला उलाहना मिला मेरे अभिन्न साम्यवादी साथी से। उनका कहना था कि पोस्ट बहुत अच्छी थी, लेकिन पोस्ट के अन्तिम पैरा से पहले वाले पैरा में जिसमें मैंने मुहूर्त चिन्तामणि ग्रन्थ का उल्लेख किया था उसकी बिलकुल आवश्यकता नहीं थी। उससे फिर से लोग उसी दलदल में जा फँसे।

साथी की बात कुछ हद तक सही थी। किन्तु मेरा हमेशा से यह मानना रहा है कि मानव विकास की यात्रा में अनेक पड़ाव हैं। मनुष्यों के अनेक दल हैं और ये सभी अलग अलग पड़ाव पर खड़े हैं या किन्हीं दो पड़ावों के मध्य यात्रा पर हैं। जो यात्रा पर हैं उनमें से अनेक प्रगतिशील हैं और हर समय कुछ न कुछ सीख रहे हैं, आगे बढ़ रहे हैं। अनेक ऐसे हैं जो किसी पड़ाव पर रुक गए हैं और आगे बढ़ने से डर रहे हैं या आगे बढ़ने की इच्छा त्याग चुके हैं। अनेक ऐसे भी हैं जो इतने भयभीत हैं कि उन्हें प्रस्थान-बिन्दु ही प्रिय लगता है और वे जहाँ तक आगे बढ़े थे वहाँ से भी पीछे हट कर उस पिछले पड़ाव पर हैं जिसे वे अपने लिए सुरक्षित समझते हैं। कुछ तो ऐसे भी होंगे जो प्रस्थान बिन्दु तक भी पहुँच गए होंगे, वे और पीछे जाना चाहते होंगे लेकिन उस बिन्दु से पीछे जाने का मार्ग जैविक रूप से ही बन्द हो चुका है। यह आगे बढ़ने और पीछे हटने की यात्राएँ हमे निरन्तर दिखाई पड़ती हैं। पीछे जाने वाले दक्षिणपंथी-पुरातनपंथी हैं। यह पंथ शोषक-सत्ताधारियों को बहुत पसंद आता है क्योंकि इससे उन्हें किसी तरह का भय नहीं महसूस होता है। न रुक कर आगे की यात्रा करने वाले प्रगतिशील और वामपंथी हैं, जो अपने अपने पड़ाव पर रुक गए हैं और जिन्हें वहीं स्थायित्व नजर आता है वे यथास्थितिवादी हैं।

मैं उन लोगों में हूँ जो इस विकास यात्रा में अपनी स्थिति से आगे बढ़ना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ सम्पूर्ण मानवजाति एक साथ आगे बढ़े। रुके हुए और पीछे जा रहे लोगों को अपने साथ लाने का काम भी बड़ा काम है। इस काम में जो व्यक्ति जिस स्थान पर रुका है या पीछे जा रहा है उसे उसी स्थान से लाकर साथ साथ लिया जा सकता है जहाँ वह अवस्थित है। जो अलग अलग स्थानों पर खड़े हैं उन्हें समझाने के तरीके भी भिन्न भिन्न होंगे। जिन्होंने मान लिया कि ये मुहूर्त वगैरह निरर्थक हैं, वे मेरे साथ आगे बढ़ने को तैयार थे, ऐसे लोगों को तो इस पोस्ट की बिलकुल भी जरूरत नहीं थी। बहुत लोग ऐसे थे जिनका दम इन परंपराओँ में घुट रहा है लेकिन अभी भी इस निस्सारता को समझने की स्थिति में नहीं हैं। मुझे लगा कि उनके लिए इस पोस्ट में कुछ न कुछ जरूर होना चाहिए जिससे उन्हें उनकी घुटन से कुछ तो राहत मिले और वे आगे की सोच सकें। क्योंकि इस पोस्ट को लिखा तो उन्हीं के लिए था। यह पोस्ट इस मामले में अपनी स्थिति को स्पष्ट करने के लिए स्वान्तः सुखाय तो बिलकुल भी नहीं लिखी थी।

मैं ने साथी की आपत्ति के बाद अपनी पोस्ट का पुनरावलोकन किया। मुझे लगा कि जहाँ मैंने मुहूर्त चिन्तामणि का उल्लेख किया वहीं इस बात का उल्लेख भी पुनः करना चाहिए था कि "यद्यपि अच्छे और मानवजाति के भले के लिए किए जाने वाले काम के लिए किसी मुहूर्त की कोई आवश्यकता नहीं फिर भी जो लोग अभी असमंजस में हैं उनके लिए मैं यह संदर्भ प्रस्तुत कर रहा हूँ।" इस संदर्भ की इसलिए भी आवश्यकता थी कि लोग जानते हैं मैं कम्युनिस्ट हूँ, और असमंजस वाले लोग यह न समझें कि मैं इसीलिए आलोचना कर रहा हूँ। जब कि मेरा वैचारिक परिवर्तन अचानक नहीं हुआ। मुझे पंडताई वाली वे सब विद्याएँ बचपन और किशोरावस्था में सिखाई गयीं। घर में सभी तरह के धार्मिक, कर्मकांड सम्बन्धी और ज्योतिष ग्रन्थ बड़ी मात्रा में थे। मेरे पास उन्हें पढ़ने को पर्याप्त समय भी था। उन्हें पढ़ने और उनके अन्तर्विरोधों को भलीभाँति समझने और गुनने के बाद ही मुझे आगे की चीजें जानने की उत्कंठा हुई जिसके कारण मैं स्वाभाविक रूप से वैज्ञानिक विचार और वैज्ञानिक दर्शन "द्वंद्वात्मक भौतिकवाद" को जान सका। समझ सका कि यह दर्शन वास्तव में हमें स्पष्ट कर देता है कि दुनिया के तमाम व्यवहार किस पद्धति से चल रहे हैं और लगातार परिवर्तित हो रहे हैं। उस दर्शन को दैनंदिन घटनाओं पर अभ्यास करके परखा और फिर उस पर विश्वास किया। मेरा यह विश्वास हर दिन, हर पल, हर नयी जानकारी के साथ मजबूत होता है।

मेरी कल की कोशिश बस इतनी ही थी कि मैं अपने साथ वाले लोगों के कारवाँ के साथ ही आगे न बढ़ता रहूँ, बल्कि रुक गए और पीछे छूट गए लोगों को भी साथ लेता चलूँ। इसके बिना मंजिल पर पहुँचना शायद संभव भी नहीं। मुझे लगता है मेरी यह कोशिश कुछ तो कामयाब हुई ही है। दूसरे उलाहने का यहाँ उल्लेख नहीं करूंगा उसके बारे में अगली किसी पोस्ट में बात करूंगा।

बुधवार, 30 अगस्त 2023

मुहूर्तों की निस्सारता

लेकिन मुहूर्त देखने का व्यवसाय करने वाले ब्राह्मणों, गैर ब्राह्मणों और अखबारों, वेबसाइटों और मीडिया ने आज भी भद्रा -भद्रा का जाप करके भसड़ मचा रखी है।

मुझे भी अपनी किशोरावस्था में ज्योतिष और पंडताई का काम दादाजी ने सिखाया, उद्देश्य यही था कि यदि जीवन में कुछ सार्थक नहीं कर सका तो ब्राह्मण का बच्चा है यही सब करके पेट भराई तो कर ही लेगा।

उस समय जो सीखा और बाद में खोजबीन करके पढ़ा उसके हिसाब से मेरी समझ में यह सारा ज्ञान मिथ्या है और केवल डराने और रोजी रोटी चलाने का जरिया मात्र है।

मेरी एक कविता है...

क्या जोशी, क्या डाक्टर, क्या वकील
डरे को और डरावे,
फिर डर से निकलने का रास्ता बतावै,
जो ऐसा न करे तो घर के गोदड़े बिकावै।

ज्यादातर ब्राह्मणों को भद्रा के मामले में शास्त्रीय तथ्यों का ज्ञान तक नहीं है, वे भद्रा भद्रा करके लोगों को डराते हैं।

हालाँकि किसी भी ग्रंथ में रक्षाबंधन, प्रथम श्रावणी के अलावा बाद वाले श्रावणी कर्म और श्रवण पूजा हेतु शुभाशुभ देखने की जरूरत होने के बारे में कुछ भी नहीं कह रखा है। इसलिए कभी भी रक्षाबंधन मनाया जा सकता है।

महुर्त चिंतामणि ग्रन्थ कहता है, पूर्णिमा तिथि के पूर्वार्थ में भद्रा रहती है, तथा तिथि के पूर्वार्ध में होने वाली भद्रा रात्रि में शुभ होती है। इस का सीधा अर्थ है कि आज 10.58 सुबह से पूर्णिमा आरंभ हो रही है उसमें पूर्वार्ध में अर्थात रात्रि 9.01 तक भद्रा रहेगी। लेकिन तिथि के पूर्वार्ध की भद्रा होने से रात्रि में शुभ है। जिसका अर्थ है कि सूर्यास्त के बाद वह शुभ है, सूर्यास्त के बाद रक्षाबंधन मनाया जा सकता है।

इसलिए जिन्हें रक्षाबंधन मनाना है मुहूर्त की टेंशन छोड़ो, मस्ती से पूरे दिन और रात कभी भी रक्षाबंधन मनाओ।


मंगलवार, 8 अगस्त 2023

पितृसत्ता खुद ही खुद को नष्ट करने के उपाय कर रही है

आज राजस्थान पत्रिका के संपादकीय पृष्ठ पर समाज शास्त्री और स्तंभकार ऋतु सारस्वत का लेख छपा है "विवाह संस्था को कमजोर करेंगे लैंगिक आधार पर बने कानून"।

इस लेख में अन्य कारकों पर विचार किए बिना महिला सुरक्षा के लिए बने कानूनों के दुरुपयोग के आधार पर यह निष्कर्ष आरोपित किया गया है कि ये कानून ही झगड़े की जड़ हैं। स्वर यह निकल रहा है कि स्त्री सुरक्षा के लिए तथा पुरुषों के अपराधों के लिए उन्हें दंडित किए जाने और अपराधों की रोकथाम के लिए बने कानून ही पुरुषों पर दमन के अपराधी हैं और इन्हें स्टेच्यूट बुक से हटा देना चाहिए।

इस लेख में जो निष्कर्ष निकाले गए हैं उनमें अन्य आधारों का कोई उल्लेख नहीं किया गया है। जब कि पिछले दिनों अनेक घटनाओं से यह पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है कि कानूनों में कोई खामी नहीं है बल्कि किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने और पुलिस जाँच में जो भ्रष्टाचार और राजनैतिक हस्तक्षेप व्याप्त है वही मूल रोग की जड़ है। आज भी पुलिस और राजनीति में पितृसत्ता का बोलबाला है। वहाँ हर बात का रुख पितृसत्ता तय करती है। पुरुषों के विरुद्ध जो गलत मुकदमे दर्ज होते हैं उनके पीछे पुरुषों की योजना और साधन काम करते हैं। लगभग सभी मामलों में स्त्रियाँ पितृसत्ता के लिए औजार बना दी जाती हैं।

कहने को लेखिका समाजशात्री हैं, लेकिन इस पूरे लेख में किसी सामाजिक अध्ययन का उल्लेख नहीं किया गया। तथ्यों और आँकड़े लेख से गायब हैं। इस का सीधा अर्थ है कि खोखले लेखों के जरीए प्रिंट मीडिया भी सत्ता और पितृसत्ता की सेवा में मुब्तिला है। यहाँ तक कि स्त्री सुरक्षा के लिए निर्मित इन कानूनों को परिवार तोड़ने वाला बता कर जो थोड़ी बहुत सुरक्षा और हिम्मत स्त्रियाँ इन कानूनों से प्राप्त करती हैं उसका अंत करने की तैयारी है। वैसे ही दुरुपयोग के आधार पर इन कानूनों के दाँत तोड़ दिए गये है।

मैं इस बात से इन्कार नहीं करता कि कानूनों का दुरुपयोग नहीं होता। वह होता है, और खूब होता है। लेकिन दुरुपयोग की जड़ हमारी पुलिस, सरकारी अफसर और राजनेता हैं जो पितृसत्ता को बनाए रखते हैं। इस समस्या का गंभीर रूप से सामाजिक अध्ययन होना चाहिए। प्रधानमंत्री गली-गली यूनिवर्सिटी खोलने की बातें करते हैं यहाँ तक कि विदेश तक में कर आते हैं। लेकिन इस लेख में किसी एक विश्वविद्यालय द्वारा किए गए सामाजिक अध्ययन या शोध का कोई उल्लेख नहीं है।

समस्या की सारी जड़ पितृसत्ता में है। आज जब संविधान स्त्री और पुरुष को समान अधिकार देता है, तब समाज हर अधिकार और व्यवहार को पितृसत्ता की कसौटी पर कसने को तैयार रहता है। हम अपने समाज में जनतांत्रिक मूल्यों का विकास ही नहीं कर पाए हैं और न ही उन मूल्यों को समाज में स्थापित करने के बारे में कोई तैयारी नजर आती है। इस लेख में विवाह संस्था के नष्ट होने का खतरा बहुत जोरों से बताया गया है जैसे शहर पर स्काईलेब गिरने वाली हो। लेकिन विवाह संस्था इन कानूनों की वजह से नहीं बल्कि पितृसत्ता के दासयुगीन और सामंती सोच के कारण टूट रही है। उसे खुद पितृसत्ता से खतरा है, किसी कानून से नहीं। हमारे समाज को सामाजिक व्यवहारों में और परिवार में जनतांत्रिक व्यवहार सीखना होगा, स्त्री-पुरुष के मध्य कागजी और कानूनी समानता के स्थान पर वास्तविक समानता स्थापित करनी होगी तभी ये समस्याएँ हल हो सकेंगी। उसके बिना इस समस्या से कोई निजात नहीं है। आज कम संख्या में ही सही पर स्त्रियाँ पितृसत्ता को चुनौती दे रही हैं। पितृसत्ता को यह खतरा सबसे बड़ा नजर आता है उसका परिणाम यह लेख है, जो एक स्त्री से लिखवाया गया है और एक स्त्री अखबार में नाम तथा मामूली पारिश्रमिक के लिए इसे लिख रही है। ऐसी लेखिकाओं को भी सोचना चाहिए कि वे आखिर एक स्त्री हो कर पितृसत्ता का टूल कैसे बन रही हैं।

आप इसी तथ्य से सोच सकते हैं कि पितृसत्ता कितनी घबराई हुई है कि एक मुख्यमंत्री ने यह कहा है वे इस बात पर शोध करवा रहे हैं कि लव मैरिज में कैसे मातापिता की सहमति को अनिवार्य किया जा सकता है। यानी अब एक वयस्क स्त्री और पुरुष से यह अधिकार भी छीन लिया जाएगा कि वह अपनी मर्जी से ऐसा जीवन साथी चुन कर विवाह करे जिसके साथ उसे पूरा जीवन बिताना है। ऐसा कानून बना कर आप विवाहेतर संबंधों को बढ़ावा तो दे ही रहे हैं लेकिन उसके साथ ही विवाह संस्था को क्षतिग्रस्त भी कर रहे हैं क्योंकि तब बहुत सारे स्त्री-पुरुष बिना विवाह किए साथ रहना अर्थात सहजीवन में (Live in) रहना पसंद करेंगे। जो बड़े पैमाने पर अब हमारे महानगरों में देखने को मिल रहा है। कुल मिला कर हालात ये हैं कि पितृसत्ता खुद ही खुद को नष्ट करने के उपाय कर रही है।



मंगलवार, 1 अगस्त 2023

नस्लीय और धार्मिक राष्ट्रवाद लोगों को हत्यारों में तब्दील कर देते हैं

 क्या आप जानते हैं साथ के इस चित्र में यह क्या है? इसे क्या कहते हैं?

इस औजार का नाम fasces है, यह एक लैटिन शब्द है और यह औजार प्राचीन रोम में पाया जाता था।
इस औजार में एक लकड़ी का डंडा है जिस पर कुछ छोटे डंडों का एक गट्ठर बंधा है, उसके भी सिरे पर एक कुल्हा़ड़ी जैसा धारदार औजार बंधा है। यह एक प्राचीन प्रतीक है जो सामुहिक दंडाधिकार को प्रकट करता है। लेकिन इसी अधिकार को यदि किसी नस्लीय, धार्मिक या जातीवादी राष्ट्रवाद से जोड़ दिया जाए तो वह मनुष्यता के लिए सबसे खतरनाक राजनैतिक विचार बन जाता है।
 
यह काम सबसे पहले इटली में मुसोलिनी ने किया और एक रोमन राष्ट्रवाद खड़ा करते हुए इस प्रतीक नाम का उपयोग किया और अपनी राजनैतिक विचारधारा को FASCISM फासीवाद नाम दिया। बाद में पड़ौसी देश जर्मनी में हिटलर ने इसी विचारधारा का उपयोग कर जर्मन राष्ट्रवादी पार्टी नेशनल सोशलिस्ट पार्टी खड़ी की जिसका प्रतीक स्वास्तिक को बनाया। नेशनल सोशलिज्म शब्दों के एन ए सोशलिज्म के इज्म को मिला कर इसे नाजिज्म नाम बना। दोनों ने आपस में गुट बनाया और यूरोप में कत्लेआम मचा दिया, जो दूसरे विश्वयुद्ध का एक आधार बना।

उस समय की वैश्विक आर्थिक परिस्थितियों ने इस विचारधारा के लिए खाद पानी का काम किया। पूंजीवाद भयानक मंदी में फँसा था। साम्राज्यवादी देशों को नए बाजार चाहिए थे। जनता में असन्तोष था। उस असंतोष को दबाने के लिए शासकों को लगा कि राष्ट्रवाद का झुनझुना बढ़िया है और नासमझ जनता में बहुत बढ़िया तरीके से काम करता है।

मुसोलिनी से प्रेरणा प्राप्त कर लगभग एक सदी पहले भारत में भी एक संगठन खड़ा किया गया जिसे हम राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ नाम दिया गया। इसने भारत में हिन्दू धार्मिक राष्ट्रवाद को फैलाने की कोशिश की। बाद में जिस तरह नस्लीय राष्ट्रवाद को जर्मनी में नाजिज्म नाम दिया गया था, यहाँ भारत में उसी तरह इस विचारधारा को हिन्दुत्व नाम प्राप्त हुआ है, जो भारतीय सनातन धर्म की मूल शिक्षाओं के बिलकुल विपरीत विचार है।

यह विचारधारा लोगों को व्यक्तिगत रूप से एक हत्यारे के रूप में परिवर्तित कर देती है। इसका उदाहरण कल जयपुर मुंबई एक्सप्रेस में इसी विचार से प्रभावित आरपीएफ के एक सिपाही ने आरपीएफ के ही एक अधिकारी और तीन यात्रियों की हत्या कर दी है।





सोमवार, 31 जुलाई 2023

क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं? – प्रेमचंद



भारत के राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन में राष्ट्रवाद की भूमिका बेहद महत्त्वपूर्ण और निर्णायक रही है. लेकिन उस दौर में राष्ट्रवाद की कई किस्में मौजूद थीं. प्रभावशाली धारा वह थी जो राष्ट्रवाद के नाम पर अपने समाज में मौजूद भेदभाव, शोषण और अन्याय पर पर्दा डालती थी और इस तरह उसे बनाये रखती थी. हमारे राष्ट्र का मौजूदा स्वरूप तय करने में इस धारा ने बहुत बड़ी भूमिका निभायी है. आज जब तरह–तरह के लोग राष्ट्रवादी होने का दावा कर रहे हैं तो उनके निहितार्थों की पहचान के लिहाज से (और राष्ट्रवाद की एक वैकल्पिक समझ निर्मित करने के लिहाज से भी) 8 जनवरी 1934 को ‘हंस’ में प्रकाशित प्रेमचंद का यह लेख महत्त्वपूर्ण है.


यह तो हम पहले भी जानते थे और अब भी जानते हैं कि साधारण भारतवासी राष्ट्रीयता का अर्थ नहीं समझता, और यह भावना जिस जागृति और मानसिक उदारता से उत्पन्न होती है, वह अभी हममें बहुत थोड़े आदमियों में आयी है. लेकिन इतना ज़रूर समझते थे कि जो पत्रों के सम्पादक हैं, राष्ट्रीयता पर लम्बे–लम्बे लेख लिखते हैं और राष्ट्रीयता की वेदी पर बलिदान होने वालों की तारीफों के पुल बांधते हैं, उनमें ज़रूर यह जागृति आ गयी है और वह जात–पांत की बेड़ियों से मुक्त हो चुके हैं, लेकिन अभी हाल में ‘भारत’ में एक लेख देखकर हमारी आंखे खुल गयीं और यह अप्रिय अनुभव हुआ कि हम अभी तक केवल मुंह से राष्ट्र–राष्ट्र का गुल मचाते हैं, हमारे दिलों में अभी वही जाति–भेद का अंधकार छाया हुआ है. और यह कौन नहीं जानता कि जाति भेद और राष्ट्रीयता दोनों में अमृत और विष का अंतर है. यह लेख किन्हीं ‘निर्मल’ महाशय का है और यदि यह वही ‘निर्मल’ हैं, जिन्हें श्रीयुत ज्योतिप्रसाद जी ‘निर्मल’ के नाम से हम जानते हैं, तो शायद वह ब्राह्मण हैं. हम अब तक उन्हें राष्ट्रवादी समझते थे, पर ‘भारत’ में उनका यह लेख देखकर हमारा विचार बदल गया, जिसका हमें दुख है. हमें ज्ञात हुआ कि वह अब भी उन पुजारियों का, पुरोहितों का और जनेऊधारी लुटेरों का हिंदू समाज पर प्रभुत्त्व बनाये रखना चाहते हैं जिन्हें वह ब्राह्मण कहते हैं पर हम उन्हें ब्राह्मण क्या, ब्राह्मण के पांव की धूल भी नहीं समझते. ‘निर्मल’ की शिकायत है कि हमने अपनी तीन–चौथाई कहानियों में ब्राह्मणों को काले रंगों में चित्रित करके अपनी संकीर्णता का परिचय दिया है जो हमारी रचनाओं पर अमिट कलंक है. हम कहते हैं कि अगर हममें इतनी शक्ति होती, तो हम अपना सारा जीवन हिंदू–जाति को पुरोहितों, पुजारियों, पंडों और धर्मोपजीवी कीटाणुओं से मुक्त कराने में अर्पण कर देते. हिंदू–जाति का सबसे घृणित कोढ़, सबसे लज्जाजनक कलंक यही टकेपंथी दल हैं, जो एक विशाल जोंक की भांति उसका खून चूस रहा है, और हमारी राष्ट्रीयता के मार्ग में यही सबसे बड़ी बाधा है. राष्ट्रीयता की पहली शर्त है, समाज में साम्य–भाव का दृढ़ होना. इसके बिना राष्ट्रीयता की कल्पना ही नहीं की जा सकती. जब तक यहां एक दल, समाज की भक्ति, श्रद्धा, अज्ञान और अंधविश्वास से अपना उल्लू सीधा करने के लिए बना रहेगा, तब तक हिंदू समाज कभी सचेत न होगा. और यह दस–पांच लाख व्यक्तियों का नहीं है, असंख्य है. उसका उद्यम यही है कि वह हिंदू जाति को अज्ञान की बेड़ियों में जकड़ रखे, जिससे वह जरा भी चूं न कर सके. मानो आसुरी शक्तियों ने अंधकार और अज्ञान का प्रचार करने के लिए स्वयंसेवकों की यह अनगिनत सेना नियत कर रखी है.

अगर हिंदू समाज को पृथ्वी से मिट नहीं जाना है, तो उसे इस अंधकार–शासन को मिटाना होगा. हम नहीं समझते, आज कोई भी विचारवान हिंदू ऐसा है, जो इस टके पंथी दल को चिरायु देखना चाहता हो, सिवाय उन लोगों के जो स्वयं उस दल में हैं और चखौतियां कर रहे हैं. निर्मल, खुद शायद उसी टकेपंथी समाज के चौधरी हैं, वरना उन्हें टकेपंथियों के प्रति वकालत करने की ज़रूरत क्यों होती? वह और उनके समान विचारवाले उनके अन्य भाई शायद आज भी हिंदू समाज को अंधविश्वास से निकलने नहीं देना चाहते, वह राष्ट्रीयता की हांक लगाकर भी भावी हिंदू समाज को पुरोहितों और पुजारियों ही का शिकार बनाये रखना चाहते हैं. मगर हम उन्हें विश्वास दिलाते हैं कि हिंदू–समाज उनके प्रयत्नों और सिरतोड़ कोशिशों के बावजूद अब आंखें खोलने लगा है और इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि जिन कहानियों को ‘निर्मल’ जी ‘वर्तमान’ के सम्पादक श्री रमाशंकर अवस्थी, ‘सरस्वती’ के सम्पादक श्री देवीदत्त शुक्ल, ‘माधुरी’ के सम्पादक पं. रूपनारायण पांडे, ‘विशाल भारत’ के सम्पादक श्री बनारसीदास चतुर्वेदी आदि सज्जनों को ब्राह्मण समझते हैं या नहीं, पर इन सज्जनों ने उन कहानियों को छापते समय ज़रा भी आपत्ति न की थी. वे उन कहानियों को आपत्तिजनक समझते, तो कदापि न छापते. हम उनका गला तो दबा न सकते थे. मुरौवत में पड़कर भी आदमी अपने धार्मिक विश्वास को तो नहीं त्याग सकता. ये कहानियां उन महानुभावों ने इसीलिए छापीं, कि वे भी हिंदू समाज को टके पंथियों के जाल से निकालना चाहते हैं, वे ब्राह्मण होते हुए भी इस ब्राह्मण जाति को बदनाम करनेवाले जीवों का समाज पर प्रभुत्व नहीं देखना चाहते. हमारा खयाल है कि टकेपंथियों से जितनी लज्जा उन्हें आती होगी, उतनी दूसरे समुदायों को नहीं आ सकती, क्योंकि यह धर्मोपजीवी दल अपने को ब्राह्मण कहता है. हम कायस्थ कुल में उत्पन्न हुए हैं और अभी तक उस संस्कार को न मिटा सकने के कारण किसी कायस्थ को चोरी करते या रिश्वत लेते देखकर लज्जित होते हैं. ब्राह्मण क्या इसे पसंद कर सकता है, कि उसी समुदाय के असंख्य प्राणी भीख मांगकर, भोले–भाले हिंदुओं को ठगकर, बात–बात में पैसे वसूल करके, निर्लज्जता के साथ अपने धर्मात्मापन का ढोंग करते फिरें. यह जीवन व्यवसाय उन्हीं को पसंद आ सकता है जो खुद उसमें लिप्त हैं और वह भी उसी वक्त तक, जब तक कि उनकी अधः स्वार्थ भावना प्रचंड है और भीतर की आंखें बंद हैं. आंखें खुलते ही वह उस व्यवसाय और उस जीवन से घृणा करने लगेंगे. हम ऐसे सज्जनों को जानते हैं, जो पुरोहितकुल में पैदा हुए, पर शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद उन्हें वह टकापंथपन इतना जघन्य जान पड़ा कि उन्होंने लाखों रुपये साल की आमदनी पर लात मार स्कूल में अध्यापक होना स्वीकार कर लिया. आज भी कुलीन ब्राह्मण पुरोहितपन और पुजारीपन को त्याज्य समझता है और किसी दशा में भी यह निकृष्ट जीवन अंगीकार न करेगा. ब्राह्मण वह है, जो निस्पृह हो, त्यागी हो और सत्यवादी हो. सच्चे ब्राह्मण महात्मा गांधी, म. मालवीय जी हैं, नेहरू हैं, सरदार पटेल हैं, स्वामी श्रद्धानंद हैं. वह नहीं जो प्रातःकाल आपके द्वार पर करताल बजाते हुए– ‘निर्मलपुत्र देहि भगवान’ की हांक लगाने लगते हैं, या गनेश–पूजा और गौरी पूजा और अल्लम–गल्लम पूजा पर यजमानों से पैसे रखवाते हैं, या गंगा में स्नान करनेवालों से दक्षिणा वसूल करते हैं, या विद्वान होकर ठाकुर जी और ठकुराइन जी के शृंगार में अपना कौशल दिखाते हैं, या मंदिरों में मखमली गाव तकिये लगाये नर्तकियों का नृत्य देखकर भगवान से लौ लगाते हैं.

हिंदू बालक जब से धरती पर आता है और जब तक वह धरती से प्रस्थान नहीं कर जाता, इसी अंधविश्वास और अज्ञान के चक्कर में सम्मोहित पड़ा रहता है. और नाना प्रकार के दृष्टांतों से मनगढ़ंत किस्से कहानियों से, पुण्य और धर्म के गोरख–धंधों से, स्वर्ग और नरक की मिथ्या कल्पनाओं से, वह उपजीवी दल उनकी सम्मोहनावस्था को बनाये रखता है. और उनकी वकालत करते हैं हमारे कुशल पत्रकार ‘निर्मल’ जी, जो राष्ट्रवादी हैं. राष्ट्रवाद ऐसे उपजीवी समाज को घातक समझता है और समाजवाद में तो उसके लिए स्थान ही नहीं. और हम जिस राष्ट्रीयता का स्वप्न देख रहे हैं उसमें तो जन्मगत वर्णों की गंध तक न होगी, वह हमारे श्रमिकों और किसानों का साम्राज्य होगा, जिसमें न कोई ब्राह्मण होगा, न हरिजन, न कायस्थ, न क्षत्रिय. उसमें सभी भारतवासी होंगे, सभी ब्राह्मण होंगे, या सभी हरिजन होंगे.

कुछ मित्रों की यह राय हो सकती है कि माना टकेपंथी समाज निकृष्ट है, त्याज्य है, पाखंडी है, लेकिन तुम उसकी निंदा क्यों करते हो, उसके प्रति घृणा क्यों फैलाते हो, उसके प्रति प्रेम और सहानुभूति क्यों नहीं दिखलाते, घृणा तो उसे और भी दुराग्रही बना देती है और फिर उसके सुधार की सम्भावना भी नहीं रहती. इसके उत्तर में हमारा यही नम्र निवेदन है कि हमें किसी व्यक्ति या समाज से कोई द्वेष नहीं, हम अगर टकेपंथीपन का उपहास करते हैं, तो जहां हमारा एक उद्देश्य यह होता है कि समाज में से ऊंच–नीच, पवित्र–अपवित्र का ढोंग मिटावें, वहां दूसरा उद्देश्य यह भी होता है कि टकेपंथियों के सामने उनका वास्तविक और कुछ अतिरंजित चित्र रखें, जिसमें उन्हें अपने व्यवसाय, अपनी धूर्तता, अपने पाखंड से घृणा और लज्जा उत्पन्न हो, और वे उसका परित्याग कर ईमानदारी और सफाई की ज़िंदगी बसर करें और अंधकार की जगह प्रकाश के स्वयंसेवक बन जायें. ‘ब्रह्मभोज’ और ‘सत्याग्रह’ नामक कहानियों ही को देखिए, जिन पर ‘निर्मल’ जी को आपत्ति है. उन्हें पढ़कर क्या यह इच्छा होती है कि चौबे जी या पंडित जी का अहित किया जाय? हमने चेष्टा की है कि पाठक के मन में उनके प्रति द्वेष न उत्पन्न हो, हां परिहास–द्वारा उनकी मनोवृत्ति दिखायी है. ऐसे चौबों को देखना हो, तो काशी या वृंदावन में देखिए और ऐसे पंडितों को देखना हो तो, वर्णाश्रम  स्वराज्य संघ में चले जाइए, और निर्मल जी पहले ही उस धर्मात्मा दल में नहीं जा मिले हैं, तो अब उन्हें चटपट उस दल में जा मिलना चाहिए, क्योंकि वहां उन्हीं की मनोवृत्ति के महानुभाव मिलेंगे. और वहां उन्हें मोटेराम जी के बहुत से भाई–बंधु मिल जायेंगे, जो उनसे कहीं बड़े सत्याग्रही होंगे. हमने कभी इस समुदाय की पोल खोलने की चेष्टा नहीं की, केवल मीठी चुटकियों से और फुसफुसे परिहास से काम लिया, हालांकि ज़रूरत थी बर्नाडशा जैसे प्रतिभाशाली व्यक्ति की, जो घन से चोट लगाता है.

निर्मल जी को इस बात की बड़ी फिक्र है कि आज के पचास साल बाद के लोग जो हमारी रचनाएं पढ़ेंगे, उनके सामने ब्राह्मण समाज का कैसा चित्र होगा और वे हिंदू समाज से कितने विरक्त हो जायेंगे. हम पूछते हैं कि महात्मा गांधी के हरिजन आंदोलन को लोग आज के एक हजार साल के बाद क्या समझेंगे? यह कि हरिजनों को ऊंची जाति के हिंदुओं ने कुचल रखा था. हमारे लेखों से भी आज के पचास साल बाद लोग यही समझेंगे कि उस समय हिंदू समाज में इसी तरह के पुजारियों, पुरोहितों, पंडों, पाखंडियों और टकेपंथियों का राज था और कुछ लोग उनके इस राज को उखाड़ फेंकने का प्रयत्न कर रहे थे. निर्मल जी इस समुदाय को ब्राह्मण कहें, हम नहीं कह सकते. हम तो उसे पाखंडी समाज कहते हैं, जो अब निर्लज्जता की पराकाष्ठा तक पहुंच चुका है. ऐतिहासिक सत्य चुप–चुप करने से नहीं दब सकता. साहित्य अपने समय का इतिहास होता है, इतिहास से कहीं अधिक सत्य. इसमें शर्माने की बात अवश्य है कि हमारा हिंदू समाज क्यों ऐसा गिरा हुआ है और क्यों आंखें बंद करके धूर्तों को अपना पेशवा मान रहा है और क्यों हमारी जाति का एक अंग पाखंड को अपनी जीविका का साधन बनाये हुए है, लेकिन केवल शर्माने से तो काम नहीं चलता. इस अधोगति की दशा सुधार करना है. इसके प्रति घृणा फैलाइए, प्रेम फैलाइए, उपहास कीजिए या निंदा कीजिए सब जायज है और केवल हिंदू–समाज के दृष्टिकोण से ही नहीं जायज है, उस समुदाय के दृष्टिकोण से भी जायज है, जो मुफ्तखोरी, पाखंड और अंधविश्वास में अपनी आत्मा का पतन कर रहा है और अपने साथ हिंदू–जाति को डुबोए डालता है. हमने अपने गल्पों में इस पाखंडी समुदाय का यथार्थ रूप नहीं दिखाया है, वह उससे कहीं पतित है, मगर यह हमारी कमज़ोरी है कि बहुत–सी बातें जानते हुए भी उनके लिखने का साहस नहीं रखते और अपने प्राणों का भय भी है, क्योंकि यह समुदाय कुछ भी कर सकता है. शायद इस साप्रदायिक प्रसंग को इसीलिए उठाया भी जा रहा है कि पंडों और पुरोहितों को हमारे विरुद्ध उत्तेजित किया जाय.

निर्मल जी ने हमें ‘आदर्शवाद’ और कला के विषय में भी कुछ उपदेश देने की कृपा की है, पर हम यह उपदेश ऐसों से ले चुके हैं, जो उनसे कहीं ऊंचे हैं. आदर्शवाद इसे नहीं कहते कि अपने समाज में जो बुराइयां हों, उनके सुधार के बदले उनपर परदा डालने की चेष्टा की जाय, या समाज को एक लुटेरे समुदाय के हाथों लुटते देखकर जबान बंद कर ली जाय. आदर्शवाद का जीता–जागता उदाहरण हरिजन–आंदोलन हमारी आंखों के सामने है. निर्मल जी को मंदिरों का खुलना और मंदिरों के ठेकेदारों के प्रभुत्व का मिटना, ज़हर ही लग रहा होगा, मगर बेचारे मजबूर हैं, क्या करें?

निर्मल जी हमें ब्राह्मण द्वेषी बताकर संतुष्ट नहीं हुए. उन्होंने हमें हिंदू द्रोही भी सिद्ध किया है, क्योंकि हमने अपनी रचनाओं में मुसलमानों को अच्छे रूप में दिखाया है. तो क्या आप चाहते हैं, हम मुसलमानों को भी उसी तरह चित्रित करें जिस तरह पुरोहितों और पाखंडियों को करते हैं? हमारी समझ में मुसलमानों से हिंदू जाति को उसकी शतांश हानि नहीं पहुंचती है, जितनी इन पाखंडियों के हाथों पहुंची और पहुंच रही है. मुसलमान हिंदू को अपना शिकार नहीं समझता, उसकी जेब से धोखा देकर और अश्रद्धा का जादू फैलाकर कुछ ऐंठने की फिक्र नहीं करता. फिर भी मुसलमानों को मुझसे शिकायत है कि मैंने उनका विकृत रूप खींचा है. हम ऐसे मुसलमान मित्रों के खत दिखा सकते हैं, जिन्होंने हमारी कहानियों में मुसलमानों के प्रति अन्याय दिखाया है. हमारा आदर्श सदैव से यह रहा है कि जहां धूर्तता और पाखंड और सबलों द्वारा निर्बलों पर अत्याचार देखो, उसको समाज के समाने रखो, चाहे हिंदू हो, पंडित हो, बाबू हो, मुसलमान हो, या कोई हो. इसलिए हमारी कहानियों में आपको पदाधिकारी, महाजन, वकील और पुजारी गरीबों का खून चूसते हुए मिलेंगे, और गरीब किसान, मज़दूर, अछूत और दरिद्र उनके आघात सहकर भी अपने धर्म और मनुष्यता को हाथ से न जाने देंगे, क्योंकि हमने उन्हीं में सबसे ज़्यादा सच्चाई और सेवा–भाव पाया है. और यह हमारा दृढ़ विश्वास है कि जब तक यह सामुदायिकता और साप्रदायिकता और यह अंधविश्वास हममें से दूर न होगा, जब तक समाज को पाखंड से मुक्त न कर लेंगे तब तक हमारा उद्धार न होगा. हमारा स्वराज्य केवल विदेशी जुए से अपने को मुक्त करना नहीं है, बल्कि सामाजिक जुए से भी, इस पाखंडी जुए से भी, जो विदेशी शासन से कहीं अधिक घातक है, और हमें आश्चर्य होता है कि निर्मल जी और उनकी मनोवृत्ति के अन्य सज्जन कैसे इस पुरोहिती शासन का समर्थन कर सकते हैं. उन्हें खुद इस पुरोहितपन को मिटाना चाहिए, क्योंकि वह राष्ट्रवादी हैं. अगर कोई ब्राह्मण, कायस्थों की दहेज–प्रथा, उनके मदिरा सेवन की, या उनकी अन्य बुराइयों की निंदा करे, तो मुझे ज़रा भी बुरा न लगेगा. कोई हमारी बुराई दिखाये और हमदर्दी से दिखाये, तो हमें बुरा लगने या दांत किटकिटाने का कोई कारण नहीं हो सकता.

अंत में मैं अपने मित्र निर्मल जी से बड़ी नम्रता के साथ निवेदन करूंगा कि पुरोहितों के प्रभुत्व, के दिन अब बहुत थोड़े रह गये हैं और समाज और राष्ट्र की भलाई इसी में है कि जाति से यह भेद-भाव, यह एकांगी प्रभुत्व यह खून चूसने की प्रवृत्ति मिटायी जाय, क्योंकि जैसा हम पहले कह चुके हैं, राष्ट्रीयता की पहली शर्त वर्णव्यवस्था, ऊंच-नीच के भेद और धार्मिक पाखंड की जड़ खोदना है. इस तरह के लेखों से आपको आपके पुरोहित भाई चाहे अपना हीरो समझें और मंदिर के महंतों और पुजारियों की आप पर कृपा हो जाय, लेकिन राष्ट्रीयता को हानि पहुंचती है और आप राष्ट्र-प्रेमियों की दृष्टि से गिर जाते हैं. आप यह ब्राह्मण समुदाय की सेवा नहीं, उसका अपमान कर रहे हैं.


शुक्रवार, 7 जुलाई 2023

किस के पास है बेरोजगारी का इलाज?


आप कहीं किसी नगर, कस्बे में चले जाएँ, या सड़क मार्ग से सफर करते हुए जाएँ, आपको हर जगह बेशुमार थड़ियाँ मिलेंगी। सड़क पर बैठ कर लोग सामान बेचते या सेवा प्रदान करते मिलेंगे। ये वो लोग हैं जिनके पास रोजगार नहीं है, फुटकर व्यापार करन या सेवाएँ प्रदान करने के लिए उपयुक्त स्थान पर जगह खरीदने को आवश्यक धन नहीं है। वे सड़कों के किनारे अपनी आजीविका के लिए ये सब करते हैं। 
जिस स्थान पर ये रोजगार कर रहे हैं वह इनका नहीं है इस कारण इनको अक्सर प्रशासन हटाता रहता है। वह हटाता है, ये फिर आ जमते हैं। धीरे धीरे प्रशासन की भी आदत पड़ गयी है कि ये कहीं नहीं जाने वाले। फिर अब ऐसे लोग वोटर भी हैं, तो इन्हें खुद सत्ता पार्टी वाले और विपक्ष वाले भी संरक्षण देते हैं। अतिक्रमण हटाओ अभियानों के नाम पर इन पर एक्शन तो होता है लेकिन वह केवल दिखावे के लिए होता है। वे हटते हैं और फिर वहीं आ जमते हैं।

इस स्थिति का लाभ बड़े स्टेक होल्डर उठाते हैं। वे ठेले खरीदते हैं, उनमें माल सजाते हैं। बेरोजगार पकड़ते हैं और कहते हैं दिन भर सामान बेचो, शाम को कमीशन मिल जाएगा। इस तरह इस बेरोजगारी का लाभ उठाते हुए कुछ बड़े स्टेक होल्डर बिना स्थान के लिए कुछ भी इन्वेस्ट किए अपनी रिटेल सेल चैनें चला रहे हैं। इसमें बड़ा लाभ है। जगह का पैसा बच जाता है, ज्यादा से ज्यादा स्थानीय प्रशासन पुलिस को पटा के रखना होता हैं, जिसमें उतना पैसा खर्च नहीं होता। दूसरे इन्हें सेल्समेन बहुत सस्ते में मिल जाता है। तो बेरोजगारी की बढ़ोतरी के इस युग में ये धन्धा भी बहुत पनप रहा है।

अगर आप नगरों, कस्बों के बाजारों में ऐसे ठेले थड़ियाँ देखते हैं जिनकी संख्या तेजी से बढ़ रही है, यहाँ तक कि दिन भर यातायात अवरुद्ध रहता है, पैदल चलने वालों तक को धक्के खा कर चलना होता है। गाँवों के निकट से निकलने वाली सड़कों पर आपको थड़ियाँ, ठेले भरपूर संख्या में दिखाई देते हैं। इनकी संख्या देश में बेरोजगारी को नापने का का बैरोमीटर है। यदि इनमें कमी आती है तो बेरोजगारी घट रही है और यदि ये बढ़ती हैं तो समझिए बेरोजगारी बढ़ रही है। पिछले नौ बरसों में इनमें तेजी से वृद्धि हुई है। हमारे प्रधानमंत्री ने नाला गैस और पकौड़ा रोजगार के जो फारमूले दिए हैं उनसे ये और तेजी से बढ़ रहे हैं। सीधा मतलब है कि देश में रोजगार का भारी संकट है। 

शासक पार्टियाँ अपने शासन के पाँच में से चार साल कुछ भी करती रहती हैं। लेकिन जैसे ही चुनाव नजदीक आता है, वे नौकरियाँ देने की घोषणा करने लगती हैं। जो नियुक्ति पत्र डाक से आवेदकों को चुपचाप पहुँच जाने चाहिए उन्हें प्रधानमंत्री पूरे समारोह के साथ बाँटता है जैसे उसके फास जादू की छड़ी है और उससे अगले दिन ही देश की बेरोजगारी पूरी तरह गायब हो जाएगी। ऐसे जनता को मूर्ख बनाया जा सकता है, बेरोजगारी खत्म नहीं की जा सकती। लेकिन जनता इतनी मूर्ख भी नहीं होती कि बार बार इस झाँसे में आती रहे।

बेरोजगारी देश में तेजी से बढ़ रही है, वह बहुत सारी समस्याओं की जड़ है। यहाँ तक कि वह देश में पारिवारिक विवादों का भी एक प्रमुख स्रोत है। यदि देश में स्त्रियों और पुरुषों को बालिग होते ही कुछ न कुछ रोजगार उपलब्ध हो तो बच्चे अपनी सैकण्डरी शिक्षा के बाद की उच्च शिक्षा का खर्च खुद उठा सकते हैं और माता पिता पर बोझ नहीं बने रहते। जैसा हमें अमरीका महाद्वीप, यूरोप, आस्ट्रेलिया और एशिया में चीन, जापान व अन्य कुछ देशों में देखने को मिलता है। यदि रोजगार चाहने वाली लगभग सभी स्त्रियों को रोजगार उपलब्ध हो तो वे आत्मनिर्भर होने लगेंगी और विवाह बराबरी के आधार पर तय होगें जिससे विवाह में स्त्री पुरुष समानता स्थापित होने का काम आगे बढ़ेगा। 

इसलिए आज की भारत की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी है। इस समस्या भारत में उपस्थित दक्षिणपंथी, यथास्थितिपंथी और वामपंथी राजनीति में से कौन सी राजनीति कैसे निपटती है, उस पर निर्भर करेगा कि भारत में किस राजनीति का भविष्य कैसा होगा। फिलहाल तो केवल कम्युनिस्ट ही हैं जो बेरोजगारी पूरी तरह समाप्त करने का वायदा करते दिखायी देते हैं। मोदी जी जानते हैं कि वे केवल वायदा नहीं करते बल्कि अवसर मिलने पर पर उसे पूरा करके भी दिखा सकते हैं। यही कारण है कि वे कम्युनिस्ट राजनीति के लिए अक्सर कहते हैं कि यह राजनीति खतरनाक है।

मंगलवार, 6 जून 2023

दो कब्रें

"कहानी"

  • प्रेमचंद

अब न वह यौवन है, न वह नशा, न वह उन्माद। वह महफिल उठ गई, वह दीपक बुझ गया, जिससे महफिल की रौनक थी। वह प्रेममूर्ति कब्र की गोद में सो रही है। हाँ, उसके प्रेम की छाप अब भी ह्रदय पर है और उसकी अमर स्मृति आँखों के सामने। वीरांगनाओं में ऐसी वफा, ऐसा प्रेम, ऐसा व्रत दुर्लभ है और रईसों में ऐसा विवाह, ऐसा समर्पण, ऐसी भक्ति और भी दुर्लभ। कुँवर रनवीरसिंह रोज बिला नागा संध्या समय जुहरा की कब्र के दर्शन करने जाते, उसे फूलों से सजाते, आँसुओं से सींचते। पंद्रह साल गुजर गये, एक दिन भी नागा नहीं हुआ। प्रेम की उपासना ही उनके जीवन का उद्देश्य था, उस प्रेम का जिसमें उन्होंने जो कुछ देखा वही पाया और जो कुछ अनुभव किया, उसी की याद अब भी उन्हें मस्त कर देती है। इस उपासना में सुलोचना भी उनके साथ होती, जो जुहरा का प्रसाद और कुँवर साहब की सारी अभिलाषाओं का केन्द्र थी।

कुँवर साहब ने दो शादियाँ की थीं, पर दोनों स्त्रियों में से एक भी संतान का मुँह न देख सकी। कुँवर साहब ने फिर विवाह न किया। एक दिन एक महफिल में उन्हें जुहरा के दर्शन हुए। उस निराश पति और अतृप्त युवती में ऐसा मेल, मानो चिरकाल से बिछुड़े हुए दो साथी फिर मिल गये हों।

जीवन का बसन्त विकास संगीत और सौरभ से भरा हुआ आया मगर अफसोस ! पाँच वर्षों के अल्पकाल में उसका भी अंत हो गया। वह मधुर स्वप्न निराशा से भरी हुई जागृति में लीन हो गया। वह सेवा और व्रत की देवी तीन साल की सुलोचना को उनकी गोद में सौंपकर सदा के लिए सिधार गई। कुँवर साहब ने इस प्रेमादेश का इतने अनुराग से पालन किया कि देखनेवालों को आश्चर्य होता था। कितने ही तो उन्हें पागल समझते थे।

सुलोचना ही की नींद सोते, उसी की नींद जागते, खुद पढ़ाते, उसके साथ सैर करते इतनी एकाग्रता के साथ, जैसे कोई विधवा अपने अनाथ बच्चे को पाले।

जब से वह यूनिवर्सिटी में दाखिल हुई, उसे खुद मोटर में पहुँचा आते और शाम को खुद जाकर ले आते। वह उसके माथे पर से वह कलंक धो डालना चाहते थे, जो मानो विधता ने क्रूर हाथों से लगा दिया था। धन तोउसे न धो सका, शायद विद्या धो डाले। एक दिन शाम को कुँवर साहब जुहरा के मजार को फूलों से सजा रहे थे और सुलोचना कुछ दूर पर खड़ी अपने कुत्ते को गेंद खिला रही थी कि सहसा उसने अपने कालेज के प्रोफेसर डाक्टर रामेन्द्र को आते देखा। सकुचाकर मुँह फेर लिया, मानो उन्हें देखा नहीं। शंका हुई कहीं रामेन्द्र इस मजार के विषय में कुछ पूछ न बैठें।

यूनिवर्सिटी में दाखिल हुए उसे एक साल हुआ। इस एक साल में उसने प्रणय के विविधा रूपों को देख लिया था। कहीं क्रीड़ा थी, कहीं विनोद था, कहीं कुत्सा थी, कहीं लालसा थी, कहीं उच्छृंखलता थी, किन्तु कहीं वह सह्रदयता न थी, जो प्रेम का मूल है। केवल रामेन्द्र ही एक ऐसे सज्जन थे, जिन्हें अपनी ओर ताकते देखकर उसके ह्रदय में सनसनी होने लगती थी; पर उनकी आँखों में कितनी विवशता, कितनी पराजय, कितनी वेदना छिपी होती थी ! रामेन्द्र ने कुँवर साहब की ओर देखकर कहा, तुम्हारे बाबा इस कब्र पर क्या कर रहे हैं ?

सुलोचना का चेहरा कानों तक लाल हो गया। बोली, 'यह इनकी पुरानी आदत है।'

रामेन्द्र -'क़िसी महात्मा की समाधि है ?'

सुलोचना ने इस सवाल को उड़ा देना चाहा। रामेन्द्र यह तो जानते थे कि सुलोचना कुँवर साहब की दाश्ता औरत की लड़की है; पर उन्हें यह न मालूम था कि यह उसी की कब्र है और कुँवर साहब अतीत-प्रेम के इतने उपासक हैं। मगर यह प्रश्न उन्होंने बहुत धीमे स्वर में न किया था। कुँवर साहब जूते पहन रहे थे। यह प्रश्न उनके कान में पड़ गया। जल्दी से जूता पहन लिया और समीप जाकर बोले -'संसार की आँखों में तो वह महात्मा न थी; पर मेरी आँखों में थी और है। यह मेरे प्रेम की समाधि है।'

सुलोचना की इच्छा होती थी, यहाँ से भाग जाऊँ; लेकिन कुँवर साहब को जुहरा के यशोगान में आत्मिक आनन्द मिलता था। रामेन्द्र का विस्मय देखकर बोले इसमें वह देवी सो रही है, जिसने मेरे जीवन को स्वर्ग बना दिया था। यह सुलोचना उसी का प्रसाद है।'
रामेन्द्र ने कब्र की तरफ देखकर आश्चर्य से कहा, 'अच्छा !'

कुँवर साहब ने मन में उस प्रेम का आनन्द उठाते हुए कहा, 'वह जीवन ही और था, प्रोफेसर साहब। ऐसी तपस्या मैंने और कहीं नहीं देखी। आपको फुरसत हो, तो मेरे साथ चलिए। आपको उन यौवन-स्मृतियों ... सुलोचना बोल उठी, 'वे सुनाने की चीज नहीं हैं, दादा!'

कुँवर -'मैं रामेन्द्र बाबू को गैर नहीं समझता।'

रामेन्द्र को प्रेम का यह अलौकिक रूप मनोविज्ञान का एक रत्न-सा मालूम हुआ। वह कुँवर साहब के साथ ही उनके घर आये और कई घंटे तक उन हसरत में डूबी हुई प्रेम-स्मृतियों को सुनते रहे। जो वरदान माँगने के लिए उन्हें साल भर से साहस न होता था, दुबिधा में पड़कर रह जाते थे, वह आज उन्होंने माँग लिया।


लेकिन विवाह के बाद रामेन्द्र को नया अनुभव हुआ। महिलाओं का आना-जाना प्राय: बंद हो गया। इसके साथ ही मर्द दोस्तों की आमदरफ्त बढ़ गई। दिन भर उनका तांता लगा रहता था। सुलोचना उनके आदर-सत्कार में लगी रहती। पहले एक-दो महीने तक तो रामेन्द्र ने इधर ध्यान नहीं दिया; लेकिन जब कई महीने गुजर गये और स्त्रियों ने बहिष्कार का त्याग न किया तो उन्होंने एक दिन सुलोचना से कहा, 'यह लोग आजकल अकेले ही आते हैं !'

सुलोचना ने धीरे से कहा, 'हाँ, देखती तो हूँ।'

रामेन्द्र -'इनकी औरतें तो तुमसे परहेज नहीं करतीं ?'

सुलोचना -'शायद करती हों।'

रामेन्द्र -'मगर वे लोग तो विचारों के बड़े स्वाधीन हैं। इनकी औरतें भी शिक्षित हैं, फिर यह क्या बात है ?'

सुलोचना ने दबी जबान से कहा, 'मेरी समझ में कुछ नहीं आता।'

रामेन्द्र ने कुछ देर असमंजस में पड़कर कहा, 'हम लोग किसी दूसरी जगह चले जायँ, तो क्या हर्ज ? वहाँ तो कोई हमें न जानता होगा।'

सुलोचना ने अबकी तीव्र स्वर में कहा, 'दूसरी जगह क्यों जायें। हमने किसी का कुछ बिगाड़ा नहीं है, किसी से कुछ माँगते नहीं। जिसे आना हो आये, न आना हो न आये। मुँह क्यों छिपायें।'

धीरे-धीरे रामेन्द्र पर एक और रहस्य खुलने लगा, जो महिलाओं के व्यवहार से कहीं अधिक घृणास्पद और अपमानजनक था। रामेन्द्र को अब मालूम होने लगा कि ये महाशय जो आते हैं और घंटों बैठे सामाजिक और राजनीतिक प्रश्नों पर बहसें किया करते हैं, वास्तव में विचार-विनिमय के लिए नहीं बल्कि रूप की उपासना के लिए आते हैं। उनकी आँखें सुलोचना को खोजती रहती हैं। उनके कान उसी की बातों की ओर लगे रहते हैं। उसकी रूप-माधुरी का आनंद उठाना ही उनका अभीष्ट है। यहाँ उन्हें वह संकोच नहीं होता, जो किसी भले आदमी की बहू-बेटी की ओर आँखें नहीं उठने देता। शायद वे सोचते हैं, यहाँ उन्हें कोई रोक-टोक नहीं है।

कभी-कभी जब रामेन्द्र की अनुपस्थिति में कोई महाशय आ जाते, तो सुलोचना को बड़ी कठिन परीक्षा का सामना करना पड़ता। अपनी चितवनों से, अपने कुत्सित संकेतों से, अपनी रहस्यपूर्ण बातों से, अपनी लम्बी साँसों से उसे दिखाना चाहते थे, कि हम भी तुम्हारी कृपा के भिखारी हैं। अगर रामेन्द्र का तुम पर सोलहों आना अधिकार है, तो थोड़ी-सी दक्षिणा के अधिकारी हम भी हैं। सुलोचना उस वक्त जहर का घूँट पीकर रह जाती। अब तक रामेन्द्र और सुलोचना दोनों क्लब जाया करते थे। वहाँ उदार सज्जनों का अच्छा जमघट रहता था। जब तक रामेन्द्र को किसी की ओर संदेह न था, वह उसे आग्रह करके अपने साथ ले जाते थे। सुलोचना के पहुँचते ही यहाँ एक स्फूर्ति-सी उत्पन्न हो जाती थी। जिस मेज पर सुलोचना बैठती, उसे लोग घेर लेते थे। कभी-कभी सुलोचना गाती थी। उस वक्त सब-के-सब उन्मत्त हो जाते। क्लब में महिलाओं की संख्या अधिक न थी। मुश्किल से पाँच-छ: लेडियाँ आती थीं; मगर वे भी सुलोचना से दूर-दूर रहती थीं, बल्कि अपनी भाव-भंगिमाओं और कटाक्षों से वे उसे जता देना चाहती थीं कि तुम पुरुषों का दिल खुश करो, हम कुल-वधुओं के पास तुम नहीं आ सकतीं। लेकिन जब रामेन्द्र पर इस कटु सत्य का प्रकाश हुआ, तो उन्होंने क्लब जाना छोड़ दिया, मित्रों के यहाँ आना-जाना भी कम कर दिया और अपने यहाँ आनेवालों की भी उपेक्षा करने लगे। वह चाहते थे कि मेरे एकांतवास में कोई विघ्न न डाले। आखिर उन्होंने बाहर आना-जाना छोड़ दिया। अपने चारों ओर छल-कपट का जाल-सा बिछा हुआ मालूम होता था, किसी पर विश्वास न कर सकते थे, किसी से सद्व्यवहार की आशा नहीं। सोचते ऐसे धूर्त, कपटी, दोस्ती की आड़ में गला काटनेवाले आदमियों से मिलें ही क्यों ? वे स्वभाव से मिलनसार आदमी थे। पक्के यारबाश। यह एकान्तवास जहाँ न कोई सैर थी, न विनोद, न कोई चहल-पहल, उनके लिए कठिन कारावास से कम न था। यद्यपि कर्म और वचन से सुलोचना की दिलजोई करते रहते थे; लेकिन सुलोचना की सूक्ष्म और सशंक आँखों से अब यह बात छिपी न थी कि यह अवस्था इनके लिए दिन-दिन असह्य होती जाती थी। वह दिल में सोचती इनकी यह दशा मेरे ही कारण तो है, मैं ही तो इनके जीवन का काँटा हो गई ! एक दिन उसने रामेन्द्र से कहा, 'आजकल क्लब क्यों नहीं चलते ? कई सप्ताह हुए घर से निकलते तक नहीं।

रामेन्द्र ने बेदिली से कहा, मेरा जी कहीं जाने को नहीं चाहता। अपना घर सबसे अच्छा है।'

सुलोचना-'ज़ी तो ऊबता ही होगा। मेरे कारण यह तपस्या क्यों करते हो ? मैं तो न जाऊँगी। उन स्त्रियों से मुझे घृणा होती है। उनमें एक भी ऐसी नहीं, जिसके दामन पर काले दाग न हों; लेकिन सब सीता बनी फिरती हैं। मुझे तो उनकी सूरत से चिढ़ हो गई है। मगर तुम क्यों नहीं जाते? कुछ दिल ही बहल जायगा।'

रामेन्द्र -'दिल नहीं पत्थर बहलेगा। जब अन्दर आग लगी हुई हो, तो बाहर शांति कहाँ ?'

सुलोचना चौंक पड़ी। आज पहली बार उसने रामेन्द्र के मुँह से ऐसी बात सुनी। वह अपने ही को बहिष्कृत समझती थी। अपना अनादर जो कुछ था, उसका था। रामेन्द्र के लिए तो अब भी सब दरवाजे खुले हुए थे। वह जहाँ चाहें जा सकते हैं, जिनसे चाहें, मिल सकते हैं, उनके लिए कौन-सी रुकावट है। लेकिन नहीं, अगर उन्होंने किसी कुलीन स्त्री से विवाह किया होता, तो उनकी यह दशा क्यों होती ? प्रतिष्ठित घरानों की औरतें आतीं, आपस में मैत्री बढ़ती, जीवन सुख से कटता; रेशम का पैबन्द लग जाता। अब तो उसमें टाट का पैबन्द लग गया। मैंने आकर सारे तालाब को गंदा कर दिया। उसके मुख पर उदासी छा गई। रामेन्द्र को भी तुरन्त मालूम हो गया कि उनकी जबान से एक ऐसी बात निकल गई जिसके दो अर्थ हो सकते हैं। उन्होंने फौरन बात बनाई -'क्या तुम समझती हो कि हम और तुम अलग-अलग हैं। हमारा और तुम्हारा जीवन एक है। जहाँ तुम्हारा आदर नहीं वहाँ मैं कैसे जा सकता हूँ। फिर मुझे भी समाज के इन रॅगे सियारों से घृणा हो रही है। मैं इन सबों के कच्चे चिट्ठे जानता हूँ। पद या उपाधि या धन से किसी की आत्मा शुद्ध नहीं हो जाती। जो ये लोग करते हैं, वह अगर कोई नीचे दरजे का आदमी करता, उसे कहीं मुँह दिखाने की हिम्मत न होती। मगर यह लोग अपनी सारी बुराइयाँ उदारतावाद के पर्दे में छिपाते हैं। इन लोगों से दूर रहना ही अच्छा।' सुलोचना का चित्त शांत हो गया।

दूसरे साल सुलोचना की गोद में एक चाँद-सी बालिका का उदय हुआ। उसका नाम रक्खा गया शोभा। कुँवर साहब का स्वास्थ्य इन दिनों कुछ अच्छा न था। मंसूरी गये थे। यह खबर पाते ही रामेन्द्र को तार दिया कि जच्चा और बच्चा को लेकर यहाँ आ जाओ। लेकिन रामेन्द्र इस अवसर पर न जाना चाहते थे। अपने मित्रों की सज्जनता और उदारता की अंतिम परीक्षा लेने का इससे अच्छा और कौन-सा अवसर हो सकता था। सलाह हुई, एक शानदार दावत दी जाय। प्रोग्राम में संगीत भी शामिल था। कई अच्छे-अच्छे गवैये बुलाये गये। अँग्रेजी, हिन्दुस्तानी, मुसलमानी सभी प्रकार के भोजनों का प्रबन्ध किया गया। कुँवर साहब गिरते-पड़ते मंसूरी से आये। उसी दिन दावत थी। नियत समय पर निमंत्रित लोग एक-एक करके आने लगे। कुँवर साहब स्वयं उनका स्वागत कर रहे थे। खाँ साहब आये, मिर्जा साहब आये, मीर साहब आये; मगर पंडितजी और बाबूजी और लाला साहब और चौधरी साहब और कक्कड़, मेहरा और चोपड़ा, कौल और हुक्कू, श्रीवास्तव और खरे किसी का पता न था। यह सभी लोग होटलों में सबकुछ खाते थे, अंडे और शराब उड़ाते थे इस विषय में किसी तरह का विवेक या विचार न करते थे। फिर आज क्यों तशरीफ नहीं लाये ? इसलिए नहीं कि छूत-छात का विचार था; बल्कि इसलिए कि वह अपनी उपस्थिति को इस विवाह के समर्थन की सनद समझते थे और वह सनद देने की उनकी इच्छा न थी। दस बजे रात तक कुँवर साहब फाटक पर खड़े रहे। जब उस वक्त तक कोई न आया, तो कुँवर साहब ने आकर रामेन्द्र से कहा, 'अब लोगों का इन्तजार फजूल है। मुसलमानों को खिला दो और बाकी सामान गरीबों को दिला दो।' रामेन्द्र एक कुर्सी पर हत्बुध्दि-से बैठे हुए थे।

कुंठित स्वर में बोले, 'ज़ी हाँ, यही तो मैं सोच रहा हूँ।'

कुँवर मैंने तो पहले ही समझ लिया था। हमारी तौहीन नहीं हुई। खुद उन लोगों की कलई खुल गई।'

रामेन्द्र -'ख़ैर, परीक्षा तो हो गई। कहिए तो अभी जाकर एक-एक की खबर लूँ।'

कुँवर साहब ने विस्मित होकर कहा, 'क्या उनके घर जाकर ?'

रामेन्द्र -'ज़ी हाँ। पूछूँ कि आप लोग जो समाज-सुधार का राग अलापते फिरते हैं, वह किस बल पर ?'

कुँवर -'व्यर्थ है। जाकर आराम से लेटो। नेक और बद की सबसे बड़ी पहचान अपना दिल है। अगर हमारा दिल गवाही दे कि यह काम बुरा नहीं तो फिर सारी दुनिया मुँह फेर ले, हमें किसी की परवाह न करनी चाहिए।'

रामेन्द्र -'लेकिन मैं इन लोगों को यों न छोडूँगा एक-एक की बखिया उधोड़कर न रख दूँ तो नाम नहीं।' यह कहकर उन्होंने पत्तल और सकोरे उठवा-उठवाकर कंगालों को देना शुरू किया। रामेन्द्र सैर करके लौटे ही थे कि वेश्याओं का एक दल सुलोचना को बधाई देने के लिए आ पहुँचा। जुहरा की एक सगी भतीजी थी, गुलनार। सुलोचना के यहाँ पहले बराबर आती-जाती थी। इधर दो साल से न आई थी। यह उसी का बधावा था। दरवाजे पर अच्छी-खासी भीड़ हो गई थी। रामेन्द्र ने यह शोरगुल सुना, गुलनार ने आगे बढ़कर उन्हें सलाम किया और बोली, 'बाबूजी, बेटी मुबारक, बधावा लाई हूँ।'

रामेन्द्र पर मानो लकवा-सा गिर गया। सिर झुक गया और चेहरे पर कालिमा-सी पुत गई। न मुँह से बोले, न किसी को बैठने का इशारा किया, न वहाँ से हिले। बस मूर्तिवत् खड़े रह गये। एक बाजारी औरत से नाता पैदा करने का ख्याल इतना लज्जास्पद था, इतना जघन्य कि उसके सामने सज्जनता भी मौन रह गई। इतना शिष्टाचार भी न कर सके कि सबों को कमरे में ले जाकर बिठा तो देते। आज पहली ही बार उन्हें अपने अध:पतन का अनुभव हुआ। मित्रों की कुटिलता और महिलाओं की उपेक्षा को वह उनका अन्याय समझते थे, अपना अपमान नहीं, लेकिन यह बधावा उनकी अबाध उदारता के लिए भी भारी था। सुलोचना का जिस वातावरण में पालन-पोषण हुआ था, वह एक प्रतिष्ठित हिन्दू कुल का वातावरण था। यह सच है कि अब भी सुलोचना नित्य जुहरा के मजार की परिक्रमा करने जाती थी; मगर जुहरा अब एक पवित्र स्मृति थी, दुनिया की मलिनताओं और कलुषताओं से रहित। गुलनार से नातेदारी और परस्पर का निबाह दूसरी बात थी। जो लोग तसवीरों के सामने सिर झुकाते हैं, उन पर फूल चढ़ाते हैं, वे भी तो मूर्ति-पूजा की निन्दा करते हैं। एक स्पष्ट है, दूसरा सांकेतिक। एक प्रत्यक्ष है, दूसरा आँखों से छिपा हुआ।

सुलोचना अपने कमरे में चिक की आड़ में खड़ी रामेन्द्र का असमंजस और क्षोभ देख रही थी। जिस समाज को उसने अपना उपास्य बनाना चाहा था, जिसके द्वार पर सिजदे करते उसे बरसों हो गये थे, उसकी तरफ से निराश होकर, उसका ह्रदय इस समय उससे विद्रोह करने पर तुला हुआ था। उसके जी में आता था ग़ुलनार को बुलाकर गले लगा लूँ ? जो लोग मेरी बात भी नहीं पूछते, उनकी खुशामद क्यों करूँ ? यह बेचारियाँ इतनी दूर से आई हैं मुझे अपना ही समझकर तो। उनके दिल में प्रेम तो है, यह मेरे दु:ख-सुख में शरीक होने को तैयार तो हैं। आखिर रामेन्द्र ने सिर उठाया और शुष्क मुस्कान के साथ गुलनार से बोले -'आइए, आप लोग अन्दर चली आइए। यह कहकर वह आगे-आगे रास्ता दिखाते हुए दीवानखाने की ओर चले कि सहसा महरी निकली और गुलनार के हाथ में एक पुर्जा देकर चली गयी। गुलनार ने वह पुर्जा लेकर देखा और उसे रामेन्द्र के हाथ में देकर वहीं खड़ी हो गई। रामेन्द्र ने पुर्जा देखा, लिखा था,--'बहन गुलनार, तुम यहाँ नाहक आई। हम लोग यों ही बदनाम हो रहे हैं। अब और बदनाम मत करो, बधावा वापस ले जाओ। कभी मिलने का जी चाहे, रात को आना और अकेली। मेरा जी तुमसे गले लिपटकर रोने के लिए तड़प रहा है मगर मजबूर हूँ।'

रामेन्द्र ने पुर्जा फाड़कर फेंक दिया और उद्दण्ड होकर बोले, 'इन्हें लिखने दो। मैं किसी से नहीं डरता। अन्दर आओ।'

गुलनार ने एक कदम पीछे फिरकर कहा, 'नहीं बाबूजी, अब हमें आज्ञा दीजिए।'

रामेन्द्र -'एक मिनट तो बैठो।'

गुलनार -'ज़ी नहीं। एक सेकिंड भी नहीं।' गुलनार के चले जाने के बाद रामेन्द्र अपने कमरे में जा बैठे। जैसी पराजय उन्हें आज हुई, वैसी पहले कभी नहीं हुई। वह आत्माभिमान, वह सच्चा क्रोध, जो अन्याय के ज्ञान से पैदा होता है, लुप्त हो गया था। उसकी जगह लज्जा थी और ग्लानि। इसे बधावे की क्यों सूझ गई। यों तो कभी आती-जाती न थी, आज न जाने कहाँ से फट पड़ी। कुँवर साहब होंगे इतने उदार। उन्होंने जुहरा के नातेदारों से भाईचारे का निबाह किया होगा, मैं इतना उदार नहीं हूँ। कहीं सुलोचना छिपकर इसके पास आती-जाती तो नहीं ! लिखा भी तो है कि मिलने का जी चाहे, तो रात को आना और अकेली क्यों न हो, खून तो वही है, मनोवृत्ति वही, विचार वही, आदर्श वही। माना, कुँवर साहब के घर में पालन-पोषण हुआ; मगर रक्त का प्रभाव इतनी जल्दी नहीं मिट सकता। अच्छा, दोनों बहनें मिलती होंगी तो उनमें क्या बातें होती होंगी ? इतिहास या नीति की चर्चा तो हो नहीं सकती। वही निर्लज्जता की बातें होती होंगी। गुलनार अपना वृत्तांत कहती होगी, उस बाजार के खरीदारों और दूकानदारों के गुण-दोषों पर बहस होती होगी। यह तो हो ही नहीं सकता कि गुलनार इसके पास आते ही अपने को भूल जाय और कोई भद्दी, अनर्गल और कलुषित बातें न करे। एक क्षण में उनके विचारों ने पलटा खाया मगर आदमी बिना किसी से मिले-जुले रह भी तो नहीं सकता, यह भी तो एक तरह की भूख है। भूख में अगर शुद्ध भोजन न मिले, तो आदमी जूठा खाने से भी परहेज नहीं करता। अगर इन लोगों ने सुलोचना को अपनाया होता, उसका यों बहिष्कार न करते, तो उसे क्यों ऐसे प्राणियों से मिलने की इच्छा होती। उसका कोई दोष नहीं, यह सारा दोष परिस्थितियों का है, जो हमारे अतीत की याद दिलाती रहती हैं। रामेन्द्र इन्हीं विचारों में पड़े हुए थे कि कुँवर साहब आ पहुँचे और कटु स्वर में बोले, 'मैंने सुना गुलनार अभी बधावा लाई थी, तुमने उसे लौटा दिया।'

रामेन्द्र का विरोध सजीव हो उठा। बोले -'मैंने तो नहीं लौटाया, सुलोचना ने लौटाया। पर मेरे ख्याल में अच्छा किया।'

कुँवर -'तो यह कहो तुम्हारा इशारा था। तुमने इन पतितों को अपनी ओर खींचने का कितना अच्छा अवसर हाथ से खो दिया है ! सुलोचना को देखकर जो कुछ असर पड़ा, वह तुमने मिटा दिया। बहुत संभव था कि एक प्रतिष्ठित आदमी से नाता रखने का अभिमान उसके जीवन में एक नये युग का आरम्भ करता, मगर तुमने इन बातों पर जरा भी ध्यान न दिया।' रामेन्द्र ने कोई जवाब न दिया। कुँवर साहब जरा उत्तेजित होकर बोले, 'आप लोग यह क्यों भूल जाते हैं कि हरेक बुराई मजबूरी से होती है। चोर इसलिए चोरी नहीं करता कि चोरी में उसे विशेष आनन्द आता है; बल्कि केवल इसलिए कि जरूरत उसे मजबूर कर देती है। हाँ, वह जरूरत वास्तविक है या काल्पनिक इसमें मतभेद हो सकता है। स्त्री के मैके जाते समय कोई गहना बनवाना एक आदमी के लिए जरूरी हो सकता है। दूसरे के लिए बिलकुल गैर जरूरी। क्षुधा से व्यथित होकर एक आदमी अपना ईमान खो सकता है, दूसरा मर जायगा पर किसी के सामने हाथ न फैलायेगा, पर प्रकृति का यह नियम आप जैसे विद्वानों को न भूलना चाहिए कि जीवन-लालसा प्राणिमात्र में व्यापक है। जिंदा रहने के लिए आदमी सबकुछ कर सकता है। जिंदा रहना जितना ही कठिन होगा, बुराइयाँ भी उसी मात्र में बढ़ेंगी, जितना ही आसान होगा उतनी ही बुराइयाँ कम होंगी। हमारा यह पहला सिध्दान्त होना चाहिए कि जिंदा रहना हरेक के लिए सुलभ हो। रामेन्द्र बाबू, आपने इस वक्त इन लोगों के साथ वही व्यवहार किया जो दूसरे आपके साथ कर रहे हैं और जिससे आप बहुत दु:खी हैं।'

रामेन्द्र ने इस लंबे व्याख्यान को इस तरह सुना, जैसे कोई पागल बक रहा हो। इस तरह की दलीलों का वह खुद कितनी ही बार समर्थन कर चुके थे; पर दलीलों से व्यथित अंग की पीड़ा नहीं शांत होती। पतित स्त्रियों का नातेदार की हैसियत से द्वार पर आना इतना अपमानजनक था कि रामेन्द्र किसी दलील से पराभूत होकर उसे भूल न सकते थे। बोले -'मैं ऐसे प्राणियों से कोई संबंध नहीं रखता। यह विष अपने घर में नहीं फैलाना चाहता!' सहसा सुलोचना भी कमरे में आ गई। प्रसवकाल का असर अभी बाकी था; पर उत्तेजना ने चेहरे को आरक्त कर रखा था। रामेन्द्र सुलोचना को देखकर तेज हो गये। वह उसे जता देना चाहते थे कि इस विषय में मैं एक रेखा तक जा सकता हूँ, उसके आगे किसी तरह नहीं जा सकता। बोले, 'मैं यह कभी पसंद न करूँगा कि कोई बाजारी औरत किसी भेष में मेरे घर आये। रात को अकेले या सूरत बदलकर आने से इस बुराई का असर नहीं मिट सकता। मैं समाज के दंड से नहीं डरता, इस नैतिक विष से डरता हूँ।'


सुलोचना अपने विचार में मर्यादा-रक्षा के लिए काफी आत्मसमर्पण कर चुकी थी। उसकी आत्मा ने अभी तक उसे क्षमा न किया था। तीव्र स्वर में बोली, 'क्या तुम चाहते हो कि मैं इस कैद में अकेले जान दे दूँ ! कोई तो हो जिससे आदमी हँसे, बोले !'

रामेन्द्र ने गर्म होकर कहा, 'हँसने-बोलने का इतना शौक था, तो मेरे साथ विवाह न करना चाहिए था। विवाह का बंधन बड़ी हद तक त्याग का बंधन है। जब तक संसार में इस विधान का राज्य है और स्त्री कुलमर्यादा की रक्षक समझी जाती है, उस वक्त तक कोई मर्द यह स्वीकार न करेगा कि उसकी पत्नी बुरे आचरण के प्राणियों से किसी प्रकार का संसर्ग रक्खे।'

कुँवर साहब समझ गये कि इस वाद-विवाद से रामेन्द्र और भी जिद पकड़ लेंगे और मुख्य विषय लुप्त हो जायगा, इसलिए नम्र स्वर में बोले, 'लेकिन बेटा, यह क्यों ख्याल करते हो कि ऊँचे दरजे की पढ़ी-लिखी स्त्री दूसरों के प्रभाव में आ जायगी, अपना प्रभाव न डालेगी ?'

रामेन्द्र, 'इस विषय में शिक्षा पर मेरा विश्वास नहीं। शिक्षा ऐसी कितनी बातों को मानती है, जो रीति-नीति और परंपरा की दृष्टि से त्याज्य हैं। अगर पाँव फिसल जाय तो हम उसे काटकर फेंक नहीं देते। पर मैं इस के सामने सिर झुकाने को तैयार नहीं हूँ। मैं स्पष्ट कह देना चाहता हूँ कि मेरे साथ रहकर पुराने संबंधों का त्याग करना पड़ेगा ! इतना ही नहीं, मन को ऐसा बना लेना पड़ेगा कि ऐसे लोगों से उसे खुद घृणा हो। हमें इस तरह अपना संस्कार करना पड़ेगा कि समाज अपने अन्याय पर लज्जित हो, न यह कि हमारे आचरण ऐसे भ्रष्ट हो जायँ कि दूसरों की निगाह में यह तिरस्कार औचित्य का स्थान पा जाय।

सुलोचना ने उद्धत होकर कहा, स्त्री इसके लिए मजबूर नहीं है कि वह आपकी आँखों से देखे और आपके कानों से सुने। उसे यह निश्चय करने का अधिकार है कि कौन-सी चीज उसके हित की है, कौन-सी नहीं।'

कुँवर साहब भयभीत होकर बोले, 'सिल्लो, तुम भूली जाती हो कि बातचीत में हमेशा मुलायम शब्दों का व्यवहार करना चाहिए। हम झगड़ा नहीं कर रहे हैं, केवल एक प्रश्न पर अपने-अपने विचार प्रकट कर रहे हैं।

सुलोचना ने निर्भीकता से कहा, 'ज़ी नहीं, मेरे लिए बेड़ियाँ तैयार की जा रही हैं। मैं इन बेड़ियों को नहीं पहन सकती। मैं अपनी आत्मा को उतना ही स्वाधीन समझती हूँ, जितना कोई मर्द समझता है।'

रामेन्द्र ने अपनी कठोरता पर कुछ लज्जित होकर कहा, 'मैंने तुम्हारी आत्मा की स्वाधीनता को छीनने की कभी इच्छा नहीं की। और न मैं इतना विचारहीन हूँ। शायद तुम भी इसका समर्थन करोगी। लेकिन क्या तुम्हें विपरीत मार्ग पर चलते देखूँ तो मैं तुम्हें समझा भी नहीं सकता ?'


सुलोचना -'उसी तरह जैसे मैं तुम्हें समझा सकती हूँ। तुम मुझे मजबूर नहीं कर सकते।'
रामेन्द्र -'मैं इसे नहीं मान सकता।'

सुलोचना -'अगर मैं अपने किसी नातेदार से मिलने जाऊँ, तो आपकी इज्जत में बट्टा लगता है। क्या इसी तरह आप यह स्वीकार करेंगे कि आपका व्यभिचारियों से मिलना-जुलना मेरी इज्जत में दाग लगाता है ?'

रामेन्द्र -'हाँ, मैं मानता हूँ।'

सुलोचना -'आपका कोई व्यभिचारी भाई आ जाय, तो आप उसे दरवाजे से भगा देंगे ?'

रामेन्द्र -'तुम मुझे इसके लिए मजबूर नहीं कर सकतीं।'


सुलोचना -'और आप मुझे मजबूर कर सकते हैं ?’

'बेशक।'

'क्यों ?'

'इसीलिए कि मैं पुरुष हूँ, इस छोटे-से परिवार का मुख्य अंग हूँ। इसीलिए कि तुम्हारे ही कारण मुझे ...' रामेन्द्र कहते-कहते रुक गये। पर सुलोचना उनके मुँह से निकलनेवाले शब्दों को ताड़ गई। उसका चेहरा तमतमा उठा, मानो छाती में बरछी-सी लग गई। मन में ऐसा उद्वेग उठा कि इसी क्षण घर छोड़कर, सारी दुनिया से नाता तोड़कर चली जाऊँ और फिर इन्हें कभी मुँह न दिखाऊँ। अगर इसी का नाम विवाह है कि किसी की मर्जी की गुलाम होकर रहूँ, अपमान सहन करूँ, तो ऐसे विवाह को दूर ही से सलाम है। वह तैश में आकर कमरे से निकलना चाहती थी कि कुँवर साहब ने लपककर उसे पकड़ लिया और बोले, 'क्या करती हो बेटी, घर में जाओ, क्यों रोती हो ? अभी तो मैं जीता हूँ, तुम्हें क्या गम है ? रामेन्द्र बाबू ने कोई ऐसी बात नहीं कही और न कहना चाहते थे। फिर आपस की बातों का क्या बुरा मानना। किसी अवसर पर तुम भी जो जी में आये कह लेना।' यों समझाते हुए कुँवर साहब उसे अन्दर ले गये। वास्तव में सुलोचना कभी गुलनार से मिलने की इच्छुक न थी। वह उससे स्वयं भागती थी। एक क्षणिक आवेश में उसने गुलनार को वह पुरजा लिख दिया था। मन में स्वयं समझती थी, इन लोगों से मेल-जोल रखना मुनासिब नहीं, लेकिन रामेन्द्र ने यह विरोध किया, यही उसके लिए असह्य था। यह मुझे मना क्यों करें?

'क्या मैं इतना भी नहीं समझती ? क्या इन्हें मेरी ओर से इतनी शंका है !'

'इसीलिए तो, कि मैं कुलीन नहीं हूँ !'

'मैं अभी-अभी गुलनार से मिलने जाऊँगी, जिद्दन जाऊँगी; देखूँ मेरा क्या करते हैं।'

लाड़-प्यार में पली हुई सुलोचना को कभी किसी ने तीखी आँखों से न देखा था। कुँवर साहब उसकी मर्जी के गुलाम थे। रामेन्द्र भी इतने दिनों उसका मुँह जोहते रहे। आज अकस्मात् यह तिरस्कार और फटकार पाकर उसकी स्वेच्छा प्रेम और आत्मीयता के सारे नातों को पैरों से कुचल डालने के लिए विकल हो उठी। वह सबकुछ सह लेगी पर यह धौंस, यह अन्याय, यह अपमान उससे न सहा जायगा।

उसने खिड़की से सिर निकालकर कोचवान को पुकारा और बोली, 'ग़ाड़ी लाओ, मुझे चौक जाना है, अभी लाओ।'

कुँवर साहब ने चुमकारकर कहा, 'बेटी सिल्लो, क्या कर रही हो, मेरे ऊपर दया करो। इस वक्त कहीं मत जाओ, नहीं हमेशा के लिए पछताना पड़ेगा। रामेन्द्र बाबू भी बड़े गुस्सेवर आदमी हैं। फिर तुमसे बड़े हैं, ज्यादा विचारवान हैं, उन्हीं का कहना मान जाओ। मैं तुमसे सच कहता हूँ। तुम्हारी माँ जब थीं, तो कई बार ऐसी नौबत आई कि मैंने उनसे कहा, घर से निकल जाओ, पर उस प्रेम की देवी ने कभी डयोढ़ी के बाहर पाँव नहीं निकाला। इस वक्त धैर्य से काम लो ! मुझे विश्वास है, जरा देर में रामेन्द्र बाबू खुद लज्जित होकर तुम्हारे पास अपराध क्षमा कराने आयेंगे।' सहसा रामेन्द्र ने आकर पूछा, 'ग़ाड़ी क्यों मँगवाई ? कहाँ जा रही हो ?' रामेन्द्र का चेहरा इतना क्रोधोन्मत्त हो रहा था, कि सुलोचना सहम उठी। दोनों आँखों से ज्वाला-सी निकल रही थी। नथने फड़क रहे थे, पिंडलियाँ काँप रही थीं। यह कहने की हिम्मत न पड़ी कि गुलनार के घर जाती हूँ। गुलनार का नाम सुनते ही शायद यह मेरी गर्दन पर सवार हो जायेंगे इस भय से वह काँप उठी। आत्मरक्षा का भाव प्रबल हो गया। बोली, 'ज़रा अम्माँ के मजार तक जाऊँगी।'

रामेन्द्र ने डॉटकर कहा, 'क़ोई जरूरत नहीं वहाँ जाने की।'

सुलोचना ने कातर स्वर में कहा, 'क्यों अम्माँ के मजार तक जाने की भी रोक है ?'

रामेन्द्र ने उसी ध्वनि में कहा, 'हाँ।

'सुलोचना -'तो फिर अपना घर सम्हालो, मैं जाती हूँ।'

रामेन्द्र -'ज़ाओ, तुम्हारे लिए क्या, यह न सही दूसरा घर सही !'

अभी तक तस्मा बाकी था, वह कट गया। यों शायद सुलोचना वहाँ से कुँवर साहब के बँगले पर जाती, दो-चार दिन रूठी रहती, फिर रामेन्द्र उसे मना लाते और मामला तय हो जाता, लेकिन इस चोट ने समझौते और संधि की जड़ काट दी। सुलोचना दरवाजे तक पहुँची थी, वहीं चित्रलिखित-सी खड़ी रह गई। मानो किसी ऋषि के शाप ने उसके प्राण खींच लिये हों। वहीं बैठ गई। न कुछ बोल सकी, न कुछ सोच सकी। जिसके सिर पर बिजली गिर पड़ी हो, वह क्या सोचे, क्या रोये, क्या बोले। रामेन्द्र के वे शब्द बिजली से कहीं अधिक घातक थे।

सुलोचना कब तक वहाँ बैठी रही, उसे कुछ खबर न थी। जब उसे कुछ होश आया तो घर में सन्नाटा छाया हुआ था। घड़ी की तरफ आँख उठी, एक बज रहा था। सामने आरामकुर्सी पर कुँवर साहब नवजात शिशु को गोद में लिये सो गये थे। सुलोचना ने उठकर बरामदे में झाँका, रामेन्द्र अपने पलंग पर लेटे हुए थे। उसके जी में आया, इसी वक्त इन्हीं के सामने जाकर कलेजे में छुरी मार लूँ और इन्हीं के सामने तड़प-तड़पकर मर जाऊँ। वह घातक शब्द याद आ गये। इनके मुँह से ऐसे शब्द निकले क्योंकर। इतने चतुर, इतने उदार और इतने विचारशील होकर भी यह जुबान पर ऐसे शब्द क्योंकर ला सके। उसका सारा सतीत्व, भारतीय आदर्शों की गोद में पली हुई भूमि पर आसक्त पड़ी हुई अपनी दीनता पर रो रहा था। वह सोच रही थी, अगर मेरे नाम पर यह दाग न होता, मैं भी कुलीन होती, तो क्या यह शब्द इनके मुँह से निकल सकते थे ? लेकिन मैं बदनाम हूँ, दलित हूँ, त्याज्य हूँ, मुझे सबकुछ कहा, जा सकता है। उफ, इतना कठोर ह्रदय। क्या वह किसी दशा में भी रामेन्द्र पर इतना कठोर प्रहार कर सकती थी ? बरामदे में बिजली की रोशनी थी। रामेन्द्र के मुख पर क्षोभ या ग्लानि का नाम भी न था। क्रोध की कठोरता अब तक उसके मुख को विकृत किए हुए थी। शायद इन आँखों में आँसू देखकर अब भी सुलोचना के आहत ह्रदय को तसकीन होती; लेकिन वहाँ तो अभी तक तलवार खिंची हुई थी। उसकी आँखों में सारा संसार सूना हो गया।

सुलोचना फिर अपने कमरे में आई। कुँवर साहब की आँखें अब भी बन्द थीं। इन चन्द घंटों ही में उनका तेजस्वी मुख कांतिहीन हो गया था। गालों पर आँसुओं की रेखाएं सूख गई थीं। सुलोचना ने उनके पैरों के पास बैठकर सच्ची भक्त िके आँसू बहाये। हाय ! मुझ अभागिनी के लिए इन्होंने कौन-कौन से कष्ट नहीं झेले, कौन-कौन से अपमान नहीं सहे, अपना सारा जीवन ही मुझ पर अर्पण कर दिया और उसका यह ह्रदय-विदारक अन्त। सुलोचना ने फिर बच्ची को देखा; मगर उसका गुलाब का-सा विकसित मुँह देखकर भी उसके ह्रदय में ममता की तरंग न उठी। उसने उसकी तरफ से मुँह फेर लिया। यही वह अपमान की मूर्तिमान वेदना है, जो इतने दिनों मुझे भोगनी पड़ी। मैं इसके लिए क्यों अपने प्राण संकट में डालूँ। अगर उसके निर्दयी पिता को उससे प्रेम है, तो उसको पाले। और एक दिन वह भी उसी तरह रोये, जिस तरह आज मेरे पिता को रोना पड़ रहा है। ईश्वर अबकी अगर जन्म देना, तो किसी भले आदमी के घर जन्म देना ...

जहाँ जुहरा का मज़ार था उसी के बगल में एक दूसरा मज़ार बना हुआ है। जुहरा के मज़ार पर घास जम आई है; जगह-जगह से चूना गिर गया है, लेकिन दूसरा मज़ार बहुत साफ-सुथरा और सजा हुआ है। उसके चारों तरफ गमले रखे हुए हैं और मज़ार तक जाने के लिए गुलाब के बेलों की रविशें बनी हुई हैं ?

शाम हो गई है। सूर्य की क्षीण, उदास, पीली किरणें मानो उस मज़ार पर आँसू बहा रही हैं। एक आदमी एक तीन-चार साल की बालिका को गोद में लिये हुए आया और उस मज़ार को अपने रूमाल से साफ करने लगा। रविशों में जो पत्तियाँ पड़ी थीं उन्हें चुनकर साफ किया और मज़ार पर सुगंध छिड़कने लगा। बालिका दौड़-दौड़कर तितलियों को पकड़ने लगी। यह सुलोचना का मज़ार है। उसकी आखिरी नसीहत थी, कि मेरी लाश जलाई न जाय, मेरी माँ की बगल में मुझे सुला दिया जाय। कुँवर साहब तो सुलोचना के बाद छ: महीने से ज्यादा न चल सके। हाँ, रामेन्द्र अपने अन्याय का पश्चात्ताप कर रहे हैं। शोभा अब तीन साल की हो गई है और उसे विश्वास है कि एक दिन उसकी माँ इसी मज़ार से निकलेगी !