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सोमवार, 23 नवंबर 2020

तुम्हारे धर्म की क्षय ------- राहुल सांकृत्यायन

वैसे तो धर्मों में आपस में मतभेद है। एक पूरब मुँह करके पूजा करने का विधान करता है, तो दूसरा पश्चिम की ओर। एक सिर पर कुछ बाल बढ़ाना चाहता है, तो दूसरा दाढ़ी। एक मूँछ कतरने के लिए कहता है, तो दूसरा मूँछ रखने के लिए। एक जानवर का गला रेतने के लिए कहता है, तो दूसरा एक हाथ से गर्दन साफ करने को। एक कुर्ते का गला दाहिनी तरफ रखता है, तो दूसरा बाईं तरफ। एक जूठ-मीठ का कोई विचार नहीं रखता, तो दूसरे के यहाँ जाति के भी बहुत-से चूल्हे हैं। एक खुदा के सिवा दूसरे का नाम भी दुनिया में रहने नहीं देना चाहता, तो दूसरे के देवताओं की संख्या नहीं। एक गाय की रक्षा के लिए जान देने को कहता है, तो दूसरा उसकी कुर्बानी से बड़ा सबाब समझता है। 
राहुल सांकृत्यायन 


इसी तरह दुनिया के सभी मजहबों में भारी मतभेद है। ये मतभेद सिर्फ विचारों तक ही सीमित नहीं रहे, बल्कि पिछले दो हजार वर्षों का इतिहास बतला रहा है कि इन मतभेदों के कारण मजहबों ने एक-दूसरे के ऊपर जुल्म के कितने पहाड़ ढाये। यूनान और रोम के अमर कलाकारों की कृतियों का आज अभाव क्यों दीखता है? इसलिए कि वहाँ एक मजहब आया जो ऐसी मूर्तियों के अस्तित्व को अपने लिए खतरे की चीज समझता था। ईरान की जातीय कला, साहित्य और संस्कृति को नामशेष-सा क्यों हो जाना पड़ा? – क्योंकि, उसे एक ऐसे मजहब से पाला पड़ा जो इन्सानियत का नाम भी धरती से मिटा देने पर तुला हुआ था। मेक्सिको और पेरू, तुर्किस्तान और अफगानिस्तान, मिस्र और जावा – जहाँ भी देखिये, मजहबों ने अपने को कला, साहित्य, संस्कृति का दुश्मन साबित किया। और खून-खराबा? इसके लिए तो पूछिये मत। अपने-अपने खुदा और भगवान के नाम पर, अपनी-अपनी किताबों और पाखण्डों के नाम पर मनुष्य के खून को उन्होंने पानी से भी सस्ता कर दिखलाया। यदि पुराने यूनानी धर्म के नाम पर निरपराध ईसाई बच्चे बूढ़ों, स्त्री-पुरुषों को शेरों से फड़वाना, तलवार के घाट उतारना बड़े पुण्य का काम समझते थे, तो पीछे अधिकार हाथ आने पर ईसाई भी क्या उनसे पीछे रहे? ईसामसीह के नाम पर उन्होंने खुलकर तलवार का इस्तेमाल किया। जर्मनी में इन्सानियत के भीतर लोगों को लाने के लिए कत्लेआम-सा मचा दिया गया। पुराने जर्मन ओक वृक्ष की पूजा करते थे। कहीं ऐसा न हो कि ये ओक ही उन्हें फिर पथभ्रष्ट कर दें, इसके लिए बस्तियों के आसपास एक भी ओक को रहने न दिया गया। पोप और पेत्रयार्क, इंजील और ईसा के नाम पर प्रतिभाशाली व्यक्तियों के विचार-स्वातन्‍त्रय को आग और लोहे के जरिये से दबाते रहे। जरा से विचार-भेद के लिए कितनों को चर्खी से दबाया गया – कितनों को जीते जी आग में जलाया गया। हिन्दुस्तान की भूमि ऐसी धार्मिक मतान्धता का कम शिकार नहीं रही है। इस्लाम के आने से पहले भी क्या मजहब ने मन्त्र के बोलने और सुनने वालों के मुँह और कानों में पिघले राँगे और लाख को नहीं भरा? शंकराचार्य ऐसे आदमी – जो कि सारी शक्ति लगा गला फाड़-फाड़कर यही चिल्लाते रहे थे कि सभी ब्रह्म हैं, ब्रह्म से भिन्न सभी चीजें झूठी हैं तथा रामानुज और दूसरों के भी दर्शन जबानी जमा-खर्च से आगे नहीं बढ़े, बल्कि सारी शक्ति लगाकर शूद्रों और दलितों को नीचे दबा रखने में उन्होंने कोई कोर-कसर उठा नहीं रक्खी और इस्लाम के आने के बाद तो हिन्दू-धर्म और इस्लाम के खूँरेज झगड़े आज तक चल रहे हैं। उन्होंने तो हमारे देश को अब तक नरक बना रखा है। कहने के लिए इस्लाम शक्ति और विश्व-बन्धुत्व का धर्म कहलाता है; हिन्दू-धर्म ब्रह्मज्ञान और सहिष्णुता का धर्म बतलाया जाता है; किन्तु क्या इन दोनों धर्मों ने अपने इस दावे को कार्यरूप में परिणत करके दिखलाया? हिन्दू मुसलमानों पर दोष लगाते हैं कि ये बेगुनाहों का खून करते हैं; हमारे मन्दिरों और पवित्र तीर्थों को भ्रष्ट करते हैं; हमारी स्त्रियों को भगा ले जाते हैं। लेकिन, झगड़े में क्या हिन्दू बेगुनाहों का खून करने से बाज आते हैं। चाहे आप कानपुर के हिन्दू-मुस्लिम झगड़े को ले लीजिये या बनारस के, इलाहाबाद के या आगरे के; सब जगह देखेंगे कि हिन्दुओं और मुसलमानों के छुरे और लाठियों के शिकार हुए हैं – निरपराध, अजनबी स्त्री-पुरुष, बूढ़े-बच्चे। गाँव या दूसरे मुहल्ले का कोई अभागा आदमी अनजाने उस रास्ते आ गुजरा और कोई पीछे से छुरा भोंक कर चम्पत हो गया। सभी धर्म दया का दावा करते हैं, लेकिन हिन्दुस्तान के इस धार्मिक झगड़ों को देखिये, तो आपको मालूम होगा कि यहाँ मनुष्यता पनाह माँग रही है। निहत्थे बूढ़े और बूढ़ियाँ ही नहीं, छोटे-छोटे बच्चे तक मार डाले जाते हैं। अपने धर्म के दुश्मनों को जलती आग में फेंकने की बात अब भी देखी जाती है। 

एक देश और एक खून मनुष्य को भाई-भाई बनाते हैं। खून का नाता तोड़ना अस्वाभाविक है, लेकिन हम हिन्दुस्तान में क्या देखते हैं? हिन्दुओं की सभी जातियों में, चाहे आरम्भ में कुछ भी क्यों न रहा हो अब तो एक ही खून दौड़ रहा है; क्या शकल देखकर किसी के बारे में आप बतला सकते हैं कि यह ब्राह्मण है और यह शूद्र। कोयले से भी काले ब्राह्मण आपको लाखों की तादात में मिलेंगे। और शूद्रों में भी गेहुएँ रंग वालों का अभाव नहीं है। पास-पास में रहने वाले स्त्री-पुरुषों के यौन-सम्बन्ध, जाति की ओर से हजार रुकावट होने पर भी, हम आये दिन देखते हैं। कितने ही धनी खानदानों, राजवंशों के बारे में तो लोग साफ कहते हैं कि दास का लड़का राजा और दासी का लड़का राजपुत्र। इतना होने पर भी हिन्दू-धर्म लोगों को हजारों जातियों में बाँटे हुए हैं। कितने ही हिन्दू, हिन्दू के नाम पर जातीय एकता स्थापित करना चाहते हैं। किन्तु, वह हिन्दू जातीयता है कहाँ? हिन्दू जाति तो एक काल्पनिक शब्द है। वस्तुतः वहाँ हैं ब्राह्मण – ब्राह्मण भी नहीं, शाकद्वीपी, सनाढ्य, जुझौतिया – राजपूत, खत्री, भूमिहार, कायस्थ, चमार आदि-आदि—। एक राजपूत का खाना-पीना, ब्याह-श्राद्ध अपनी जाति तक सीमित रहता है। उसकी सामाजिक दुनिया अपनी जाति तक महमूद है। इसीलिए जब एक राजपूत बड़े पद पर पहुँचता है, तो नौकरी दिलाने, सिफारिश करने या दूसरे तौर से सबसे पहले अपनी जाति के आदमी को फायदा पहुँचाना चाहता है। यह स्वाभाविक है। जब कि चौबीसों घण्टे मरने-जीने सबमें सम्बन्ध रखने वाले अपने बिरादरी के लोग हैं, तो किसी की दृष्टि दूर तक कैसे जायेगी? 

कहने के लिए तो हिन्दुओं पर ताना कसते हुए इस्लाम कहता है कि हमने जात-पाँत के बन्धनों को तोड़ दिया। इस्लाम में आते ही सब भाई-भाई हो जाते हैं। लेकिन क्या यह बात सच है? यदि ऐसा होता तो आज मोमिन (जुलाहा), अप्सार (धुनिया), राइन (कुँजड़ा) आदि का सवाल न उठता। अर्जल और अशरफ का शब्द किसी के मुँह पर न आता। सैयद-शेख, मलिक-पठान, उसी तरह का खयाल अपने से छोटी जातियों से रखते हैं, जैसा कि हिन्दुओं के बड़ी जात वाले। खाने के बारे में छूतछात कम है और वह तो अब हिन्दुओं में भी कम होता जा रहा है। लेकिन सवाल तो है – सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्र में इस्लाम की बड़ी जातों ने छोटी जातों को क्या आगे बढ़ने का कभी मौका दिया? धार्मिक नेता हों, तो बड़ी-बड़ी जातों से शाही दरबार और सरकारी नौकरियाँ सभी जगहें बड़ी जातों के लिए सुरक्षित रहीं। जमींदार, ताल्लुकेदार, नवाब सभी बड़ी जातों के हैं। हिन्दुस्तानियों में से चार-पाँच करोड़ आदमियों ने हिन्दुओं के सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक अत्याचारों से त्रण पाने के लिए इस्लाम की शरण ली। लेकिन, इस्लाम की बड़ी जातों ने क्या उन्हें वहाँ पनपने दिया? सात सौ बरस बाद भी आज गाँव का मोमिन जमींदारों और बड़ी जातों के जुल्म का वैसा ही शिकार है, जैसा कि उसका पड़ोसी कानू-कुर्मी। हिन्दुओं से झगड़कर अंग्रेजों की खुशामद करके कौन्सिलों की सीटों, सरकारी नौकरियों में अपने लिए संख्या सुरक्षित करायी जाती है। लेकिन जब उस संख्या को अपने भीतर वितरण करने का अवसर आता है, तब उनमें से प्रायः सभी को बड़ी जाति वाले सैयद और शेख अपने हाथ में ले लेते हैं। साठ-साठ, सत्तर-सत्तर फीसदी संख्या रखने वाले मोमिन और अन्सार मुँह ताकते रह जाते हैं। बहाना किया जाता है कि उनमें उतनी शिक्षा नहीं। लेकिन सात सौ और हजार बरस बाद भी यदि वे शिक्षा में इतने पिछड़े हुए हैं, तो इसका दोष किसके ऊपर है? उन्हें कब शिक्षित होने का अवसर दिया गया? जब पढ़ाने का अवसर आया, छात्रवृत्ति देने का मौका आया, तब तो ध्यान अपने भाई-बन्धुओं की तरफ चला गया। मोमिन और अन्सार, बावर्ची और चपरासी, खिदमतगार और हुक्काबरदार के काम के लिए बने हैं। उनमें से कोई यदि शिक्षित हो भी जाता है, तो उसकी सिफारिश के लिए अपनी जाति में तो वैसा प्रभावशाली व्यक्ति है नहीं; और, बाहर वाले अपने भाई-बन्धु को छोड़कर उन पर तरजीह क्यों देने लगे? नौकरियों और पदों के लिए इतनी दौड़धूप, इतनी जद्दोजहद सिर्फ खिदमते-कौम और देश सेवा के लिए नहीं है, यह है रुपयों के लिए, इज्जत और आराम की जिन्दगी बसर करने के लिए। 

हिन्दू और मुसलमान फरक-फरक धर्म रखने के कारण क्या उनकी अलग जाति हो सकती है? जिनकी नसों में उन्हीं पूर्वजों का खून बह रहा है जो इसी देश में पैदा हुए और पले, फिर दाढ़ी और चुटिया, पूरब और पश्चिम की नमाज क्या उन्हें अलग कौम साबित कर सकती है? क्या खून पानी से गाढ़ा नहीं होता? फिर हिन्दू और मुसलमान के फरक से बनी इन अलग-अलग जातियों को हिन्दुस्तान से बाहर कौन स्वीकार करता है? जापान में जाइये या जर्मनी, ईरान जाइये या तुर्की सभी जगह हमें हिन्दी और ‘इण्डियन’ कहकर पुकारा जाता है। जो धर्मभाई को बेगाना बनाता है, ऐसे धर्म को धिक्कार! जो मजहब अपने नाम पर भाई का खून करने के लिए प्रेरित करता है, उस मजहब पर लानत! जब आदमी चुटिया काट दाढ़ी बढ़ाने भर से मुसलमान और दाढ़ी मुड़ा चुटिया रखने मात्र से हिन्दू मालूम होने लगता है, तो इसका मतलब साफ है कि यह भेद सिर्फ बाहरी और बनावटी है। एक चीनी चाहे बौद्ध हो या मुसलमान, ईसाई हो या कनफूसी, लेकिन उसकी जाति चीनी रहती है; एक जापानी चाहे बौद्ध हो या शिन्तो-धर्मी, लेकिन उसकी जाति जापानी रहती है; एक ईरानी चाहे वह मुसलमान हो या जरतुस्त, किन्तु वह अपने लिए ईरानी छोड़ दूसरा नाम स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं। तो हम-हिन्दियों के मजहब को टुकड़े-टुकड़े में बाँटने को क्यों तैयार हैं और इस नाजायज हरकतों को हम क्यों बर्दाश्त करें? 

धर्मों की जड़ में कुल्हाड़ा लग गया है; और, इसलिए अब मजहबों के मेलमिलाप की बातें कभी-कभी सुनने में आती हैं। लेकिन, क्या यह सम्भव है? “मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना” – इस सफेद झूठ का क्या ठिकाना अगर मज़हब बैर नहीं सिखाता तो चोटी-दाढ़ी की लड़ाई में हजार बरस से आज तक हमारा मुल्क पामाल क्यों है? पुराने इतिहास को छोड़ दीजिये, आज भी हिन्दुस्तान के शहरों और गाँवों में एक मजहब वालों को दूसरे मजहब वालों के खून का प्यासा कौन बना रहा है? कौन गाय खाने वालों को लड़ा रहा है। असल बात यह है – “मजहब तो है सिखाता आपस में बैर रखना। भाई को है सिखाता भाई का खून पीना।” हिन्दुस्तानियों की एकता मजहबों के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मजहबों की चिता पर। कौए को धोकर हंस नहीं बनाया जा सकता। कमली धोकर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता। मजहबों की बीमारी स्वाभाविक है। उसका, मौत को छोड़कर इलाज नहीं। 

एक तरफ तो वे मजहब एक-दूसरे के इतने जबर्दस्त खून के प्यासे हैं। उनमें से हर एक एक-दूसरे के खिलाफ शिक्षा देता है। कपड़े-लत्ते, खाने-पीने, बोली-बानी, रीति-रिवाज में हर एक एक-दूसरे से उल्टा रास्ता लेता है। लेकिन, जहाँ गरीबों को चूसने और धनियों की स्वार्थ-रक्षा का प्रश्न आ जाता है; तो दोनों बोलते हैं। गदहा-गाँव के महाराज बेवकूफ बख्श सिंह सात पुश्त से पहले दर्जे के बेवकूफ चले आते हैं। आज उनके पास पचास लाख सालाना आमदनी की जमींदारी है जिसको प्राप्त करने में न उन्होंने एक धेला अकल खर्च की और न अपनी बुद्धि के बल पर उसे छै दिन चला ही सकते हैं। न वे अपनी मेहनत से धरती से एक छटाँक चावल पैदा कर सकते हैं, न एक कंकड़ी गुड़। महाराज बेवकूफ बख्श सिंह को यदि चावल, गेहूँ, घी, लकड़ी के ढेर के साथ एक जंगल में अकेले छोड़ दिया जाये, तो भी उनमें न इतनी बुद्धि है और न उन्हें काम का ढंग मालूम है कि अपना पेट भी पाल सकें; सात दिन में बिल्ला-बिल्ला कर जरूर वे वहीं मर जायेंगे। लेकिन आज गदहा गाँव में महाराज दस हजार रुपया महीना तो मोटर के तेल में फूँक डालते हैं। बीस-बीस हजार रुपये जोड़े कुत्ते उनके पास हैं। दो लाख रुपये लगाकर उनके लिए महल बना हुआ है। उन पर अलग डाक्टर और नौकर हैं। गर्मियों में उनके घरों में बरफ के टुकड़े और बिजली के पंखे लगते हैं। महाराज के भोजन-छाजन की तो बात ही क्या? उनके नौकरों के लिए नौकर भी घी-दूध में नहाते हैं, और जिस रुपये को इस प्रकार पानी की तरह बहाया जाता है, वह आता कहाँ से है? उसके पैदा करने वाले कैसी जिन्दगी बिताते हैं? – वे दाने-दाने को मुहताज हैं। उनके लड़कों को महाराज बेवकूफ बख्श के कुत्तों का जूठा भी यदि मिल जाये, तो वे अपने को धन्य समझें। 

लेकिन, यदि किसी धर्मानुयायी से पूछा जाये, कि ऐसे बेवकूफ आदमी को बिना हाथ-पैर हिलाये दूसरे की कसाले की कमाई को पागल की तरह फेंकने का क्या अधिकार है तो पण्डित जी कहेंगे – “अरे वे तो पूर्व की कमाई खा रहे हैं। भगवान की ओर से वे बड़े बनाये गये हैं। शास्त्र-वेद कहते हैं कि बड़े-छोटे के बनाने वाले भगवान हैं। गरीब दाने-दाने को मारा-मारा फिरता है, यह भगवान की ओर से उसको दण्ड मिला है।” यदि किसी मौलवी या पादरी से पूछिये तो जवाब मिलेगा – “क्‍या तुम काफिर हो, नास्तिक तो नहीं हो? अमीर-गरीब दुनिया का कारबार चलाने के लिए खुदा ने बनाये हैं। राजी-ब-रजा खुदा की मर्जी में इन्सान का दखल देने का क्या हक? गरीबी को न्यामत समझो। उसकी बन्दगी और फरमाबरदारी बजा लाओ, कयामत में तुम्हें इसकी मजदूरी मिलेगी।” पूछा जाय – जब बिना मेहनत ही के महाराज बेवकूफ बख्श सिंह धरती पर ही स्वर्ग आनन्द भोग रहे हैं तो ऐसे ‘अन्धेर नगरी चौपट राजा’ के दरबार में बन्दगी और फरमाबरदारी से कुछ होने-हवाने की क्या उम्मीद? 

उल्लू शहर के नवाब नामाकूल खाँ भी बड़े पुराने रईस हैं। उनकी भी जमींदारी है और ऐशो-आराम में बेवकूफ बख्श सिंह से कम नहीं हैं। उनके पाखाने की दीवारों में अतर चुपड़ा जाता है और गुलाब-जल से उसे धोया जाता है। सुन्दरियों और हुस्न की परियों को फँसा लाने के लिए उनके सैंकड़ों आदमी देश-विदेशों में घूमा करते हैं। यह परियाँ एक ही दीदार में उनके लिए बासी हो जाती हैं। पचासों हकीम, डाक्टर और वैद्य उनके लिए जौहर, कुश्ता और रसायन तैयार करते रहते हैं। दो-दो साल की पुरानी शराबें पेरिस और लन्दन के तहखानों से बड़ी-बड़ी कीमत पर मँगाकर रक्खी जाती हैं। नवाब बहादुर का तलवा इतना लाल और मुलायम है जितनी इन्द्र की परियों की जीभ भी न होगी। इनकी पाशविक काम-वासना की तृप्ति में बाधा डालने के लिए कितने ही पति तलवार के घाट उतारे जाते हैं, कितने ही पिता झूठे मुकदमों में फँसा कर कैदखाने में सड़ाये जाते हैं। साठ लाख सालाना आमदनी भी उनके लिए काफी नहीं है। हर साल दस-पाँच लाख रुपया और कर्ज हो जाता है। आपको G.C.S.I., G.C.I.E., फर्जिन्द-खास फिरंग – आदि बड़ी-बड़ी उपाधियाँ सरकार की ओर से मिली हैं। वायसराय के दरबार में सबसे पहले कुर्सी इनकी होती है और उनके स्वागत में व्याख्यान देने और अभिनन्दन-पत्र पढ़ने का काम हमेशा उल्लू शहर के नवाब बहादुर और गदहा-गाँव के महाराजा बहादुर को मिलता है। छोटे और बड़े दोनों लाट इन दोनों रईसुल उमरा की बुद्धिमानी, प्रबन्ध की योग्यता और रियाया-परवरी की तारीफ करते नहीं अघाते। 

नवाब बहादुर की अमीरी को खुदा की बरकत और कर्म का फल कहने में पण्डित और मौलवी, पुरोहित और पादरी सभी एक राय हैं। रात-दिन आपस में तथा अपने अनुयायियों में खून-खराबी का बाजार गर्म रखने वाले, अल्लाह और भगवान यहाँ बिलकुल एक मत रखते हैं। वेद और कुरान, इंजील और बायबिल की इस बारे में सिर्फ एक शिक्षा है। खून-चूसने वाली इन जोंकों के स्वार्थ की रक्षा ही मानो इन धर्मों का कर्तव्य हो। और मरने के बाद भी बहिश्त और स्वर्ग के सबसे अच्छे महल, सबसे सुन्दर बगीचे, सबसे बड़ी आँखों वाली हूरें और अप्सराएँ, सबसे अच्छी शराब और शहद की नहरें उल्लू शहर के नवाब बहादुर तथा गदहा-गाँव के महाराज और उनके भाई-बन्धुओं के लिए रिजर्व हैं, क्योंकि उन्होंने दो-चार मस्जिदें दो-चार शिवाले बना दिये हैं; कुछ साधु-फकीर और ब्राह्मण-मुजावर रोजाना उनके यहाँ हलवा-पूड़ी, कबाब-पुलाव उड़ाया करते हैं। 

गरीबों की गरीबी और दरिद्रता के जीवन का कोई बदला नहीं। हाँ, यदि वे हर एकादशी के उपवास, हर रमजान के रोजे तथा सभी तीरथ-व्रत, हज और जियारत बिना नागा और बिना बेपरवाही से करते रहे, अपने पेट को काटकर यदि पण्डे-मुजावरों का पेट भरते रहे, तो उन्हें भी स्वर्ग और बहिश्त के किसी कोने की कोठरी तथा बची-खुची हूर-अप्सरा मिल जायेगी। गरीबों को बस इसी स्वर्ग की उम्मीद पर अपनी जिन्दगी काटनी है। किन्तु जिस सरग-बहिश्त की आशा पर जिन्दगी भर के दुःख के पहाड़ों को ढोना है, उस सरग-बहिश्त का अस्तित्व ही आज बीसवीं सदी के इस भूगोल में कहीं नहीं है। पहले जमीन चपटी थी। सरग इसके उत्तर के उन सात पहाड़ों और सात-समुद्रों के पार था। आज तो न उस चपटी जमीन का पता है और न उत्तर के उन सात पहाड़ों और सात समुद्रों का। जिस सुमेरु के ऊपर इन्द्र की अमरावती क्षीरसागर के भीतर शेषशायी भगवान थे, वह अब सिर्फ लड़कों के दिल बहलाने की कहानियाँ मात्र हैं। ईसाइयों और मुसलमानों के बहिश्त के लिए भी उसी समय के भूगोल में स्थान था। आजकल के भूगोल ने तो उनकी जड़ ही काट दी है। फिर उस आशा पर लोगों को भूखों रखना क्या भारी धोखा नहीं है। 

मंगलवार, 18 अगस्त 2020

दूध का जला


‘एक लघुकथा’

दिनेशराय द्विवेदी


नौकरी से निकाले जाने का मुकदमा था। सरवर खाँ को जीतना ही था, उसका कोई कसूर न होते हुए भी बिना कारण नौकरी से निकाला गया था। पर फैसले का दिन धुकधुकी का होता है। सुबह सुबह जज ने सरवर खाँ के वकील को चैम्बर में बुलाया और बोला, “आप मुकदमा लड़ रहे हैं, बता सकते हैं आज क्या फैसला होने वाला है।” वकील ने जवाब दिया,“मेरे मुवक्किल को जीतना ही चाहिए।” 

जज ने बताया कि, “आप सही हैं वकील साहब। आपके मुवक्किल ने मुझे मेरे एक रिश्तेदार से सिफारिश करवाई है, इसलिए मैं अब इस मामले का फैसला नहीं करूंगा।” आगे की पेशी पड़ गयी। वकील ने मुवक्किल को कहा, “तेरी किस्मत में पत्थर लिखा है, अच्छा खासा जीतने वाला था, सिफारिश की क्या जरूरत थी, वह भी मुझे बिना बताए, अब भुगत।

जज का ट्रांसफर हो गया, दूसरा जज आ गया। उसने बहस सुनी और फैसला सुना दिया। सरवर खाँ मुकदमा हार गया। उसने अपने वकील को बताया कि, “पहले उसने सिफारिश उसके दिवंगत मित्र की पत्नी से कराई थी जो जज की निकट की रिश्तेदार थी। इस बार उसने ऐसी कोई कोशिश नहीं की। पर एक बन्दा आया था उसके पास, जो कह रहा था कि नया जज उसका मिलने वाला है, चाहो जैसा फैसला कर देगा। पर कुछ धन खर्च होगा। पर साहब दूध का जला छाछ को फूँक फूँक कर पीता है। मैंने उसे साफ इन्कार कर दिया। 

सरवर खाँ ने  हाईकोर्ट में फैसले की अपील कर रखी है। 


प्लेटफॉर्म टिकट 50 रुपए प्रति दो घंटे

इस टिकट को देखा। प्लेटफॉर्म पर जाने के लिए दो घंटे की कीमत 50 रुपए देख एकाएक सदमे में आ गया। सदमे से उबरने के पहले मैं अतीत में खो चुका था। जिस नगर में मैं पैदा हुआ वहाँ भी एक अदद रेलवे स्टेशन था। पहले एक अप पेसेन्जर ट्रेन सुबह आया करती थी और शाम को एक डाउन पैसेन्जर ट्रेन। माल गाड़ियों की आवक जावक थी। नियमित रूप से कोई एक्सप्रेस ट्रेन कभी नहीं गुजरती थी। पर यह तब की बात है जब मैं बच्चा ही था और स्टेशन तक अकेले आने की इजाजत नहीं थी। फिर एक एक डाउन पैसेंजर और अप पैसेंजर सुबह शाम आने लगी। दोनों ट्रेनों का क्रॉसिंग यहीं होता। दोनों तरफ जाने वाली सवारियाँ एक साथ स्टेशन पर पहुँचती थी, उनके साथ होते थे उन्हें छोड़ने वाले या ट्रेन से उतरने वालों को लेने आने वाले। हर रोज सुबह के समय एक सम्मेलन सा होता था। 

जिन दिनों परीक्षाओं के रिजल्ट आने वाले होते थे उन दिनों सप्ताह भर पहले से सुबह की ट्रेन पर परीक्षार्थी और उनके हितैषी प्लेटफॉर्म पर जरूर पहुँचते थे। सुबह दस बजे कोटा की तरफ से आने वाली ट्रेन जैसे ही रुकती। डाक वाले कोच का दरवाजा खुलता और तमाम अखबार वितरक उन से उतरने वाले अखबारों को बण्डलों को लेते और प्लेटफार्म पर ही खोल देते। यदि किसी दर्जे का रिजल्ट आ गया होता तो नियमित ग्राहकों के अलावा जितने अखबार ज्यादा मंगाए होते सब वहीं खत्म हो जाते थे। इसका नतीजा यह था कि जिन के घर नियमित रूप से अखबार नहीं आते थे वे तमाम लोग अपने बच्चों की परीक्षा परिणाम जानने के लिए कई कई दिन सुबह के समय रेलवे स्टेशन पर ही दिखाई देते थे। ट्रेन के आने के पहले और जाने के बाद तमाम दुनिया जहान की बातें हो जाती थीं। बहुत से लोग प्लेट फार्म पर यूँ ही घूमने जाया करते थे। 

मैंने दसवीं की परीक्षा पास कर के ग्यारहवीं कक्षा में आ गया। जेब खर्च के पेसे पास होते थे। पढ़ने का शोक लग चुका था। मैं पत्रिकाएँ खरीदने रेलवे स्टेशन आता था। उनके मिलने का सर्वोत्तम स्थान रेलवे स्टेशन पर ए.एच. व्हीलर की बुक स्टॉल थी। मैं हर शाम स्टेशन घूमने जाने लगा। स्टेशन पर ही एक खान-पान ठेला हुआ करता था। इस के वेंडर फूलचंद जी के यहाँ की आलू की सब्जी और मखमली पूरियाँ दूर दूर तक प्रसिद्ध थीं, आज भी हैं। वे रेलवे प्लेटफॉर्म पर केवल ट्रेन के समय ही मिलती थीं। पूरियों का डब्बा ट्रेन प्लेट फॉर्म पर आने के बाद ही खुलता था। उनका स्वाद अद्वितीय होता था। शहर के उन पूरियों के शौकीन कई लोग ट्रेन के समय वहाँ इसी लिए पहुँचते थे। कि पूरियों का डब्बा खुलने पर सब्जी-पूरी खरीद कर उसका स्वाद ले सकें। यूँ समझिए कि रेलवे प्लेटफॉर्म मेरे नगर के लिए सैर की सबसे बेहतरीन जगह थी। 

बहुत यादें जुड़ी हैं उस प्लेटफार्म के साथ। वह सार्वजनिक स्थान था। भारत देश की जनता उसकी मालिक थी। जहाँ कोई भी जा सकता था। वैसे ही जैसे उन दिनों सड़क पर चल सकता था। नदी में नहने जा सकता था। जो स्टेशन बिक गए हैं वे सब अब केवल पैसे वालों के लिए घूमने की जगह रह गयी है। उसकी मालिक जनता को ही वहाँ से बेदखल किया जा रहा है। आज इस टिकट को देख कर सोच रहा हूँ कि यदि उस समय यदि प्लेटफार्म टिकट लेना जरूरी होता और उसकी कीमत पच्चीस पैसे होते तो प्लेटफॉर्म पूरी तरह बेरोनक होता। शहर की सबसे बेहतरीन सैरगाह होना तो बहुत दूर की बात थी।

रविवार, 9 अगस्त 2020

एक महामारी का आविष्कार

  • जॉर्जो आगम्बेन

जॉर्जो आगम्बेन

इतालवी दार्शनिक जार्जो आगम्बेन कोविड के दौर में चर्चा में रहे हैं। अकादमिया में संभवत: वे पहले व्यक्ति थे, जिसने नावेल कोरोना वायरस के अनुपातहीन भय के खिलाफ आवाज़ उठाई। कोविड से संबंधित उनकी टिप्पणियों के हिंदी अनुवाद
प्रमोद रंजन की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक “भय की महामारी” के परिशिष्ट में संकलित हैं। प्रस्तुत है उनमें से पहली टिप्पणी :

हम आज तथाकथित कोरोना महामारी से निपटने के लिए जल्दबाजी में उठाये गए निहायत उन्मादपूर्ण, अतार्किक और निराधार आपातकालीन क़दमों से जूझ रहे हैं। इस मसले के पड़ताल की शुरुआत हमें नेशनल रिसर्च कौंसिल (सीएनआर) द्वारा की गयी इस घोषणा से करनी चाहिए कि “इटली में सार्स कोविड 2 महामारी नहीं है”। कौंसिल ने यह भी कहा कि “इस महामारी से सम्बंधित दसियों हज़ार मामलों पर आधारित जो आंकडें उपलब्ध हैं, उनके अनुसार 80-90 प्रतिशत मामलों में यह संक्रमण केवल मामूली लक्षणों (इन्फ्लुएंजा की तरह) को जन्म देता है। लगभग 10-15 प्रतिशत मामलों में मरीजों को न्युमोनिया हो सकता है परन्तु इनमें से अधिकांश मरीजों के लिए यह जानलेवा नहीं होगा। केवल 4 प्रतिशत मरीजों को इंटेंसिव थेरेपी की ज़रुरत पड़ेगी।” 

अगर यह सही है तो भला क्या कारण है कि मीडिया और सरकार देश में डर और घबराहट का माहौल बनाने की हरचंद कोशिश कर रहे हैं? इसका नतीजा यह हुआ है कि लोगों के आने जाने और यात्रा करने के अधिकार पर रोक लग गयी है, और रोजाना की ज़िन्दगी ठहर सी गयी है।

इस गैर-आनुपातिक प्रतिक्रिया के पीछे दो कारक हो सकते हैं। पहला और सबसे महत्वपूर्ण है, अपवादात्मक स्थितियों का सामान्यीकरण करने की सरकार की प्रवृति। सरकार ने ‘साफ़-सफाई और जनता की सुरक्षा’ की ख़ातिर जिस विधायी आदेश को तुरत-फुरत लागू करने की मंज़ूरी दी, उससे एक तरह से “ऐसे म्युनिसिपल और अन्य क्षेत्रों का सैन्यकरण कर दिया गया जहाँ एक भी ऐसा व्यक्ति है जो कोविड पॉजिटिव है और जिसके संक्रमण का स्रोत अज्ञात है, या जहाँ संक्रमण का एक भी ऐसा मामला है जिसे किसी ऐसे व्यक्ति से नहीं जोड़ा जा सकता जो हाल में किसी संक्रमित इलाके से लौटा हो।” जाहिर है कि इस तरह की स्थिति कई क्षेत्रों में बनेगी और नतीजे में इन अपवादात्मक आदेशों को एक बड़े क्षेत्र में लागू किया जा सकेगा. इस आदेश में लोगों की स्वतंत्रता पर जो गंभीर रोके लगाई गई है, वे हैं: 
  1. कोई भी व्यक्ति प्रभावित म्युनिसिपैलिटी या क्षेत्र से बाहर नहीं जा सकेगा।
  2. कोई बाहरी व्यक्ति इस म्युनिसिपैलिटी या क्षेत्र के अन्दर नहीं आ सकेगा।
  3. निजी या सार्वजनिक स्थानों पर सभी प्रकार के जमावड़ों, जिनमें सांस्कृतिक, धार्मिक और खेल सम्बन्धी जमावड़े शामिल हैं, पर रोक रहेगी - ऐसे स्थानों पर भी जो किसी भवन के अन्दर हैं, परन्तु उनमें आम लोगों को प्रवेश की अनुमति है।
  4. सभी किंडरगार्टेन, स्कूल और बच्चों के देखभाल की सेवाएं बंद रहेंगी। उच्च और व्यावसायिक शिक्षण संस्थाओं में ‘डिस्टेंस लर्निंग’ के अलावा सभी शैक्षिक गतिविधियाँ प्रतिबंधित रहेंगी।
  5. संग्रहालय और अन्य सांस्कृतिक संस्थाएं और स्थल जनता के लिए बंद रहेंगे। इनमें वे सभी स्थल शामिल हैं जो 22 जनवरी 2004 के विधायी आदेश क्रमांक 42 के अंतर्गत कोड ऑफ़ कल्चरल एंड लैंडस्केप हेरिटेज के आर्टिकल 101 में शामिल हैं। इन संस्थाओं और स्थलों पर सार्वजनिक प्रवेश के अधिकार से संबंधित नियम निलंबित रहेंगे।
  6. इटली के अन्दर या विदेशों की शैक्षिक यात्राएं निलंबित रहेंगी।
  7. जी) सभी परीक्षाएं स्थगित रहेंगी और सार्वजनिक कार्यालयों में कोई काम नहीं होगा, सिवाय आवश्यक और सार्वजानिक उपयोगिता सेवाओं के संचालन के।
  8. एच) क्वारंटाइन सम्बन्धी नियम प्रभावशील होंगे और उन लोगों पर कड़ाई से नज़र रखी जाएगी जो संक्रमित व्यक्तियों के संपर्क में आये हैं।
सीएनआर का कहना है कि यह संक्रमण साधारण फ्लू से अलग नहीं है, जिसका सामना हम हर साल करते हैं। फिर यह अनुपातहीन प्रतिक्रिया क्या अजीब नहीं है? ऐसा लगता है कि चूँकि अब आतंकवाद के नाम पर असाधारण और अपवादात्मक कदम नहीं उठाये जा सकते इसलिए एक महामारी का आविष्कार कर लिया गया है जिसके बहाने इन क़दमों को कितना भी कड़ा किया सकता है।

इससे भी अधिक विचलित करने वाली बात यह है कि पिछले कुछ सालों में भय का जो वातावरण व्याप्त हो गया है उसे ऐसी परिस्थितियां भाती हैं जिनसे सामूहिक घबराहट और अफरातफरी फैले। इसके लिए यह महामारी एक आदर्श बहाना है। इस तरह एक दुष्चक्र बन गया है। सरकार द्वारा स्वतंत्रता पर लगाए गए प्रतिबंधों को इसलिए स्वीकार कर लिया जाता है क्योंकि लोगों में सुरक्षित रहने की इच्छा है। और यह इच्छा उन्हीं सरकारों ने पैदा की है, जो अब उसे पूरा करने के लिए तरह-तरह के प्रपंच रच रही हैं।

(जॉर्जो आगम्बेन ने यह टिप्प्णी अपने इतालियन ब्लॉग Quodlibet पर 26 फरवरी, 2020 को लिखी थी, जिसका अंग्रेजी अनुवाद यूरोपीय जर्नल ऑफ साइकोएनालिसिस ने प्रकाशित किया। आगम्बेन की इस टिप्पणी पर कई प्रकार की नकारात्मक प्रतिक्रियाएँ भी आईं, जिसके उत्तर में उन्होंने अपने ब्लॉग पर एक सटीक ‘स्पष्टीकरण’ दिया और बाद में “विद्यार्थियों का फतीहा” नाम से भी एक टिप्पणी लिखी। उनकी इन टिप्पणियों का विश्व के अनेक प्रमुख अकादमिशयनों ने संज्ञान लिया। जिसके परिणामस्वरूप कथित ऑनलाइन-, डिजिटल शिक्षा के सुनियोजित षड़यंत्र के विरोध की सुगबुगाहट आरंभ हो सकी है। इन टिप्पणियों के हिंदी अनुवाद प्रमोद रंजन की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक "भय की महामारी" में संकलित हैं, जिन्हें जॉर्जो आगम्बेन की अनुमति से किया गया है।])

सोमवार, 3 अगस्त 2020

आर एस एस क्या है? -मधु लिमये

मैंने राजनीति में 1937 मे प्रदेश किया। उस समय मेरी उम्र बहुत कम थी, लेकिन चूकिं मैंने मैट्रिक की परीक्षा जल्दी पास कर ली थी, इसलिए कालेज में भी मैने बहुत जल्दी प्रवेश किया। उस समय पूना में आर एस एस और सावरकरवादी लोग एक तरफ और राष्ट्रवादी और विभिन्न समाजवादी और वामपंथी दल दूसरी तरफ थे। मुझे याद है कि 1 मई 1937 को हम लोगों ने मई दिवस का जुलूस निकाला था। उस जुलूस पर आर एस एस के स्वयंसेवकों और सावरकरवादी लोगों ने हमला किया था और उसमें प्रसिद्ध क्रान्तिकारी सेनापति बापट और हमारे नेता एस एम जोशी को भी चोटें आयी थी। तो उसी समय से इन लोगों के साथ हमारा मतभेद था। हमारा संघ से पहला मतभेद था राष्ट्रीयता की धारणा पर। हम लोगों की यह मान्यता थी कि जो भारतीय राष्ट्र है, उसमें हिन्दुस्तान में रहनेवाले सभी लोगों को समान अधिकार हैं। लेकिन आर एस एस के लोगों और सावरकर ने हिन्दु राष्ट्र की कल्पना सामने रखी। जिन्ना भी इसी किस्म के सोच के शिकार थे - उनका मानना था कि भारत में मुस्लिम राष्ट्र और हिन्दु राष्ट्र दो राष्ट्र हैं। और सावरकर भी यही कहते थे। दूसरा महत्वपूर्ण मतभेद यह था कि हम लोग लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना करना चाहते थे और आर एस एस के लोग लोकतंत्र को पश्चिम की विचारधारा मानते थे और कहते थे कि वह भारत के लिए उपयुक्त नहीं है। उन दिनों आर एस एस के लोग हिटलर की बहुत तारीफ करते थे। गुरूजी संघ के न केवल सरसंघचालक थे, बल्कि आध्यात्मिक गुरू भी थे। गुरूजी के विचारों में और नाजी लोगों के विचारों में आश्चर्यजनक साम्य है। गुरूजी की एक किताब है ‘वी एंड आवर नेशनहुड डिफाइंड’ जिसका चतुर्थ संस्करण 1947 में प्रकाशित हुआ था। गुरूजी एक जगह कहते है, ‘हिन्दुस्तान के सभी गैर हिन्दु लोगों को हिन्दु संस्कृति और भाषा अपनानी होगी, हिन्दु धर्म का आदर करना और हिन्दु जाति और संस्कृति के गौरव- गान के अलावा कोई और विचार अपने मन में नही लाना होगा। एक वाक्य में कहें तो वे विदेशी हो कर रहना छोडे नही तो उन्हें हिन्दु राष्ट्र के अधीन होकर ही यहां रहने की अनुमति मिलेगी- विशेष सुलुक की तो बात ही अलग, उन्हें कोई लाभ नही मिलेगा, उनके कोई विशेषाधिकार नही होगें- यहां तक की नागरिक अधिकार भी नही।’ तो गुरूजी करोडों हिन्दुस्तानियों को गैर-नागरिक के रूप में देखना चाहते थे। उनके नागरिकता के सारे अधिकार छीन लेना चाहते थे। और यह कोई उनके नए विचार नही है। जब हम लोग कालेज में पढते थे, उस समय से आर एस एस वाले हिटलर के आदर्शों पर ले चलना चाहते थे। उनका मत था कि हिटलर ने यहूदियों की जो हालत की थी, वही हालत यहां मुसलमानों और इसाइयों की करनी चाहिए।

नाजी पार्टी के विचारों के प्रति गुरूजी की कितनी हमदर्दी है, यह उनकी ‘वी’ नामक पुस्तिका के पृष्ठ 42 से, मैं जो उदाहरण दे रहा हूँ, उससे स्पष्ट हो जाएगा - ‘जर्मनी ने जाति और संस्कृति की विशुद्धता बनाये रखने के लिए सेमेटिक यहूदियों की जाति का सफाया कर पूरी दुनिया को स्तंभित कर दिया था। इससे जातीय गौरव के चरम रूप की झांकी मिलती है। जर्मनी ने यह भी दिखला दिया कि जड़ से ही जिन जातियों और संस्कृतियों में अंतर होता है उनका एक संयुक्त घर के रूप में विलय असंभव है। हिन्दुस्तान में सीखने और बहस करने के लिए यह एक सबक है।

आप यह कह सकते है कि वह एक पुरानी किताब है - जब भारत आजाद हो रहा था उस समय की किताब है। लेकिन इनकी दूसरी किताब है ‘ए बंच ऑफ थॉट्स’। में उदाहरण दे रहा हूँ उसके ‘लोकप्रिय संस्करण’ से, जो नवंबर 1966 में प्रकाशित हुआ। इसमें गुरूजी ने आंतरिक खतरों की चर्चा की है और तीन आंतरिक खतरे बताये हैं। एक हैं मुसलमान, दूसरे हैं ईसाई और तीसरे हैं कम्युनिस्ट। सभी मुसलमान, सभी ईसाई और सभी कम्युनिस्ट भारत के लिए खतरा हैं, यह राय है गुरूजी की। इस तरह की इनकी विचारधारा है।

गुरूजी के साथ, मतलब आर एस एस के साथ, हमारा दूसरा मतभेद यह है कि गोलवलकर जी और आर एस एस वर्ण व्यवस्था के समर्थक है और मेरे जैसे समाजवादी वर्ण-व्यवस्था के सबसे बडे दुश्मन है। मैं अपने को ब्राह्मणवाद और वर्ण व्यवस्था का सबसे बडा शत्रु मानता हूँ। मेरी यह निश्चित मान्यता है कि जब तक वर्ण-व्यवस्था और उसके ऊपर आधारित विषमताओं का नाश नहीं होगा, तब तक भारत में आर्थिक और सामाजिक समानता नही बन सकती है। लेकिन गुरूजी कहते है कि ‘हमारे समाज की दूसरी विश्ष्टिता थी वर्ण-व्यवस्था, जिसे आज जातिप्रथा कह कर उपहास किया जाता है। आगे वे कहते है कि ‘समाज की कल्पना सर्वशक्तिमान ईश्वर की चतुरंग अभिव्यक्ति के रूप में की गयी थी, जिसकी पूजा सभी को अपने अपने ढंग से और अपनी अपनी योग्यता के अनुसार करनी चाहिए। ब्राह्मण को इसलिए महान माना जाता था, क्योकि वह ज्ञान-दान करता था। क्षत्रिय भी उतना ही महान माना जाता था, क्योंकि वह शत्रुओं का संहार करता था। वैश्य भी कम महत्वपूर्ण नही था, क्योंकि वह कृषि और वाणिज्य के द्वारा समाज की आवश्यकताएं पूरी करता था और शुद्र भी, जो अपने कला-कौशल से समाज की सेवा करता था। इसमें बडी चालाकी से शूद्रों के बारे में कहा गया है कि वे अपने हुनर और कागरी के द्वारा समाज की सेवा करते है। लेकिन इस किताब में चाणक्य के जिस अर्थशास्त्र की गुरूजी ने तारीफ की है, उसमें यह लिखा है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की सेवा करना शुद्रों का सहज धर्म है। इसकी जगह पर गुरूजी ने चालाकी से जोड़ दिया- समाज की सेवा।

हमारे मतभेद का चैथा बिंदु है भाषा। हम लोग लोक भाषा के पक्ष में है। सारी लोकभाषाएं भारतीय है। लेकिन गुरूजी की क्या राय है गुरूजी की यह राय है कि बीच में सुविधा के लिए हिंदी को स्वीकारा, लेकिन अंतिम लक्ष्य यह है कि राष्ट्र की भाषा संस्कृत हो। ‘बंच आफ थॉट्स’ में उन्होने कहा है, ‘संपर्क भाषा की समस्या के समाधान के रूप में जब तक संस्कृत स्थापित नही हो जाती, तब तक सुविधा के लिए हमें हिन्दी को प्राथमिकता देनी होगी।’ सुविधा के लिए हिन्दी, लेकिन अंत में वे संपर्क-भाषा चाहते है संस्कृत।

हमारे लिए यह शुरू से मतभेद का विषय रहा। महात्मा गांधी की तरह, लोकमान्य तिलक की तरह हम लोग लोक भाषाओं के समर्धक रहे। हम किसी के उपर भी हिन्दी लादना नही चाहते। लेकिन हम चाहते है कि तमिलनाडु में तमिल चले, आंध्र में तेलुगु चले, महाराष्ट्र में मराठी चले, पश्चिम बंगाल में बंगला भाषा चले। अगर गैर-हिन्दी भाषी राज्य अंगरेजी का इस्तेमाल करना चाहते है तो वे करें। हमारा उनके साथ कोई मतभेद नही। लेकिन संस्कृत इने-गिने लोगों की भाषा है, एक विशिष्ट वर्ग की भाषा है। संस्कृत को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा देने का मतलब है देश में मुट्ठी भर लोगों का वर्चस्व, जो हम नहीं चाहते।

पांचवी बात, राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में संघराज्य की कल्पना को स्वीकार किया गया था। संघराज्य में केन्द्र के जिम्मे निश्चित विषय होंगे, उनके अलावा जो विषय होंगे, वह राज्यों के अंर्तगत होगे। लेकिन मुल्क के विभाजन के बाद राष्ट्रीय नेता चाहते थे कि केन्द्र को मजबूत बनाया जाये, इसलिए संविधान में एक समवर्ती सूची बनायी गयी। इस समबर्ती सूची में बहुत सारे अधिकार केन्द्र और राज्य दोनों को दिये गये और जो वशिष्ट अधिकार है वह पहले तो राज्य को मिलनेवाले थे, लेकिन केन्द्र को मजबूत करने के लिए केन्द्र को दे दिये गये। बहरहाल, संद्यराज्य बन गया। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आध्यात्मिक गुरू गोलवलकर - इन्होने हमेशा भारतीय संविधान के इस आधारभूत तत्व का विरोध किया।

ये लोग ‘ए यूनियन ऑफ स्टेट्स ’ संघराज्य की जो कल्पना है, उसकी खिल्ली उडाते है और कहते है कि हिन्दुस्तान में यह जो संघराज्यवाला संविधान है, उसको खत्म कर देना चाहिए। गुरूजी ‘बंच आॅफ थाट्स’ में कहते है, ‘संविधान का पुनरीक्षण होना चाहिए और इसका पुनः लेखन कर शासन की एकात्मक प्रणाली स्थापित की जानी चाहिए।’ गुरूजी एकात्मक प्रणाली यानी केन्द्रनुगामी शासन चाहते है। वे यह कहते है कि ये जो राज्य वगैरह है, यह सब खत्म होने चाहिए। इनकी कल्पना है कि एक देश, एक राज्य, एक विधायिका और एक कार्यपालिका। यानी राज्यों के विधानमंडल, राज्यों के मंत्रिमंडल सब समाप्त। यानी ये लोग डंडें के बल पर अपनी राजनीति चलायेंगे। अगर डंडा इनके हाथ में आ गया राजदंड, तो केन्द्रनुगामी शासन स्थापित करके छोडेंगे। इसके अलावा स्वतंत्रता आंदोलन का राष्ट्रीय झंडा था तिरंगा। तिरंगे झंडे की इज्जत के लिए, शान के लिए सैकडों लोगों ने बलिदान दिया, हजारों लोगों ने लाठियाँ खायीं। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कभी भी तिरंगे झंडे को राष्ट्रीय ध्वज नही मानता। वह तो भगवा ध्वज को ही मानता था और कहता था, भगवा ध्वज हिन्दु राष्ट्र का प्राचीन झंडा है। हमारा वही आदर्श है, हमारा वही प्रतीक है।

जिस तरह संघराज्य की कल्पना को गुरूजी अस्वीकार करते थे, उसी तरह लोकतंत्र में भी उनका विश्वास नहीं था। लोकतंत्र की कल्पना पश्चिम से आयात की हुई कल्पना है और पश्चिम का संसदीय लोकतंत्र भारतीय विचार और संस्कृति के अनुकूल नही है, ऐसी उनकी धारणा है। जहां तक समाजवाद का सवाल है, उसको तो वे सर्वथा परायी चीज मानते थे और कहते थे कि यह जितने ‘इज़्म’ हैं यानी डेमोक्रेसी हो या समाजवाद, यह सब विदेशी है और इनका त्याग करके हमको भारतीय संस्कृति के आधार पर समाज रचना करनी चाहिए। जहां तक हमारे जैसे लोगों को सवाल है हम लोग तो संसदीय लोकतंत्र में विश्वास रखते है, समाजवाद में विश्वास रखते है और यह भी चाहते है कि शांतिपूर्ण ढंग से और महात्मा जी के सृजनात्मक सिद्धांत को अपना कर हम लोकतंत्र की प्रतिष्ठापना करें, सामाजिक संगठन करें और समाजवाद लायें।

जब कांग्रेस के एकतंत्रीय शासन के खिलाफ हमारी लडाई चल रही थी, तो हमारे नेता डॉ. राममनोहर लोहिया कहते थे कि जिस कांग्रेस ने चीन के हाथ भारत को अपमानित करवाया, उस कांग्रेस को हटाने के लिए और देश को बचाने के लिए हमको विपक्ष के सभी राजनीतिक दलों के साथ तालमेल बैठाना चाहिए। इस विषय पर डाक्टर साहब से मेरी बहुत चर्चा होती थी। दो साल तक बहस चली। आखिर तक मै यह कहता रहा कि आर एस एस और जनसंघ के साथ हमारा तालमेल नही बैठेगा। अंत में डाक्टर साहब ने कहा कि मेरे नेतृत्व को तुम मानते हो या नही? मैने कहा - हाँ, मैं मानता हूँ। वे बोले, क्या यह जरूरी है कि सभी प्रश्नों पर तुम्हारी और मेरी राय मिले या सभी प्रश्नों पर मैं तुमको सहमत करू। एक-आध प्रश्न ऐसा भी रहे जो हम दोनो के बीच मतभेद का विषय हो। और मै तो इस तरह का तालमेल चाहता हंू एक बडे दुश्मन को हराने के लिए, तो इस मामले मे तुम मान जाओ, इसको ‘ट्रायल’ दे दो। हो सकता है मेरी बात सही निकले, यह भी हो सकता है तुम्हारी बात सही निकले। लेकिन मेरी यह मान्यता रही है कि अंत में आर एस एस और डॉ. राममनोहर लोहिया की विचारधारा में संघर्ष हो कर रहेगा।

जब इंदिरा गांधी ने हमारे उपर इमरजेंसी लादी या वह तानाशाही की ओर बढ़ने लगी, संजय को आगे बढ़ाने लगी, मारूती कांड हुआ तो यह बात सही है कि इमरजेंसी के खिलाफ लडने के लिए लोगों ने इन लोगों के साथ तालमेल बिठाया। लोकनायक जयप्रकाश जी कहते थे कि एक पार्टी बनाये बिना हम लोग इंदिरा को और तानाशाही को नही हटा सकते। चैधरी चरण सिंह की भी यही राय थी कि एक पार्टी बने।

हम लोग जब जेल मे थे, यह पूछा गया था कि एक पार्टी बनाने के बारे में और चुनाव लड़ने के बारे में आपकी क्या राय है। मुझे याद है कि मैने यह संदेश जेल में भेजा था कि मेरी राय में चुनाव लड़ना चाहिए। चुनाव में करोड़ों लोग हिस्सा लेंगे। चुनाव एक गतिशील चीज“ है। चुनाव अभियान जब जोर पर आएगा, तो इमरजेंसी के जितने बंधन है वह सब टूट जाऐंगे और लोग अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल करेंगे। इसीलिए मेरी राय थी कि चुनाव लड़ना चाहिए। अब चूंकि लोकनायक जयप्रकाश नारायण और सभी लोगों की यह राय थी कि एक पार्टी बनाए बिना हम लोगों को सफलता नही मिलेगी, तो हम लोगों ने भी इसके लिए मान्यता दे दी थी। लेकिन में कहना चाहता हुँ कि यह जो समझौता हुआ था, वह दलों के बीच में हुआ था - जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी, संगठन कांग्रेस, भालोद और कुछ विद्रोही कांग्रेसी। आर एस एस के साथ ना हमारा कोई करार हुआ न आर एस एस की कोई शर्त मानी गई। बल्कि जेलों मे हमारे बीच मनु भाई पटेल का एक परिपत्र प्रसारित किया गया था, उससे तो हम यह पता चला कि चैधरी चरण सिंह ने 7 जुलाई 1976 को आर एस एस की सदस्यता और जो नयी पार्टी बनेगी उसकी सदस्यता इन दोनो में मेल होगा या टकराव, इसकी चर्चा उठायी थी। जनसंघ के उस समय के कार्यकारी महासचिव ओमप्रकाश त्यागी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि नयी पार्टी जो शर्त लगाना चाहे लगा सकती है। फिलहाल आर एस एस के ऊपर तो पाबंदी है, आर एस एस को भंग किया जा चुका है, इसलिए आर एस एस का तो सवाल ही नही उठता।

बाद में जब हम लोग पार्टी का नया संविधान बना रहे थे, तो हमारी संविधान उपसमिति ने एक सिफारिश की थी कि ऐसे किसी संगठन के सदस्यों को, जिसके उद्देश्य, नीतियों और कार्यक्रम जनता पार्टी के उद्देश्य नीतियों और कार्यक्रम से मेल नही खाते, पार्टी का सदस्य नही बनने देना चाहिए। इसका विरोध करने की किसी को भी कोई आवश्यकता नहीं थी, यह तो एक बिलकुल सामान्य बात थी। लेकिन यह विचारणीय बात है कि अकेले सुंदरसिंह भंडारी ने इसका विरोध किया। बाकी सभी सदस्यों ने - इनमें रामकृष्ण हेगडे भी थे, श्रीमती मृणाल गोरे थी, श्री बहुगुणा थे, श्री वीरेन शाह थे और मै स्वयं था - मिल कर एक राय से यह प्रस्ताव लिया था कि हम सुंदरसिंह भंडारी का विररोध करेंगे। 1976 के दिसंबर महीने में इस पर विचार करने के लिए जब बैठक हुई, तो अटल जी ने जनसंघ और आर एस एस की ओर से एक पत्र लिखा था राष्ट्रीय समिति को, जिसमें उन्होने यह चर्चा की थी कि कुछ नेताओं में इस पर आपसी रजामंदी थी कि आर एस एस का सवाल नही उठाया जा सकता। लेकिन कई नेताओं ने मुझे बताया कि इस तरह कि कोई रजामंदी नहीं थी और इस तरह का कोई वचन नही दिया गया था, क्योंकि उस समय तो आर एस एस सामने था ही नहीं। मैं यह कहना चाहता हूँ कि मैं उस वक्त जेल में था और अगर ऐसा कोई गुप्त करार था भी, तो मैं उसका भागीदार नहीं हुँ।

जनता पार्टी का जो चुनाव घोषणापत्र बना, मै बिलकुल सफाई के साथ कहना चाहता हुँ, उस पर आर एस एस की विचारधारा का जरा भी असर नही था, बल्कि एक-एक मुद्दे को सफाई के साथ स्पष्ट किया गया था। क्या यह बात सही नहीं है कि जनता पार्टी का चुनाव घोषणापत्र धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और गांधीवादी मूल्यों पर आधारित समाजवादी समाज की चर्चा करता है - उसमें हिन्दु राष्ट्र का कहीं कोई उल्लेख नही। अल्पसंख्यकों के अधिकारों की- समान अधिकार की चर्चा और यह भी कहा गया है कि उनके अधिकारों की पुरी रक्षा की जायेगी और गुरूजी तो कहते है कि जो अल्पसंख्यक लोग हैं उनको नागरिकता के भी अधिकार नही रहने चाहिए। उनको हिन्दु राष्ट्र के बिलकुल अधीन होकर रहना पडेगा। जनता पार्टी ने विकेद्रीकरण की बात और गुरूजी तो धोर केन्द्रीकरणवादी थे। वे तो राज्यों को ही समाप्त करना चाहते राज्य विधान मंडलों को ही समाप्त करना चाहते राज्य के मंत्रिमंडलों को समाप्त करना चाहते लेकिन जनता पार्टी ने तो विकेंद्रीकरण की चर्चा की। यानी राज्यों की स्वायत्ता पर जनता पार्टी आक्रमण नहीं करना चाहती। समाजवाद की चर्चा की गयी, समाजिक न्याय की चर्चा की गयी, समानता की चर्चा की गयी। क्या जनता पार्टी ने अपने चुनाव घोषणापत्र मै यह कहा था कि वर्णव्यवस्था रहेगी और शुद्रों को दूसरों की सेवा में ही अपना जीवन बिताना चाहिए ? जनता पार्टी ने तो यह कहा था कि पिछडों को हम लोग पूरा मौका देंगे, इतना ही नही, विशेष अवसर देंगे और यह कहा था कि उनके लिए सरकारी सेवाओं में 25 से 33 प्रतिशत तक आरक्षण किया जायेगा।

हां, यह बात सही है कि आर एस एस के लोगों ने दिल से इस चुनाव घोषणापत्र को नहीं स्वीकारा। मेरी यह शिकायत रही और कुशाभाऊ ठाकरे को एक पत्र में मैने कहा भी था कि मेरी तरफ से शिकायत यह है कि चर्चा के दौरान आप बहुत जल्दी चीजों को मान जाते है लेकिन दिल से नहीं मानते। इसलिए आपके बारे में शक पैदा होता है। यह मैने उनको बहुत पहले कहा था, और मेरे मन मैं आर एस एस के बारे में शुरू से संदेह रहे। डॉक्टर साहब के जमाने से रहे। लेकिन इसके बावजूद तानाशाही के खिलाफ लड़ने के लिए हम लोगों ने जरूर उनसे तालमेल किया। लोकनायक जयप्रकाश जी की यह इच्छा थी कि एक पार्टी बने, तो चूँकि चुनाव घोषणापत्र में किसी तरह का समझौता नही किया गया था, इसलिए हमने इस बात को स्वीकार कर लिया। लेकिन साथ-ही-साथ मैं कहना चाहता हूँ कि मै शुरू से इसके बारे में बिलकुल स्पष्ट था अपने मन में कि अगर जनता पार्टी को एकरस होकर, एक सुसंबद्घ पार्टी के रूप में काम करना है, तो दो काम अवश्य करने पडेंगे। नंबर एक, आर एस एस वालों को अपनी विचारधारा बदलनी पडेगी और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की कल्पना को स्वीकारना पडेगा। नंबर दो, आर एस एस के परिवार के जो संगठन हैं- जैसे भारतीय मजदूर संघ, विद्यार्थी परिषद, इन संगठनों को अपना अलग अस्तित्व समाप्त करना पडेगा और जनता पार्टी के समानधर्मी संगठनो के साथ अपने को विलीन करना पडेगा। इसके बारे में मै शुरू से ही स्पष्ट था और चंुकि मुझे जनता पार्टी के मजदूर और युवा संगठनों की देख-रेख का भार दिया गया था,मैने यह लगातार कोशिश की कि विद्यार्थी परिषद अपने अस्तित्व को मिटाये, भारतीय मजदूर संघ अपने अस्तित्व को मिटाये।

लेकिन ये लोग अपनी स्वायत्ता की चर्चा करने लगे। वस्तुतः ये लोग हमेशा नागपूर के आदेश से चलते है, एक चालकानुवर्तित्व का सिद्ध्ांत मानते है। मैं गुरूजी का ही उदाहरण देता हूँ। गुरूजी ने यह कहा कि हम लोग इस तरह का मन बनाते हैं कि वह बिलकुल अनुशासित होता है और जो हम लोग कहेंगे वही सब लोग मानते हैं। इनके संगठन का एक ही सूत्र है - एकचालकानुवर्तित्व। ये लोकतंत्र को नहीं मानते। बहस में भी इनका विश्वास नही। इनकी कोई आर्थिक नीति नहीं है। उदाहरण के लिए गुरूजी ने अपने ‘बंच आफॅ थॉट्स’ में इस बात पर खेद प्रकट किया है कि जमीदारी प्रथा का उन्मूलन किया गया है। जमींदार के खत्म होने पर गुरूजी को बडी तकलीफ है, बडी पीड़ा है। लेकिन गरीबों के लिए उनके मन में दर्द नही है।

मैंने आर एस एस वालों से कहा कि आपको हिन्दु संगठन की कल्पना छोड़ कर सभी धर्मों के और सभी संप्रदायों के लोगों को अपनी संस्था में स्थान देना पडेगा। आपके जो वर्ग-संगठन हैं, उनको जनता पार्टी के दूसरे वर्ग। संगठन के साथ मिला देना पडेगा। तो उन लोगों ने कहा कि यह इतना जल्दी कैसे होगा। बड़ी दिक्कतें है, लेकिन हम धीरे-धीरे बदलना चाहते है। वे इस तरह की गोलमोल बातें करते रहते थे। उनके आचरण को देखकर में इस नतीजे पर पहुंचा कि उसको बदलना है नही। खासकर 1977 के जून के विधानसभा चुनावों के बाद जब उनके हाथ में चार राज्यों और एक केन्द्र शासित प्रदेश का शासन आ गया तथा उत्तर प्रदेश और बिहार में उनको बहुत बडी हिस्सेदारी मिल गयी, तो इसके बाद वे सोचने लगे कि अब हमको बदलने की क्या जरूरत है। हम लोगों ने चार राज्यों को फतह कर लिया है, धीरे-धीरे अन्य राज्यों को करेंगे, फिर केन्द्र भी हमारे हाथ में आयेगा। बाकी जो नेता है वे बुड्ढें नेता है, आज नही तो कल मर जायेंगे और किसी नेता नये को हम बनने नही देंगे। इसलिए आपने देखा होगा ‘आर्गनाइजर’, पांचजन्य आदि सभी अखबारों में जनता पार्टी के किसी भी नेता को उन्होने नही बख्शा। मेरे उपर तो उनका विशेष अनुग्रह रहा है, विशेष कृपा रही है। मुझे गाली देने में अपने अखबारों का जितना स्थान उन्होने खर्च किया उतना तो शायद इंदिरा गांधी को भी गाली देने के लिए नही किया होगा।

एक अरसे तक इनलोगों से मेरी बातचीत होती रही। एक दफा तो मुझे याद है मेरे घर में, बंबई में बाला साहब देवरस आये। फिर उसके बाद 71 के चुनाव के बाद एक दफा मै उनसे मिला। इमर्जेन्सी के पहले एक दफा माधवराव मुले से मेरी बातचीत हुई। चैथी बार माधवराव मुले और बाला साहब देवरस से मई 1977 में मेरी बात हुई थी। तो ऐसा कोई नहीं कह सकता कि मैंने उनसे चर्चा नहीं की थी, लेकिन मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि उनके दिमाग का जो किवाड है, वह बंद है और उसमें कोई नया विचार पनप नहीं सकता। बल्कि आर एस एस की यह विशेषता रही है कि वह बचपन में ही लोगों को एक खास दिशा में मोड़ देते हैं। पहला काम वह यही करते हैं कि बच्चो की, युवको की विचारप्रक्रिया को ‘फ्रीज़’ कर देते है-जड़ बना देते है। उसके बाद कोई नया विचार वे ग्रहण ही नहीं कर पाते। तो कोशिश मैने की। एक बार मैंने ट्रेड युनियन कार्यकर्ताओं की बैठक बुलायी। जनता पार्टी के सभी संगठनोंं के प्रतिनिधि उसमें आये, लेकिन भारतीय मजदूर संघ ने उसका बहिष्कार किया। इतना ही नही, अकारण मुझे गालियां भी दी। विद्यार्थी परिषद और युवा मोर्चा के साथ भी विलीनीकरण की बात चलायी गयी, लेकिन वे लोग हमेशा अलग रहे, क्योंकि आर एस एस अपने को ‘सुपर पार्टी’ के रूप मे चलाना चाहता है। यह लोग जीवन के हर अंग को न केवल छुना चाहते है, बल्कि उस पर कव्जा करना चाहते हैं। जार्ज फर्नाडि़स ने उसी समय लेख लिखा ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में, उसमें उन्होने इसी विचार को ले कर दत्तोपंत ठेंगडी का एक उदाहरण दिया। लेकिन दत्तोपंत ठेंगड़ी ने कहा कि पूरे समाज में हम लोग छा जाना चाहते है, जीवन का कोई पहलू हम लोग छोडेंगे नही - सब पर कब्जा करेंगे, यह कोई नया विचार नही है ठेंगड़ी का। यह तो ‘वी’ और ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में गुरूजी ने जगह जगह पर कहा है। और कोई भी सर्वसत्तावादी संगठन जीवन के किसी भी पहलू को स्वतंत्र नही छोडना चाहता। वह कला पर छा जायेगा, संगीत पर छा जायेगा, अर्थनीति पर छा जायेगा, संस्कृति पर छा जायेगा। फासिस्ट संगठन का यही तो धर्म है।

दरअसल ये लोग हमारी जनता पार्टी पर कब्जा करना चाहते थे। ये लोग सरकारों पर कब्जा करना चाहते थे। एक साथ इन्होंने कई नेताओं को लालच दिखाया था प्रधानमंत्री बनने का। इधर ये मोरारजी भाई को भी अंत तक कहते रहे कि आप ही को रखेंगे हम लोग। ये चरण सिंह को भी बीच-बीच में कहते थे कि आप को बनायेंगे। ये जगजीवन राम को भी कहते थे कि हम आप ही को बनायेंगे। ये चंद्रशेखर को भी कहते थे। ये जार्ज फर्नाडिस को भी कहते थे। हां, उन्होने कभी मुझे यह कहने का साहस नहीं किया। एक दफा अटल जी से मैने कहा, तो उन्होंने कहा, ‘नानाजी ने ना केवल तुमको, बल्कि मुझको भी कभी नहीं कहा। न वे आपको बनाना चाहते हैं न कभी मुझको बनाना चाहते हैं। ऐसा मजाक में अटल जी ने मुझसे कहा। बहरहाल, वे मुझसे इसलिए इस तरह की बात नहीं करते थे क्योकि में न किसी की वंचना करता हूं न किसी के द्वारा वंचित होता हुँ। वे सोचते हैं इसको बेवकूफ नही बनाया जा सकता, तो इसको कहने से क्या फायदा ? यह तो और सावधान हो जाएगा।

ये लोग समय समय पर क्या कहते है, उसका कोई मूल्य नही। क्या आर एस एस के नेताओं ने कहा है कि गुरू गोलवरकर के जो विचार है, उन्हें हमने त्याग दिया? सिर्फ अटल जी कहते है कि राष्ट्रीयता, लोकतंत्र, समाजवाद,सामाजिक न्याय आदि धारणाओं को स्वीकारना चाहिए, उसके बिना अब नहीं चला जा सकता। पर यह केवल अटल जी कहते है। बाकि संधियों पर तो मेरा विश्वास ही नहीं। ये लोग जेल में माफी मांगते थे रिहाई हासिल करने के लिए, बाला साहब देवरस ने इंदिरा गांधी का अभिनंदन किया था जब वे सुप्रीम कोर्ट में राजनारायण के केस में जीतीं। तो इन लोगों के वचनों पर मेरा विश्वास नहीं है। मेरी स्पष्ट राय है कि आर एस एस के नेताओं को अगर वे पार्टी से निकाल देते, राष्ट्रीय समिति से, उनके सदस्यों पर पाबंदी लगा देते और विशेषकर नानाजी, सुंदर सिंह भंडारी एंड कंपनी को पार्टी से निकाल देते, तभी मैं विश्वास कर सकता था।

शनिवार, 1 अगस्त 2020

रजनी पाम दत्त और फासीवाद

_______________ Jagadishwar Chaturvedi


रजनी पाम दत्त 

रजनी पाम दत्त का विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन में महत्वपूर्ण स्थान है।उन्होंने लंबे समय तक स्वाधीनता आंदोलन के दौरान भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में भी अग्रणी नेता के रूप में भूमिका अदा की।वे कम्युनिस्ट आंदोलन के प्रमुख सिद्धांतकार हैं।

भारत इन दिनों नरेन्द्र मोदी और आरएसएस की राजनीति के मोह में जिस तरह बंधा है उससे मुक्त होने के लिए जरूरी है कि हम रजनी पाम दत्त के फासीवाद विरोधी नजरिए की प्रमुख धारणाओं को जानें। भारत में जिसे अधिनायकवाद,तानाशाही या साम्प्रदायिकता कहते हैं ये सब फासीवाद के ही रूप है।देशज परिस्थितियों के कारण उनके लक्षणों में कुछ भिन्नता जरूर नजर आती है,लेकिन उसकी बुनियादी प्रवृत्तियां फासीवाद से मिलती-जुलती हैं।

रजनी पाम दत्त के अनुसार ´फासीवाद खास परिस्थितियों में आधुनिक पूंजीवादी नीतियों और प्रवृत्तियों में पतन की पराकाष्ठा आने से पैदा होने वाली चीज है और यह उसी पतन की संपूर्ण और सतत अभिव्यक्ति करता है।

आमतौर पर यह धारणा रही है कि फासीवाद में तमाम किस्म की स्वतंत्रताएं स्थगित कर दी जाती हैं, संविधान प्रदत्त लोकतांत्रिक अधिकार, मौलिक अधिकार आदि को स्थगित कर दिया जाता है, भारत में हम सबने यह आपातकाल में महसूस किया है।लेकिन यह भी संभव है कि संवैधानिक संस्थाओं, मूल्यों और मान्यताओं को लोकतंत्र के रहते निष्क्रिय बना दिया जाए,जैसा कि इन दिनों भारत में हो रहा है। रजनी पाम दत्त ने फासीवादी संगठनों की भूमिका पर रोशनी डालते हुए लिखा कि अनेक देशों में फासीवाद का जन्म जनता के बीच आंदोलन खड़ा करके और जनता के वोट से सत्ता हासिल करके हुआ है। फासीवादी आंदोलनकारी आम जनता में आतंक पैदा करके ,कानून की परवाह न करने वाली गिरोहबंदियों को बनाकर, संसदीय परंपराओं की अनदेखी करके, राष्ट्रीय और सामाजिक तौर पर भड़काऊ भाषणबाजी करके,विरोधी दलों और मजदूरों के संगठनों का हिंसात्मक दमन और आतंक के राज की स्थापना करके एकाधिकारी राज्य स्थापित करने की कोशिश करते हैं।

रजनी पाम दत्त ने लिखा है ´खुद फासीवादियों की नजर में फासीवाद एक आध्यात्मिक वास्तविकता है।ये इसे एक विचारधारा और दर्शन के रूप में परिभाषित करते हैं।वे इसे ´कर्तव्य´,´आदेश´,´सत्ता´,´राज्य´,´राष्ट्र´,´इतिहास´ आदि का सिद्धांत बताते हैं।´ रजनी पाम दत्त के अनुसार ´प्रत्येक देश में फासीवाद के सभी खुले और बड़े समर्थक बुर्जुआ वर्ग के ही हैं।´यही हाल भारत का है।दत्त ने लिखा ´फासीवाद अपने शुरूआती दौर में भले ही आम लोगों का समर्थन हासिल करने के लिए पूंजीवाद विरोधी प्रचार और भाषणबाजी करे लेकिन शुरू से ही इसे जीवित रखने ,बढ़ाने और पालने-पोसने का काम बड़े बुर्जुआ तथा बड़े धनपति,सामंत और उद्योगपति ही करते हैं।

´इतना ही नहीं फासीवाद को बढ़ाने और मजदूर वर्ग के आंदोलन से बचाने में भी बुर्जुआ तानाशाही की स्पष्ट भूमिका रही है।फासीवाद सरकारी बलों, सेना के उच्चाधिकारियों,पुलिस के अफसरों,अदालतों और जजों से मदद पाता रहा है क्योंकि वे सभी मजदूर वर्ग के विरोध को कुचलना चाहते हैं जबकि फासीवादी गैरकानूनीपन को मदद करते रहते हैं।

सन् 1928 के कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के कार्यक्रम में फासीवाद की वैज्ञानिक व्याख्या अभिव्यक्त हुई है, लिखा है,´कुछ विशिष्ट ऐतिहासिक स्थितियों में बुर्जुआ,साम्राज्यवादी, प्रतिक्रियावादी आक्रामकता की प्रगति फासीवाद का रूप ले लेती है।ये स्थितियां हैः पूंजीवादी संबंधों में अस्थिरता;काफी बड़ी संख्या में वर्गच्युत सामाजिक तत्वों की मौजूदगी; शहरी पेटीबुर्जुआ समूह और बौद्धिक वर्ग का दरिद्रीकरण; ग्रामीण पेटीबुर्जुआ वर्ग में असंतोष; और सर्वहारा वर्ग द्वारा क्रांति कर देने का दवाब या डर।अपने शासन को जारी रखने और स्थिर करने के लिए बुर्जुआ वर्ग संसदीय प्रणाली को छोड़कर फासीवादी व्यवस्था की तरफ बढ़ते जाने को मजबूर होता है,जो पार्टियों वाली व्यवस्था और जोड़-तोड़ से मुक्त होती है।

फासीवादी शासन प्रत्यक्ष तानाशाही की व्यवस्था है,जिसपर ´राष्ट्रवादी´होने का मुखौटा चढ़ा होता है और खुद को ´पेशेवर´(जो शासक जमात के ही विभिन्न समूह होते हैं)वर्ग का प्रतिनिधि कहता है।पेटीबुर्जुआ वर्ग,बौद्धिकों और समाज के अन्य वर्गों की नाराजगी का लाभ उठाने के लिए यह आडंबर और विद्वेषपूर्ण भाषणबाजी (कभी जाति और नस्ल को निशाना बनाना तो कभी संसद और बड़े उद्योगपतियों की तरफ निशाना साधना)करता है तथा एक ठोस और खाती-पीती सोपानात्मक फासीवादी शासन इकाई, नौकरशाही और पार्टी इकाई के जरिए भ्रष्टाचार करता है।इसके साथ ही फासीवाद मजदूर वर्ग के सबसे पिछड़े हिस्से को तोड़कर ,उनकी नाराजगी को भुनाता है तथा सामाजिक लोकतंत्रवादियों की निष्क्रियता का लाभ भी लेता है।

फासीवाद का मुख्य उद्देश्य मजदूरवर्ग के क्रांतिकारी हरावल दस्ते,अर्थात कम्युनिस्ट हिस्सों और सर्वहारा वर्ग की अगुआ इकाईयों को नष्ट करना है।सामाजिक रूप से भड़काऊ नारों को उछालना,भ्रष्टाचार तथा दमनकारी शासन के साथ ही विदेशी राजनीति में अति-साम्राज्यवादी आक्रमण फासीवाद के खास चरित्र हैं।बुर्जुआ वर्ग के लिए खास संकट के दौरों में फासीवाद पूंजीवाद विरोधी शब्दावली का प्रयोग शुरू करता है।लेकिन जब वह शासन में जम जाता है तो उन सारी बातों को आसानी से भुला देता है और बड़ी पूंजी की आतंकवादी तानाशाही के रूप में सामने आता है।

भारत में फासीवाद पर बातें करते समय अधिकांश समय समान विचारों के लोगों में अनेकबार विचलन भी नजर आता है,वे फासीवादी संगठनों की इस या उस चीज की प्रशंसा करने लगते हैं। फासीवादी संगठन को हमेशा समग्रता में उनकी राजनीति के आईने में देखना चाहिए।इनके पीछे बड़े कारपोरेट घरानों की सक्रियता,समर्थन और आर्थिक मदद की कभी अवहेलना नहीं करनी चाहिए।मसलन् आरएसएसके पीछे सक्रिय कारपोरेट घरानों की भूमिका की अनदेखी नहीं करनी चाहिए।कारपोरेट घराने ही हैं जो साम्प्रदायिक संगठनों के गुण्डों,अपराधियों, शैतानों और स्वेच्छाचारियों का सारा खर्चा उठाते हैं। ये वे लोग हैं जो बहुत ही शांत भाव,साफ सोच और बुद्धिमानी से इस फौज का संचालन का काम कर रहे हैं।हमें इनके ऊपरी शोर-शराबे पर नहीं उनकी वास्तविक कार्यप्रणाली पर ध्यान देना चाहिए।फासीवादी राजनीति ऊपरी शोर-शराबे से समझ में नहीं आएगी।

रजनी पाम दत्त ने लिखा है ´फासीवाद वित्तीय पूंजीवाद का ही एक कार्यनीतिक जरिया है।

रविवार, 19 जुलाई 2020

कोराना वायरस: अर्थव्यवस्था और प्रतिरोधक क्षमता

डर और अपराधबोध के उपकरणों के माध्यम से जनता के साथ खेल खेलना शासकों और धर्माचार्यों का पुराना आजमाया तरीक़ा रहा है। जब यह चरम सीमा तक पहुंच जाता है तो जनता पर सबसे ज्यादा चोट की जाती है। यहां तक कि कम्युनिस्ट और खुद को शातिर समझने वाले लोग भी इस खेल में शामिल हो कर इसे अंजाम देने लगते हैं।
कोवाड गांधी
हिंदी अनुवाद : असीम सत्यदेव


इस तकनीकी विकास के युग में व्यापक जनसमुदाय के अंदर सामूहिक डर (मास हिस्टीरिया) जंगल की आग की तरह फैल जाता है, खास तौर से जब शासकों और, या धर्म के जरिए उसे प्रोत्साहित किया जाता है। गणेश दूध पीना इसका एक उदाहरण था। एक और उदाहरण स्काई लैब गिरने की ख़बर थी। 2000ई. (y2k) संकट जैसे भयग्रस्तता के कई और उदाहरण हैं। झारखंड जेल में एक आदिवासी ने मुझे बताया था कि उनके सुदूर गांव में लोगों ने 31 दिसम्बर, 2000 तक दुनिया ख़त्म हो जाने की बात पर विश्वास कर अपनी बकरियों को रोज काटना शुरू कर दिया था।
डर और अपराधबोध के उपकरणों के माध्यम से जनता के साथ खेल खेलना शासकों और धर्माचार्यों का पुराना आजमाया तरीक़ा रहा है। जब यह चरम सीमा तक पहुंच जाता है तो जनता पर सबसे ज्यादा चोट की जाती है। यहां तक कि कम्युनिस्ट और खुद को शातिर समझने वाले लोग भी इस खेल में शामिल हो कर इसे अंजाम देने लगते हैं। हम आपस में भावनात्मक तरीके से एक-दूसरे पर प्रहार करते हैं और हमारे अपराधबोध की भावना और डर से लाभ उठाया जाता है।

जब हम अपने तरह- तरह के डर पर नजर डालते हैं तो देखते हैं कि बहुत सारे डर हमें घेरे रहते हैं-- अस्वीकार किए जाने, असफल होने, बीमारी इत्यादि का डर और सबसे ज्यादा मौत का डर जो मौजूदा कोराना बीमारी के कारण हमारे अंदर समा गया है। यह सच है कि यह वायरस उच्च स्तर का संक्रामक है जो किसी वस्तु पर और मानव शरीर से बाहर 3-4 घंटे तक जीवित रहने की क्षमता रखता है। इसलिए यह जंगल की आग की तरह फैल सकता है। किन्तु इसकी मृत्यु दर सामान्य इनफ्लुएंजा से ज्यादा की नहीं है। इसके ज्यादातर शिकार वृद्ध और पहले से बीमार लोग हो रहे हैं। मृत्युदर अनुमानतः 3% से 0.5% तक है। लेकिन सरकारी प्रचार तंत्र और मीडिया ने इसे भयानक जानलेवा वायरस घोषित कर दिया है। इसलिए चारों तरफ भय व्याप्त हो गया है। मौत का डर, अपनों के खोने का डर, अनजाना डर।।। और इस भय ने रोजगार का खात्मा, कारोबार की हानि, बचत का नुक़सान और असुविधाओं को पैदा किया है। जिसने आने वाले दिनों में भुखमरी से मौत की आशंका को बढ़ाया और हमारी जीने की क्षमता को घटाया है।

दरअसल समूची विश्व अर्थवयवस्था पहले से ही गम्भीर संकट में चल रही है। जैसा कि हाल ही में मानस चक्रवर्ती ने कहा है कि - पिछले हफ़्ते इक्विटी ही नहीं बल्कि बॉन्ड व माल, यहां तक की सोने के भाव में भारी गिरावट आ गई है। यह गिरावट इतनी ज्यादा थी कि सिर्फ नकदी ही सुरक्षित है। वह भी सिर्फ अमरीकी डालर ही मुख्य रूप से सुरक्षित स्वर्ग हो गया है। जिसकी मांग बढ़ती गई है। अमरीका, यूरोप और अन्य विकसित अर्थवयवस्थाओं में ब्याजदर जीरो की तरफ लुढ़कता जा रहा। इस स्थिति में खरीददार के लिए सुरक्षित आखिरी रास्ता सिर्फ खरीदना ही होता है। सरकारों ने कारोबार उपभोक्ताओं को इस बढ़ते संकट से उबारने लिए दसियों खरब डॉलर खर्च करना मंजूर कर लिया है। (भारत में अभी ऐसी स्थिति नहीं आयी है।) 

लेकिन यहां वायरस के फैलाव को रोकने के एक मात्र उपाय के रूप में सामाजिक मेल-मिलाप को रोकने के लिए बड़े पैमाने पर अर्थव्यवस्था को ठप कर दिया गया है। स्पेन, इटली और फिर दुनिया कि पांचवीं बड़ी अर्थवयवस्था कैल्फोर्निया को ठप्प कर दिया गया है। इससे विश्व अर्थव्यवस्था को बड़ा धक्का लगना ही है।

फार्चून के अनुसार दूसरी तिमाही में ज्यादातर देशों की जीडीपी दर भयानक रूप से (-8%) से (-15%) तक गिर गई है। गोल्डमेन सैच ने इसे और कम होने की बात (पानी सर से ऊपर जाने) कही है।

बैंक ने आज शोध नोट जारी किया है। जिसके अनुसार "अमरीकी अर्थव्यवस्था के अचानक ठप्प" हो जाने के कारण 2020 की दूसरी चौथाई में जीडीपी में 24% गिरावट की आशंका है।

पूरी दुनिया की सरकारों द्वारा जिस पैमाने पर लाकडाउन किया गया है, उससे अर्थवयवस्थाओं में सुधार की कोई उम्मीद नहीं बची है। पिछले छह महीने से चले आ रहे आर्थिक संकट के लिए, जिसका कोराना से कुछ लेना देना नहीं है, यह एक बहाना हो गया है। 1929 की महामंदी के लिए पूंजीवादी व्यवस्था को जिम्मेदार ठहराया गया था। परंतु मौजूदा संकट के लिए जिम्मेदारी को बकायदा व्यवस्थागत समस्या को वायरस समस्या की ओर इसे मोड़ दिया गया है। 

बहरहाल विश्व आज दो मुख्य समस्याओं का सामना कर रहा है। कोई नहीं कह सकता कि इनमें कौन ज्यादा जानलेवा है। पहली समस्या कोराना वायरस की है और दूसरी समस्या अर्थव्यवस्था की है। पहली समस्या दुनिया भर में फैल कर मौत का तांडव मचा सकती है। तो दूसरी से पूरी दुनिया को भुखमरी और बीमारी कि सबसे बुरी हालत में ला सकती है। पहली से हम अपनी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा कर लड़ने की सोच सकतें हैं। लेकिन दूसरी पर हमारा नियंत्रण नहीं है।

प्रतिरोधक क्षमता का मनोविज्ञान

विज्ञान ने प्रतिरोधक क्षमता पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव (प्लसबो थ्योरी) को मान लिया है। इसके अनुसार मानव के दिमाग मे वह क्षमता होती है कि वह अपने शरीर को बीमारी से उबार ले। यदि उसे किसी दवा या उपचार पर भरोसा हो जाए, भले ही उसमे औषधीय गुण नहीं हो और वह चीनी की गोली मात्र हो। मेडिकल के विद्यार्थी अध्ययन में यह पाते हैं कि बहुत सी बीमारियों में से एक तिहाई का उपचार मनोवैज्ञानिक असर के चमत्कार से हो जाता है। बीमारियों के इलाज में मनोवैज्ञानिक प्रभाव अब सर्वमान्य हो चुका है। कोराना वायरस जैसी बीमारी जिसकी कोई दवा नहीं है से लड़ने में हमारी मजबूत प्रतिरोधक क्षमता केंद्रीय भूमिका निभा सकती है।

विज्ञान का नया क्षेत्र न्यूरोइम्युनोलॉजी है। जिसे आम भाषा में ऐसे कह सकतें हैं कि मस्तिष्क द्वारा स्नायु तंत्र पर नियंत्रण के जरिए प्रतिरोधक क्षमता मजबूत की का सकती है। यह सुस्वीकृत तथ्य है कि तनाव बढ़ाने वाला हार्मोन (कोर्टिसोल) हमारी प्रतिरोधक क्षमता को कम कर देता है। इससे हम वायरस या बैक्टीरिया से लड़ाई में कमजोर पड़ जाते हैं। दूसरी तरफ़ सकारात्मक नजरिया और प्रसन्नता वाले हार्मोन(एंडोर्फिन, डोपामाइन, सेरोटोनिन) हमारी प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करते हैं। अतः वायरस का डर और भयानक वातावरण का फैलना उससे लड़ने में हमारी प्रतिरोधक शक्ति को कमजोर कर सकता है।

अब यह भलीभांति मान लिया गया है कि आत्मविश्वास के बजाय डर के माहौल में गम्भीर बीमारी से लड़ने की क्षमता घट जाती है। कोराना जैसी बीमारी की कोई दवा नहीं है। प्रतिरोधक क्षमता मजबूत करके ही इसका सामना किया जा सकता है। इसलिए प्रतिरोधक क्षमता की कमजोरी को रोकने की प्राथमिकता महत्वपूर्ण है। जो भी पद्धति अपनायी जाय वह तार्किक व प्रभावी होनी चाहिए। और हर तरीके से बीमारी का तार्किक मूल्यांकन कर डर व भयग्रस्तता के प्रचार का प्रभावी तरके से काट करनी चाहिए। भारतवासियों की गरीबी के कारण पहले से कमजोर प्रतिरोधक क्षमता को उनके आत्मविश्वास को बढ़ाकर मजबूत करने की जरूरत है। कम से कम भय का आतंक फैलाना बन्द करके उनमें वायरस के संक्रमण को मजबूत होने से बचाएं।

लगभग 70 वर्षीय कोबाड गांधी, सीपीआई माओवादी के पोलित ब्यूरो सदस्य रहे हैं। कुछ ही समय पहले वे 8 साल जेल में रहने के बाद जमानत पर बाहर आए हैं।इस समय वे कैंसर समेत कई रोगों से लड़ रहे हैं। उपरोक्त लेख उन्होंने मूलतः अंग्रेज़ी में लिखा है। ब्लॉग ‘दस्तक नए समय की’ से साभार

बुधवार, 3 जून 2020

बाबूजी की साइकिल

बाबूजी पंचायत समिति में स्कूल इंस्पेक्टर हुए तो उन्हें गाँवों के स्कूलों का निरीक्षण करने जाना पड़ता था। वहाँ जाने के लिए साइकिल, मोटर साइकिल और जीप ही साधन थे। सरकार ने तो कुछ उपलब्ध नहीं करा रखा था। बस भत्ता दे दिया करती थी। बाबूजी ने तब तक खुद कभी साइकिल तक नहीं चलाई थी। पैदल चलने के अभ्यासी थे। साइकिल उन्हें लक्जरी नजर आती थी। पच्चीस-तीस किलोमीटर जा कर काम कर के लौट आना उन के लिए साधारण बात थी। कई अध्यापक अपने गाँवों से दूर 10 से 30 किलोमीटर तक के स्कूलों में रोज आते जाते थे और उन्हों ने साइकिलें ले रखी थीं। ऐसे में इन्स्पेक्टर निरीक्षण करने पैदल पहुँचता तो कई संकट खड़े हो जाते। एक तो निकलते ही अध्यापकों को खबर हो जाती कि आज इंस्पेक्टर साहब किधर निरीक्षण करने वाले हैं और पहले ही सतर्क हो जातेनिरीक्षण का मतलब ही न रह जाता। रास्ते में हर कोई उन्हें अपनी साइकिल के कैरियर पर बिठा कर ले जाने की पेशकश करता। फिर लोग भी मजाक करते कि कैसे इंस्पेक्टर हैं साइकिल तक नहीं रखते, कम से कम मोटर साइकिल तो होनी चाहिए। पंचायत समिति के स्टाफ ने कम से कम साइकिल जरूर खरीद लेने की सलाह दी। उन्हें चलाना नहीं आता था। किसी सहकर्मी ने उन्हें चलाना सिखा दिया। नहीं सिखा पाया तो पैडल मार कर खुद से साइकिल पर चढ़ना नहीं सिखा पाया। वे खुद भी आजीवन यह तकनीक नहीं सीख पाए। उन्हों ने जब तक साइकिल चलाई तब तक किसी ऊँची जगह पर से साइकिल की सीट पर चढ़ कर साइकिल चलाते रहे। जब तक साइकिल पर चढ़ने लायक ऊँचा पत्थर आदि नहीं मिलता वे उसे साथ ले कर पैदल चलते रहते।

जब ये वाली साइकिल घर में आयी तब मैं नवीं कक्षा में पढ़ रहा था, उम्र बारह की हो चुकी थी। दूसरे साथी किराए की साइकिल ला कर चलाना सीख चुके थे। वे किराए पर घण्टे दो घण्टे के लिए साइकिल लाते और कैंची चलाते रहते। हम बड़ी हसरत से उन्हें देखते रहते। बाबूजी से तो कभी कहने की हिम्मत भी न पड़ती कि उन से किराए पर साइकिल लाने को पूछ लें। दाज्जी का मैं बहुत लाड़ का था। उन्हें डर लगता कि कहीं गिर गया या किसी और ने गिरा दिया या किसी बड़े वाहन ने टक्कर मार दी तो मुझे चोट लग जाएगी। उन्हों ने भी कभी अनुमति नहीं दी। उन दोनों की अथॉरिटी के बिना अम्माँ तो कभी इजाजत देने से रही। तो इस तरह साइकिल चलाने की विद्या के मामले में मैं भी कोरा था। बस एक ही हसरत थी कि कभी तो घर में साइकिल आएगी, तभी सीखेंगे और चलाएंगे। किराए की साइकिल ले कर सीखना और चलाना भी कोई चलाना है।

अब साइकिल घर में आ ही गयी थी तो मैं उसकी सेवा में लग गया। बाबूजी को ले जाने के लिए रोज उसे झाड़ पोंछ कर टनाटन रखता। घर हमारा सड़क से ऊंचा था। सीढ़ियों से आना जाना पड़ता था। रोज सुबह साइकिल को घर से उठा कर सड़क तक रखने और शाम हो जाने पर सड़क से उठा कर वापस घर में रखने का काम भी मैं ही करता। कभी उसे चलाने की हिम्मत भी नहीं होती। अब समस्या यह थी कि किसी तरह बाबूजी को यह विश्वास हो जाए कि मैं ने साइकिल चलाना सीख लिया है, तो साइकिल चलाने को मिले। मैं जुगाड़ में था कि यह कैसे हो।

मेरे एक फूफाजी थे, वे भी अध्यापक थे। कई साल तक वे नगर के स्कूल में ही थे। फिर उन की पदोन्नति हुई तो पदस्थापन 12 किलोमीटर दूर हुआ। उन्हों ने साइकिल खरीदी, सीखी और उसी से नौकरी जाने लगे। मेरी उन से खूब पटती थी। इतवार को उनकी छुट्टी रहती। आखिर एक इतवार उन के घर गया और साइकिल सिखाने की फरमाइश की। वे तुरन्त तैयार हो गए। साइकिल निकाली उस की सीट पर मुझे बैठाया। बोले पैडल और हेण्डल को नहीं देखना। बस सामने सड़क पर देखना। मैं पीछे कैरियर से पकड़ता हूँ गिरने नहीं दूँगा। तुम पैडल मारो और चलाओ। सीखना तो था ही। गिरने विरने और थोड़ा बहुत छिल जाने का डर पहले ही घर रख कर आया था। गिर भी गया तो फूफाजी साथ थे, फर्स्ट एड उन्हों ने ही कर देनी थी।

मैं ने पैडल मारा, साइकिल चली और चलती गयी। गति बढ़ती गयी। कोई चालीस पचास गज चल चुकी तब ध्यान आया कि फूफाजी पीछे से पकड़े भी हैं कि नहीं। मैं ने ब्रेक लगाया और साइकिल टेड़ी कर के बायाँ पैर जमीन पर जमा दिया। साइकिल रुक गयी। हम दोनों गिरने से बच गए। मैं ने पीछे मुड़ कर देखा तो फूफाजी दस गज पीछे मुस्कुराते हुए चले आ रहे थे। बोले साइकिल चलाना तो तुम्हें आता है, बस अभ्यास करना शेष है। मुझे भी थोड़ा कोन्फिडेंस आ गया। फिर उन्हों ने मुझे साइकिल पर पैडल से चढ़ना और उतरना सिखाया आधे घण्टे बाद जब मैं इन दोनों करतबों में कामयाब हो गया तो उन्हों ने मुझे चलाने को साइकिल दे दी। मैं ने उस पहले दिन ही करीब एक घण्टे साइकिल चलाई। चौड़ी सड़क पर, फिर गली में। आखिरी बार फूफाजी उन के घर के सामने सड़क पर खड़े थे और मैं सामने की ढाई फुट की संकरी गली में से निकल कर उन तक पहुँचा तो कहने लगे। तुम आज से अपनी साइकिल बेधड़क चला सकते हो। जिस गली से साइकिल चलाते हुए निकल कर आए हो उस से तुम्हारा इम्तिहान हो चुका है और तुम पास हो गए हो। मैं ने उन्हें कहा, “जब तक आप खुद बाबूजी को इस इम्तिहान का रिजल्ट नहीं बता देंगे, मुझे साइकिल नहीं मिलेगी।“

अगले इतवार फूफाजी हमारे घर आए। बाबूजी को पूरा किस्सा सुनाया कि मैं ने कैसे साइकिल चलाना सीखा है, और अब अच्छी तरह साइकिल चला सकता हूँ। उन्हें किस्सा सुनाते देख मैं वहाँ से खिसक कर दूसरे कमरे में चला गया और वहाँ से छिप कर उन की बातें सुनता रहा। फूफाजी ने उन्हें खास तौर पर यह बताया कि मैं पैडल से चढ़ना उतरना भी सीख चुका हूँ। बाबूजी मेरी इस कामयाबी पर बहुत खुश थे।

कुछ दिन बाद बाबूजी को किसी काम से छुट्टी लेनी पड़ी। उन्हें साइकिल की जरूरत नहीं थी। मैं ने अवसर देख कर पूछा, “मैं साइकिल स्कूल ले जाऊँ?”

उन्हों ने मेरी ओर देखा। मैं बहुत सहमा हुआ खड़ा था। मुझे देख कर वे मुस्कुराने लगे।

“ले जाओ, पर गिरना गिराना मत।“ मैं फौरन वहाँ से खिसक लिया। कहीं बाबूजी का इरादा बदल न जाए। मेरा दिल बल्लियों उछल रहा था।

उस के बाद दो साल और बाबूजी इंसपेक्टर रहे। फिर उन का स्थानान्तरण विषय अध्यापक के पद पर दूर के कस्बे में हो गया। वे वहीं जा कर रहने लगे। हम दादाजी के साथ अपने शहर में ही रहते रहे। तब यह साइकिल स्थायी रूप से मेरी हो गयी।



शनिवार, 23 मई 2020

इन्सान के पैर


जिन सड़कों पर हम चले
जिन पर चलते हुए
कुचले गए भारी वाहनों से
उन सड़कों से पहले
कुछ और था वहाँ

गाड़ियों के चलने से बनी गडार
उस से भी पहले
वहाँ थी पगडण्डियाँ
जिन्हें बनाया था
इन्सान के पैरों की छाप ने

तो सड़कें आयीं
बहुत बाद में
वे इन्सान के चलने से
धरती पर पड़े निशानों की
तीसरी पीढ़ी हैं।





बुधवार, 20 मई 2020

फेक न्यूज : हमें खुद को परिष्कृत करना होगा।

एनडीटीवी इंडिया के डिजिटल एडिटर विवेक रस्तोगी का एक साक्षात्कार समाचार मीडिया डॉट कॉम ने प्रकाशित किया हैइस में उन्होंने फेक न्यूज' के बारे में पूछे गए प्रश्न कि, "फेक न्यूज का मुद्दा इन दिनों काफी गरमा रहा है। खासकर विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर फेक न्यूज की ज्यादा आशंका रहती है। आपकी नजर में फेक न्यूज को किस प्रकार फैलने से रोका जा सकता है? का उत्तर देते हुए कहा है .... 

Vivek Rastogi
"फेक न्यूज का मुद्दा कतई नया नहीं है और इस पर चर्चा लम्बे अरसे से चली आ रही है। संकट काल में इसके फैलाव की आशंका बढ़ जाती है, क्योंकि हमारे समाज का एक काफी बड़ा हिस्सा शोध और सत्यापन की स्थिति में नहीं होता, और न ही उन्हें इसकी आदत रही है। मीडिया संस्थानों की विश्वसनीयता उनके अपने हाथ में होती है। अगर सभी संस्थान एनडीटीवी की भाँति कोई भी समाचार 'सबसे पहले' देने के स्थान पर 'सही समाचार' देने का लक्ष्य बना लें, तो इस समस्या से कुछ हद तक छुटकारा पाया जा सकता है। रही बात सोशल मीडिया की, तो हमारे-आपके बीच ही, यानी हमारे समाज में ही कुछ लोग ऐसे हैं, जिन्हें किसी सत्यापन की जरूरत महसूस नहीं होती, जिसके चलते फेक न्यूज़ ज़ोर पकड़ती है। वैसे, फेक न्यूज़ फैलाने के पीछे लोगों के निहित स्वार्थ भी होते हैं और अज्ञान भी। इसलिए, इसके लिए सभी को मिलजुलकर प्रयास करने होंगे। सोशल मीडिया पर समाचार पढ़ने वालों को जागरूक करना होगा कि वे हर किसी ख़बर पर सत्यापन के बिना भरोसा न करें।"

मेरा भी सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों से यह अनुरोध है कि वे विवेक रस्तोगी की इस बात को गाँठ बांध लेना चाहिए कि, हम किसी भी समाचार जो हमें किसी भी स्रोत से मिला हो उसे आगे सम्प्रेषित करने के पूर्व जाँच लेना चाहिए कि कहीं वह फेक तो नहीं हैं। यहाँ सोशल मीडिया पर सभी विचारधारा और विचारों वाले लोग हैं, अक्सर लोग अपनी विचारधारा या स्वयं को अच्छे लगने वाले समाचारों, सूचनाओँ आदि को सही मान कर जल्दी में सम्प्रेषित कर देते हैं, यहीं हम से चूक होती है। हम मिथ्या और गलत चीजों को आगे बढ़ने का अवसर दे देते हैं। 

यदि हम चाहते हैं कि भविष्य की दुनिया अच्छी सच्ची और इन्सानों के रहने लायक हो तो हमें झूठ को इस दुनिया से अलग करना होगा, और इसका आरम्भ हम स्वयं से कर सकते हैं। हम खुद तक पहुँचने वाली सूचनाओं को ठीक से जाँचें और उन्हें आगे काम में लें। यही चीज हमारे लिए आगे बहुत काम देगी। इसी से हमारी विश्वसनीयता भी बनी रहेगी। वर्ना फैंकुओँ की दुनिया में कोई कमी नहीं है। खास तौर पर उस समय में जब उन में से अनेक आज राष्ट्र प्रमुखों के स्थान पर बैठे हैं।

मुझे लगता है हमें आज और इसी पल इस काम को आरंभ कर देना चाहिए, इसे अपनी आदत बना लेनी चाहिए। एक तरह से यह स्वयम् को  परिष्कृत (Refine) करना होगा।


शनिवार, 16 मई 2020

निक नेम


मेरा मुवक्किल जसबीर सिंह अपने ऑटो में स्टेशन से सवारी ले कर अदालत तक आया था। अपने मुकदमे की तारीख पता करने के लिए मेरे पास आ गया। उसका फैक्ट्री से नौकरी से निकाले जाने का मुकदमा मैं लड़ रहा था। जब वो आया तब मैं टाइपिस्ट के पास बैठ कर डिक्टेशन दे रहा था। मुझे व्यस्त देख कर वह वहाँ बैठ गया।

इसी बीच एक वृद्ध व्यक्ति तेजी से अदालत परिसर में घुसा।  उसके हाथ में बड़ा सा थैला था। उसने पट से वह थैला जसबीर सिंह के पास रखा और बोला, “सरदार जी, थैला रखा है, ध्यान रखना। मैं थोड़ी देर में आता हूँ। जसबीर सिंह या मेरी कोई भी प्रतिक्रिया का इन्तजार न करते हुए वह व्यक्ति तेजी से परिसर में अंदर की और चला गया।

मैं टाइप करवा कर निपटा। उसके बाद जसबीर सिंह से बात की। जसबीर उसके बाद भी बैठा रहा। आधा घंटा गुजर गया। आखिर मैं ने ही उससे पूछा, “जसबीर, आज आटो नहीं चला रहे हो क्या?”
“वकील साहब¡ एक बुजुर्ग आदमी यह थैला रख गया है, और मुझे कह कर गया है कि मैं आता हूँ। अब उसने विश्वास किया है तो उसके आने तक रुकना तो पड़ेगा।“

जसबीर की बात सुन कर मुझे जोर की हंसी आ गयी। मैं ने उसे कहा, “तुम जाओ, इस थैले का ध्यान मैं रख लूंगा। असल में वह बुजुर्ग मेरे रिश्तेदार हैं, वह तुम्हें नहीं मुझे कह कर गए थे कि, “सरदार जी, थैला रखा है, ध्यान रखना। मैं थोड़ी देर में आता हूँ। मेरा निक  नेम भी  सरदार है। इसलिए तुम गलत समझ गए कि तुमसे कह कर गए हैं।“

मेरे इतना कहते ही जसबीर ने राहत की साँस ली। उठते हुए बोला, “तो अब मैं चलता हूँ। में तो समझा था, यह पता नहीं कौन आदमी मुझे यहाँ थैले की रखवाली में बिठा गया।“


कल एक पोस्ट पर सब से निक नेम बताने को कहा था। मैं ने अपना निक नेम बताया तो उनकी प्रतिक्रिया थी, वाकई “सरदार” ही निक नेम है क्या?

निक नेम

मेरा मुवक्किल जसबीर सिंह अपने ऑटो में स्टेशन से सवारी ले कर अदालत तक आया था। अपने मुकदमे की तारीख पता करने के लिए मेरे पास आ गया। उसका फैक्ट्री से नौकरी से निकाले जाने का मुकदमा मैं लड़ रहा था। जब वो आया तब मैं टाइपिस्ट के पास बैठ कर डिक्टेशन दे रहा था। मुझे व्यस्त देख कर वह वहाँ बैठ गया।

इसी बीच एक वृद्ध व्यक्ति तेजी से अदालत परिसर में घुसा।  उसके हाथ में बड़ा सा थैला था। उसने पट से वह थैला जसबीर सिंह के पास रखा और बोला, “सरदार जी, थैला रखा है, ध्यान रखना। मैं थोड़ी देर में आता हूँ। जसबीर सिंह या मेरी कोई भी प्रतिक्रिया का इन्तजार न करते हुए वह व्यक्ति तेजी से परिसर में अंदर की और चला गया।

मैं टाइप करवा कर निपटा। उसके बाद जसबीर सिंह से बात की। जसबीर उसके बाद भी बैठा रहा। आधा घंटा गुजर गया। आखिर मैं ने ही उससे पूछा, “जसबीर, आज आटो नहीं चला रहे हो क्या?”
“वकील साहब¡ एक बुजुर्ग आदमी यह थैला रख गया है, और मुझे कह कर गया है कि मैं आता हूँ। अब उसने विश्वास किया है तो उसके आने तक रुकना तो पड़ेगा।“

जसबीर की बात सुन कर मुझे जोर की हंसी आ गयी। मैं ने उसे कहा, “तुम जाओ, इस थैले का ध्यान मैं रख लूंगा। असल में वह बुजुर्ग मेरे रिश्तेदार हैं, वह तुम्हें नहीं मुझे कह कर गए थे कि, “सरदार जी, थैला रखा है, ध्यान रखना। मैं थोड़ी देर में आता हूँ। मेरा निक  नेम भी  सरदार है। इसलिए तुम गलत समझ गए कि तुमसे कह कर गए हैं।“

मेरे इतना कहते ही जसबीर ने राहत की साँस ली। उठते हुए बोला, “तो अब मैं चलता हूँ। में तो समझा था, यह पता नहीं कौन आदमी मुझे यहाँ थैले की रखवाली में बिठा गया।“

कल एक पोस्ट पर सब से निक नेम बताने को कहा था। मैं ने अपना निक नेम बताया तो उनकी प्रतिक्रिया थी, वाकई “सरदार” ही निक नेम है क्या?

शुक्रवार, 15 मई 2020

गौरैया


पता नहीं दोनों क्या कर रहे थे। लेकिन पर फड़फड़ाने की आवाजें बहुत जोर की थीं। फिर एक-एक कर तिनके गिरना शुरु हुए। मैं वहाँ से चला आया। कुछ देर बाद शोभा ने आ कर बताया कि उन्हों ने अपना घर गिरा कर नष्ट कर दिया है। मैं ने जा कर देखा तो सारी बालकनी में कबूतर का घोंसला गिरा पड़ा था, एक अंडा टूटा हुआ पड़ा था, उसकी जर्दी फ्लोर पर बिखरी थी। इसका मतलब था कि उनका अंडा कच्चा ही था। मैं तो यह समझे बैठा था कि अंडों से बच्चे निकल आए हैं, और उड़ने की कोशिश में घोंसले के तिनके नीचे गिरा रहे हैं। अब शाम पड़े ये बालकनी का कूड़ा साफ कर के धोने का काम और सिर पर आ गया था।

संतान की चाह रखने वालों का अंडा टूट कर गिर जाने से अच्छा नहीं लग रहा था। मन उदास हो गया था। सोच रहा था कि एक छोटी सी दुर्घटना कैसे जीवन को अंडे से खोल के बाहर निकलने के पहले ही समाप्त कर देती है। मुझे कबूतर जोड़े पर गुस्सा भी बहुत आया। आखिर वे वहाँ इस तरह क्यों फड़फड़ा रहे थे? मैं ने कबूतरों को इस तरह फड़फड़ाते हुए तब देखा था जब ऐसे ही अंडा फूटा था। तब भी उनका घौंसला इसी ए.सी. के ऊपर रखे गत्ते पर था। जोड़े की ऐसी ही हरकतों से गत्ता सरक कर लटक गया था और नीचे गिरने को था। मैं एक डंडे से उसे वापस ए.सी. पर सरकाना चाह रहा था कि कबूतर ने हरकत की और घोंसला अंडों समेत नीचे गिर गया। उस वक्त मुझे कुछ अपराध बोध था कि मेरी डंडे से गत्ता सरकाने की कोशिश उस दुर्घटना का पूरा नहीं तो आंशिक कारक जरूर था।

तभी एसी के ऊपर से चीं..चीं की आवाजें आईं। यह बड़े अचरज की बात थी। मैंने ऊपर देखा और आवाज पर गौर किया तो समझ गया कि वे गोरैया के बच्चों की आवाजें हैं। असल में एसी के ऊपर एक थर्माकोल चिपका हुआ गत्ता रखा था, जिससे पक्षी ए.सी. में तिनके न गिराएं। उस थर्माकोल में कुछ जगह थी। उसे अपनी चोंचों से खोद खोद कर गोरैया के जोड़े ने अपने घोंसले के लायक चौड़ा कर लिया था। वहाँ उसने अंडे दिए हुए थे। शायद उन से बच्चे निकल आए थे।

चीं चीं चीं ... गोरैया के बच्चे फिर गीत गा रहे थे। मेरी उदासी कुछ कम हो गयी।