इस टिकट को देखा। प्लेटफॉर्म पर जाने के लिए दो घंटे की कीमत 50 रुपए देख एकाएक सदमे में आ गया। सदमे से उबरने के पहले मैं अतीत में खो चुका था। जिस नगर में मैं पैदा हुआ वहाँ भी एक अदद रेलवे स्टेशन था। पहले एक अप पेसेन्जर ट्रेन सुबह आया करती थी और शाम को एक डाउन पैसेन्जर ट्रेन। माल गाड़ियों की आवक जावक थी। नियमित रूप से कोई एक्सप्रेस ट्रेन कभी नहीं गुजरती थी। पर यह तब की बात है जब मैं बच्चा ही था और स्टेशन तक अकेले आने की इजाजत नहीं थी। फिर एक एक डाउन पैसेंजर और अप पैसेंजर सुबह शाम आने लगी। दोनों ट्रेनों का क्रॉसिंग यहीं होता। दोनों तरफ जाने वाली सवारियाँ एक साथ स्टेशन पर पहुँचती थी, उनके साथ होते थे उन्हें छोड़ने वाले या ट्रेन से उतरने वालों को लेने आने वाले। हर रोज सुबह के समय एक सम्मेलन सा होता था।
जिन दिनों परीक्षाओं के रिजल्ट आने वाले होते थे उन दिनों सप्ताह भर पहले से सुबह की ट्रेन पर परीक्षार्थी और उनके हितैषी प्लेटफॉर्म पर जरूर पहुँचते थे। सुबह दस बजे कोटा की तरफ से आने वाली ट्रेन जैसे ही रुकती। डाक वाले कोच का दरवाजा खुलता और तमाम अखबार वितरक उन से उतरने वाले अखबारों को बण्डलों को लेते और प्लेटफार्म पर ही खोल देते। यदि किसी दर्जे का रिजल्ट आ गया होता तो नियमित ग्राहकों के अलावा जितने अखबार ज्यादा मंगाए होते सब वहीं खत्म हो जाते थे। इसका नतीजा यह था कि जिन के घर नियमित रूप से अखबार नहीं आते थे वे तमाम लोग अपने बच्चों की परीक्षा परिणाम जानने के लिए कई कई दिन सुबह के समय रेलवे स्टेशन पर ही दिखाई देते थे। ट्रेन के आने के पहले और जाने के बाद तमाम दुनिया जहान की बातें हो जाती थीं। बहुत से लोग प्लेट फार्म पर यूँ ही घूमने जाया करते थे।
मैंने दसवीं की परीक्षा पास कर के ग्यारहवीं कक्षा में आ गया। जेब खर्च के पेसे पास होते थे। पढ़ने का शोक लग चुका था। मैं पत्रिकाएँ खरीदने रेलवे स्टेशन आता था। उनके मिलने का सर्वोत्तम स्थान रेलवे स्टेशन पर ए.एच. व्हीलर की बुक स्टॉल थी। मैं हर शाम स्टेशन घूमने जाने लगा। स्टेशन पर ही एक खान-पान ठेला हुआ करता था। इस के वेंडर फूलचंद जी के यहाँ की आलू की सब्जी और मखमली पूरियाँ दूर दूर तक प्रसिद्ध थीं, आज भी हैं। वे रेलवे प्लेटफॉर्म पर केवल ट्रेन के समय ही मिलती थीं। पूरियों का डब्बा ट्रेन प्लेट फॉर्म पर आने के बाद ही खुलता था। उनका स्वाद अद्वितीय होता था। शहर के उन पूरियों के शौकीन कई लोग ट्रेन के समय वहाँ इसी लिए पहुँचते थे। कि पूरियों का डब्बा खुलने पर सब्जी-पूरी खरीद कर उसका स्वाद ले सकें। यूँ समझिए कि रेलवे प्लेटफॉर्म मेरे नगर के लिए सैर की सबसे बेहतरीन जगह थी।
बहुत यादें जुड़ी हैं उस प्लेटफार्म के साथ। वह सार्वजनिक स्थान था। भारत देश की जनता उसकी मालिक थी। जहाँ कोई भी जा सकता था। वैसे ही जैसे उन दिनों सड़क पर चल सकता था। नदी में नहने जा सकता था। जो स्टेशन बिक गए हैं वे सब अब केवल पैसे वालों के लिए घूमने की जगह रह गयी है। उसकी मालिक जनता को ही वहाँ से बेदखल किया जा रहा है। आज इस टिकट को देख कर सोच रहा हूँ कि यदि उस समय यदि प्लेटफार्म टिकट लेना जरूरी होता और उसकी कीमत पच्चीस पैसे होते तो प्लेटफॉर्म पूरी तरह बेरोनक होता। शहर की सबसे बेहतरीन सैरगाह होना तो बहुत दूर की बात थी।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कैसा लगा आलेख? अच्छा या बुरा? मन को प्रफुल्लता मिली या आया क्रोध?
कुछ नया मिला या वही पुराना घिसा पिटा राग? कुछ तो किया होगा महसूस?
जो भी हो, जरा यहाँ टिपिया दीजिए.....