एक अखबार के मालिक हैं। (हालाँकि अखबार की प्रेस लाइन में उनका नाम नहीं
जाता, न
संपादक के रूप में और न ही किसी और रूप में) विशेष अवसरों पर वे मुखपृष्ठ पर अपने
नाम से संपादकीय लिखते हैं। आजकल भी कोविद-19 महामारी एक
विशेष अवसर है और वे संपादकीय लिख रहे हैं।
आज उन्होंने अपने संपादकीय में 24 मार्च को लॉकडाउन की घोषणा के बाद
देश के औद्योगिक केन्द्रों पर कारखाने बन्द हो जाने के कारण अपने अपने गाँवों की
ओर पैदल ही चल पड़े मजदूरों और उनके परिवारों के बारे जिस तरीके से लिखा है। इसे
उन्होंने प्रशासन की असफलता और केन्द्र व राज्यों के बीच सामंजस्य के अभाव को
मुख्य कारण बताते हुए लिखा है कि "अचानक ही उद्योग बंद हो गए, अधिकारी बेखबर। क्या इस परिस्थिति को योजना बना कर नियंत्रित नहीं किया जा
सकता था। क्या यह अचानक हो गया? नहीं। अधिकारियों ने रुचि
नहीं दिखाई और उद्योग एक ही दिन बंद हो गए।"
मुझे समझ नहीं आया कि मालिक क्या कहना चाहते हैं। देश के किन अधिकारियों
को दोषी मान रहे हैं। क्या किसी भी अधिकारी को भी 24 मार्च
की रात 8 बजे के पहले पता था कि देश लॉकडाउन होने वाला है?
घोषणा करने वालों के अलावा पूरी दुनिया को रात आठ बजे पता लगा कि
चार घंटे के बाद रात 12 बजे 25 मार्च
आरंभ होते ही लॉकडाउन शुरू हो जाएगा।
वह शख्स जो हमेशा अपने काम में रहस्य-रोमांच बनाए रखना चाहता है।
उसने अचानक घोषणा की। उसकी घोषणा से देश में क्या होने जा रहा है इसका उसे तनिक भी
गुमान नहीं था। वह तो देश का भगवान बना भक्तो के कीर्तन-भजन के नशे मे चूर हो कर
घोषणा कर रहा था कि अब 'ब्रह्मांड" को बचाने का बस एक
ही तरीका है और वह है "लॉक डाउन"। केवल भगवान ही है जो हमेशा केवल यही
सोचता है कि मैं कभी गलत नहीं सोचता, गलत नहीं कर सकता। उसके
भक्त भी भक्ति के नशे में चूर यही समझते हैं। जब किसी भक्त का नशा उतरता है तो वह
नीत्शे की तरह कहता है "भगवान" मर चुका। जबकि वास्तविकता तो यह है कि
कभी कोई भगवान नहीं था। वह हमेशा से केवल एक इल्यूजन (भ्रम) था और है।
खैर, हमारे मालिक साहब भी उस इल्यूजनरी भगवान
से डरते हैं, क्या पता कब वे यमराज को भिजवा दें। उन्होंने
अपने संपादकीय के निष्कर्ष को हवा में छोड़ दिया कि "जवाबदेह कौन? वे भगवान का नाम लेने से उसी तरह डरे हुए दिखाई दिए, जैसे प्रहलाद की कथा में हिरण्यकश्यप के राज्य में प्रहलाद के अलावा हर
कोई विष्णु का नाम लेने से डरता था।
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