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शनिवार, 9 दिसंबर 2017

शट-अप


एक सच्ची सी 'लघुकथा'

मारे मुहल्ले की एक औरत बहुत लड़ाकू और गुस्सैल थी। अक्सर घर में सब से लड़ती रहती। सास, पति, ननद, देवर, बेटे, बेटी कोई भी उस की लड़ाई से महरूम नहीं था। अब इस आदत की औरत पड़ौसियों से कैसा व्यवहार करताी होगी इस का अनुमान तो आप लगा सकते हैं। उस के दोनों पड़ौसियों से रिश्ते सिर्फ और सिर्फ लड़ाई के थे। हमारा घर उस के घर से दो घर छोड़ कर था। इस कारण इस लड़ाई की मेहरबानी से हम बचे हुए थे। कभी राह में मिलती तो मैें तो भाभीजी प्रणाम कर के खिसक लेता। कभी कभी मेरी उत्तमार्ध शोभा को मिल जाती तो बातें करती। एक बार उसे लगा कि शोभा ने किसी से उस की बुराई कर दी है। तो वह तुरन्त लड़ने हमारे घर पहुँच गयी।

ये वो वक्त था जब मैं अदालत गया हुआ था और शोभा घर पर थी। वह आई और गेट पर हमारी घंटी बजा दी। जैसे ही शोभा ड्राइंग रूम से बाहर पोर्च में आयी उस ने अपना गालियों का खजाना उस पर उड़ेल दिया। शोभा को न तो गाली देना आता है और न ही लड़ना। वह यह हमला देख कर स्तब्ध रह गयी। उसे कुछ भी न सूझ पड़ा कि वह इस मुसीबत का सामना कैसे करे। गालियां सुन कर गुस्सा तो आना ही था गुस्से में उस ने अपने दाहिने हाथ की तर्जनी पड़ोसन को दिखाई और जोर से बोली शट-अप।

पड़ोसन शट-अप सुन कर हक्की बक्की रह गयी। शोभा से उसे ऐसी आशा न थी। वह तुरन्त मुड़ी और सड़क पर जा कर चिल्लाने लगी। मुझे फलाँनी ने शट-अप कह दिया, वह ऐसा कैसे कह सकती है? ऐसा उसे आज तक किसी ने नहीं कहा। वह बहुत बदतमीज है। उस की इस तरह चिल्लाने की आवाज सुन कर मोहल्ले की औरतें बाहर आ कर पड़ोसन को देखने लगी। सारा वाकया समझ कर सब हँसने लगी। यहाँ तक कि जब बाद में उस के परिजनों को पता लगा तो उन का भी हँसने का खूब मन हुआ। पर लड़ाई के डर से हंसी को पेट में ही दबा गए। आखिर उस लड़ोकनी पड़ोसन को किसी ने शट-अप तो कहा।

मुझे शाम को यह खबर शोभा ने सुनाई तो मुझे भी खूब हँसी आई। इस घठना ने मेरी ही नहीं बल्कि उस मुह्ल्ले के लगभग सभी लोगों की स्मृति में स्थायी स्थान बना लिया है।

  • दिनेशराय द्विवेदी

मंगलवार, 5 दिसंबर 2017

किस का कसूर

कविता

किस का कसूर 

दिनेशराय द्विवेदी 

जब कोई अस्पताल
मरीज के मर जाने पर भी
चार दिनों तक वेंटिलेटर लगाकर
लाखों रुपए वसूल लेता है
तब किसी डॉक्टर का कोई कसूर नहीं होता।


कसूर होता है अस्पताल का
जिसमें कारपोरेट प्रबंधन होता है
बैंकों से उधार ली गई वित्तीय पूंजी लगी होती है,और
न्यूनतम संभव वेतन पर टेक्नीशियन काम कर रहे होते हैं

वित्तीय पूंजी का स्वभाव यही है
वह अपने लिए इंसानों का खून मांगती है
खून पीती है और दिन-रात बढ़ती है
सारा कसूर इसी वित्तीय पूंजी का है

क्या है यह वित्तीय पूंजी?
जो रुपया हम जैसे छोटे छोटे लोगों ने
अपनी मासिक तनख्वाह से
हाड़तोड़ मेहनत की कमाई से
पेट काटकर बचाया, और
बुरे वक्त के लिए बैंकों में जमा कराया
वहीं वित्तीय पूंजी है

वही रुपया बैंकों ने कंपनियों को
उद्योगों और अस्पतालों को ऋण दिया
और वही ऋणीअब हमारे लिए
बुरा वक्त पैदा कर रहे हैं

इन बैंकों पर सरकारों का नियन्त्रण है
सरकारों पर पूंजीपतियों का
इसलिए किसी डॉक्टर का कसूर नहीं है
अब आप जानते हैं कसूर किसका है?
04.12.2017

रविवार, 3 दिसंबर 2017

व्यायाम किया और दर्द गायब

फिस मुश्किल से आधा किलोमीटर था, साथ में हमेशा बहुत सारी फाइल्स होने और रास्ते में ट्रेफिक न होने के कारण पैदल न जा कर अपनी एक्टिवा से जाता था। वापसी में एक दिन उसे बहुत सारी मोटरसाइकिलों के बीच घिरा पाया। निकालने को मशक्कत करनी पड़ी। पीछे से उठाना भी पड़ा। बस यह पीछे से उठाना भारी पड़ गया। अचानक कमर में कुछ चटखा और लगा कि रीढ़ की हड्डी में कुछ हुआ है। शाम तक साएटिका जैसा दर्द होने लगा। मैं ने अपने एक सरजिकल एड कंपनी के सेल्समेन मित्र को बताया तो उसने कमर पर बांधने की बैल्ट लाकर दे दी जो रीढ़ को सीधा रखने में मदद करती है। मैं उसे बांधने लगा। ुकुछ दिन में कमर सामान्य रहने लगी। लेकिन मैं बैल्ट को कम से कम अदालत जाने के पहले से घर लौटने तक बांधने लगा। 

कोई महीने भर पहले फिर ऐसा हुआ की एक्टिवा को पीछे से उठा कर हटाने की नौबत आ गयी। पहले तो मैं ठिठका, फिर आसपास देखा। ऐसा कोई नहीं था जिस से मैं निस्संकोच मदद के लिए बोलता। कमर पर बेल्ट भी बंधी थी। आखिर खुद ही एक्टिवा को उठा कर निकाला। फिर वैसा ही चटखा हुआ। फिर से साएटिका जैसा दर्द होने लगा। कभी तो इतना कि चलते चलते दो कदम रखना भी दूभर हो जाता। रुकना पड़ता और दर्द हलका होेने पर आगे चलता। अब तो नौबत यह हो गयी कि सुबह शाम एक एक गोली दर्द निवारक लेनी पड़ने लगी।

इसी बीच किसी संबंधी के रोग के सम्बन्ध में इंटरनेट काफी सर्च किया और समाधान तलाशे। फिर ध्यान आया कि साएटिका के लिए भी तो समाधान वहाँ मिल सकता है। मैं ने तलाश करना आरंभ किया। कई विकल्प वहाँ थे जिन में एक विकल्प नियमित व्यायाम का था। व्यायाम का उल्लेख देखते ही मुझे याद आ गया कि नियमित रूप से प्रातः भ्रमण करीब डेढ़ वर्ष से बन्द सा है और व्यायाम भी। प्रातः भ्रमण तो शायद इन दिनों मेरे लिए संभव नहीं लेकिन व्यायाम तो मैं कर ही सकता था। मैं ने साएटिका के व्यायाम देखे तो पता लगा कि ये तो वही साधारण व्यायाम हैं जिन्हें में रोज करता रहा था। 

कल रात मैंने सोने के पहले बिस्तर पर कुछ व्यायाम किए तो पाया कि पेशियाँ वैसी स्टिफ नहीं हैं जैसी होने की मुझे संभावना थी। शायद यह दिन भर अदालत में अपने व्यवसायिक कामों के लिए घुटनों में दर्द होने पर भी चलते फिरते रहने के कारण था जो अब मेरी आदत सी बन गयी है। 

सुबह उठ कर मुश्किल से पाँच-सात मिनट साएटिका के लिए बताए गए व्यायाम किए। स्नान किया और नाश्ता कर के घर से निकला। आज मुझे चलने में वैसी समस्या नहीं आ रही थी जैसी पिछले कुछ दिनों से आ रही थी। साएटिका जैसा वह दर्द भी पूरी तरह गायब था। आज से फिर सोच लिया है कि कुछ भी हो यह पाँच से दस मिनट का ्व्यायाम कभी नहीं छोड़ना है।

मंगलवार, 12 सितंबर 2017

बौद्धिक जाम का इलाज : शारीरिक श्रम

कुछ दिन पहले एक मुकदमा मुझे मिला। उस के साथ चार फाइलें साथ नत्थी थीं। ये उन संबंधित मुकदमों की फाइलें थीं पहले चल चुके थे। मैं ने उस फाइल का अध्ययन किया। आज उस केस में अपना वकालतनामा पेश करना था। कल शाम क्लर्क बता रहा था कि फाइल नहीं मिल रही है। मैं ने व्यस्तता में कहा कि मैं उसे देख रहा था यहीं किसी मेज पर रखी होगी।

आज सुबह जब मैं आज की फाइलें देख रहा था, वही फाइल न मिली। मैं ने भी कोशिश की पर मुझे भी नहीं मिली और बहुमूल्य आधा घंटा उसी में बरबाद हो गया। अब तो क्लर्क के आने पर वही तलाश कर सकता था।  किसी ओर काम में मन नहीं लगा। जब तक फाइल नहीं मिलती लगता भी नहीं।पर तब तक मैं क्या करता?

मैं ने अपने काम की जगह छोड़ दी। शेव बनाई और स्नानघर मे ंघुस लिया। वहां दो चार कपड़े  बिना धुले पड़े थे, उन्हें धो डाला। फिर लगा कि बाथरूम फर्श तुरन्त सफाई मांगता है। वह भी कर डाली। फिर स्नान किया और स्नानघर से बाहर आया तब तक क्लर्क आ चुका था।

मैं ने उसे बताया कि वह फाइल पेशियों वाली अलमारी में होनी चाहिए। वह तुरन्त तलाश में जुट गया। इस के पहले कि मैं कपड़े वगैरह पहन कर तैयार होता उस ने फाइल ढूंढ निकाली। मेरा दिमाग जो उस फाइल के न मिलने से जाम में फँस गया था। फर्राटे से चल पड़ा।

मुझे महसूस हुआ कि जब बौद्धिक कसरत से कुछ न निकल रहा हो तो वह कसरत छोड़ कर कुछ पसीना बहाने वाले श्रम साध्य कामों में लग जाना चाहिए, कमरों से निकल कर फील्ड में मेहनतकश जनता के साथ काम करने चल पड़ना चाहिए। राह मिल जाती है। 

सोने के अंडे देने वाली सुनहरी बत्तख

ज शाम मैं ने काफी बनाई, मैं और मेरा क्लर्क दोनों पीने बैठे। अपार्टमेंट के चौकीदार का बेटा मेरे यहाँ टीवी पर कार्टून चैनल देख रहा था।

किसी ने सुनहरे रंग की एक बत्तख मोटू पतलू को यह कह कर बेच दी कि ये सोने के अंडे देती है। उन्हें बत्तख को संभालने का कोई अनुभव तो था नहीं। बत्तख उन के पास से छूट भागी। पीछे पीछे मोटू पतलू चिल्लाते हुए भागे। मेरी सोने के
अंडं देने वाली बत्तख,. कोई तो पकड़ो उसे। अब जिस के वह हाथ आ जाती वही मोटू पतलू से अच्छी खासी रकम ऐँठ सकता था। तो लोग साथ में भागने लगे। कोई दस-पाँच लोग पीछे भागने लगे तो बत्तख नदी में कूद पड़ी। लोग उस के पीछ नदी में कूदै। बत्तख पार निकली तो उस का सुनहरा रंग नदी के पानी में उतर चुका था। बत्तख को उस का मालिक भी मिल गया। उस के हाथों में जाते ही बत्तख ने एक सफेद अंडा दे डाला।


मोटू-पतलू ने जब देखा कि पाँच हजार के महंगे दाम में खरीदी बत्तख साधारण अंडे दे रही है तो उन्हों ने माथा पीट लिया। पर जो लोग मोटू पतलू के साथ भाग रहे थे वे तो मोटू पतलू के पीछे पड़ गए कि उन्हें तो फोकट ही भागना पड़ा जिस का हर्जाना वे मोटू पतलू से वसूलेंगे।

इस अंत पर आ कर मैं औऱ मेरा क्लर्क दोनों एक साथ चिल्लाए -यही तो अपना मुकदमा है।

दरअसल मेरे मुकदमे में साथ भागने वालों ने मोटू-पतलू पर 420, 406, 467, 468, 120-बी भा.दं.संहिता में प्रथम सूचना रिपोर्टे दर्ज करवा दी हैं। मुझे कल उन दोनों की अग्रिम जमानत की अर्जी पर बहस करनी है। बस यहाँ फर्जी बत्तख की जगह खेती की जमीन पर बनाई गयी आवासीय योजना के भूखंडों के फर्जी सौदे हैं। असल 420 मजे ले रहा है।

मंगलवार, 5 सितंबर 2017

कुटाई वाले गुरूजी

पिताजी अध्यापक थे, और तगड़ी कुटाई वाले थे। स्कूल में अक्सर उन के हाथ मे डेढ़ फुट लंबा काले रंग का डंडा हुआ करता था। पर वो डराने के लिए होता था, मैंने कभी उस का प्रयोग किसी पर मारने के लिए करते उन्हें नहीं देखा। हाँ हाथों और लातों का वे जम कर प्रयोग करते थे। उन की ये कुटाई आसानी से शुरू नहीं होती थी। पर जब हो जाती थी तो दूसरे ही उन्हें रोकते थे उन का खुद का रुकना तो लगभग असंभव था। मैं एक बार स्कूल में उस कुटाई का शिकार हुआ था। उस का किस्सा फिर कभी शेयर करूंगा। पर घर पर तो साल में दो-एक बार अपनी पूजा हो ही जाती थी। वैसे उन में एक बात बहुत अच्छी थी कि वे ठहाके लगाने में कम न थे। यदि वे बाहर होते तो उन के लौटने की सूचना बाहर कहीं उन के ठहाके की आवाज से हो जाती थी। इधर घर में दादाजी और दादी जी के सिवा सब सतर्क हो जाते थे।

हुआ ये कि हम बाराँ में दादा दादी के साथ रहते थे, पिताजी मोड़क स्टेशन पर मिडिल स्कूल के हेड मास्टर थे और महीने में एक दो बार ही घर आ पाते थे। मुझे पेचिश हो गयी थी, जो कभी कभी कम हो जाती थी, पर मिटती नहीं थी। वैद्य मामाजी की सब दवाइयाँ असफल हो गयी थीं। पेचिश के कारण मुझ पर खाने पीने की इतनी पाबंदियाँ थीं कि मै तंग आ गया था। आखिर दादा जी ने पिताजी को डाँटा कि छोरे को चार माह से पेचिश हो रही है, खून आने लगा है, और तुझे कोई परवाह ही नहीं है। किसी डाक्टर को दिखा के, बैज्जी की दवाई बहुत हो गयी। छोरे के हाड ही नजर आने लगे हैं। आखिर पिताजी डाक्टर के यहाँ ले जाने को तैयार हुए।

उन दिनों दो डाक्टर पिताजी के शिष्य थे और बाराँ सरकारी अस्पताल में ही तैनात थे। घरों पर भी मरीज देखते थे। उन में एक डाक्टर बी.एल चौरसिया थे। उन के पास ले गए। डाक्टर चौरसिया अक्सर हाड़ौती में ही बोलते थे। पिताजी मुझे ले कर उन के पास पहुँचे। मेरी तकलीफ डाक्टर को बताई। तो डाक्टर बोला -बस गुरूजी अतनी सीक बात छे, टट्टी बन्द न होरी नै। अब्बाणू कराँ छा बन्द। (बस गुरूजी, इतनी सी बात है, टट्टी बन्द नही हो रही है। अभी कर देते हैं।)
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डाक्टर ने अपने पास वाली अलमारी खोली और सैंपल की दवा निकाली। चार गोली थी। कहा -देखो या गोळी एक अबाणू दे द्यो। एक रात में सोती बखत दे दीज्यो। जे खाल टट्टी बंद हो ज्या तो मत दीजो। अर न होव तो खाल रात मैं एक दे दीजो। बस काम खतम। (देखो ये गोली अभी दे दो, एक रात में सोते समय दे देना। जो कल टट्टी कल बंद  हो जाएँ तो ठीक नहीं तो एक कल रात को सोते समय दे देना। बस काम हो जाएगा।)

पिताजी ने डाक्टर को फीस देने के लिए जेब से रुपए निकाले।डाक्टर बोला- रैबादो गुरूजी, फीस तो अतनी दे दी कै दस जनम ताईं भी पूरी न होव। म्हूँ डाक्टर ही बणग्यो। थानँ अतनो मार्यो छे कै हाल ताइँ भी मोर का पापड़ा दूखे छे। पण एक बात छे थाँ ने म्हाँई आदमी बणा द्या। नै तो गनखड़ा की नाई गर्याळान मैं ई भैराता फरता। (रहने दो गुरूजी फीस तो आप इतनी दे चुके कि दस जनम तक भी समाप्त नहीं होगी। मुझे डाक्टर ही बना दिया। आपने इतना मारा है कि अभी तक पीठ की पेशियाँ दुखती हैं। पर एक बात है कि हमें आदमी बना दिया वर्ना कुत्तों की तरह गलियों में ही चक्कर लगाते रहते)

इतना कह कर डाक्टर चौरसिया ने जो कर ठहाका लगाया तो पिताजी ने उस का भरपूर साथ दिया। मैं तो उन दोनों को अचरज से देखता रह गया।

गुरुवार, 3 अगस्त 2017

“तेलुगू कहानी” गोर्की का पात्र

“तेलुगू कहानी”

गोर्की का पात्र 

वी. चंद्रशेखऱ राव

अनुवादक - पी.वी. नरसा रेड्डी

गोर्की की कहानी का अनुवाद कराकर दोगे न? वैसे तो आज रात कोई केस भी नहीं आनेवाला है। हमारे स्त्री-शक्ति संगठन की ओर से एक स्मारिका का विमोचन कराना चाहती हूँ। यह कहानी उसमें ज़रूर होनी चाहिए। प्लीज! ना मत कहना। दो कप चाय, तुम्हारे एकांत को भंग न करने का वादा करती हूँ, आफकोर्स, कृतज्ञतापूर्वक स्मारिका की एक प्रति पारिश्रमिक के तौर पर दे दूँगी।

उस रात को प्रसूति वार्ड में मैं एक हाउस सर्जन की हैसियत से ड्यूटी पर था। सरला ने गोर्की का कहानी-संग्रह, नोट बुक और कलम टेबिल पर इस तरह पटक दिए कि मानो सविनय आदेश दे रही हो। सरला मेरे साथ हाउस सर्जन कर रही थी। तब तक 'दास कापिटल' के मुख्य अंशों पर नर्स-छात्रों को दो घंटे भाषण देकर आई। अब वह मेरे साथ मुठभेड़ करने लगी।

सरला को देखता हूँ तो मुझे अचरज हो जाता है। बीस बरस भी अभी पार नहीं किए, पता नहीं उसे इतनी परिपक्वता कैसे आई? आम तौर पर इस उम्र की लड़कियाँ मधुर कल्पनाओं में भटकती हुई एक असहज और मायूस माहौल में जीती हैं। लेकिन सरला ने इतनी छोटी उम्र में कालेवह हमेशा वर्ग-रहित समाज के बारे में सपने देखती रहती है। स्त्री समस्याओं पर परचियाँ और पुस्तकें छपाते हुए और ख़ास मुद्दों पर जुलूस और धरना आयोजित करते हुए हमेशा व्यस्त रहती है। मुझे पलायनवादी कहकर पुकारती है और मेरी कहानियों को बिलकुल समय गुज़ारनेवाली सामग्री कहकर मज़ाक उड़ाती है। फिर भी सरला मेरी इकलौती अंतरंग सहेली है। हम दोनों मिलकर न कटनेवाली शामों को और ज़िन्दगी के उतार-चढ़ावों को नापते रहते हैं। जो भी हो अपनी स्मारिका की कहानी के लिए मुझे चुन लेना मैं अपने लिए बड़ी बात मानता हूँ।

रात को कोई आठ बजे एक औरत की प्रसूति हुई थी। तब से कोई काम नहीं था। ड्यूटी पर लगी गाइनाकॉलॉजिस्ट डॉक्टर वसुंधरा जी भी कोई काम न रहने के कारण अस्पताल में चक्कर काटने के लिए चली गई। पी.जी. डाक्टर तथा सर्जन राधा पी.जी. के साथ 'उमराव जान' सेकेण्ड शो सिनेमा देखने चली गई। दोनों स्टाफ नर्स छात्र नर्सों के साथ घुल-मिलकर आपस में पुरानी यादों को बाँटने लगीं।

गोर्की के कहानी-संग्रह पर हाथ लगाते ही न जाने क्यों मेरा शरीर रोमांचित हो उठा। जल-प्रपात की तरह प्रवाहमान साहित्यानुभूति को मैंने अंजुरी में भरने का प्रयास किया। उस स्तब्ध रात को पल पर भर के लिए आराम कर रहे सागर की तरह अस्पताल सो रहा था। छोटे बच्चों के अचानक नींद से जागकर रोने की आवाज़ों के सिवा मानव अस्तित्व से संबंधित और कोई चिह्न नज़र नहीं आ रहा था। नोटबुक के अंदर पन्ने थके-हारे सफेद से एनीमिया पेशेंट की तरह फड़फड़ाने लगे।

अनुवाद करने वाली कहानी का नाम हैं - 'ए मैन इज बौर्न', जंगल के बीच में झुरमुटों के आड़ में प्रसव-पीड़ा से कराहती हुई अकेली औरत को मदद करने वाले एक मुसाफिर की कहानी है वह। मुसाफिर को प्रसूति चिकित्सा के संबंध में ज़्यादा जानकारी नहीं थी। फिर भी जो कुछ उसने जाना उसी के मुताबिक वह उस औरत को मदद करता है। उस माँ को बहुत शरम और नाराज़गी होती है, फिर भी और कोई चारा भी तो नहीं था। दोनों के बीच में गहन मैत्री स्थापित हो जाती है। एक अपरिचित औरत जो ज़िन्दगी और मौत से लड़ रही थी, उससे स्पंदित होकर उस मुसाफिर ने जो साहसिक कार्य किया है वह अचंभे में डाल देता है। गर्भ से बाहर निकलनेवाले शिशु के सर को दोनों हाथों से पकड़कर सुरक्षित बाहर खींच लेना, समीप स्थित समुंदर के सच्चे मानवीय गुणों का प्रतीक है।

प्रसव के बाद वह थकी हारी उस माँ को चाय बनाकर पिलाता है, उसे अनुनय पूर्वक ढाढ़स दिलाता है, बच्चे को प्यार से पुचकारकर उसकी मुसकानों में प्राचीन-स्मृतियों की आहटें सुन लेता है। अंत में 'ए मैन इज बॉर्न' कहकर मुसाफिर सगर्व अपनी राह पकड़ लेता है। साधारण मानवों में मौजूद असाधारण गुणों को उजागर करना इस कहानी की विशेषता है। सिर्फ़ आठ पन्नों की सरहदों के बीच एक करूण रसार्द्रपूर्ण जीवन का आविष्कार किया है गोर्की ने। आम आदमियों में छिपे हुए मानवीय गुणों की पहचानना और उसे व्यापक पृष्ठभूमि पर दर्शाना गोर्की ज़्यादा पसंद करते हैं। इस कहानी का अनुवाद करने के लिए अंग्रेज़ी और तेलुगु भाषा का ज्ञान पर्याप्त नहीं है, मानवता की भाषा का भी ज्ञान होना ज़रूरी है।

अचानक वार्ड के बाहर के शोरगुल से मेरा ध्यान बँट गया। स्टाफ नर्स ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते हुए आई। 'डाक्टर साब! सर्वनाश हो गया। ताड़िकोण्डा से एक मरीज़ आई है। लगता है उसके पेट में बच्चा पल्टी खा गया है। तुरंत आपरेशन करना है। डाक्टर वसुंधरा जी न ड्यूटी रूप में हैं न घर पर। अस्पताल में कहीं भी उनका अता-पता नहीं हैं। पी.जी. डाक्टर राधा जी अपने मित्र के साथ सिनेमा देखने चली गई। अब क्या करना है, कुछ समझ में नहीं आ रहा है। बच्चा और जच्चा दोनों की जान खतरे में हैं।' नर्स बहुत घबरा रही थी। सरला चेहरा लटकाए खड़ी है। 'अब कैसे निपटाया जाय इस मुसीबत को? राधा जी भी नहीं हैं। मरीज़ की हालत बहुत नाजुक है। तुरंत आपरेशन करने की ज़रूरत है। अभी वह बेहोश होनेवाली है। हम तो अभी छात्र ही हैं। अब तक ढंग से औज़ार पकड़ने का तरीका भी नहीं जानते। आँखों के सामने एक मरीज़ का इस तरह प्राण खो बैठना, हमारे लिए बड़ी बुरी बात होगी।' सरला भी काफी परेशान थी।

इस अस्पताल में ऐसे हादसे बहुत साधारण-सी बात हैं, फिर भी देखते-देखते ऐसा हो जाना हमें बड़ा अपराध-सा लग रहा था। दो चार मिनटों तक चिंतित हो जाने के बाद मैंने साहसपूर्ण निर्णय ले लिया। अभी-अभी पढ़ी गई गोर्की की कहानी याद आ गई। एक मामूली मुसाफिर ने उस औरत की जो सेवा की, मन में कौंधने लगी। निस्सहाय स्थिति में एक मुसाफिर ने प्रसूति करानेवाली दाई की भूमिका निभाई। गोर्की की कहानी से प्रेरणा लेकर में आपरेशन करने के लिए तैयार हो गया।

'सिस्टर! पेशेंट को आपरेशन थियेटर में ले आइए। आपरेशन मैं करूँगा। ऐसे सैंकड़ों केस मैंने मैडम की बगल में खड़े होकर देखे हैं। इस हालत में इससे बढ़कर और कोई चारा नहीं है। जो भी होगा, उसकी ज़िम्मेदारी मैं अपने ऊपर ले लूँगा। आप जल्दी चलिए। एनस्थेसिस्ट को फोन कीजिए।' स्टाफ नर्स ने मेरी तरफ़ ऐसे देखा मानों ठीक से ग्लव्स पहनना भी न जाननेवाला यह लड़का आपरेशन कैसे कर पाएगा? लेकिन उसने भी जाना कि उस वक्त इससे बेहतर और कोई रास्ता नहीं था। नर्स पेशेंट को आपरेशन के लिए तैयार करने के लिए चली गई।ज की छात्राओं को इकठ्ठा कर 'स्त्री-संगठन' का आयोजन किया।

राजू! यह कैसा पागलपन है? यदि पेशेंट को कुछ हो जाए तो?' सशंकित मेरी तरफ़ देखते हुए सरला ने पूछा।
'चारों तरफ़ फैले अंधकार को देखते हुए उदास हो जाने के बजाय साहस कर एक छोटा-सा दीप जलाना उत्तम है, - ये बातें तुम्हारी ही हैं न? कहकर मैं थियटर की तरफ़ चल पड़ा।

आपरेशन थियेटर में पाँव धरते ही मेरे अंदर विचित्र परिवर्तन आया। अकसर चाहे वह वार्ड हो या क्लास रूम, अचानक एक कविता का दौर मेरे अंदर प्रवेश कर एक ज्वाला की तरह मुझ पर हावी होकर मुझे एक ट्रांस में फेंक दिया करता था। लेकिन उस वक्त मेरे मन पर कविता का प्रभाव नहीं रहा। सभी आवेगों को भूलकर एक सुशिक्षित सैनिक-सा बदल गया।

हाथ धोकर, ग्लव्स पहनकर आपरेशन टेबुल के पास चला गया। तब तक एनस्थिसिस्ट भी आ पहुँचा था। मरीज़ सभी भावनाओं से दूर बेहोश पड़ी हुई थी। 'मरीज़ के रिश्तेदार तंग कर रहे हैं। सरला जी को एक बार बाहर भेजिएगा।' घबराते हुए एक स्टुडेंट नर्स अंदर आ गई।

'आपरेशन के पहले मरीज़ का मर्द आवश्यक खून देने के लिए तैयार था लेकिन अब वह मुकर कर कह रहा है कि मैं पैसा दे देता हूँ, कहीं से खून मँगवाइए। क्या मिनटों में पैंसों से खून मिल जाता है? वह भी पाजिटिव बी ब्लड।' नर्स कुड़कुड़ाने लगी।

'मैं बाहर जाकर देखती हूँ, माजरा क्या है, तुम अपना काम सँभालो।' सरला प्यार से मेरे कंधे पर थपकी देकर चली गई।

मैंने निचले वाले पेट के ऊपर और नाभी के नीचे एक पतली लकीर-सा चीरा लगाया। न जाने क्यों मेरे हाथ काँप गए। सैंकड़ों बार ऐसे आपरेशन करते हुए देख चुका हूँ। फिर भी अजीब-सा डर, सारे शरीर में फैल गया। सारा बदन पसीने से सराबोर हो गया।

चमड़े के नीचेवाली तहों को अलग कर, उभरने वाले खून को पैडों के सहारे रोकने का प्रयत्न करते हुए गर्भाशय को पहचान लिया। अंदर शिशु को बाहर खींच लिया। वह शिशु लड़का था। बच्चे को नर्स के हाथों में थमा दिया। उसने बच्चे को सँभाला। मेरे अंदर जो कंपन और डर था, पता नहीं वह कब गायब हो गया था। सीधे लक्ष्य की तरफ़ बढ़ने वाले सैनिक की तरह आगे चल पड़ा। बाकी काम मुस्तैदी से पूरा कर हाथ धोने के लिए तैयार हुआ ही था कि पीछे से दो मुलायम हाथ मेरे कंधों पर थपकियाँ देने लगे और मेरे गाल का मृदुल ओंठों ने चुंबन किया। मैंने समझा कि वह शायद सरला होगी। मुड़कर देखता हूँ तो डाक्टर वसुंधरा मैडम थीं।

'आई ऐम प्राउड आफ यू माई बॉय! तुमने ऐसा आपरेशन किया कि मानो बरसों से तुम्हें अनुभव हो। कीप इट अप! जब तुम गर्भाशय खोल रहे थे तभी मैं आई थी। तुम्हें डिस्टर्ब करना नहीं चाहती थी, इसलिए पीछे खड़ी रह गई। तुम्हें बहुत-बहुत मुबारक। जो तुमने मुझे इस हादसे से बचा लिया। यदि सही समय पर चिकित्सा न मिलने के कारण मरीज़ को कुछ हो जाता तो अस्पताल का गौरव मिट्टी में मिल जाता। जो साहस तुमने किया है, बड़ा रोमांचक है। इस घटना को मैं, बरसों याद रखूँगी।' मैडम ने मेरी तारीफ़ की।

आपरेशन थियेटर से बाहर निकलते हुए मुझे इतनी खुशी हुई कि व्यक्त करने के लिए भाषा की कमी महसूस हो रही है। ऐसे समय में सरला का वहाँ न होने और उसके मुँह से तारीफ़ न सुन पाने की वजह से मुझे थोड़ा अफसोस हुआ।

बड़ी खुशी से मैंने ड्यटी रूम में प्रवेश किया। कमरे में बेड पर लेटी हुई सरला। 'कांग्रेट्स! सिस्टर अभी बता कर गई कि आपरेशन सक्सेस रहा है। मैं बहुत कमज़ोर महसूस कर रही थी, इसलिए तुम्हारा साथ नहीं दे पाई। मरीज़ के रिश्तेदार ने खून देने से इन्कार कर दिया था। इस आपरेशन के लिए खून की जितनी जरूरत होती है मुझे मालूम है। मेरा भी खून बी पाजिटिव है ' सरला हंसते हुए कह रही थी। लेकिन मेरी आँखों में आँसू भर आए। कितना त्याग। जब मैंने गोर्की की कहानी पढ़ी तब उस कहानी के चरित्रों की भलमनसाहत और त्याग ने मुझे विस्मित कर दिया था। ऐसे बहुत थोड़े ही लोगों के रहने के कारण ही इस सड़ी-गली, धोखेबाज दुनिया में हम जी रहे हैं। मुझे लगा जैसे सरला ही सच्चे मायने में गोर्की का जीता-जागता चरित्र है।

सोमवार, 31 जुलाई 2017

साम्प्रदायिकता और संस्कृति

साम्प्रदायिकता और संस्कृति

प्रेमचन्द



'साम्प्रदायिकता और संस्कृति' प्रेमचंद का महत्वपूर्ण लेख है जिस में साम्प्रदायिकता के पाखंड को उजागर करते हुए बताया गया है कि संस्कृति और साम्प्रदायिकता का वही संबंध है जो सिंह और सिंह की खाल ओड़े गधे का होता है।


साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है, इसलिए वह उस गधे की भाँति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल में जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है। हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहता है, मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं, यह भूल गये हैं कि अब न कहीं हिन्दू संस्कृति है, न मुस्लिम संस्कृति और न कोई अन्य संस्कृति। अब संसार में केवल एक संस्कृति है, और वह है आर्थिक संस्कृति मगर आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोये चले जाते हैं। हालाँकि संस्कृति का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं। आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है। हिन्दू मूर्तिपूजक हैं, तो क्या मुसलमान क़ब्रपूजक और स्थान-पूजक नहीं है। ताजि़ये को शर्बत और शीरीनी कौन चढ़ाता है, मस्जिद को ख़ुदा का घर कौन समझता है। अगर मुसलमानों में एक सम्प्रदाय ऐसा है, जो बड़े से बड़े पैगम्बरों के सामने सिर झुकाना भी कुफ़्र समझता है, तो हिन्दुओं में भी एक ऐसा है जो देवताओं को पत्थर के टुकड़े और नदियों को पानी की धारा और धर्मग्रन्थों को गपोड़े समझता है। यहाँ तो हमें दोनों संस्कृतियों में कोई अन्तर नहीं दिखता।

तो क्या भाषा का अन्तर है? बिल्कुल नहीं। मुसलमान उर्दू को अपनी मिल्ली भाषा कह लें, मगर मद्रासी मुसलमान के लिए उर्दू वैसी ही अपरिचित वस्तु है, जैसे मद्रासी हिन्दू के लिए संस्कृत। हिन्दू या मुसलमान जिस प्रान्त में रहते हैं सर्वसाधारण की भाषा बोलते हैं, चाहे वह उर्दू हो या हिन्दी, बंग्ला हो या मराठी। बंगाली मुसलमान उसी तरह उर्दू नहीं बोल सकता और न समझ सकता है, जिस तरह बंगाली हिन्दू। दोनों एक ही भाषा बोलते हैं। सीमाप्रान्त का हिन्दू उसी तरह पश्तो बोलता है, जैसे वहाँ का मुसलमान।

फिर क्या पहनावे में अन्तर है? सीमाप्रान्त के हिन्दू और मुसलमान स्त्रियों की तरह कुरता और ओढ़नी पहनते-ओढ़ते हैं। हिन्दू पुरुष भी मुसलमानों की तरह कुलाह और पगड़ी बाँधता है। अक्सर दोनों ही दाढ़ी भी रखते हैं। बंगाल में जाइए, वहाँ हिन्दू और मुसलमान स्त्रियाँ दोनों ही साड़ी पहनती हैं, हिन्दू और मुसलमान पुरुष दोनों कुरता और धोती पहनते हैं, तहमद की प्रथा बहुत हाल में चली है, जब से साम्प्रदायिकता ने ज़ोर पकड़ा है।

खान-पान को लीजिए। अगर मुसलमान मांस खाते हैं, तो हिन्दू भी अस्सी फ़ीसदी मांस खाते हैं। ऊँचे दरजे के हिन्दू भी शराब पीते हैं, ऊँचे दरजे के मुसलमान भी। नीचे दरजे के हिन्दू भी शराब पीते है, नीचे दरजे के मुसलमान भी। मध्यवर्ग के हिन्दू या तो बहुत कम शराब पीते हैं, या भंग के गोले चढ़ाते हैं, जिसका नेता हमारा पण्डा-पुजारी क्लास है। मध्यवर्ग के मुसलमान भी बहुत कम शराब पीते है, हाँ कुछ लोग अफ़ीम की पीनक अवश्य लेते हैं, मगर इस पीनकबाज़ी में हिन्दू भाई मुसलमानों से पीछे नहीं है। हाँ, मुसलमान गाय की क़ुर्बानी करते हैं। और उनका मांस खाते हैं, लेकिन हिन्दुओं में भी ऐसी जातियाँ मौजूद हैं, जो गाय का मांस खाती हैं यहाँ तक कि मृतक मांस भी नहीं छोड़तीं, हालाँकि बधिक और मृतक मांस में विशेष अन्तर नहीं है। संसार में हिन्दू ही एक जाति है, जो गो-मांस को अखाद्य या अपवित्र समझती है। तो क्या इसलिए हिन्दुओं को समस्त विश्व से धर्म-संग्राम छेड़ देना चाहिए?

संगीत और चित्रकला भी संस्कृति का एक अंग है, लेकिन यहाँ भी हम कोई सांस्कृतिक भेद नहीं पाते। वही राग-रागनियाँ दोनों गाते हैं और मुग़लकाल की चित्रकला से भी हम परिचित हैं। नाट्य कला पहले मुसलमानों में न रही हो, लेकिन आज इस सींगे में भी हम मुसलमान को उसी तरह पाते हैं जैसे हिन्दुओं को।

फिर हमारी समझ में नहीं आता कि वह कौन सी संस्कृति है, जिसकी रक्षा के लिए साम्प्रदायिकता इतना ज़ोर बाँध रही है। वास्तव में संस्कृति की पुकार केवल ढोंग है, निरा पाखण्ड। शीतल छाया में बैठे विहार करते हैं। यह सीधे-सादे आदमियों को साम्प्रदायिकता की ओर घसीट लाने का केवल एक मन्त्र है और कुछ नहीं। हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति के रक्षक वही महानुभाव और वही समुदाय हैं, जिनको अपने ऊपर, अपने देशवासियों के ऊपर और सत्य के ऊपर कोई भरोसा नहीं, इसलिए अनन्त तक एक ऐसी शक्ति की ज़रूरत समझते हैं जो उनके झगड़ों में सरपंच का काम करती रहे।

इन संस्थाओं को जनता के सुख-दुख से कोई मतलब नहीं, उनके पास ऐसा कोई सामाजिक या राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है, जिसे राष्ट्र के सामने रख सकें। उनका काम केवल एक-दूसरे का विरोध करके सरकार के सामने फ़रियाद करना है। वे ओहदों और रियायतों के लिए एक-दूसरे से चढ़ा-ऊपरी करके जनता पर शासन करने में शासक के सहायक बनने के सिवा और कुछ नहीं करते।

मुसलमान अगर शासकों का दामन पकड़कर कुछ रियायतें पा गया है, तो हिन्दु क्यों न सरकार का दामन पकड़ें और क्यों न मुसलमानों की भाँति सुख़र्रू बन जायें। यही उनकी मनोवृत्ति है। कोई ऐसा काम सोच निकालना जिससे हिन्दू और मुसलमान दोनों एक राष्ट्र का उद्धार कर सकें, उनकी विचार-शक्ति से बाहर है। दोनों ही साम्प्रदायिक संस्थाएँ मध्यवर्ग के धनिकों, ज़मींदारों, ओहदेदारों और पदलोलुपों की हैं। उनका कार्यक्षेत्र अपने समुदाय के लिए ऐसे अवसर प्राप्त करना है, जिससे वह जनता पर शासन कर सकें, जनता पर आर्थिक और व्यावसायिक प्रभुत्व जमा सकें। साधारण जनता के सुख-दुख से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं। अगर सरकार की किसी नीति से जनता को कुछ लाभ होने की आशा है और इन समुदायों को कुछ क्षति पहुँचने का भय है, तो वे तुरन्त उसका विरोध करने को तैयार हो जायेंगे। अगर और ज़्यादा गहराई तक जायें तो हमें इन संस्थाओं में अधिकांश ऐसे सज्जन मिलेंगे जिनका कोई न कोई निजी हित लगा हुआ है। और कुछ न सही तो हुक्काम के बंगलों पर उनकी रसोई ही सरल हो जाती है। एक विचित्र बात है कि इन सज्जनों की अफ़सरों की निगाह में बड़ी इज़्ज़त है, इनकी वे बड़ी ख़ातिर करते हैं।

इसका कारण इसके सिवा और क्या है कि वे समझते हैं, ऐसों पर ही उनका प्रभुत्व टिका हुआ है। आपस में ख़ूब लड़े जाओ, ख़ूब एक-दूसरे को नुक़सान पहुँचाये जाओ। उनके पास फ़रियाद लिये जाओ, फिर उन्हें किसका नाम है, वे अमर हैं। मज़ा यह है कि बाज़ों ने यह पाखण्ड फैलाना भी शुरू कर दिया है कि हिन्दू अपने बूते पर स्वराज प्राप्त कर सकते है। इतिहास से उसके उदाहरण भी दिये जाते हैं। इस तरह की ग़लतफ़हमियाँ फैला कर इसके सिवा कि मुसलमानों में और ज़्यादा बदगुमानी फैले और कोई नतीजा नहीं निकल सकता। अगर कोई ज़माना था, तो कोई ऐसा काल भी था, जब हिन्दुओं के ज़माने में मुसलमानों ने अपना साम्राज्य स्थापित किया था, उन ज़मानों को भूल जाइए। वह मुबारक़ दिन होगा, जब हमारे शालाओं में इतिहास उठा दिया जायेगा। यह ज़माना साम्प्रदायिक अभ्युदय का नहीं है। यह आर्थिक युग है और आज वही नीति सफल होगी जिससे जनता अपनी आर्थिक समस्याओं को हल कर सके जिससे यह अन्धविश्वास, यह धर्म के नाम पर किया गया पाखण्ड, यह नीति के नाम पर ग़रीबों को दुहने की कृपा मिटाई जा सके। जनता को आज संस्कृतियों की रक्षा करने का न अवकाश है न ज़रूरत। ‘संस्कृति’ अमीरों, पेटभरों का बेफि़क्रों का व्यसन है। दरिद्रों के लिए प्राणरक्षा ही सबसे बड़ी समस्या है।

उस संस्कृति में था ही क्या, जिसकी वे रक्षा करें। जब जनता मूर्छित थी तब उस पर धर्म और संस्कृति का मोह छाया हुआ था। ज्यों-ज्यों उसकी चेतना जागृत होती जाती है, वह देखने लगी है कि यह संस्कृति केवल लुटेरों की संस्कृति थी जो, राजा बनकर, विद्वान बनकर, जगत सेठ बनकर जनता को लूटती थी। उसे आज अपने जीवन की रक्षा की ज़्यादा चिन्ता है, जो संस्कृति की रक्षा से कहीं आवश्यक है। उस पुरान संस्कृति में उसके लिए मोह का कोई कारण नहीं है। और साम्प्रदायिकता उसकी आर्थिक समस्याओं की तरफ़ से आँखें बन्द किये हुए ऐसे कार्यक्रम पर चल रही है, जिससे उसकी पराधीनता चिरस्थायी बनी रहेगी।

रविवार, 16 जुलाई 2017

हिन्दी ब्लाग की उपलब्धि तीसरा खंबा को 5 वर्ष 6 माह 15 दिन में मिले 15 लाख विजिटर्स

हिन्दी ब्लागों को पढ़ते और टिपियाते हुए सुझाव आया कि मुझे भी ब्लाग लिखना चाहिए। 28 अक्टूबर 2007 को मेरा जो पहला ब्लाग सामने आया वह "तीसरा खंबा" था।


"तीसरा खंबा" के माध्यम से विधि के क्षेत्र में कुछ अलग करने का मन था। कुछ किया भी, लेकिन टिप्पणियों में यह फरमाइश होने लगी कि मैं लोगों को उन की समस्याओं के लिए कानूनी उपाय भी बताऊँ। मैं ने वह आरंभ किया तो। तीसरा खंबा पर समस्याएँ आने लगीं। तो मैं ने कम से कम एक समस्या का समाधान या उपाय हर रोज लिखना शुरू किया।  तो "तीसरा खंबा" नियमित ब्लाग हो गया।


उन्हीं दिनों बीएस पाबला जी ने "अदालत" ब्लाग शुरू किया था जिस में वे विधि से संबंधित समाचारों को लिखा करते थे। उन से संपर्क हुआ तो पक्की दोस्ती में बदल गया। 2011 की एक रात पाबला जी से फोन पर बात हो रही थी। उन का सुझाव था कि अपना डोमेन ले लिया  जाए। मैं ने कहा ले लो। पाबला जी से बात पूरी हुई थी कि 10 मिनट बाद फोन की घंटी बजी। पाबला जी थे बता रहे थे कि "तीसरा खंबा" के लिए  http://teesarakhamba.com/  डोमेन मिल गया है। अब उन का कहना था कि ब्लागर के स्थान पर वर्डप्रेस पर जा कर इसे एक वेबसाइट का  रूप दे दिया जाए। वह भी पूरा किया पाबला जी ने ही। आखिर वेबसाइट शुरू हो गयी। हम ने 1 जनवरी 2012 से उस का शुभारंभ मान कर उस की स्टेटिस्टिक्स शुरू की।

एक जनवरी 2012 से कल 15 जुलाई 2017 तक "तीसरा खंबा" ने 15 लाख विजिटर हासिल कर लिए हैं। बीते कल इस पर 4328 विजिटर थे। हिन्दी ब्लाग जगत के लिए इसे एक उपलब्धि तो कहा ही जा सकता है।  

रविवार, 2 जुलाई 2017

... और तुम घंटा बजाओ

ल पहली बार अंतर्राष्ट्रीय  हिन्दी ब्लॉग दिवस मनाया गया। इस दिन अनेक पुराने ब्लागरों ने पोस्टें लिखीं। एक जमाना था जब हम लगभग रोज कम से कम एक पोस्ट लिखा करते थे। कभी कभी दो या अधिक भी हो जाती थीं। तीसरा खंबा पर यह सिलसिला जारी है। अनवरत पर लगभग सन्नाटा है। अब ब्लॉग दिवस के बहाने यह सन्नाटा टूटा है तो यह भी कोशिश है कि रोज ब्लाग पर कुछ न कुछ लिखा जाए। चलो कुछ लिखते हैं ....

मेरे पास तीसरा खंबा पर औसतन 300-400 समस्याएँ प्रतिमाह प्राप्त होती हैं। कभी कभी लोग केवल अपनी गाथा लिखते हैं लेकिन वे कोई समाधान नहीं चाहते। या तो वे जानते हैं कि इस का कोई ऐसा समाधान नहीं है जो कानून उन्हें दे सकता हो। उन की समस्याएँ समाज, कानून और न्यायव्यवस्था में बड़ा बदलाव चाहती हैं। वह बदलाव तो तब होगा जब होगा। अभी तो उस बदलाव के लिए पर्याप्त आवाज तक नहीं उठती है। खैर!

पिछले सप्ताह मेरेे पास एक सज्जन ने सिवान, बिहार से अपनी गाथा लिख भेजी है। उन का मकसद था कि उन की गाथा और लोग भी जानें। तो मैं उन की गाथा तनिक भाषा. व्याकरण और विराम चिन्हों के सुधार के बाद एक शीर्षक अपनी ओर से देते हुए यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ...


और तुम घंटा बजाओ

मेरी शादी 10.12.2009 को हिन्दू रीति से 5 रुपया दहेज़ में सम्पन्न हुई। मैं दहेज़ के खिलाफ रहता हूँ, शादी के 2 दिन बाद बहुभोज के दिन पत्नी का जीजा और उसकी बुवा का लड़का और एक उसकी बहन आई। मेरे सामने ही उसका बहनोई उसके स्तनों पे हाथ रख के बात करने लगा और मुझे देखते ही उसने हाथ हटा लिया। मैंने पत्नी से पूछा तो बोली मज़ाक कर रहे थे तो मैंने डांट दिया है। मैंने भी ज्यादा ध्यान नहीं दिया।

मुंह दिखाई मैंने उसको 20000 रुपया दिया कि जरुरत के अनुसार खर्च करना। फिर बीच में उसका अपना भाई आया और मिल कर चला गया। करीब 2 महीने बाद मुझे कुछ पैसों की जरुरत पड़ी तो माँगा, उस ने 10000 रुपया दिया। पूछा और क्या किया? तो बोली हिसाब नहीं पूछा जाता है पत्नी से। इस बात पर मैंने काफी डांट डपट की तो बोली भाई को दी हूँ, उस से क्या हो गया। मैंने कहा वही मुझे बोल कर भी तो दे सकती थी।

बहुभोज के दूसरे दिन रात को उसके जीजा का फोन आया रात को 8:30 पे। मोबाइल में कॉल रिकॉर्डिंग रखता हूँ मैं, उसका जीजा उसको बोला जल्दी सेक्स मत करने देना और अगर जबरदस्ती करे तो चिल्लाने लगना। उसको शक नहीं होगा, वरना पकड़ी जाओगी। मुझे रिकॉर्डिंग सुनकर बड़ा दुःख हुवा, अपना दर्द किसको कहता, शर्म के मारे बात को दबा लिया। शादी के 4 महीनों बाद उसको घुमाने उसके घर ले गया। मैं उसके यहाँ रखा फोटो एल्बम देखने लगा। उस में मेरी पत्नी का उसके जीजा के साथ लवर-पोज़ में फोटो था। उसके बुवा के लड़के के साथ फोटो था। मुझे अब बर्दास्त नहीं हुआ तो पत्नी को पूछा। तो उसकी माँ ने सुन लिया और मुझे बोली उस से क्या हो गया? कोई घटने वाला सामान थोड़े है जो आप चिल्ला रहे हैँ। उस से क्या हो गया जीजा से मिल ली तो आप ज्यादा मत चिल्लाइये वरना जेल में डलवा देंगे। मैं काफी परेशान हो गया, फिर भी पत्नी को घर ले के आ गया 2 दिन में ही। उसके 5 महीने बाद मेरे ससुर आये बोले बिदाई कीजिये। मैंने मना किया, लेकिन मेरे घरवालों ने मुझे समझा कर उसको भेज दिया। फिर मैं 15 दिन बाद गया ससुराल बिदाई कराने तो मेरा ससुर बोला 6 महीना यहीं रहेगी। आप यहीं पे खर्चा दे दीजिये। इस बात पर मेरी ससुर से कहा सुनी हुई काफी दिक्कतों के बाद मेरी पत्नी मेरे साथ आने को तैयार हुई।

आने के 4 महीने बाद बिलकुल यही घटना फिर हुई फिर काफी बातचीत के बाद आई मेरे साथ। उसके बाद 2011 में मुझे एक बेटा हुआ, ऑपरेशन से। बेटे के जन्म के 3 महीने बाद ही वो लोग फिर आ गए बिदाई कराने। तब मुझसे उनका बहुत झगड़ा हुआ कि एक तो आपकी बेटी अपना दूध नहीं पिला रही लड़के को, दूध सुखाने की दवा चला ली और आप इसको डांटने के बजाय ले जाने को तैयार हैं। तो ससुर बोले कि घर पे ले जाकर समझायेंगे। मैंने मना किया तो मेरी पत्नी तैयार हो कर बोली अपना लड़का रखो मैं जा रही हूँ, और वो चली गई।

फिर 2 महीने की मसक्कत के बाद आई। फिर 4 महीने बाद वही घटना, लड़का छोड़ के चली गई। वहाँ 20 दिन रही और मेरे पास कॉल की कि मैं प्रेग्नेंट हूँ, पैसा भेजिए अबोर्शन कराना है। तो मैने 5000 रुपया भेजा। तो पैसा खर्च करके बोली डॉक्टर ने मना किया है गिराने से तो रहने दीजिये। मैंने कहा ठीक है। महीने रह के आई और 15 दिन के बाद से ही मेरे पूरे परिवार में कलह पैदा कर दी। ऐसा हालात बना दी की कोई किसी की मदद न करे। डिलिवरी से 10 दिन पहले ससुर आये बोले भेज दीजिये वही पे करा देंगे, आप खर्च दे दीजिये। मेरा मन नहीं था भेजने का फिर भी 10000 रुपया देकर भेज दिया।

इस वक्त भी लड़का छोड़ कर गई। 2 दिन बाद कॉल आया कि आइये ऑपरेशन के समय आपको रहना पड़ेगा तो मैं गया मेरे पहुँचते ही ससुर अपने घर चला गया, वहाँ मुझे और मेरी सास को और गाँव की 3 औरतों को छोड़कर। मैं वही बैठा था ओटी के सामने रात के 8 बज रहे थे। मेरे सामने से ही नर्स ट्रे में एक बच्चा ले के गई ट्रे को कपडे से ढँक कर। पर बच्चे की ऊँगली ट्रे के बाहर निकली हुई थी तो मैंने सोचा किसी का होगा। तब तक मेरी सास आई और बोली अब नसबंदी भी हो जाए, चलिए साइन कीजिये। मैंने मना किया तो पता नहीं कहा से 4, 5 औरतें 2 मर्द आ गए और मुझसे झगड़ा करने लगे। बोले साइन करो नहीं तो इधर ही काट कर फेंक देंगे तुमको। काफी हुज्जत के बाद भी मुझे साइन करना पड़ा। साइन करने के 20 मिनट बाद नर्स आई, वो ही trey लेके जो लेके गई थी और बोली आपका बच्चा नहीं बचेगा। इसको दिखाइये किसी डॉक्टर को। मैं ये सुनकर वही बेहोश हो गया था, करीब 1 घंटे बाद मुझे होश आया। तभी नर्स ने मेरी सास को बुलाया मेरी सास आते ही बोली आपके लड़के को सरकारी हॉस्पिटल के आईसीयू में रखवाया है जाकर देखिये। मैं रोते हुवे सरकारी हॉस्पिटल गया तो देखा लड़का लावारिस की तरह आईसीयू में पड़ा है। नर्स से पूछा तो वो बोली कि लड़का नहीं बचेगा। उस वक्त मेरे पास 10 रुपया भी नहीं था कि उसको प्राइवेट में दिखाऊं। बस हॉस्पिटल के बाहर बैठ कर उसको मरते हुवे देख रहा था। इसी में सुबह हो गई तब तक नर्स आई बोली लाश ले जाइए, सफाई करना है। वहीं अपनी चांदी की अंगूठी चाय वाले को देकर उससे 400 रुपया क़र्ज़ लिया, लड़के के अंतिम संस्कार के लिए।

जब अंतिम संस्कार करके आया तो देखा हॉस्पिटल में उसका जीजा आया हुवा है और मेरी सास मेरी पत्नी को काजू खिला रही है। मैंने जब पत्नी को बोला कि लड़का मर गया, तो वो बोली ये सब मत सुनाओ भाग्य में नहीं था और लेटे लेटे फिर काजू खाने लगी। इस पर मुझे गुस्सा आया तो मैं उन लोगो को भला बुरा कहने लगा। तब तक मेरा ससुर आया और मुझे धक्का दे कर बोला जाओ तुम्हारे साथ नहीं जायेगी मेरी बेटी और तुमसे खर्च कैसे लेना है मै जानता हूँ। मैं अपने घर आ गया। फिर 10 दिन बाद गया तो वो लोग हॉस्पिटल से डिस्चार्ज हो रहे हैं तो उनके साथ पत्नी को उसके घर छोड़कर अपने घर आ गया।

बीच बीच में जाकर मिलता रहा फिर काफी मसक्कत के बाद 3 महीने पर वो बिदा करने को राज़ी हुए। पर शर्त थी की 20000 दो पत्नी को ले जाओ। हमारा खर्च हुवा है हॉस्पिटल में। तो इस बात पर कुछ लोगो के समझाने के बाद बोला हमको चाहिए बाद में ही देना और चलो एक सादा स्टाम्प पेपर लाये बोले साइन करो। मैंने मना कर दिया साइन करने से। तो मुझे लेकर मुखिया के पास गए और मुखिया के सामने पेपर पर साइन करने को बोले। पेपर में लिखा था मैं दहेज़ नहीं मांगूंगा अपनी पत्नी से, फिर मारपीट नहीं करूँगा। तो मैंने बोला मैंने कब आपसे 1 रुपया माँगा। तो वो दहेज़ वाली लाइन कटवा दिए। उसके 2 दिन बाद पत्नी को अपने घर ले के आया।

उसके 3 महीने बाद ही मेरा ससुर वो पेपर लेके एसपी के पास आवेदन दे दिया तो महिला थाना मेरे घर पे आई और मुझे मेरी पत्नी को मेरी माँ को पापा को थाने लेके गई। वहां पे जब मैंने सारी बात बताई तो महिला पुलिस मेरे सास ससुर को 4 डंडे लगाईं बोली कैसे माँ बाप हो अपनी बेटी का घर उजाड़ रहे हो। मेरी पत्नी से पूछी तुमने सिंदूर क्यों नहीं लगाया। तो वो बोली याद नहीं आया। जबकि सच ये है कि वो मेरे यहाँ कभी सिंदूर नहीं लगाती है। थाने में बांड भर के हम अपने अपने घर चले आये।

उसके बाद हमेशा घर में जेवर पैसा ग़ुम होने लगा। मैं जान कर चुप हो जाता। पर एक बार बोली कि उसका मंगलसूत्र ग़ुम हो गया है तो इस बात पे मेरा मेरी पत्नी से झगड़ा हुआ। उसने फोन करके अपने बाप को बुला लिया और रोड पे अर्धनग्न बाल बिखेर के निकल गई, उसके माँ और बाप चिल्लाने लगे। अभी मैं कुछ बोलूं उससे पहले ही रिक्शा से चले गए। मैं ढूंढने निकला तब तक भूकम्प आ गया 25 अप्रैल 2015 वाला। तो मैं वापस अपने लड़के के पास चला आया। वो अपने मैके जाके 498, 3/4 और 125 का केस कर दी।

जब मैं बाजार के कुछ सभ्य लोगो को लेकर उसके यहाँ गया तो उसका बाप बोला पैसा दो तो ही कुछ बात होगा। मैंने हुज्जत किया तो उन लोगों के तरफ से कुछ आवारा लड़के थे वहा जो मेरे भाई पे हाथ उठा दिए। मेरा ससुर मुझे अकेले में बुला के बोला जिस तरह कहूँ उस तरह करो वरना ज़िंदा चिमनी में फिंकवा दूंगा। जाओ 50000 रुपया ले कर आओ, केस ख़त्म हो जाएगा। बातचीत में ही 6 महीने हो गए और अब तक मैं रोड पे आ चुका था। अपने सेठ से 50000 रुपया क़र्ज़ ले कर दिया तो मेरी पत्नी मेरे साथ आई और उसके 6 महीने बाद उसने केस ख़त्म करवाया।

उसके बाद खुल कर मेरे सामने ही मोबाइल से पता नहीं कहाँ बात करती। मैं मना करता तो धमकी देती कि ज्यादा चिल्लाओ मत वरना फिर भुगतोगे। मैं चुप हो जाता। इधर 2 महीने पहले 3 बजे सुबह वह बस स्टॉप चली गई, मैके जाने के लिए, लड़के को लेकर। 4 बजे मेरी नीन्द खुली तो बाहर से ताला बंद मिला। मैं छत से 10 फीट कूद कर उसको ढूंढने निकला तो वो बस स्टॉप पे मिली। मुझे देख कर भीड़ इकट्ठा करने की कोशिश करने लगी। सब वहां पहचान के थे और सब जानते थे मेरी आप बीती। तो इसको मेरे साथ भेज दिए। आकर बोली मैं अपने मैके में ही रहूंगी, मुझे वहीं खर्च देना। इसीलिए अब लड़के को लेकर जाउंगी जो कि अब 6 साल का है। इसका खर्च तो तुम्हें देना ही होगा। फिर वो इधर दो महीने पहले घर में रखा 1.5 लाख रुपया गहना, कपडा, लड़का,  साथ ले के दिन में 3 बजे के करीब किसी को बुलाकर उसके बाइक पे बैठ के भाग गई है। मैं क्या करूँ? उसको गोली मार दूँ, या खुद को गोली मार लूँ? भारतीय कानून से किसी भी प्रकार की उम्मीद नहीं मुझे, इतना हुआ मेरे साथ। पर कोर्ट बोलेगा खर्च दो उसको, अपनी प्रॉपर्टी में हिस्सा दो उसको, और तुम घंटा बजाओ। ये है हमारा संविधान।

शनिवार, 1 जुलाई 2017

ब्लॉगिंग जारी है ...


पनी ब्लॉगिंग का आगाज 28 अक्टूबर 2007 को ब्लाग ‘तीसरा खंबा’ की पहली पोस्ट न्याय व्यवस्था की आलोचना में जन-हस्तक्षेप के साथ हुआ था। इस पोस्ट में मैंने रेखांकित करने की कोशिश की थी कि न्याय व्यवस्था हमारी शासन व्यवस्था और राज्य का अभिन्न अंग है और उसे स्वस्थ और सक्षम बनाए रखने के लिए उस की निरन्तर आलोचना जरूरी है। इस ब्लाग का यह दसवाँ वर्ष है, न्याय व्यवस्था पर इस ब्लाग पर बहुत चर्चाएँ हुई हैं। ब्लाग के बनने के कुछ समय बाद ही लोगों की यह मांग हुई कि मैं उन की कानूनी समस्याओं और जिज्ञासाओं के हल उन्हें सुझाऊँ। इसी संदर्भ में इस ब्लाग पर कानूनी सलाह का देने का सिलसिला आरंभ हुआ जो अभी तक जारी है।


जिन दिनों यह ब्लाग बना था लगभग उन्हीं दिनों अदालत नाम का ब्लाग बीएस पाबला जी ने आरंभ किया था। दोनों की प्रकृति एक जैसी थी। इन एक प्रकृति वाले ब्लागों ने इन के ब्लागरों को नजदीक लाने का काम किया और जो मित्रता स्थापित हुई वह आगे जा कर अभिन्न हो गयी। यह पाबला जी का ही सुझाव था कि अब तीसरा खंबा को ब्लाग स्पॉट से निकाल कर अपनी यूआरएल पर लाया जाए और इसे एक स्वतंत्र साइट का रूप दे दिया जाए। मैं तकनीकी रूप से खाली तो नहीं था, लेकिन हर तकनीकी सिद्धता समय चाहती है। वह समय मेरे पास नहीं था। तीसरा खंबा ने पाबला जी की ऊंगली पकड़ना उचित समझा। आज भी वह तकनीक के मामले में उन की उंगली पकड़ कर ही आगे चल रहा है।

तीसरा खंबा की निरंतरता का सब से बड़ा राज ये है कि इस पर औसतन 10 समस्याएँ प्रतिदिन प्राप्त हो जाती हैं। उन में से एक समस्या को मैं इस साइट पर पोस्ट करता हूँ। शेष को मेल से ही उन का उपाय सुझा दिया जाता है। इस कायदे का लाभ यह हुआ है कि इस पर आने वाले पाठकों की संख्या निरन्तर बढ़ती जाती है। 1 जनवरी 2012 को जब इसे साइट का रूप दिया गया था, तब से आज तक यह साइट कुल 1445300 बार क्लिक की जा चुकी है, कुल 30 जून को 3298 पाठक आए। इन में से अधिकांश गूगल सर्च के माध्यम से आए हैं। इस तरह इसी माह यह संख्या 15 लाख को पार करने वाली है।


अपनी ब्लागिंग तीसरा खंबा पर निरन्तर जारी है। 

संसद में घण्टा बजने वाला है

1 जुलाई का दिन बहुत महत्वपूर्ण होता है। खास तौर पर हमारे भारत देश में इस का बड़ा महत्व है। यदि केलेंडर में यह व्यवस्था हो कि आजादी के बाद के 70 सालों में किसी तारीख में पैदा हुए लोगों की संख्या उस तारीख के खांचे में लिखी मिल जाए तो 1 जुलाई की तारीख का महत्व तुरन्त स्थापित हो जाएगा। कैलेंडर की 366 तारीखों में सब से अधिक लोगों को जन्म देने वाला दिन 1 जुलाई ही नजर आएगा। उधर फेसबुक पर हर दिन दिखाया जाता है कि उस दिन किस किस का जन्मदिन है। फेसबुक शुरू होने से ले कर आज तक जन्मदिन सूची एक जुलाई को ही सब से लंबी होती है।
 
जब से मुझे पता लगा कि भारत में सब से अधिक लोग 1 जुलाई को ही पैदा होते हैं तो मेरे मन में यह जिज्ञासा पैदा हुई कि आखिर ऐसा क्यों होता है? आखिर ये एक अदद तारीख का चमत्कार तो नहीं हो सकता। उस के पीछे कोई न कोई राज जरूर होना चाहिए। वैसे भी यदि ये तारीख का ही चमत्कार होता तो इमर्जेंसी में संजयगांधी जरूर इस तारीख को कैलेंडर से निकलवा देते। केवल इस तारीख को निकाल देने भर से जनसंख्या वृद्धि में गिरावट दर्ज की जा सकती थी। पूरे आपातकाल में ऐसा न हुआ, यहाँ तक कि ऐसा कोई प्रस्ताव भी सामने नहीं आया। मुझे तभी से यह विश्वास हो चला था कि यह तारीख का चमत्कार नहीं है बल्कि इस के पीछ कोई और ही राज छुपा है।

जिस साल इमर्जेंसी लगी उसी साल मेरी शादी हुई थी। शादी के डेढ़ माह बाद ही 1 जुलाई का दिन पड़ा। इस दिन पता लगा कि मेरे ससुर साहब भी 1 जुलाई को ही पैदा हुए थे। इस जानकारी के बाद मैं अपनी तलाश में लग गया कि आखिर इस के पीछे क्या राज है? मैं ने सोचा कि मुझे यह जानकारी हासिल करनी चाहिए कि देश में जन्मतिथि का रिकार्ड रखने का तरीका क्या है? इस कोशिश से पता लगा कि देश में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जिस से लोगों के जन्म का रिकार्ड रखा जाता हो। आम तौर पर हर चीज के लिए मेट्रिक परीक्षा की अंक तालिका को ही जन्म तिथि का आधार मान लिया जाता है। मेट्रिक की अंकतालिका में वही जन्मतिथि अंकित होती थी जो किसी बच्चे को स्कूल में भर्ती कराते समय अंकित कराई जाती थी या फिर कर दी जाती थी।

जब स्कूल के रिकार्ड पर ही अपने इस महत्वपूर्ण शोध का परिणाम निकलने वाला था तो इस के लिए अध्यापकों से पूछताछ करना जरूरी हो गया। लेकिन मेरे लिए यह मुश्किल काम नहीं था। खुद अपने घर में चार पांच लोग अध्यापक थे। पिताजी भी उन में एक थे। मैं ने पिताजी से ही पूछा कि आखिर ऐसा क्यों है कि हमारे यहाँ सब से ज्यादा लोग 1 जुलाई को पैदा होते हैं? मेरे इस सवाल पर पिताजी ने अपने चिर परिचित अंदाज में जोर का ठहाका लगाया। उस ठहाके को सुन मैं बहुत अचरज में आ गया और सोचने लगा कि आखिर मैं जिस शोध में पूरी गंभीरता से जुटा हूँ उस में ऐसा ठहाका लगाने लायक क्या था? खैर¡
जैसे ही पिताजी के ठहाके की धुन्ध छँटी, पिताजी ने बोलना आरंभ किया। 1 जुलाई के दिन में ऐसी कोई खास बात नहीं है जिस से उस दिन ज्यादा बच्चे पैदा हों। वास्तव में इस दिन जबरन बहुत सारे बच्चे पैदा किए जाते हैं, और ये सब हमारे विद्यालयों में पैदा होते हैं।

मैं पूरे आश्चर्य से पिताजी को सुन रहा था। वे कह रहे थे। उस दिन लोग स्कूल में बच्चों को भर्ती कराने ले कर आते हैं। हम उन से जन्म तारीख पूछते हैं तो उन्हें याद नहीं होती। जब उम्र पूछते हैं तो वे बता देते हैं कि बच्चा पांच बरस का है या छह बरस का। अब यदि 1 जुलाई को बच्चे की उम्र पूरे वर्ष में कोई बताएगा तो उस साल में से उम्र के वर्ष निकालने के बाद जो साल आता है उसी साल की 1 जुलाई को बच्चे की जन्मतिथि लिख देते हैं। इस तरह हर एक जुलाई को बहुत सारे लोग अपना जन्मदिन मनाते दिखाई देते हैं।

जब ब्लागिंग का बड़ा जोर था तब वहाँ ताऊ बड़े सक्रिय ब्लागर थे। वे रोज ही कोई न कोई खुराफात ले कर आते थे। फिर अचानक ताऊ गायब हो गए। जब से वे गायब हुए ब्लागिंग को खास तौर पर हिन्दी ब्लागिंग को बहुत बड़ा झटका लगा। उस में गिरावट दर्ज की जाने लगी और वह लगातार नीचे जाने लगी। बहुत से ब्लागर इस से परेशान हुए और फेसबुक जोईन कर ली। धीरे धीरे ब्लागिंग गौण हो गयी और लोग फेसबुक पर ही एक दिन में कई कई पोस्टें करने लगे।

पिछले दिनों ताऊ का फेसबुक पर पुनर्जन्म हो गया। तब से मुझे लगने लगा था कि ताऊ जल्दी ही कोई ऐसी खुराफात करने वाला है। अचानक कुछ दिन पहले ताऊ ने अचानक ब्लाग जगत का घंटा फिर से बजा दिया। ऐलान किया कि अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी ब्लॉग दिवस मनया जाना चाहिए। हम ने ताऊ के कान में जा कर पूछा –मनाएँ तो सही पर किस दिन? ताऊ ने बताया कि 1 जुलाई पास ही है और वह तो भारत में ऐसा दिन है जिस दिन सब से ज्यादा बच्चे पैदा होते हैं। यह सुनते ही मैं ने भी अपने पिताजी की स्टाइल में इतने जोर का ठहाका लगाया कि ताऊ तक को चक्कर आ गया।

लेकिन ताऊ ही अकेला ताऊ थोड़े ही है। हिन्दुस्तान में जिधर देखो उधर ताऊ ही ताऊ भरे पड़े हैं। अब इन दिनों देश में मोदी जी सब से बड्डे ताऊ हैं। उन के मंत्रीमंडल का वित्तमंत्री जेटली उन से भी बड़ा ताऊ है। उस ने भी जीएसटी लागू करने की तारीख 1 जुलाई तय कर दी। बहुत लोगों ने कहा जनाब अभी तो पूरी तैयारी नहीं है ऐसे तो लाखों लोग संकट में पड़ जाएंगे। पर जेटली बड़ा ताऊ आदमी है। उस ने किस की सुननी थी? वो बोला लोग संकट में पड़ें तो पड़ें पर जीएसटी तो 1 जुलाई को ही लागू होगा। जो भी परेशानियाँ और संकट होंगे उन्हें बाद में हल कर लिया जाएगा। नोटबंदी में भी बहुत परेशानियाँ और संकट थे। पर सब हुए कि नहीं अपने आप हल? अब इस बात का कोई क्या जवाब देता? सब ने मान लिया की ताऊ जो तू बोले वही सही। जेटली ताऊ ये देख कर भौत खुस हो गया। उस ने आधी रात को संसद में जश्न मनाने का प्रस्ताव रखा जिसे मोदी ताऊ ने तुरन्त मान लिया। उस प्लान में ये और जोड़ दिया कि ठीक रात के बारह बजे घण्टा भी बजाया जाएगा।


अब आज की ब्लागिंग को यहीं विराम दिया जाए। टैम हो चला है, जेटली ताऊ संसद में मोदी ताऊ का घंटा बजाने वाला है। 

सोमवार, 26 जून 2017

प्रेमचन्द की कहानी 'ईदगाह'

ईदगाह

-प्रेमचन्द


मजान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आयी है। कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभाव है। वृक्षों पर अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, यानी संसार को ईद की बधाई दे रहा है। गॉंव में कितनी हलचल है। ईदगाह जाने की तैयारियॉँ हो रही हैं। किसी के कुरते में बटन नहीं है, पड़ोस के घर में सुई-धागा लेने दौड़ा जा रहा है। किसी के जूते कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर पर भागा जाता है। जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें। ईदगाह से लौटते-लौटते दोपहर हो जाएगी। तीन कोस का पेदल रास्ता, फिर सैकड़ों आदमियों से मिलना-भेंटना, दोपहर के पहले लोटना असम्भव है। लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं। किसी ने एक रोजा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज है। रोजे बड़े-बूढ़ो के लिए होंगे। इनके लिए तो ईद है। रोज ईद का नाम रटते थे, आज वह आ गई। अब जल्दी पड़ी है कि लोग ईदगाह क्यों नहीं चलते। इन्हें गृहस्थी चिंताओं से क्या प्रयोजन! सेवैयों के लिए दूध ओर शक्कर घर में है या नहीं, इनकी बला से, ये तो सेवेयां खाऍंगे। वह क्या जानें कि अब्बाजान क्यों बदहवास चौधरी कायमअली के घर दौड़े जा रहे हैं। उन्हें क्या खबर कि चौधरी ऑंखें बदल लें, तो यह सारी ईद मुहर्रम हो जाए। उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर काधन भरा हुआ है। बार-बार जेब से अपना खजाना निकालकर गिनते हैं और खुश होकर फिर रख लेते हैं। महमूद गिनता है, एक-दो, दस,-बारह, उसके पास बारह पैसे हैं। मोहनसिन के पास एक, दो, तीन, आठ, नौ, पंद्रह पैसे हैं। इन्हीं अनगिनती पैसों में अनगिनती चीजें लाऍंगेंखिलौने, मिठाइयां, बिगुल, गेंद और जाने क्या-क्या।
     और सबसे ज्यादा प्रसन्न है हामिद। वह चार-पॉँच साल का गरीब सूरत, दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और मॉँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गई। किसी को पता क्या बीमारी है। कहती तो कौन सुनने वाला था? दिल पर जो कुछ बीतती थी, वह दिल में ही सहती थी ओर जब न सहा गया,. तो संसार से विदा हो गई। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न है। उसके अब्बाजान रूपये कमाने गए हैं। बहुत-सी थैलियॉँ लेकर आऍंगे। अम्मीजान अल्लहा मियॉँ के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गई हैं, इसलिए हामिद प्रसन्न है। आशा तो बड़ी चीज है, और फिर बच्चों की आशा! उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती हे। हामिद के पॉंव में जूते नहीं हैं, सिर परएक पुरानी-धुरानी टोपी है, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है। जब उसके अब्बाजान थैलियॉँ और अम्मीजान नियमतें लेकर आऍंगी, तो वह दिल से अरमान निकाल लेगा। तब देखेगा, मोहसिन,  नूरे और सम्मी कहॉँ से उतने पैसे निकालेंगे।
     अभागिन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का दिन, उसके घर में दाना नहीं! आज आबिद होता, तो क्या इसी तरह ईद आती ओर चली जाती! इस अन्धकार और निराशा में वह डूबी जा रही है। किसने बुलाया था इस निगोड़ी ईद को? इस घर में उसका काम नहीं, लेकिन हामिद! उसे किसी के मरने-जीने के क्या मतल? उसके अन्दर प्रकाश है, बाहर आशा। विपत्ति अपना सारा दलबल लेकर आये, हामिद की आनंद-भरी चितबन उसका विध्वसं कर देगी।
     हामिद भीतर जाकर दादी से कहता हैतुम डरना नहीं अम्मॉँ, मै सबसे पहले आऊँगा। बिल्कुल न डरना।
     अमीना का दिल कचोट रहा है। गॉँव के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ जा रहे हैं। हामिद का बाप अमीना के सिवा और कौन है! उसे केसे अकेले मेले जाने दे? उस भीड़-भाड़ से बच्चा कहीं खो जाए तो क्या हो? नहीं, अमीना उसे यों न जाने देगी। नन्ही-सी जान! तीन कोस चलेगा कैसे? पैर में छाले पड़ जाऍंगे। जूते भी तो नहीं हैं। वह थोड़ी-थोड़ी दूर पर उसे गोद में ले लेती, लेकिन यहॉँ सेवैयॉँ कोन पकाएगा? पैसे होते तो लौटते-लोटते सब सामग्री जमा करके चटपट बना लेती। यहॉँ तो घंटों चीजें जमा करते लगेंगे। मॉँगे का ही तो भरोसा ठहरा। उस दिन फहीमन के कपड़े सिले थे। आठ आने पेसे मिले थे। उस उठन्नी को ईमान की तरह बचाती चली आती थी इसी ईद के लिए लेकिन कल ग्वालन सिर पर सवार हो गई तो क्या करती? हामिद के लिए कुछ नहीं हे, तो दो पैसे का दूध तो चाहिए ही। अब तो कुल दो आने पैसे बच रहे हैं। तीन पैसे हामिद की जेब में, पांच अमीना के बटुवें में। यही तो बिसात है और ईद का त्यौहार, अल्ला ही बेड़ा पर लगाए। धोबन और नाइन ओर मेहतरानी और चुड़िहारिन सभी तो आऍंगी। सभी को सेवेयॉँ चाहिए और थोड़ा किसी को ऑंखों नहीं लगता। किस-किस सें मुँह चुरायेगी? और मुँह क्यों चुराए? साल-भर का त्योंहार हैं। जिन्दगी खैरियत से रहें, उनकी तकदीर भी तो उसी के साथ है: बच्चे को खुदा सलामत रखे, यें दिन भी कट जाऍंगे।
     गॉँव से मेला चला। ओर बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था। कभी सबके सब दौड़कर आगे निकल जाते। फिर किसी पेड़ के नींचे खड़े होकर साथ वालों का इंतजार करते। यह लोग क्यों इतना धीरे-धीरे चल रहे हैं? हामिद के पैरो में तो जैसे पर लग गए हैं। वह कभी थक सकता है? शहर का दामन आ गया। सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं। पक्की चारदीवारी बनी हुई है। पेड़ो में आम और लीचियॉँ लगी हुई हैं। कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ी उठाकर आम पर निशान लगाता हे। माली अंदर से गाली देता हुआ निंलता है। लड़के वहाँ से एक फलॉँग पर हैं। खूब हँस रहे हैं। माली को केसा उल्लू बनाया है।
     बड़ी-बड़ी इमारतें आने लगीं। यह अदालत है, यह कालेज है, यह क्लब घर है। इतने बड़े कालेज में कितने लड़के पढ़ते होंगे? सब लड़के नहीं हैं जी! बड़े-बड़े आदमी हैं, सच! उनकी बड़ी-बड़ी मूँछे हैं। इतने बड़े हो गए, अभी तक पढ़ते जाते हैं। न जाने कब तक पढ़ेंगे ओर क्या करेंगे इतना पढ़कर! हामिद के मदरसे में दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हें, बिल्कुल तीन कौड़ी के। रोज मार खाते हैं, काम से जी चुराने वाले। इस जगह भी उसी तरह के लोग होंगे ओर क्या। क्लब-घर में जादू होता है। सुना है, यहॉँ मुर्दो की खोपड़ियां दौड़ती हैं। और बड़े-बड़े तमाशे होते हें, पर किसी कोअंदर नहीं जाने देते। और वहॉँ शाम को साहब लोग खेलते हैं। बड़े-बड़े आदमी खेलते हें, मूँछो-दाढ़ी वाले। और मेमें भी खेलती हैं, सच! हमारी अम्मॉँ को यह दे दो, क्या नाम है, बैट, तो उसे पकड़ ही न सके। घुमाते ही लुढ़क जाऍं।
     महमूद ने कहाहमारी अम्मीजान का तो हाथ कॉँपने लगे, अल्ला कसम।
     मोहसिन बोलचलों, मनों आटा पीस डालती हैं। जरा-सा बैट पकड़ लेगी, तो हाथ कॉँपने लगेंगे! सौकड़ों घड़े पानी रोज निकालती हैं। पॉँच घड़े तो तेरी भैंस पी जाती है। किसी मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़े, तो ऑंखों तक अँधेरी आ जाए।
     महमूदलेकिन दौड़तीं तो नहीं, उछल-कूद तो नहीं सकतीं।
     मोहसिनहॉँ, उछल-कूद तो नहीं सकतीं; लेकिन उस दिन मेरी गाय खुल गई थी और चौधरी के खेत में जा पड़ी थी, अम्मॉँ इतना तेज दौड़ी कि में उन्हें न पा सका, सच।
     आगे चले। हलवाइयों की दुकानें शुरू हुई। आज खूब सजी हुई थीं। इतनी मिठाइयॉँ कौन खाता? देखो न, एक-एक दूकान पर मनों होंगी। सुना है, रात को जिन्नात आकर खरीद ले जाते हैं। अब्बा कहते थें कि आधी रात को एक आदमी हर दूकान पर जाता है और जितना माल बचा होता है, वह तुलवा लेता है और सचमुच के रूपये देता है, बिल्कुल ऐसे ही रूपये।
     हामिद को यकीन न आयाऐसे रूपये जिन्नात को कहॉँ से मिल जाऍंगी?
     मोहसिन ने कहाजिन्नात को रूपये की क्या कमी? जिस खजाने में चाहें चले जाऍं। लोहे के दरवाजे तक उन्हें नहीं रोक सकते जनाब, आप हैं किस फेर में! हीरे-जवाहरात तक उनके पास रहते हैं। जिससे खुश हो गए, उसे टोकरों जवाहरात दे दिए। अभी यहीं बैठे हें, पॉँच मिनट में कलकत्ता पहुँच जाऍं।
     हामिद ने फिर पूछाजिन्नात बहुत बड़े-बड़े होते हैं?
     मोहसिनएक-एक सिर आसमान के बराबर होता है जी! जमीन पर खड़ा हो जाए तो उसका सिर आसमान से जा लगे, मगर चाहे तो एक लोटे में घुस जाए।
     हामिदलोग उन्हें केसे खुश करते होंगे? कोई मुझे यह मंतर बता दे तो एक जिनन को खुश कर लूँ।
     मोहसिनअब यह तो न जानता, लेकिन चौधरी साहब के काबू में बहुत-से जिन्नात हैं। कोई चीज चोरी जाए चौधरी साहब उसका पता लगा देंगे ओर चोर का नाम बता देगें। जुमराती का बछवा उस दिन खो गया था। तीन दिन हैरान हुए, कहीं न मिला तब झख मारकर चौधरी के पास गए। चौधरी ने तुरन्त बता दिया, मवेशीखाने में है और वहीं मिला। जिन्नात आकर उन्हें सारे जहान की खबर दे जाते हैं।
     अब उसकी समझ में आ गया कि चौधरी के पास क्यों इतना धन है और क्यों उनका इतना सम्मान है।
     आगे चले। यह पुलिस लाइन है। यहीं सब कानिसटिबिल कवायद करते हैं। रैटन! फाय फो! रात को बेचारे घूम-घूमकर पहरा देते हैं, नहीं चोरियॉँ हो जाऍं। मोहसिन ने प्रतिवाद कियायह कानिसटिबिल पहरा देते हें? तभी तुम बहुत जानते हों अजी हजरत, यह चोरी करते हैं। शहर के जितने चोर-डाकू हें, सब इनसे मुहल्ले में जाकर जागते रहो! जाते रहो! पुकारते हें। तभी इन लोगों के पास इतने रूपये आते हें। मेरे मामू एक थाने में कानिसटिबिल हें। बरस रूपया महीना पाते हें, लेकिन पचास रूपये घर भेजते हें। अल्ला कसम! मैंने एक बार पूछा था कि मामू, आप इतने रूपये कहॉँ से पाते हैं? हँसकर कहने लगेबेटा, अल्लाह देता है। फिर आप ही बोलेहम लोग चाहें तो एक दिन में लाखों मार लाऍं। हम तो इतना ही लेते हैं, जिसमें अपनी बदनामी न हो और नौकरी न चली जाए।
हामिद ने पूछायह लोग चोरी करवाते हैं, तो कोई इन्हें पकड़ता नहीं?
     मोहसिन उसकी नादानी पर दया दिखाकर बोला..अरे, पागल! इन्हें कौन पकड़ेगा! पकड़ने वाले तो यह लोग खुद हैं, लेकिन अल्लाह, इन्हें सजा भी खूब देता है। हराम का माल हराम में जाता है। थोड़े ही दिन हुए, मामू के घर में आग लग गई। सारी लेई-पूँजी जल गई। एक बरतन तक न बचा। कई दिन पेड़ के  नीचे सोए, अल्ला कसम, पेड़ के नीचे! फिरन जाने कहॉँ से एक सौ कर्ज लाए तो बरतन-भॉँड़े आए।
     हामिदएक सौ तो पचार से ज्यादा होते है?
     कहॉँ पचास, कहॉँ एक सौ। पचास एक थैली-भर होता है। सौ तो दो थैलियों में भी न आऍं?
     अब बस्ती घनी होने लगी। ईइगाह जाने वालो की टोलियॉँ नजर आने लगी। एक से एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए। कोई इक्के-तॉँगे पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमंग। ग्रामीणों का यह छोटा-सा दल अपनी विपन्नता से बेखबर, सन्तोष ओर धैर्य में मगन चला जा रहा था। बच्चों के लिए नगर की सभी चीजें अनोखी थीं। जिस चीज की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते और पीछे से आर्न की आवाज होने पर भी न चेतते। हामिद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा।
     सहसा ईदगाह नजर आई। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया हे। नाचे पक्का फर्श है,  जिस पर जाजम ढिछा हुआ है। और रोजेदारों की पंक्तियॉँ एक के पीछे एक न जाने कहॉँ वक चली गई हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहॉँ जाजम भी नहीं है। नए आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं। आगे जगह नहीं हे। यहॉँ कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हें। इन ग्रामीणों ने भी वजू किया ओर पिछली पंक्ति में खड़े हो गए। कितना सुन्दर संचालन है, कितनी सुन्दर व्यवस्था! लाखों सिर एक साथ सिजदे में झुक जाते हैं, फिर सबके सब एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हें, और एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हें, और एक साथ खड़े हो जाते हैं, कई बार यही क्रिया होती हे, जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जाऍं, और यही ग्रम चलता, रहे। कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाऍं, विस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं, मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोए हुए हैं।
2

माज खत्म हो गई। लोग आपस में गले मिल रहे हैं। तब मिठाई और खिलौने की दूकान पर धावा होता है। ग्रामीणों का यह दल इस विषय में बालकों से कम उत्साही नहीं है। यह देखो, हिंडोला हें एक पैसा देकर चढ़ जाओ। कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होगें, कभी जमीन पर गिरते हुए। यह चर्खी है, लकड़ी के हाथी, घोड़े, ऊँट, छड़ो में लटके हुए हैं। एक पेसा देकर बैठ जाओं और पच्चीस चक्करों का मजा लो। महमूद और मोहसिन ओर नूरे ओर सम्मी इन घोड़ों ओर ऊँटो पर बैठते हें। हामिद दूर खड़ा है। तीन ही पैसे तो उसके पास हैं। अपने कोष का एक तिहाई जरा-सा चक्कर खाने के लिए नहीं दे सकता।
     सब चर्खियों से उतरते हैं। अब खिलौने लेंगे। अधर दूकानों की कतार लगी हुई है। तरह-तरह के खिलौने हैंसिपाही और गुजरिया, राज ओर वकी, भिश्ती और धोबिन और साधु। वह! कत्ते सुन्दर खिलोने हैं। अब बोला ही चाहते हैं। महमूद सिपाही लेता हे, खाकी वर्दी और लाल पगड़ीवाला, कंधें पर बंदूक रखे हुए, मालूम होता हे, अभी कवायद किए चला आ रहा है। मोहसिन को भिश्ती पसंद आया। कमर झुकी हुई है, ऊपर मशक रखे हुए हैं मशक का मुँह एक हाथ से पकड़े हुए है। कितना प्रसन्न है! शायद कोई गीत गा रहा है। बस, मशक से पानी अड़ेला ही चाहता है। नूरे को वकील से प्रेम हे। कैसी विद्वत्ता हे उसके मुख पर! काला चोगा, नीचे सफेद अचकन, अचकन के सामने की जेब में घड़ी, सुनहरी जंजीर, एक हाथ में कानून का पौथा लिये हुए। मालूम होता है, अभी किसी अदालत से जिरह या बहस किए चले आ रहे है। यह सब दो-दो पैसे के खिलौने हैं। हामिद के पास कुल तीन पैसे हैं, इतने महँगे खिलौन वह केसे ले? खिलौना कहीं हाथ से छूट पड़े तो चूर-चूर हो जाए। जरा पानी पड़े तो सारा रंग घुल जाए। ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा, किस काम के!
     मोहसिन कहता हैमेरा भिश्ती  रोज पानी दे जाएगा सॉँझ-सबेरे
     महमूदऔर मेरा सिपाही घर का पहरा देगा कोई चोर आएगा, तो फौरन बंदूक से फैर कर देगा।
     नूरेओर मेरा वकील खूब मुकदमा लड़ेगा।
     सम्मीओर मेरी धोबिन रोज कपड़े धोएगी।
     हामिद खिलौनों की निंदा करता हैमिट्टी ही के तो हैं, गिरे तो चकनाचूर हो जाऍं, लेकिन ललचाई हुई ऑंखों से खिलौनों को देख रहा है और चाहता है कि जरा देर के लिए उन्हें हाथ में ले सकता। उसके हाथ अनायास ही लपकते हें, लेकिन लड़के इतने त्यागी नहीं होते हें, विशेषकर जब अभी नया शौक है। हामिद ललचता रह जाता है।
     खिलौने के बाद मिठाइयाँ आती हैं। किसी ने रेवड़ियॉँ ली हें, किसी ने गुलाबजामुन किसी ने सोहन हलवा। मजे से खा रहे हैं। हामिद बिरादरी से पृथक् है। अभागे के पास तीन पैसे हैं। क्यों नहीं कुछ लेकर खाता? ललचाई ऑंखों से सबक ओर देखता है।
     मोहसिन कहता हैहामिद रेवड़ी ले जा, कितनी खुशबूदार है!
     हामिद को सदेंह हुआ, ये केवल क्रूर विनोद हें मोहसिन इतना उदार नहीं है, लेकिन यह जानकर भी वह उसके पास जाता है। मोहसिन दोने से एक रेवड़ी निकालकर हामिद की ओर बढ़ाता है। हामिद हाथ फैलाता  है। मोहसिन रेवड़ी अपने मुँह में रख लेता है। महमूद नूरे ओर सम्मी खूब तालियॉँ बजा-बजाकर हँसते हैं। हामिद खिसिया जाता है।
     मोहसिनअच्छा, अबकी जरूर देंगे हामिद, अल्लाह कसम, ले जा।
     हामिदरखे रहो। क्या मेरे पास पैसे नहीं है?
     सम्मीतीन ही पेसे तो हैं। तीन पैसे में क्या-क्या लोगें?
     महमूदहमसे गुलाबजामुन ले जाओ हामिद। मोहमिन बदमाश है।
     हामिदमिठाई कौन बड़ी नेमत है। किताब में इसकी कितनी बुराइयॉँ लिखी हैं।
     मोहसिनलेकिन दिन मे कह रहे होगे कि मिले तो खा लें। अपने पैसे क्यों नहीं निकालते?
     महमूदइस समझते हें, इसकी चालाकी। जब हमारे सारे पैसे खर्च हो जाऍंगे, तो हमें ललचा-ललचाकर खाएगा।
     मिठाइयों के बाद कुछ दूकानें लोहे की चीजों की, कुछ गिलट और कुछ नकली गहनों की। लड़कों के लिए यहॉँ कोई आकर्षण न था। वे सब आगे बढ़ जाते हैं, हामिद लोहे की दुकान पररूक जात हे। कई चिमटे रखे हुए थे। उसे ख्याल आया, दादी के पास चिमटा नहीं है। तबे से रोटियॉँ उतारती हैं,  तो हाथ जल जाता है। अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे तो वह कितना प्रसन्न होगी! फिर उनकी ऊगलियॉँ कभी न जलेंगी। घर में एक काम की चीज हो जाएगी। खिलौने से क्या फायदा? व्यर्थ में पैसे खराब होते हैं। जरा देर ही तो खुशी होती है। फिर तो खिलौने को कोई ऑंख उठाकर नहीं देखता। यह तो घर पहुँचते-पहुँचते टूट-फूट बराबर हो जाऍंगे। चिमटा कितने काम की चीज है। रोटियॉँ तवे से उतार लो, चूल्हें में सेंक लो। कोई आग मॉँगने आये तो चटपट चूल्हे से आग निकालकर उसे दे दो। अम्मॉँ बेचारी को कहॉँ फुरसत हे कि बाजार आऍं और इतने पैसे ही कहॉँ मिलते हैं? रोज हाथ जला लेती हैं।
     हामिद के साथी आगे बढ़ गए हैं। सबील पर सबके सब शर्बत पी रहे हैं। देखो, सब कतने लालची हैं। इतनी मिठाइयॉँ लीं, मुझे किसी ने एक भी न दी। उस पर कहते है, मेरे साथ खेलो। मेरा यह काम करों। अब अगर किसी ने कोई काम करने को कहा, तो पूछूँगा। खाऍं मिठाइयॉँ, आप मुँह सड़ेगा, फोड़े-फुन्सियॉं निकलेंगी, आप ही जबान चटोरी हो जाएगी। तब घर से पैसे चुराऍंगे और मार खाऍंगे। किताब में झूठी बातें थोड़े ही लिखी हें। मेरी जबान क्यों खराब होगी? अम्मॉँ चिमटा देखते ही दौड़कर मेरे हाथ से ले लेंगी और कहेंगीमेरा बच्चा अम्मॉँ के लिए चिमटा लाया है। कितना अच्छा लड़का है। इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआऍं देगा? बड़ों का दुआऍं सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं, और तुरंत सुनी जाती हैं। में भी इनसे मिजाज क्यों सहूँ? मैं गरीब सही, किसी से कुछ मॉँगने तो नहीं जाते। आखिर अब्बाजान कभीं न कभी आऍंगे। अम्मा भी ऑंएगी ही। फिर इन लोगों से पूछूँगा, कितने खिलौने लोगे? एक-एक को टोकरियों खिलौने दूँ और दिखा हूँ कि दोस्तों के साथ इस तरह का सलूक किया जात है। यह नहीं कि एक पैसे की रेवड़ियॉँ लीं, तो चिढ़ा-चिढ़ाकर खाने लगे। सबके सब हँसेंगे कि हामिद ने चिमटा लिया है। हंसें! मेरी बला से! उसने दुकानदार से पूछायह चिमटा कितने का है?
     दुकानदार ने उसकी ओर देखा और कोई आदमी साथ न देखकर कहातुम्हारे काम का नहीं है जी!
     बिकाऊ है कि नहीं?’
     बिकाऊ क्यों नहीं है? और यहॉँ क्यों लाद लाए हैं?’
     तो बताते क्यों नहीं, कै पैसे का है?’
     छ: पैसे लगेंगे।
     हामिद का दिल बैठ गया।
     ठीक-ठीक पॉँच पेसे लगेंगे, लेना हो लो, नहीं चलते बनो।
     हामिद ने कलेजा मजबूत करके कहा तीन पैसे लोगे?
     यह कहता हुआ व आगे बढ़ गया कि दुकानदार की घुड़कियॉँ न सुने। लेकिन दुकानदार ने घुड़कियॉँ नहीं दी। बुलाकर चिमटा दे दिया। हामिद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, मानों बंदूक है और शान से अकड़ता हुआ संगियों के पास आया। जरा सुनें, सबके सब क्या-क्या आलोचनाऍं करते हैं!
     मोहसिन ने हँसकर कहायह चिमटा क्यों लाया पगले, इसे क्या करेगा?
     हामिद ने चिमटे को जमीन पर पटकर कहाजरा अपना भिश्ती जमीन पर गिरा दो। सारी पसलियॉँ चूर-चूर हो जाऍं बचा की।
महमूद बोलातो यह चिमटा कोई खिलौना है?
     हामिदखिलौना क्यों नही है! अभी कन्धे पर रखा, बंदूक हो गई। हाथ में ले लिया, फकीरों का चिमटा हो गया। चाहूँ तो इससे मजीरे काकाम ले सकता हूँ। एक चिमटा जमा दूँ, तो तुम लोगों के सारे खिलौनों की जान निकल जाए। तुम्हारे खिलौने कितना ही जोर लगाऍं, मेरे चिमटे का बाल भी बॉंका नही कर सकतें मेरा बहादुर शेर है चिमटा।
     सम्मी ने खँजरी ली थी। प्रभावित होकर बोलामेरी खँजरी से बदलोगे? दो आने की है।
     हामिद ने खँजरी की ओर उपेक्षा से देखा-मेरा चिमटा चाहे तो तुम्हारी खॅजरी का पेट फाड़ डाले। बस, एक चमड़े की झिल्ली लगा दी, ढब-ढब बोलने लगी। जरा-सा पानी लग जाए तो खत्म हो जाए। मेरा बहादुर चिमटा आग में, पानी में, ऑंधी में, तूफान में बराबर डटा खड़ा रहेगा।
     चिमटे ने सभी को मोहित कर लिया, अब पैसे किसके पास धरे हैं? फिर मेले से दूर निकल आए हें, नौ कब के बज गए, धूप तेज हो रही है। घर पहुंचने की जल्दी हो रही हे। बाप से जिद भी करें, तो चिमटा नहीं मिल सकता। हामिद है बड़ा चालाक। इसीलिए बदमाश ने अपने पैसे बचा रखे थे।
     अब बालकों के दो दल हो गए हैं। मोहसिन, महमद, सम्मी और नूरे एक तरफ हैं, हामिद अकेला दूसरी तरफ। शास्त्रर्थ हो रहा है। सम्मी तो विधर्मी हा गया! दूसरे पक्ष से जा मिला, लेकिन मोहनि, महमूद और नूरे भी हामिद से एक-एक, दो-दो साल बड़े होने पर भी हामिद के आघातों से  आतंकित हो उठे हैं। उसके पास न्याय का बल है और नीति की शक्ति। एक ओर मिट्टी है, दूसरी ओर लोहा, जो इस वक्त अपने को फौलाद कह रहा है। वह अजेय है,  घातक है। अगर कोई शेर आ जाए मियॉँ भिश्ती के छक्के छूट जाऍं,  जो मियॉँ सिपाही मिट्टी की बंदूक छोड़कर भागे,  वकील साहब की नानी मर जाए, चोगे में मुंह छिपाकर जमीन पर लेट जाऍं। मगर यह चिमटा, यह बहादुर, यह रूस्तमे-हिंद लपककर शेर की गरदन पर सवार हो जाएगा और उसकी ऑंखे निकाल लेगा।
     मोहसिन ने एड़ीचोटी का जारे लगाकर कहाअच्छा, पानी तो नहीं भर सकता?
     हामिद ने चिमटे को सीधा खड़ा करके कहाभिश्ती को एक डांट बताएगा, तो दौड़ा हुआ पानी लाकर उसके द्वार पर छिड़कने लगेगा।
     मोहसिन परास्त हो गया, पर महमूद ने कुमुक पहुँचाईअगर बचा पकड़ जाऍं तो अदालम में बॅधे-बँधे फिरेंगे। तब तो वकील साहब के पैरों पड़ेगे।
     हामिद इस प्रबल तर्क का जवाब न दे सका। उसने पूछाहमें पकड़ने कौने आएगा?
     नूरे ने अकड़कर कहायह सिपाही बंदूकवाला।
     हामिद ने मुँह चिढ़ाकर कहायह बेचारे हम बहादुर रूस्तमेहिंद को पकड़ेगें! अच्छा लाओ, अभी जरा कुश्ती हो जाए। इसकी सूरत देखकर दूर से भागेंगे। पकड़ेगें क्या बेचारे!
     मोहसिन को एक नई चोट सूझ गईतुम्हारे चिमटे का मुँह रोज आग में जलेगा।
     उसने समझा था कि  हामिद लाजवाब हो जाएगा, लेकिन यह बात न हुई। हामिद ने तुरंत जवाब दियाआग में बहादुर ही कूदते हैं जनाब, तुम्हारे यह वकील, सिपाही और भिश्ती लैडियों की तरह घर में घुस जाऍंगे। आग में वह काम है, जो यह रूस्तमे-हिन्द ही कर सकता है।
     महमूद ने एक जोर लगायावकील साहब कुरसीमेज पर बैठेगे, तुम्हारा चिमटा तो बाबरचीखाने में जमीन पर पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है?
     इस तर्क ने सम्मी औरनूरे को भी सजी कर दिया! कितने ठिकाने की बात कही हे पट्ठे ने! चिमटा बावरचीखाने में पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है?
     हामिद को कोई फड़कता हुआ जवाब न सूझा, तो उसने धॉँधली शुरू कीमेरा चिमटा बावरचीखाने में नही रहेगा। वकील साहब कुर्सी पर बैठेगें, तो जाकर उन्हे जमीन पर पटक देगा और उनका कानून उनके पेट  में डाल देगा।
     बात कुछ बनी नही। खाल गाली-गलौज थी, लेकिन कानून को पेट में डालनेवाली बात छा गई। ऐसी छा गई कि तीनों सूरमा मुँह ताकते रह गए मानो कोई धेलचा कानकौआ किसी गंडेवाले कनकौए को काट गया हो। कानून मुँह से बाहर निकलने वाली चीज हे। उसको पेट के अन्दर डाल दिया जाना बेतुकी-सी बात होने पर भी कुछ नयापन रखती हे। हामिद ने मैदान मार लिया। उसका चिमटा रूस्तमे-हिन्द हे। अब इसमें मोहसिन, महमूद नूरे, सम्मी किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती।
     विजेता को हारनेवालों से जो सत्कार मिलना स्वाभविक है, वह हामिद को भी मिल। औरों ने तीन-तीन, चार-चार आने पैसे खर्च किए, पर कोई काम की चीज न ले सके। हामिद ने तीन पैसे में रंग जमा लिया। सच ही तो है, खिलौनों का क्या भरोसा? टूट-फूट जाऍंगी। हामिद का चिमटा तो बना रहेगा बरसों?
     संधि की शर्ते तय होने लगीं। मोहसिन ने कहाजरा अपना चिमटा दो, हम भी देखें। तुम हमार भिश्ती लेकर देखो।
     महमूद और नूरे ने भी अपने-अपने खिलौने पेश किए।
हामिद को इन शर्तो को मानने में कोई आपत्ति न थी। चिमटा बारी-बारी से सबके हाथ में गया, और उनके खिलौने बारी-बारी से हामिद के हाथ में आए। कितने खूबसूरत खिलौने हैं।
     हामिद ने हारने वालों के ऑंसू पोंछेमैं तुम्हे चिढ़ा रहा था, सच! यह चिमटा भला, इन खिलौनों की क्या बराबर करेगा, मालूम होता है, अब बोले, अब बोले।
     लेकिन मोहसनि की पार्टी को इस दिलासे से संतोष नहीं होता। चिमटे का सिल्का खूब बैठ गया है। चिपका हुआ टिकट अब पानी से नहीं छूट रहा है।
     मोहसिनलेकिन इन खिलौनों के लिए कोई हमें दुआ तो न देगा?
     महमूददुआ को लिय फिरते हो। उल्टे मार न पड़े। अम्मां जरूर कहेंगी कि मेले में यही मिट्टी के खिलौने मिले?
     हामिद को स्वीकार करना पड़ा कि खिलौनों को देखकर किसी की मां इतनी खुश न होगी, जितनी दादी चिमटे को देखकर होंगी। तीन पैसों ही में तो उसे सब-कुछ करना था ओर उन पैसों के इस उपयों पर पछतावे की बिल्कुल जरूरत न थी। फिर अब तो चिमटा रूस्तमेंहिन्द हे ओर सभी खिलौनों का बादशाह।
     रास्ते में महमूद को भूख लगी। उसके बाप ने केले खाने को दियें। महमून ने केवल हामिद को साझी बनाया। उसके अन्य मित्र मुंह ताकते रह गए। यह उस चिमटे का प्रसाद थां।    

3

ग्या
रह बजे गॉँव में हलचल मच गई। मेलेवाले आ गए। मोहसिन की छोटी बहन दौड़कर भिश्ती उसके हाथ से छीन लिया और मारे खुशी के जा उछली, तो मियॉं भिश्ती नीचे आ रहे और सुरलोक सिधारे। इस पर भाई-बहन में मार-पीट हुई। दानों खुब रोए। उसकी अम्मॉँ यह शोर सुनकर बिगड़ी और दोनों को ऊपर से दो-दो चॉँटे और लगाए।
     मियॉँ नूरे के वकील का अंत उनके प्रतिष्ठानुकूल इससे ज्यादा गौरवमय हुआ। वकील जमीन पर या ताक पर हो नहीं बैठ सकता। उसकी मर्यादा का विचार तो करना ही होगा। दीवार में खूँटियाँ गाड़ी गई। उन पर लकड़ी का एक पटरा रखा गया। पटरे पर कागज का कालीन बिदाया गया। वकील साहब राजा भोज की भाँति सिंहासन पर विराजे। नूरे ने उन्हें पंखा झलना शुरू किया। आदालतों में खर की टट्टियॉँ और बिजली के पंखे रहते हें। क्या यहॉँ मामूली पंखा भी न हो! कानून की गर्मी दिमाग पर चढ़ जाएगी कि नहीं? बॉँस कापंखा आया ओर नूरे हवा करने लगें मालूम नहीं, पंखे की हवा से या पंखे की चोट से वकील साहब स्वर्गलोक से मृत्युलोक में आ रहे और उनका माटी का चोला माटी में मिल गया! फिर बड़े जोर-शोर से मातम हुआ और वकील साहब की अस्थि घूरे पर डाल दी गई।
     अब रहा महमूद का सिपाही। उसे चटपट गॉँव का पहरा देने का चार्ज मिल गया, लेकिन पुलिस का सिपाही कोई साधारण व्यक्ति तो नहीं, जो अपने पैरों चलें वह पालकी पर चलेगा। एक टोकरी आई, उसमें कुछ लाल रंग के फटे-पुराने चिथड़े बिछाए गए जिसमें सिपाही साहब आराम से लेटे। नूरे ने यह टोकरी उठाई और अपने द्वार का चक्कर लगाने लगे। उनके दोनों छोटे भाई सिपाही की तरह छोनेवाले, जागते लहो पुकारते चलते हें। मगर रात तो अँधेरी होनी चाहिए, नूरे को ठोकर लग जाती है। टोकरी उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ती है और मियॉँ सिपाही अपनी बन्दूक लिये जमीन पर आ जाते हैं और उनकी एक टॉँग में विकार आ जाता है।
     महमूद को आज ज्ञात हुआ कि वह अच्छा डाक्टर है। उसको ऐसा मरहम मिला गया है जिससे वह टूटी टॉँग को आनन-फानन जोड़ सकता हे। केवल गूलर का दूध चाहिए। गूलर का दूध आता है। टाँग जावब दे देती है। शल्य-क्रिया असफल हुई, तब उसकी दूसरी टाँग भी तोड़ दी जाती है। अब कम-से-कम एक जगह आराम से बैठ तो सकता है। एक टॉँग से तो न चल सकता था, न बैठ सकता था। अब वह सिपाही संन्यासी हो गया है। अपनी जगह पर बैठा-बैठा पहरा देता है। कभी-कभी देवता भी बन जाता है। उसके सिर का झालरदार साफा खुरच दिया गया है। अब उसका जितना रूपांतर चाहों, कर सकते हो। कभी-कभी तो उससे बाट का काम भी लिया जाता है।
     अब मियॉँ हामिद का हाल सुनिए। अमीना उसकी आवाज सुनते ही दौड़ी और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगी। सहसा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चौंकी।
     यह चिमटा कहॉं था?’
     मैंने मोल लिया है।
     कै पैसे में?
     तीन पैसे दिये।
     अमीना ने छाती पीट ली। यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुआ, कुछ खाया न पिया। लाया क्या, चिमटा! सारे मेले में तुझे और कोई चीज न मिली, जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया?’
     हामिद ने अपराधी-भाव से कहातुम्हारी उँगलियॉँ तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैने इसे लिया।
बुढ़िया का क्रोध तुरन्त स्नेह में बदल गया, और स्नेह भी वह नहीं, जो प्रगल्भ होता हे और अपनी सारी कसक शब्दों में बिखेर देता है। यह मूक स्नेह था, खूब ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ। बच्चे में कितना व्याग, कितना सदभाव और कितना विवेक है! दूसरों को खिलौने लेते और मिठाई खाते देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा? इतना जब्त इससे हुआ कैसे? वहॉँ भी इसे अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही। अमीना का मन गदगद हो गया।
     और अब एक बड़ी विचित्र बात हुई। हामिद कें इस चिमटे से भी विचित्र। बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था। बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गई। वह रोने लगी। दामन फैलाकर हामिद को दुआऍं देती जाती थी और आँसूं की बड़ी-बड़ी बूंदे गिराती जाती थी। हामिद इसका रहस्य क्या समझता!