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सोमवार, 19 दिसंबर 2016

वे देेर तक हाथ हिलाते रहे


___________________ लघुकथा




हिन को शाम को जाना था। छुट्टी का दिन था। वह स्टेशन तक छोड़ने जाने वाला था।

तभी कंपनी से कॉल आ गई। नए लांचिंग में कुछ प्रोब्लम है। फोन पर सोल्व नहीं हो सकी। कंपनी जाना पड़ा। बहिन को मकान मालिक को किराया नकद में देना है, पर नोटबंदी के युग में नकदी इत्ती तो नहीं। बहिन ने सिर्फ जिक्र किया था। यह भी कहा था कि वह खुद जा कर लेगी। भाई ने सोचा कहाँ परेशान होती रहेगी। उसने इधर उधर से थोड़ा इन्तजाम किया।

बहिन के घर से निकलने का समय हो गया। वह निकल ली। भाई ने देखा वह कोशिश करे तो बहिन के पास स्टेशन तक पहुँच सकता है। कैब बुक की और उसे तेजी से चलाने को कहा।

ट्रेन छूटने के ठीक कुछ सैकंड पहले वह प्लेटफार्म पर पहुँच गया। बहिन उसी की राह देख रही थी। भाई को देखते ही उस की आँखें चमक उठीं। भाई ने कुछ भी कहने के पहले जेब से नोट निकाले और बहिन को थमाए।

-तो तू इस लिए लेट हो गया? मैं ने तो पहले ही कहा था। मैं कर लूंगी।
-नहीं लेट तो मैं इसलिए हुआ कि कंपनी का काम देर से निपटा। वर्ना नोट तो मैं ने पहले ही कबाड़ लिए थे।

तभी ट्रेन चल दी। बहिन कोच के दरवाजे में खड़ी हाथ हिलाने लगी, और भाई प्लेटफार्म पर खड़े खड़े। दोनों के बीच दूरी बढ़ती रही। दोनों एक दूसरे की आंखों से ओझल हो गए। फिर भी दोनों देर तक हाथ हिलाते रहे।

रविवार, 11 दिसंबर 2016

अब तो मैं यहीं निपट लिया

'लघुकथा'

        बस स्टैंड से बस रवाना हुई तब 55 सीटर बस में कुल 15 सवारियाँ थीं। रात हो चुकी थी। शहर से बाहर निकलने के पहले शहर के आखिरी कोने पर रोडवेज की एक बुकिंग विण्डो थी। वहाँ कुछ सैकण्ड्स के लिए बस रुकी बुकिंग विण्डो बन्द थी। कण्डक्टर कम ड्राइवर ने  सीट से उतर कर देखा। वहाँ से 2 सवारियाँ और चढ़ीं। कुल मिला कर बस में 17 सवारियाँ हो गयीं। अब बस में कैपेसिटी की लगभग 31% सवारियाँ थीं। ड्राइवर जो कण्डक्टर भी था वापस अपनी सीट पर आ बैठा। बस में बैठी एक सवारी ने खड़े हो कर ड्राइवर को आवाज लगाई और हाथ खड़ा कर के अपनी कनिष्ठिका दिखाई। ड्राइवर समझ गया कि उसे पेशाब करना है। तब तक ड्राइवर गियर लगा कर एक्सीलेटर दबा चुका था। उस ने ड्राइविंग सीट से ही चिल्ला कर कहा। बस थोड़ी देर में आगे बस रुकेगी तब कर लेना।

बस कोई आठ--8-10 किलोमीटर आगे आई तो फिर उसी सवारी ने खड़े हो कर पूछा -ड्राईवर साहब! बस कब रुकेगी?
- बस थोड़ी देर में रुकेगी।

5 किलोमीटर बाद फिर वह सवारी उठ खड़ी हुई उस ने फिर ड्राईवर से पूछा -ड्राईवर साहब! बस कितनी देर बाद रुकेगी?
ड्राईवर ने फिर अपनी सीट से चिल्ला कर कहा बस थोड़ी देर में रोकेंगे। 

बस जब 20वें किलोमीटर पर पहुँची तो फिर वह सवारी उठ खड़ी हुई और जोर से कहा -ड्राईवर साहब! कित्ती देर और लगेगी?
ड्राईवर साहब ने जोर से कहा -बस दो किलोमीटर और। 

22वें किलोमीटर पर कस्बे का बस स्टेैंड था। ड्राईवर ने बस रोकी और उतर कर बुकिंग विण्डो की और जाते हुए चिल्ला कर कहा जिस को पानी पेशाब करना हो कर ले। आगे बस कोटा जा कर रुकेगी। ड्राईवर बुकिंग विण्डो पर बस बुक कराने चला गया। वह सवारी अपनी सीट से नहीं उठी तो मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। मैं ने पीछे मुड़ कर उसे कहा -तुम्हें पेशाब करना था, कर आओ। ड्राईवर कह कर गया है कि आगे न रोकेगा।

-अब तो मैं यहीं निपट लिया। बाराँ से बीयर की बोतल पी कर चला था। जोर की लगी थी, नहीं रुकी तो क्या करता। सवारियाँ जिन ने सुना वे सब हँस पड़े। एक ने कहा वहीं कह दिया होता तो हम ही ड्राइवर से बस रुकवा देते। कुछ सवारियाँ जो उस सवारी के ठीक अगली सीट पर बैठी थीं। उन्हों ने सीट बदल ली। कोटा आने पर सब सवारियाँ बस से उतर गईं। उस सवारी को नीन्द लग गयी थी उसे जगा कर उतारना पड़ा।

रविवार, 4 दिसंबर 2016

वर्ना सुखा दूंगा

ˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍˍ एक लघुकथा
रामचन्दर कई दिन से कमान पर तीर चढ़ा कर समन्दर को ललकार रहा था।
-देख! सीधाई से रस्ता दे दे वर्ना सुखा दूंगा।

समन्दर था कि उस पर कोई असर ही नहीं हो रहा था। वह तो पहले की तरह लहर लहर लहरा रहा था। न तो उसे रामचन्दर दिखाई दे रहा था, न उस के साथ के लोग। रामचन्दर की आवाज तो लहरों की आवाज में दबी जा रही थी।

अचानक कहीं से बाबा तुलसी आ निकला। रामचन्दर के कानों में गाने की आवाज पहुँची........
-विनय न मानत जलधि जड़ गए कई दिन बीत ......

रामचन्दर के हाथों से तीर छूट गया। समन्दर का पानी सूखने लगा। हा हाकार मच गया। समंदर के जीवजंतु मरने लगे। कुछ ही घंटों में समंदर की तलहटी दिखाई देने लगी। ऐसी ऊबड़ खाबड़ और नुकीले पत्थर, बीच बीच के गड्ढों में बदबू मारता कीचड़। इंसान और बन्दर तो क्या उड़ने वाले पंछी भी अपने पैर वहाँ न जमा सकें।

रामचन्दर माथा पकड़ वहीं चट्टान पर बैठ गया।

लंका का रस्ता भी न मिला, लाखों की हत्या और गले बंध गई।


  • दिनेशराय द्विवेदी

शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

नोटबंदी की काली छाहँ में



विवाह के समय मेरी उम्र 19 साल साढ़े आठ महीने थी। मैं बीएससी अन्तिम वर्ष की परीक्षा दे चुका था। विवाह से 37 दिन बाद ही आपातकाल आरंभ हो गया। मैं तब एक्टिविस्ट था। जल्दी ही समझ में आ गया कि यह कोई सामाजिक क्रान्ति न हो कर तानाशाही थी। इन्दिरागांधी का 20 सूत्री कार्यक्रम आ चुका था जो तानाशाही पर पर्दा डालने की कार्यवाही थी। इस में परिवार नियोजन भी एक सूत्र था। परिवार नियोजन एक अच्छा प्रगतिशील सामाजिक कार्यक्रम था जिसे माहौल बना कर लोगों को प्रेरित कर प्रभावी बनाना था। पर तानाशाही में तो प्रेरणा का मतलब डंडा होता है। इस कारण से वैसे ही परिवार नियोजन भी लागू हुआ। बड़े बड़े कैम्प लगते, हर सरकारी कर्मचारी का कोटा होता कि वह कितने लोगों को परिवार नियोजन के लिए प्रेरित कर नसबंदी के लिए लाएगा। पुलिस इस काम में सहयोग करती। हुआ ये कि लोगों को पकड़ पकड़ कर नसबंदी की जाने लगी। जब प्रेरक लोग प्रेरणा देने गाँवों में जाते तो ग्रामीण गाँव छोड़ कर खेतों और जंगलों में भाग जाते। हजारों लोगों को पकड़ कर नसबंदी कर दी गयी थी। हमारे एक साथी कवि हंसराज का हाड़ौती गीत उन दिनों बहुत पापुलर हुआ था। जिस के बोल इस तरह के थे। “बेगा बेगा चालो म्हारा भोळा भरतार, पाछे पाछे आवतो दीखे छे थाणेदार। ............ नसबंदी करा देगी या सरकार”।

निश्चित रूप से परिवार नियोजन का कार्यक्रम सामाजिक सुधार का कार्यक्रम था। “दो या तीन बच्चे” और बाद में “हम दो हमारे दो” के नारे गलत नहीं थे। हमारी बढती आबादी जो धीमी गति से होने वाली हमारे देश की भौतिक प्रगति को लील जाती है उस से निजात पाने के लिए जरूरी कार्यक्रम था। इस का कोई काला पक्ष नहीं था। लेकिन इस कार्यक्रम को जिस तरीके से जबरन लागू किया गया उस ने इस के सारे पक्षों को काला कर दिया था। बाद में 1977 के आम चुनाव में इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की जो बुरी पराजय हुई उस में इस जबरन नसबंदी का बहुत बड़ा योगदान था।

आज उस घटना को फिर से याद दिलाने की एक मात्र वजह यही है कि मौजूदा नोटबंदी उस नसबंदी से भी अधिक सामाजिक परिवर्तन का कार्यक्रम कहा जा रहा है। लोगों की जेब में जो बैंक नोट थे उन्हें रातों-रात प्रधानमंत्री के एक रिकार्डेड वीडियो से अवैध घोषित कर दिया और अब उन्हें बदलने के लिए तमाम जनता को लगातार तरसाया जा रहा है। लोगों के पास भोजन जुटाने को नोट नहीं है, लोगों को पगार नहीं मिल रही है। अनियमित रोजगार करने वाले और रोज कमा कर खाने वाले जिन की जनसंख्या इस देश में 40 प्रतिशत हैं परेशान हैं। उस जबरन नसंबंदी से जितने लोग बुरी तरह प्रभावित हुए थे, उस से कई गुना लोग इस नोटबंदी से प्रभावित हैं। निश्चित रूप से यह नोटबंदी आगामी समय में चुनावों को प्रभावित करेगी।

लोग कहते हैं कि विपक्ष मुर्दार है, वह असंगठित है जिस का लाभ उठा कर मात्र 31 प्रतिशत मत ले कर मोदी ने पूर्ण बहुमत प्राप्त कर लिया है। विपक्ष बंटा होना अभी भी वैसा ही है और इस कारण मोदी फिर से सत्तासीन हो जाएगा। पर यह सब अभी से कैसे कहा जा सकता है। इमर्जेंसी लगी तब भी विपक्ष एक साथ नहीं था। जिस दिन चुनाव के लिए इमर्जेंसी हटाई गयी उस दिन भी विपक्ष एक नहीं था। लेकिन दो ढाई माह में ही उस ने एक हो कर इन्दिरा गांधी और उन की कांग्रेस पार्टी को लोहे के चने चबवा दिए थे और उसे सत्ता के बाहर कर दिया था। भारत की जनता यह कारनामा दोबारा दोहरा सकती है। यह भी है कि दूसरी बार जब वही कारनामा दोहराना हो तो अधिक दक्षता के साथ दोहराया जा सकता है, बल्कि उस में अधिक पैनापन होना बहुत स्वाभाविक है।


बुधवार, 23 नवंबर 2016

ये नौ



महेन्द्र नेह

भाई “महेन्द्र नेह” को ...

उपहार समझ लें


उन के 69वें जन्मदिन पर ...


1.

तुम्हारा पैसा दे दें तुम्हें

तो पूंजीपति को क्या दें?

आखिर बैंक और हम

उसी ने बनाए हैं

2.

वे हैं

जब तक

साजिशों का जाल है।

मौत के ऐलान के बाद

भी जिन्दा बचे हैं

यही तो उन का कमाल है।

3.

भूत कैसे मरे?

मर कर ही तो बनता है।

इसलिए वह उसे

2000 की बोतल में बंद करता है।

4.

बहुत जरूरत है

एक हिटलर एक मुसोलिनी बनाएँ।

न बने, तो

खुद को बनाएँ।

5.

उसके लक्षण ढूंढें

चरक, सुश्रुत, माधव

या हनिमेन की किताब में।

किसी रोग का सूत्र न मिले

लाक्षणिक चिकित्सा करें।

6.

आज कल वह हँसता नहीं

बस बात बात पर रो देता है।

परेशान है

अक्सर आपा खो देता है।

7.

मैं ने नया गेजेट बनाया

इस में गेम है

गेम में सवाल हैं

सवालों के लिए कुछ बटन हैं

हर सवाल पर कोई बटन दबाओ

फिर मैं फैसला करूंगा

मैं जीता कि मैं हारा

कौन उल्लू का पट्ठा

खुद हारना चाहता है?

8.

ताजमहल

एक दुनियावी आश्चर्य

अपने अन्दर समेटे कब्र को

मंदिर

अपने अंदर समेटे एक मूरत

पार्लियामेंट,

न मंदिर न ताजमहल

इस की सीढ़ी चूमो

एप घिसो

इंसान को उल्लू बनाने के

साधन कम नहीं।

9.

असल बात जे है

के हम जिस की भौत इज्जत करैं

उसके पाँव छुएँ हैं

और खसक लेवैं हैं।

और हम

पार्लियामिंट की तो

भौत से भी भौत

इज्जत करैं हैं।


सोमवार, 21 नवंबर 2016

सिकुड़न

कविता



____________ दिनेशराय द्विवेदी





अहा!
वह सिकुड़ने लगा

लोग उसे आश्चर्य से देख रहे हैं
वे भी जो अब तक
उसे सिर पर उठाए हुए थे

कुछ लोग तलाश रहे हैं
कहाँ से पंक्चर हुआ है
वे पकड़ कर
उसे तालाब के पानी में
डूबोना चाहते हैं
देख सकें कि हवा
निकल कहाँ से रही है

वह तालाब में घुस ही नहीं रहा है
सारे लोगों की ताकत कम पड़ गई है
बस सिकुड़ता जा रहा है

उन्हों ने उसे तालाब मे घुसेड़ने
की कोशिश छोड़ दी है

आखिर सिकुड़ते सिकुड़ते एक दिन
हो ही जाएगा पिचका हुआ गुब्बारा
तब बच्चे फुलाएंगे उस की छोटी छोटी चिकोटियाँ
और फिर
मुक्का मार कर फोड़ देंगे

अहा!
वह सिकुड़ने लगा है।

ईमान का उत्सव

कविता 

__________  दिनेशराय द्विवेदी


एक शाम उस ने कहा
कि उसे वे रंग पसंद नहीं है
आधी रात से ये रंग कानून से खारिज
अगले दिन अवकाश रहा
तीसरे दिन से सारा देश लाइन में खड़ा है
कि शहंशाह के रंग के चंद
कागज के टुकड़े मिल जाएँ
कुछ चहेतों को मिले
बाकी अभी भी लाइन में खड़े हैं

देश में अमीर भले ही हों
पर देश तो अमीर नहीं है, इसलिए
लाइन में केवल गरीब खड़े हैं
लाइन में खड़े खड़े मरने वालों
का अर्धशतक कभी का बन चुका है
शतक की तैयारी है
सारे अमीर कहाँ हैं?
किसी को पता नहीं

सरकार झूठ बोल रही है कि
चेस्ट भरे पड़े हैं
पासबुक और चैक बेकार हो गए हैं
बैंकों के पास देने को नोट नहीं हैं
बैंक हैं ये कोई इन्सान होता तो
अब तक दिवालिया घोषित हो जाता
चाहत पर नोट उगलने वाली मशीनें खामोश हैं
पता नहीं उन्हें कब्ज हुआ है या आनाह
वैद्य लोग इलाज में मशरूफ हैं

शहंशाह की पसंद के रंग कागज
लोगों के हाथ में पहुँचने के पहले ही
रिश्वत देते पकड़े जा रहे हैं
बस एक रंग वे ही चमक रहे हैं
जिन पर शहंशाह की नजर
अभी पड़ी नहीं है
लेकिन कौन बता सकता है
शहंशाह की नजर कब उन पर पड़ जाए?
शायद शहंशाह भी नहीं

नए रंगों के अभाव में
कारखाने बंद हो गए हैं
लेकिन खेत और बगीचे
तो बंद नहीं हो सकते
उन में उग रही हैं सब्जियाँ
फल और फसलें
उन का कोई खरीददार नहीं है
उन के लिए बीज, खाद
और कीटनाशक खरीदने को
नए रंग के कागज नहीं हैं
फल और सब्जियाँ
पेड़ और पौधों पर सूख रहे हैं
या फिर मंडियों गोदामों में सड़ने लगे हैं
मासूम लोग अचानक
अपराधी नजर आने लगे हैं
नए रंगों के कागज
काला बाजार घूम रहे हैं

शहंशाह के धमकी भरे फरमान
कुछ घरों पर पहुँचे हैं
वहाँ मातम है
पूरी गली, मुहल्ले
गाँव के गाँव
शहर के शहर
सहमे पड़े हैं
पता नहीं कब, किस के घर
आ जाए फरमान

दरबारी नाच रहे हैं
अथक अनवरत
पूरी तरह होश खो देने तक
या फिर होश में आने तक
शंहशाह ईमान का उत्सव
मना रहा है

शनिवार, 19 नवंबर 2016

अब की बार झूठी सरकार

ज शनिवार है, अदालत में सिर्फ एक मुकदमा था। साथी के भरोसे छोड़ा और अदालत नहीं गया। मेरे पास नकदी सिर्फ दो-तीन सौ के आसपास रह गयी थी। सोचा था पुराने 500-1000 वाले नोट जमा करवा आउंगा और जितनी नकदी मिल जाएगी उतनी लेता आऊंगा। बैंक गया तो वहाँ बाहर कुछ सीनियर सिटीजन खड़े बतिया रहे थे। दरवाजे पर ही चौकीदार से पूछा नकदी का क्या हाल है? उस ने बताया कि नकदी है ही नहीं। सिर्फ पुराने नोट जमा करने का काम चल रहा है।

अंदर गया तो मैनेजर सीट पर नहीं थे। पता लगा नकदी के इन्तजाम में गये हैं। मैं ने पुराने नोट जमा करा दिए। पूछा तो बताया कि कुछ नकदी मिल जाएगी तो उपस्थित ग्राहकों को देंगे। मुझे एक लिफाफा रजिस्टर्ड डाक में डालना था तो पास के पोस्टआफिस चला गया। वहाँ हर काउंटर पर कम से कम 20 से 30 लोग लाइन में खड़े थे। मैं ने पूछा रजिस्टर्ड डाक का काउंटर कौन सा है? तो जो लाइन बताई गयी उस में 28 लोग थे। उस में नोट एक्सचेंज वाले लोग भी थे। पूछने पर पता लगा सभी काउंटर अपने अपने काम के साथ साथ नोट एक्सचेंज का काम भी कर रहे हैं। अपनी तो एक रजिस्ट्री के लिए इत्ती देर लाइन में खड़े रहने की हिम्मत नहीं थी। बस पोस्ट आफिस से बैरंग लौट आया।

भी याद आया चैक बुक भी नहीं है। इस दुष्काल में चैक बुक तो होनी चाहिए। मैं वापस बैंक आया जिस से चैक बुक के लिए आवेदन दर्ज करवा सकूँ। तब तक बैंक मैनेजर आ चुके थे। मैं उन से बतियाने लगा। उन्होंने बताया कि चार दिन से सिर्फ चार पाँच लाख रुपया मिल रहा था। हम एक्सचेंज वालों के साथ अपने ग्राहकों को खाते से भी दो दो हजार ही दे रहे थे। जिस से अधिक से अधिक लोगों को राहत मिल सके। पर आज तो मैं पाँच बैंकों में हो कर आ गया हूँ। केवल चेस्ट वाली कुछ ब्रांचोंं के पास कैश नहींं है।

बैंक की यह शाखा नगर विकास न्यास परिसर में है। न्यास के कर्मचारियों को वेतन भी यहीं से मिलता है। न्यास ने वेतन तो बैंक को दे दिया है और बैंक ने कर्मचारियों के खाते में डाल दिया है। लेकिन बैंक के पास इतना कैश नहीं कि वह सब को वेतन दे सके। उन्हें भी वही दो दो हजार मिले हैं। इस से कैसे कर्मचारी काम चलाएँ उन की समझ में नहीं आ रहा है। एक कर्मचारी नेता ने बैंक मैनेजर से बैंक के किसी उच्चाधिकारी का फोन नंबर लिया और ऊंची आवाज में फोन पर बात करने लगा।

खिर पता लगा कि समस्या का कोई हल नहीं है। रिजर्व बैंक तक में नकदी नहीं है। छपेगी तब आएगी। खबर ये है कि नकदी छापने के लिए स्याही और कागज भी नहीं है। देश आने वाले दिनों में कैसे चलेगा? इस का पता किसी को नहीं है। सरकार स्पष्ट कुछ नहीं बता रही है। चेस्ट भरे पड़े होने की वित्त मंत्री की बात भी मिथ्या ही प्रतीत होती है। कोटा में तो चेस्ट खाली हैं। मुझे तो लगता है "अब की बार झूठी सरकार" आ गयी है। 
 

शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

ईमानदारी का पर्व

मुझे बहुत कम ही बैंक जाना पड़ता है। बैंक नोट भी मेरे पास अधिक नहीं रहते हैं। मुझे नहीं लगता कि मैं ज्यादा नोट संभाल सकता हूँ तो चार पाँच हजार रुपयों के नोट भी बहुत कम अवसरों पर मेरे पास होते हैं। पर्स में अक्सर हजार पन्द्रह सौ से अधिक रुपया नहीं रहता। कभी पर्स घर भूल भी जाता हूँ तो मुझे कभी परेशानी नहीं होती। दिन निकल जाता है। अभी भी मेरे पर्स में दो पाँच सौ के नोट हैं पुराने वाले। उस के अलावा कुछ सौ पचास के नोट हैं।

अधिकतर बिल्स में ऑनलाइन चुकाता हूँ। कुछ स्थाई क्लाइंट मेरा भुगतान मेरे खाते में करते हैं। उस से वे बिल चुकते रहते हैं। शेष क्लाइंट नकद भुगतान करते हैं तो पर्स में रख लेता हूँ, अक्सर उन्हे मैं घर पर उत्तमार्ध को सौंप देता हूँ। अगली सुबह पर्स में फिर वही उतने नोट होते हैं कि जरूरत पड़ जाए तो कार में पेट्रोल डलवा लूँ और छोटा मोटा खर्च कर सकूँ। उत्तमार्ध मेरी बैंक है। इस बैंक में कित्ते रुपए मेरे खाते में हैं? जब भी पूछता हूँ तो वह खाली बताया जाता है। फिर भी मुझे अपनी जरूरत के मुताबिक रुपया हमेशा वहाँ से मिल जाता है। मेरी ये जरूरत हजार के आसपास से कभी कभार ही अधिक होती है।

ब से नोट बंदी हुई है मेरे पास फीस जमा कराने कोई नहीं आ रहा है। नतीजा ये है कि एक बार दस हजार रुपये निकलवा कर लाया था जो अब खत्म होने को हैं। एक दो दिन में ही बैंक से रुपया निकलवाना पड़ेगा। लाइन में खड़ा होना मेरे लिए संभव नहीं है। पिछली बार बैंक मैनेजर ने मुझे खड़ा न होने दिया था। लेकिन इस बार मुझे चिन्ता लगी है। कि कहीं वह मेरी मदद ही न कर पाए तो।

मेरे पास जो दो नोट पाँच सौ वाले पुराने हैं उन्हें तो कभी भी पेट्रोल भराने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। इसलिए बदलने की कोई जल्दी नहीं है। उत्तमार्ध जी अभी नोट बदलवाने को कह नहीं रही हैं। पर कभी तो कहेंगी। मैं ने उन्हें कह दिया है कि जितने भी होंगे उन्हें मैं अपने खाते में जमा करवा कर उतने ही वापस निकलवा कर उन के हवाले कर दूंगा। बस उन्हें मुझ से मुगल काल के धनिकों की तरह यह भय हो सकता है कि मुझे उन के बैंक की माली हालत पता नं लग जाए। उस वक्त शहंशाह मृत्यु के बाद सब कुछ जब्त कर लेता था वारिसों को उन की जरूरत के मुताबिक ही देता था। नतीजे में वे अपने मकान तक अच्छे न बनवाते थे और धन को जमीन में गाड़ कर रखते थे। लगता है जमीन में धन धातु वगैरा के रूप में गाड़ने का प्रचलन वापस आने वाला है।

बुरा यह लग रहा है कि आजकल बैंक साहुकार से भी बुरी स्थिति में हैं। बेचारे तभी तो देंगे जब उन के पास रुपया आएगा। रुपया तो रिजर्व बैंक देगा। खबर ये है कि जितना रुपया छापा गया था वह तो खत्म हो चुका है। बाकी तब आएगा जब वह छपेगा। खबर ये भी है कि कागज और स्याही खत्म होने को है और नए टेंडर नहीं किए गए हैंं। वह भी शायद इसलिए कि गोपनीयता भंग न हो। यह गोपनीयता ही जान की मुसीबत हो गयी है। मैं जिन्हें काले धन वालों के रूप में जानता हूँ उन में से कोई भी चिन्तित नहीं नजर आ रहा है। लगता है मुझे ही गलतफहमी थी कि वे कालाधन वाले हैं। वे तो पूरे सफेद दिखाई दे रहे हैं। मुझे तो यही समझ नहीं आ रहा है कि काला धन इस देश में था भी कि नहीं? या वह केवल अफवाह थी। भ्रष्टाचार में कोई कमी भी नहीं दिख रही है। अंडरग्राउंड सौदोें की खबरें वैसी ही हैं जैसी पहले थीं। बस भक्तगण जरूर नशे में हैं और ईमानदारी का पर्व मना रहे हैं।

रविवार, 30 अक्टूबर 2016

दीपावली : मनुष्य के सामुहिक श्रम और मेधा की विजय और प्रकृति के साथ उस के सामंजस्य का त्यौहार




नाजों में ज्वार और धान की फसलों में बीज पक चुके हैं। बस फसलों को काट कर तैयार कर घर लाने की तैयारी है। फसल घर आने के बाद लोगों के पास वर्ष भर का खाद्य होगा और भोजन की चिन्ता वैसी नहीं रहेगी जैसी कृषि आरंभ होने के पहले हुआ करती थी। जब हमें (मनुष्य) को फल संग्रह, शिकार और पशुपालन पर निर्भर रहना पड़ता था। उस अवस्था में मनुष्य लगभग खानाबदोश होता था। उसे हमेशा ऐसे इलाके की तलाश होती थी जहां पशुओं के लिए चारा बहुतायत में हो और अन्य खाद्य व उपयोगी पदार्थों की प्राकृतिक उपज सहज मिल जाती हो। संभवतः इन्हीं की तलाश में मनुष्य अफ्रीका में पैदा हो कर दुनिया के कोने कोने तक पहुँचा। पर कृषि का आविष्कार ही वह महत्वपूर्ण मंजिल साबित हुई जिस ने उसे एक स्थान पर घर और बस्तियाँ बसा कर रहने लायक परिस्थितियाँ उत्पन्न कीं। वर्षा ऋतु के अवसान पर जब फसलें खेतों में लहलहा रही हों। फसलों की नयनाभिराम हरितिमा सुनहरे रंग में परिवर्तित हो रही हो। तब मन अचानक ही उमग उठे, कोई ढोली अचानक ढोल पर थाप दे और ताल सुन कर नर-नारियों के पैर थिरक उठे यह स्वाभाविक ही है। खेतों में इकट्ठा हुए इस स्वर्ण को घर लाने के पहले उस के स्वागत में गांवों के लोग दीपमालाएँ सजा कर गांवों को जगमगा दें यही दीवाली पर्व है।

दीवाली मनुष्य की भौतिक समृद्धि का त्यौहार है, यह भौतिक समृद्धि किसी अतीन्द्रीय शक्ति की देन नहीं है अपितु वर्षों के श्रम और अनुभव के योग से मनुष्य ने स्वयं प्राप्त की है। खेतों से घर लाई जा रही इस समृद्धि के स्वागत के लिए हम बरसात से खराब हुए घरों  को हम साफ करते हैं, संवारते हैं, सजाते हैं। एक व्यवस्था बनती है जिस में ढंग से रहने और फसलों को संग्रह कर सुरक्षित करने के प्रयास सम्मिलित है। यह मनुष्य के श्रम की विजय का त्यौहार है जो उस के जीवन से अंधकार को दूर करता है। यह समृद्धि जो घर लाई जा रही है वह उस के श्रम से उत्पन्न हुई है। वही लक्ष्मी है, लक्ष्मी का एक नाम श्रमोत्पन्ना है।

जैसे जैसे मनुष्य की सामुहिक चेतना ने धार्मिक रूप ग्रहण किया। वैसे वैसे समृद्धि के इस त्यौहार के साथ घटनाएँ और मिथक जुड़ते चले गए। ऐतिहासिक रूप से देखें तो दीवाली सब से पहले भगवान महावीर के निर्वाण दिवस के रूप में जैन मनाने लगे। जैन पद्धति पूरी तरह नास्तिक पद्धति थी, उस का किसी आस्था या अतीन्द्रीय शक्ति से कोई संबंध न था। महावीर जिन्हों ने अपने कर्म से भगवान का दर्जा प्राप्त किया था उन की विदाई एक दुखद घटना के रूप में भी स्मृति में रखी जा सकती थी। लेकिन वे एक जीवन शैली निर्धारित कर गए थे। इस घटना को समृद्धि के त्यौहार के दिनों में एक दुखद घटना के रूम में मनाना मनुष्यों को न भाया जैन उसे प्रकाश पर्व के रूप में मनाने लगे। उस के कई वर्षों बाद जब सम्राट अशोक ने बोद्ध धर्म अंगीकार किया तो यह वही दिन था जब महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया। बौद्ध धर्म अंगीकार करना अशोक का एक अंधकार से प्रकाश की और पदार्पण करना था। 56 ईस्वी पूर्व में हिन्दू राजा विक्रमादित्य का राज्याभिषेक हुआ  और वह दिन दीपमालिका के रूप में मनाया जाने लगा। ऐसा प्रतीत होता है कि दीपमालिका का आरंभ तभी से हुआ है।

ह काल ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान का काल था। रामायण व महाभारत जैसे महाकाव्य इसी काल में लिपिबद्ध हुए। उस के बाद पुराणों की रचना हुई जो लगभग 600 ईस्वी तक चलती रही। तब राम के अयोध्या लौटने, बलि पर वामन की विजय, लक्ष्मी का विष्णु के साथ वरण, पाण्डवों का माता कुन्ती और पत्नी द्रौपदी के साथ वनवास और गुप्तवास से हस्तिनापुर वापस लौटने, नरकासुर पर विजय, देवताओं की रक्षा के लिए दुर्गा का विकराल काली रूप धारण करने आदि के मिथक इस त्यौहार के साथ जुड़ते चले गए। 

म यदि दीपावली पर होने वाली लक्ष्मी, गणेश, सरस्वती, काली व अन्य देवताओं की पूजा के विवरण में जाएँ तो हमें स्वयं ज्ञात हो जाएगा कि यह फसलों को घर लाने वाला समृद्धि का त्यौहार ही है। बाद में सिखों के तीसरे गुरू अमरदास जी द्वारा सिख पंथ को संस्थागत रूप देने, छठवें गुरू हरगोविंद जी की अन्य राजाओं के साथ मुक्ति और अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के शिलान्यास के दिन  भी इसी त्यौहार के साथ जुड़ गए। 

नुष्य के खेती का आविष्कार कर लेने से उत्पन्न भौतिक समृद्धि को घर लाने का यह त्यौहार धीरे धीरे अनेक कथाओं कहानियों को स्वयं के साथ जोड़ता चला गया और एक प्रकार से यह भारतीय उपमहाद्वीप की विविधता को एक पर्व में समेट लेने के अद्भुत त्यौहार के रूप में हमारे बीच विद्यमान है। इस त्यौहार पर किसी एक धर्मावलंबियो का अधिकार नहीं है। यह भारत में जन्मे लगभग सभी धर्मों के अनुयायियों का त्यौहार है। हर त्यौहार एक बड़ी आर्थिक गतिविधि भी होता है, इस तरह मुसलमान, ईसाई, पारसी आदि अन्य भारतीय धर्मावलंबी भी इस त्यौहार से इस कदर जुड़ चुके हैं कि उन के योगदान के बिना इस त्यौहार को पूरा कर पाना संभव ही लगता है। यह त्यौहार जितना धार्मिक विश्वासियों का है उतना ही अपितु उस से अधिक उन अविश्वासियों का है जिन्हें हम नास्तिक के रूप में पहचानते हैं। मनुष्य की भौतिक समृद्धि में नास्तिकों का भी उतना ही योगदान है जितना कि आस्तिकों का। वे किसी देवता या ईश्वर को नहीं मानते, वे किसी तरह की अतीन्द्रीय शक्तियों की पूजा करने में विश्वास नहीं रखते लेकिन वे मनुष्य के श्रम का आदर करते हैं, उस की शक्ति को पहचानते हैं। समृद्धि के इस त्यौहार से वे कैसे अलग और अछूते रह सकते हैं। भारतीय महाद्वीप की अनेकता में एकता के इस रूप में वे भी शामिल हैं। वे मनुष्य के सामुहिक श्रम और मेधा की विजय और प्रकृति के साथ उस के सामंजस्य के त्यौहार के रूप में उसे मना सकते हैं, बल्कि उन्हें मनाना चाहिए।