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शनिवार, 24 अक्तूबर 2015

पुरस्कार वापसी से उठे सवालों के जवाब : अब सवाल पूछने की बारी हमारी है -अनिल पुष्कर

जिन लोगों ने यह सवाल पूछा है कि १९८४ के दंगों में पुरस्कार क्यूँ नहीं लौटाए? हाशिमपुरा दंगों में पुरस्कार क्यों नहीं लौटाए? बाबरी मस्जिद ढहाने में पुरस्कार क्यों नहीं लौटाए? मुम्बई सीरियल ब्लास्ट में मारे गये लोगों पर पुरस्कार क्यों नहीं लौटाए? २००२ के गुजरात दंगों में पुरस्कार क्यों नहीं लौटाए? मुजफ्फरनगर दंगों में पुरस्कार क्यों नहीं लौटाए? आखिर दादरी और कल्बुर्गी की हत्या, पानसरे की हत्या, दाभोलकर की हत्या ने ही इन लेखकों को क्यूँ अतिआक्रोश से भर दिया आदि आदि.

उनके लिए यही कहना है :

१९८४ के दंगों के खिलाफ लिखने वाले सबसे अधिक लेखकों के नाम ढूँढिये और देखिये कि उनमें धर्मनिरपेक्ष लेखक अधिक हैं, जनवादी लेखक अधिक हैं, प्रगतिशील लेखक भरे पड़े हैं. इसके साथ ही दक्षिणपंथी लेखकों का भी इस मामले में कटाक्ष, कटु आलोचना वाला लेखन खूब हुआ है. १९९१ में नई आर्थिक नीति लागू होने के बाद जिन लेखकों ने इसकी तर्कपूर्ण आलोचना की है उनके नाम भी देखने चाहिए उनमें दक्षिणपंथी लेखक कितने थे? इसका भी खुलासा किया जाना चाहिए.

१९९२ बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद हिन्दुत्ववादी ताकतों के साथ खड़े लेखकों ने क्या आलोचना की है? और यह भी देखिये कि फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट से लेकर जनसमुदाय और अल्पसंख्यकों की खुली हत्याओं के खिलाफ भी प्रगतिशील, वाम और जनवादी लेखकों ने अखबार के पन्ने भर दिए थे.

मुम्बई बम काण्ड में एक बार फिर से दक्षिणपंथी लेखकों का हुजूम उमड़ा था. हिंदुत्व का जहर इन लेखकों ने झाग-झाग उगला था. मगर कोई तार्किक बहस नहीं छेड़ी.

२००२ के गुजरात दंगों में कितने दक्षिणपंथी लेखकों ने इसके विरोध में अखबारों से लेकर तमाम पत्र-पत्रिकाओं में लिखा? इसका जवाब क्या हिन्दुत्ववादी राजनीति से प्रेरित लेखक दे सकेंगे? जबकि इस मामले के खुलासे से लेकर हर तरह की जांच की मांग प्रगतिशील खेमे के लेखकों ने की थी. जनवादी ताकतों ने इसे देश की धर्मनिरपेक्षता पर हमला बताया था. वाम लेखकों, ताकतों ने फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट सबके सामने रखी थी. मुफ्फरनगर दंगों में शामिल समाजवादी पार्टी और दक्षिणपंथी राजनीति करने वाले दल का सच भी वामपंथी लेखकों ने ही किया था. प्रगतिशील और जनवादी ताकतों ने इस मामले में भी राज्य सरकार और केंद्र सरकार पर सवालों की बौछार की थी.

दाम्भोलाकर की हत्या, काल्बुर्गी की हत्या, पान्सारे की ह्त्या ने जनसमुदाय और लेखकों में इतना गुस्सा भर दिया कि अब जुल्म की इन्तेहाँ हो गई. केवल प्रतिरोध में सवाल पूछने के अलावा भी जनसमुदाय के भीतर जो गुस्सा भरा था उसे संसद के कानों तक ले जाना जरूरी हो गया था. यह प्रतिरोष का गांधीवादी तरीका है. जिसमें कोई हंगामा, कोई शोर-शराबा, कोई उपद्रव कोई आन्दोलन अब तक सड़कों पर इस कद्र कहर बरपाते हुए नहीं किया गया है कि इस हंगामें से जनता में लेखकों के लिए संवेनशील होने की बजाय अराजकता पैदा हो.

अखिल भारतीय साहित्य परिषद, पांचजन्य, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की लाइब्रेरी और गुरुघंटाल धर्म गुरुओं की असहिष्णु प्रव्ह्नों से अधर्म फ़ैल रहा हो, आतंकवादी शक्तियाँ मजबूत हो रही हों, अराजकता बढ़ रही हो वहां इनको रोकना और संकटपूर्ण अवरोशों का सामना करना जरूरी हो जाता है. अपने हिंदुत्वावादी एजेंडे से बाहर निकलकर जिन लेखकों ने इस सत्य को देखने की कोशिश की है. उन सभी को यह प्रोटेस्ट गांधी की याद दिलाता है. एक तरफ दक्षिणपंथी ताकतें, हिंदुत्वावादी ताकतें, साम्प्रदायिक ताकतें देश में हिन्दू-मुसलमान के बीच जहर बो रहा है दूसरी तरफ इस जहर से पैदा होने वाली महामारी और उसके कारण जिनकी हत्याएं की गई हैं उनसे बचने के उपाय शांतिपूर्ण तरीके से खोजे जा रहे हैं. अभी तो यह आन्दोलन अपनी पहली अवस्था में है. दूसरी अवस्था आये इसके पहले ही हिंदुत्ववादी ताकतों को यह सन्देश जा चुका है कि अगर अब भी लेखकों की हत्याएं नहीं रुकीं, अब भी अल्पसंख्यकों की हत्याएं नहीं रुकीं, अब भी एश में अमन चैन का वातावर्ण नहीं बनाया गया तो यह प्रतिरोष अपने जनवादी तरीकों के साथ जनता के साथ पूरी ताकत से इन सत्ताधीशों और हत्यारों से लड़ने के लिए तैयार है.

जिस देश में लेखकों की हत्याएं होंगी उस देश में अगर विरोध होगा तो बिलकुल इसी तरह होगा. और होना भी चाहिए. यह लोकतंत्र है. जहां हत्याओं के खिलाफ बोलने का हक़ हर किसी को है. अगर लेखक मारा जाएगा तो लेखक ही उसके खिलाफ पहली आवाज़ लाएगा यह तो हत्या की राजनीति करने वालों ने देख लिया. मगर इनके चेहरों पर डर और शिकस्त हत्या के बाद शिकन की जरा भी लकीर नहीं है. बल्कि गांधीवादी शांतिपूर्ण प्रतिरोध से घबराकर ऊल जुलूल बयान दे रहे हैं.

कोई बताये मुझे कि अब तक पूर्व की सरकारों ने कितने दक्षिणपंथी लेखकों की हत्याएं करवाई हैं? कितने हिन्दुत्ववादी लेखकों को सरेआम गोलियों से भूना गया? कितने संघी विचारकों को चौराहे पर घसीटकर बेइज्जत करके हत्या की गई है. कितने दंगाई राजनीतिज्ञों को जनता के बीच दौडाकर मरा डाला गया? अगर यह सब कुछ अब तक नहीं हुआ तो इसकी वजह क्या है? कभी सोचा है.

इसकी वजह है जनवादी ताकतें अपने विरोधियों की हत्याएं नहीं करतीं. प्रगतिशील ताकतें अपने विरूद्ध उठी आवाजों का गला नहीं घोंटते. एक संवेदनशील लेखक कभी किसी विरोधी लेखक की हत्या का षड्यंत्र नहीं रचता.

जाहिर है आपको अपने एक सवाल का जवाब मिल गया होगा. अगले रोज़ अगले सवाल का जवाब दिया जाएगा. मगर शर्त एक ही है जिस लेखक की हत्या हुई है, क्या उसे हमको वापस लौटा सकोगे? अगर नहीं तो फिर आगे हत्या का विचार मन से निकाल दो वरना गुस्साई भीड़ अगर तुम्हारे इशारे पर अख़लाक़ की हत्या कर सकती है तो कल को यही गुस्साई भीड़ तुम्हारी गर्दन तक भी पहुँच सकती है. लोकतंत्र में हर तरफ सुरक्षा है हर तरफ खतरा है. बशर्ते लोकतंत्र के सब्र का इम्तेहान न लेना वरना केवल लेखक इस देश में इतना ताकतवर है कि वह तुम्हें देश-निकाला भी दे सकता है.

और एक बात सवाल जितने भी आये हैं वह अब तक तुमने पूछे हैं तुम यानी हत्या की राजनीति करने वाले न्र-पिशाच, तुम यानी दंगों की राजनीति करने वाले दंगाई, मरने वालों की मृत्यु-कथा बांछ्ते मौत के सौदागर, तुम तुम और तुम सभी को अब कुछ सवालों के जवाब देने अभी बाकी हैं. इन्तजार करो बहस तो अब शुरू हुई है. कितनी देर ठहर सकोगे. जुल्म सहने वाले तो युगों युगों से धैर्यपूर्वक चुपचाप दम साधकर खड़े हैं. उनकी एक सांस का वार भी झेलना तुम्हारे लिए भारी पड़ेगा.

अरे, जो हत्यारे अपने ही लेखक कार्यकर्ता श्यामा प्रसाद मुखर्जी से लेकर नियोगी तक की साजिश करके हत्या कर दें वो भला किसी और के सगे कहाँ होंगे. वजह सिर्फ व्यक्तिगत हित साधकर दक्षिणपंथ की राजनीति के साथ मिलकर हत्यारे लोगों की हत्याएं करते हैं.

अनिल पुष्कर
 -पोस्ट डॉक फेलो, इलाहाबाद

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