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शनिवार, 11 जुलाई 2015

'घड़ीसाज'



'लघुकथा'

'घड़ीसाज'

- दिनेशराय द्विवेदी


- कुछ सुना तुमने?
- क्या?
- अरे! तुमने रेडियो नहीं सुना? टीवी नहीं देखा?
- देखा है, सब देखा है। उस में तो न जने क्या क्या होता है। मुझे कैसे पता कि तुम किस के लिए बोल रहे हो?
- मैं वो बड़े साहब की बात कर रहा था।
- कौन बड़े साहब?
- अरे? वही शेरखान साहब!
- अच्छा, अच्छा!
- अच्छा अच्छा क्या? वही अपने सरकस के नए मनीजर साहब!
- हाँ हाँ वही न? जो बात बात में जो बात बात में राष्ट्र बनाने की बात करते हैं?
- हाँ, वही। अब समझे तुम! उन ने बोला है कि राष्ट्र बनाना है।
- क्या मतलब? क्या राष्ट्र अभी तक बना हुआ नहीं था?
- नहीं नहीं, उन का ये मतलब नहीं था। राष्ट्र तो बना हुआ है। पर जरा बिगड़ा हुआ है न! उसे फिर से बनाना है। जैसे घड़ी चलते चलते आगे या पीछे चलने लगती है तो उसे घड़ीसाज के पास ले जाना पड़ता है, वह बना देता है।
- अच्छा तो बड़े साहब घड़ीसाज भी हैं?
- तुम्हें कितना ही समझाओ। तुम रहोगे चुगद के चुगद ही। राष्ट्र कोई घड़ी थोड़े ही है जिसे बनाने के लिए घड़ीसाज की जरूरत होगी।
- हाँ, वो भी सही है। आज कल घड़ी कौन बनवाता है। थोड़ी भी इधर उधऱ होने लगी कि फेंक दी और नयी ले आए। वैसे भी यूज एण्ड थ्रो का जमाना है। यार! तुम्हारे साहब इस खराब राष्ट्र को फेंक क्यों नहीं देते। नया खरीद लें। बिलकुल कंपनी की गारण्टी वारण्टी वाला। सारा खेल खतम।
- तुम नहीं सुधरोगे! समझना ही नहीं चाहते तो वैसे कह दो।
- नहीं नहीं? ऐसी कोई बात नहीं। मैं समझना चाहता हूँ। पर उदाहरण से समझें तो अच्छा समझ आता है।
- ठीक है, ठीक है। उदाहरण ही सही। पर उदाहरण तो सही दिया करो। अब ये घड़ी और घड़ीसाज का उदाहरण सही नहीं है। कोई और अच्छा सा होना चाहिए था। चल! छोड़। हम भी कहाँ उलझ गए। ..... तो मैं बता रहा था कि साहब ने सब को संदेश दिया है।
- क्या?
- कि गैस सब्सिडी छोड़ दो, राष्ट्र बनाना है।
- गैस सब्सिडी?
- वही पैसा न जो सिलेंडर का पैसा देने के बाद अब खाते में आ जाता है, उस के लिए लिख दो कि वो हमें नहीं चाहिए।
- ओह! तो साहब को पैसा चाहिए?
- क्यों नहीं चाहेगा पैसा? साहब राष्ट्र जो बनाएंगे।
- तब तो मेरा उदाहरण बिलकुल सही था। घड़ीसाज भी तो घड़ी बनाने का पैसा लेता है।

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