मानव सदा अपनी
आदिम अवस्था में नहीं रह सकता था, सदा प्रकृति और गोचर जगत की नाल से जुड़ा नहीं
रह सकता था। पशु ही ऐसा है जो प्रकृति से
कभी अनमेल या बेसुरेपन का अनुभव नहीं करता, किन्तु मानव? न केवल बाह्य प्रकृति से,
वरन् स्वयं अपने से भी उस का द्वंद्व चलता रहता है। यह असंगति इसे झनझनाती और व्यथित करती है, और यह व्यथा उसे सदा आगे
बढ़ने को प्रेरित करती है। कभी कभी ऐसा
होता है कि प्रकृति के साथ यह वैमनस्य, यह अंतर्विरोध इतना भयानक रूप ले लेता है
कि मानव सत्य की टोह छोड़ कर ऑथेलो की भाँति अन्धी झुंझलाहट और क्षोभ से त्रस्त किसी
भुलावे को पकड़ने के लिए, यहाँ तक कि एकदम औघड़ जादू-टोनों तक में पड़ने के लिए
विकल हो उठता है। यह जैसे भी हो, उस
जानलेवा द्वंद्व को भूलना और उस से निकल भागना चाहता है¡ ... यहीं से ज्ञान का, और अन्धविश्वासों का भी
सूत्रपात होता है...¡
- अलेक्सान्द्र इवानोविच हर्ज़न (1812-1870)
सच है ,इन्ही विषयों पर मेरा भी सोच विचार इन दिनों चल रहा है!
जवाब देंहटाएंएकदम सही बात कही है आपने ये क्या कर रहे हैं दामिनी के पिता जी ? आप भी जाने अफ़रोज़ ,कसाब-कॉंग्रेस के गले की फांस
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