इन दिनों मौसम बहुत सता रहा है। तापमान अधिक नहीं है, लेकिन वह 31 से 37 डिग्री के बीच रहता है। नमी का स्तर अत्यधिक होने से सदा गर्मी लगती रहती है। केवल सुबह के समय कुछ राहत मिलती है वह भी यदि पंखा चल रहा हो। लेकिन नौ बजते बजते गर्मी का अहसास होने लगता है। स्नानघर से निकलने के बाद कम से कम पाँच मिनट पंखे के नीचे खड़े रहने पर ही शरीर के सूखेपन का अहसास होता है। लेकिन कपड़े पहनने के साथ ही पसीने की आवक आरंभ हो जाती है। अदालत के लिए निकलने के पहले तक अंदर के कपड़े अक्सर पसीने से नम हो चुके होते हैं। घर से अदालत का सफर यदि लालबत्ती पर रुकना पड़ जाए तो कुल 5-6 मिनट का होता है। इतनी देर में कार का वातानुकूलन सुख देता है। लेकिन अदालत पहुँच कर कार से बाहर निकलते ही वही गर्मी का अहसास आरंभ हो जाता है। मैं ग्रीष्मावकाश में कोट नहीं पहन रहा था। 29 जून को अवकाश समाप्त हुए तो कोट पहनना आरंभ किया। केवल 10-12 दिनों में ही कोट की हालत यह हो गई कि जहाँ बाहों का अंतिम सिरा कलाई के टकराता रहता है वहाँ पसीने के सफेद निशान दिखाई देने आरंभ हो गए। पत्नी ने आज घर से निकलने के पहले टोक दिया -आप को इसे शुक्रवार शाम को ही ड्राई-क्लीन पर दे देना था। मैं कल से फिर से काला कोट नहीं पहन रहा हूँ। उसे साथ ले जाता हूँ अपने बैठने के स्थान पर रख देता हूँ। मुझे लगता है कि कहीं पहन कर जाना है तो पहन लेता हूँ। कल तो बिलकुल नहीं पहनना पड़ा। आज सुबह पहना। लेकिन एक घंटे में ही उतार कर रख देना पड़ा। मैं ने आज यह देखा कि अदालत आने वाले वकीलों में से 80-85 प्रतिशत ने कोट पहनना बंद कर रखा है। केवल 20 प्रतिशत उसे लादे हुए हैं।
मुझे नहीं लगता कि यदि मैं काला कोट नहीं पहनूंगा तो कोई अदालत मुझे वकील मानने से इन्कार कर देगी। आज ही मुझे एक अदालत में दो बार जाना पड़ा। इस अदालत के न्यायाधीश ने दोनों बार कोट पहना हुआ नहीं था। हालांकि जज न्यायाधीशों के आचरण नियमों में यह बात सम्मिलित है कि उन्हें न्यायालय में निर्धारित गणवेश पहने बिना नहीं बैठना चाहिए। हम वकीलों को तो कभी अदालत में, कभी अपने बैठने के स्थान पर कभी टाइपिस्ट के बगल की कुर्सी, मेज या बेंच पर कभी अपने बैठने के स्थान पर और इन सभी स्थानों पर आते जाते धूप में निकलना पड़ता है। इन सभी स्थानों पर पंखे तक की व्ववस्था नहीं होती। कोट उन्हें जितना कष्ट पहुँचाता है उतना किसी और अन्य को नहीं। लेकिन न्यायाधीश तो अपने न्यायालय में बैठते हैं, जहाँ धूप नहीं होती। पंखा भी बिजली के आने तक चलता रहता है। यदि उन्हें कोट उतारने की जरूरत महसूस होती है तो फिर वकीलों को तो पहनना ही नहीं चाहिए। यहाँ कोटा, राजस्थान में अप्रेल से ले कर अक्टूबर तक का मौसम कोट पहनने लायक नहीं होता। यदि कोई पहनता है तो वह निश्चित रूप से शरीर के साथ क्रूरता और अत्याचार के अतिरिक्त कुछ नहीं कहा जा सकता। मैं यह मानता हूँ कि किसी भी प्रोफेशनल को अपने कर्तव्य पर होते समय अपने गणवेश में होना चाहिए। प्रोफेशनल का गणवेश उसे अपने कर्तव्यों का अहसास कराता रहता है। यह उस की पहचान भी है। लेकिन क्या यह आवश्यक है कि गणवेश ऐसा ही हो जो भारत के मौसम के अनुकूल न हो कर मानव शरीर को सताने वाला हो।
आज कोट पहनने के दस मिनट बाद ही गर्मी से पीठ पर पसीने की एक धार निकल कर नीचे की और बहने लगी और वहाँ तेज गर्मी के साथ खुजली चलने लगी। क्या इस स्थिति में कोई वकील पूरे मनोयोग से अपने किसी मुवक्किल के मामले को न्यायालय के सामने रख सकता है? क्या वह किसी साक्षी का प्रतिपरीक्षण कर सकता है? वकील ऐसा करते हैं, लेकिन शरीर की तकलीफ उन का ध्यान बँटाती है और काम पूरे मनोयोग से नहीं होता। तीन दिन पहले मेरे साथ यह हुआ भी। एक साक्षी से प्रतिपरीक्षण करते हुए कुछ जरूरी प्रश्न पूछने का ध्यान नहीं रहा। मैंने बोल दिया कि प्रतिपरीक्षण पूरा हो चुका है। टाइपिस्ट ने टाइप भी कर दिया। मुझे मेरे सहायक ने इस का ध्यान दिलाया तो मुझे न्यायाधीश से कुछ और प्रश्न करने की अनुमति लेनी पड़ी। इस से यह भी निश्चित हो गया कि हमारे गणवेश का यह काला कोट हमें अपने कर्तव्य पूरे करने में बाधक बन रहा है।
मैं ने आज कुछ अन्य वकीलों से बात की जिन्हों ने कोट पूरे दिन पहन रखा था। उन्हों ने बताया कि वे सिर्फ उसे ढो रहे हैं, क्यों कि उन्हें बेवर्दी और नियम तोड़ने वाला न समझा जाए। जो बिना कोट के थे उन से पूछा तो वे बता रहे थे कि पहना ही नहीं जा सकता, पहन लो तो काम नहीं कर सकते। मैं ने उन से यह भी पूछा कि वकील अन्य मामलों पर संघर्ष करते रहते हैं, मामूली मामलों पर काम बंदी करते हैं। क्या वे अपने इस ड्रेस कोड में परिवर्तन के लिए नहीं लड़ सकते? उन का उत्तर था कि लड़ना चाहिए, लेकिन पहल कौन करे? मैं ने आज यह तय कर लिया है कि जब तक कोट पहनना शरीर को बर्दाश्त नहीं हो जाता, नहीं पहनूंगा। कोट पहनने की इस जबर्दस्ती के विरुद्ध अपनी अभिभाषक परिषद को लिख कर दूंगा कि वह उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को कोट पहनने की अनिवार्यता को अप्रेल से अक्टूबर तक समाप्त करवाने के लिए लिखे। देखता हूँ, उपनिवेशवादी सोच को ढोने वाली काला कोट पहनने की इस परंपरा को समाप्त कराने के लिए अपना कितना योगदान कर पाता हूँ?
अद्भुत फैसला! मै तो बहुत खुश हुआ। बस दुख है कि भारत आजादी के 64 साल बाद भी ऐसे नियम-कानूनों को पाले हुए है। इसे हटाना एकदम आवश्यक है। आप पहल करते हैं तो बड़ी सुन्दर और प्रभावी बात होगी। और लोगों से सहायता मिलेगी, ऐसा सोचता हूँ।
जवाब देंहटाएंअभी तक अंग्रेजों की लालकिताब के भरोसे ही चल रहे हैं।
जवाब देंहटाएंभारत के मौसम के अनुरुप ड्रेस कोड लागु होना ही चाहिए।
आपका प्रयास सफल हो इसके लिए शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंयही हाल टीटी का है, गर्मियों में काला कोट। देश, काल के अनुसार पहनावा हो तो ही उचित।
जवाब देंहटाएंदूसरों को न्याय दिलाने वालों को खुद न्याय नहीं मिल रहा|
जवाब देंहटाएंआपका प्रयास सफल हो यही कामना है|
गर्मी मैं तो कपडे भी परेशान करते हैं. भाई मैं तो काले कोट के खिलाफ नहीं
जवाब देंहटाएंहाँ गर्मी का कोई हल अवश्य निकालना चाहिए . यदि काले कोट का पहनने का कानून बनाया है तो वकीलों के लिए एयर कंडिशन हॉल का भी इंतज़ाम किया जाना चाहिए.
तब आप में और मुवक्किल मुलाजिम और मुलजिम में कैसे फर्क नजर आएगा ?
जवाब देंहटाएंबातें, जमाने से हो रही हैं, वकील परिचितों से पूछने पर वे कहते हैं, धीरे से आदत बन जाती है.
जवाब देंहटाएंमोसम के अनुरूप ही पहनावा होना चाहिए तभी सही रहता है
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआपने बहुत सही निर्णय लिया है !
जवाब देंहटाएंपहल करना हर किसी के बस की बात नहीं है यही कारण है कि नेतृत्व की कमी हमेशा दिखाई देती है !
आप काला कोट का विरोध करें कम से कम गर्मीं के दिनों में यह नहीं होना चाहिए न वकीलों के लिए और न ही जजों के लिए !
हार्दिक शुभकामनायें !
क्यों न इस ब्रिटिश पहरावे को बदल दें और अपनी काली छवी को उजली कर लें :)
जवाब देंहटाएंकोटा में कोट, वह भी गर्मी में। बहुत नाइन्साफी है।
जवाब देंहटाएंगुरुवर जी, हमें सबसे पहले स्वयं खुद के उपर हो रही क्रूरता रोकना होगा. तब ही किसी और को सुधारने की कोशिश करें. आपकी बात सही है. पहले खुद को सुधारों, फिर समाज को सुधारों. तब उसके बाद देश को सुधारने के लिए कदम बढ़ा दो.
जवाब देंहटाएंआपके इस जनांदोलन में आपका नाचीज़ शिष्य आपके साथ है. आज हमारे देश कुछ ऐसे सड़े-गले कानून है. जिनकों अपराधों के आधुनिक हो जाने से उनकी जांच के लिए आधुनिक संचार माध्यमों को प्रयोग में लाना होगा.
अगर मेरे द्वारा उपरोक्त समस्या के लिए कहीं पत्र लिखने से या सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के तहत आवेदन डालने से कुछ फर्क पड़ता हो. तब नि:संकोच बताये और ईमेल लिखे. गुरुवर जी, पता नहीं यह पोस्ट कैसे छूट गई थीं, क्षमा करें.