गेहूँ का उत्पादन इस वर्ष अच्छा हुआ है। मंडी में इतना गेहूँ आ रहा है कि रखने को स्थान नहीं है। नतीजा यह कि गेहूँ की कीमतें काबू में हैं। इस से आम आदमी को कुछ राहत मिली है और महंगाई का आँकड़ा ऊपर न चढ़ने के कारण सरकार भी राहत में है। कुछ मायूसी है तो किसान को है कि उसे उतनी कीमत नहीं मिली जितनी मिलनी चाहिए थी। उस ने इस फसल की उम्मीद पर जितने सपने देखे थे उन में कुछ कसर रह गई। अब उसे उम्मीद है कि यदि खाद, बीज, कीटनाशक, बिजली और डीजल के दाम न बढ़ें तो उस की उत्पादन लागत न बढ़े। पर उस की यह उम्मीद फलती नजर नहीं आती। अधिकांश किसान तो अपनी फसल को सीधे मंडियों में या फिर खाद्य निगम के काँटों पर तुलवा कर नकदी बना रहे हैं। लेकिन कुछ छोटे और मध्यम किसान ऐसे भी हैं जो फसल पर मेहनत कर के अनाज को साफ कर उसे ग्रेडिंग जैसा बना कर नगरों में ला कर सीधे उपभोक्ता को विक्रय कर रहे हैं। इस से दुतरफा लाभ है, किसान को कीमत कुछ अधिक मिल रही है और उपभोक्ता को कुछ कम देना पड़ रहा है। किसान खुद माल तौल रहा है तो तुलाई-भराई का पैसा भी बच रहा है।
हमने भी पिछले रविवार को साल भर के लिए गेहूँ खरीदा। कोटा जंक्शन क्षेत्र में रविवार को परंपरागत हाट लगता है। किसान अपनी गेहूँ से भरी ट्रॉलियाँ ले कर सुबह ही वहाँ पहुँच जाते हैं और उपभोक्ता भी। मुझे स्वयं तो गेहूँ कि पहचान नहीं इस लिए अपने कनिष्ठ नंदलाल शर्मा को साथ ले गया। वे किसान भी हैं और वर्षों से गेहूँ का उत्पादन कर रहे हैं। आम तौर पर उन के यहाँ से ही गेहूँ आता है। लेकिन उन्हों ने गेहूँ कि नई किस्म बोई है जिस का उत्पादन 9 क्विंटल बीघा अर्थात 56 क्विंटल प्रति हैक्टर हुआ है। जब कि आम प्रचलन के अच्छी किस्म के गेहूँ का उत्पादन मात्र 6 क्विंटल प्रति बीघा हुआ है। वह खाने में न जाने कैसा हो इसलिए वे स्वयं भी केवल प्रयोग के तौर पर थोड़ा सा गेहूँ घर लाए हैं। उसे इस बार वापर के देखेंगे, शेष गेहूँ वे मंडी में बेचेंगे। इस नई किस्म के गेहूँ और पुराने प्रचलित गेहूँ में दर का अंतर सौ रूपए क्विंटल से अधिक नहीं है। नन्दलाल जी का कहना है कि यह नई किस्म का गेहूँ पुराने किस्म के गेहूँ को कुछ ही वर्षों में विस्थापित कर देगा। क्यों कि जब दर का अंतर अधिक न होगा तो किसान इस अधिक उत्पादन वाली नई किस्म को ही बोएगा और पुरानी किस्म के गेहूँ का उत्पादन बंद हो जाएगा। दो-चार वर्ष बाद सभी को यही गेहूँ खाना पड़ेगा।
गेहूँ को हम 35-35 किलो के 11 बैगों में भर कर लाए थे। नन्दलाल जी और मैंने ये 11 बैग अपनी मारूती-800 में भर लिए, और घर ले आए। बैगों का वजन कम होने के कारण घर पर भी हमने ही उन्हें उठा कर रख दिया। इस तरह हम्माली की भी बचत हो गई। कुल मिला कर 1300 रुपए क्विंटल की दर में चार क्विंटल गेहूँ घर आ गया। शोभा ने उन में से दो बैग तो छान बीन कर अलग भर दिए जिस से कम से कम एक-दो माह का काम चल जाए। बाकी गेहूँ को ड्रमों में भर कर रखना था। कल शाम ही हमें अल्टीमेटम मिला कि अभी दवा (कीड़ों से सुरक्षा के लिए पेस्टीसाइड) लाई जाए ताकि सुबह स्नान के पहले ही गेहूँ को ड्रमों में भर दिया जाए। हम बाजार से सल्फास के दस-दस ग्राम के चार पैकेट खरीद कर लाए और आज सुबह ही उन्हें ड्रमों में डाल कर गेहूँ भर गए। तब जा कर श्रीमती जी को चैन मिला है कि वर्ष भर उन्हें गेहूँ के लिए किसी का मुहँ नहीं देखने को मिलेगा। एक जैसा आटा साल भर खा सकेंगे और मंदिर पर चढ़ाने, त्योहारों पर ढोल बजाने वाले ढोली व घर पर भिक्षा मांगने आने वालों के लिए साल भर गेहूँ उपलब्ध रहेगा। मुझे भी साल भर के लिए चैन मिला कि अब सिर्फ महिने में एक दो बार गेहूँ पिसाने के अलावा कोई झंझट नहीं रहा।
पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश पर बहुत हंगामा हुआ था कि अनाज को सड़ने से रोके जाने के लिए उसे मुफ्त गरीबों को बाँट दिया जाए। इस में कुछ गलत था भी नहीं। भारत में आज भी बहुत बड़ी आबादी है जो अनाज के लिए तरसती है। बच्चों को झूठन में से खाद्य बीनते और मंडी में मिट्टी में मिल चुके अनाज को अलग कर काम में लेने लायक बनाते हुए देखना एक आम चित्र है जिसे देखने के लिए श्रम करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे में अनाज को सड़ने के लिए छोड़ देना अक्षम्य अपराध है। लेकिन तब हमारे खाद्यमंत्री का बयान था कि अनाज को मुफ्त में बाँटा नहीं जा सकता। उन्हें तब शायद उन व्यापारियों की चिंता थी जिन्हों ने अनाज गोदामों में भरा था और मुफ्त में अनाज बाँटने से उन्हें घाटा हो जाता, या फिर इस बात की चिंता थी कि सड़ाने में सरकार का कुछ भी खर्च नही होता जब कि बाँटने में कुछ तो खर्च करना पड़ता ही है। तब मैं ने भी यह कहा था कि लोगों को पूरे वर्ष की जरूरत का अनाज फसल पर खरीदने के लिए प्रोत्साहित किया जाए।
आज से कोई बीस-तीस वर्ष पहले लगभग सभी सरकारी कर्मचारियों को अप्रेल-मई के माह में अनाज अग्रिम अपने नियोजक से मिल जाता था और हर कर्मचारी अपनी जरूरत का अनाज खरीद कर उस का भंडारण कर लेता था और वर्ष भर, जब तक कि उस का उपयोग न हो लेता उस की सुरक्षा करता था। उद्योगों में भी जहाँ यूनियनें थीं वहाँ इस तरह के समझौते बहुतायत से हुए कि कर्मचारियों को अनाज अग्रिम दिया जाएगा जो वर्ष भर प्रतिमाह उन के वेतन से किस्तों में काट लिया जाएगा। इस अनाज अग्रिम ने अनाज के भंडारण की समस्या को विकराल नहीं होने दिया था। बाजार में भंडारण योग्य अनाज बचता ही कितना था?
सरकारों ने अपने कर्मचारियों को अनाज अग्रिम देना बंद कर दिया। उद्योगों में भी यह परंपरा बन्द हो गई। लोग गेहूँ के बजाए बाजार से सीधे आटा खरीदने लगे। अब आटा कंपनियाँ तो गेहूँ उतना ही खरीदती हैं जितना उन की जरूरत है। वे गोदाम निर्माण में क्यों निवेश करें? करें तो फिर साल भर का गेहूँ खरीदने में भी निवेश करें। ऐसे में तो गेहूँ पीस कर बेचने का धंधा घाटे का हो जाए। अब गेहूँ का भंडारण सरकार के जिम्मे। वही गोदामों में निवेश करे। पर उस के पास भी इतनी पूंजी कहाँ है? फिर इस में मंत्रियों-संत्रियों-अफसरों का लाभ कुछ नहीं, तो वे भी ऐसा क्यों करें? इस से तो अच्छा ही है कि अनाज सड़ जाए, कम से कम कुछ जानवर और कीट आदि तो पलेंगे जिससे अपरोक्ष धर्मलाभ ही होगा। सरकार को अभी भी अनाज अग्रिम का इलाज स्मरण नहीं हो पा रहा है। शायद किसी रोज सुप्रीम कोर्ट को ही इस के लिए आदेश देना पड़े। वह भी खुद कहाँ दे सकता है? पहले कोई एनजीओ वहाँ रिट लगाए फिर जवाब तलब और सुनवाई हो फिर जा कर आदेश हो।
गोदाम/भण्डारण निर्माण को इंफ्रास्ट्र्क्चर सेक्टर मान कर सरकार चले। तब जो सुविधायें सड़क - बिजली के लिये दी जाती हैं, वे इस मद में भी मिलें!
जवाब देंहटाएंजिस-जिस ढांचे को टिकाने के लिये बाहरी बैसाखी की ज़रूरत है उसे टूटा ही मानिये। पहले सरकार किसान-कल्याण के लिये अपनी भंडारण/वितरण क्षमता से अधिक अनाज खरीदे वह भी बाज़ार से अधिक मूल्य पर, फिर उसका मुफ्त बंटवारा भी सुनिश्चित करे। मुफ्तखोरी का लाभ उठाने ऐसे मुफ्तखोर भी आयेंगे जिनके पास पहले से बहुत कुछ है। ऐसे अधकचरे प्रयोग साम्यवादी राष्ट्रों ने बहुत कर के देख लिये और सिद्ध कर दिया कि अपने दम पर न टिक सकने वाले प्रयोग ही नहीं ऐसे तंत्र भी ढह जाते हैं। समस्या के निराकरण के लिये आदमी को मुफ्तखोर नहीं सक्षम बनाने वाले प्रयोगों की आवश्यकता है। और ऐसा तभी होगा जब बहुजन हिताय की इच्छा रखने वाले सज्जन अपने-अपने पूर्वाग्रह और जूतम-पैजार छोडकर एकजुट होकर काम करेंगे।
जवाब देंहटाएं@Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
जवाब देंहटाएंआप की टिप्पणी की अधिकांश बातें सही होने पर भी यहाँ प्रासंगिक नहीं हैं। यहाँ भंडारण किसान कल्याण के लिए नहीं है, वह अनाज संरक्षण के लिए है। किसान कल्याण के लिए होता तो हजारों किसान भारत में प्रतिवर्ष आत्महत्यायें नहीं कर रहे होते। सुप्रीमकोर्ट ने मुफ्त में अनाज बाँटने के लिए इसलिए कहा कि वह सड़ रहा है। क्या अनाज का संरक्षण बुरे दिनों के लिए पूरे राष्ट्र के लिए भी आवश्यक नहीं? यह मानसूनी प्रदेश है। एक मानसून खराब होने पर कई वर्षों के लिए अनाज की किल्लत पैदा कर सकता है। फिर भी हम अपनी पारंपरिक पद्धतियों को विस्मृत कर बाजारवाद में उलझ गए हैं। वस्तुतः भंडारण तो उपभोक्ता के स्तर पर ही होना चाहिए। इस के लिए सरकार को उपभोक्ताओं को प्रोत्साहित करना चाहिए। इस से कालाबाजारी पर भी अंकुश रहेगा।
सारा अनाज एक साथ खरीद लेने से अधिक भण्डारण भी नहीं करना पड़ेगा और माँग भी बनी रहेगी।
जवाब देंहटाएंअधिक जनता के लिए अधिक उत्पादन तो जरूरी है। इसलिए अब ज़ायके से अधिक पैदावर पर ज़ोर दिया जा रहा है, भले ही उसे नदी के या समुद्र के हवाले ही करना पडे :(
जवाब देंहटाएंउपभोक्ता को भंडारण के लिए सरकार प्रोत्साहित करना शुरू कर देगी तो रिटेल में ढाई सौ रुपये का दस किलो आटा कैसे बिकेगा...हम खुद भी ऐसे आलसी होते जा रहे हैं या सरकार ने बना दिया है कि सब कुछ इन्सटेंट चाहिए...कौन झंझट करे साल भर का गेहूं खरीद कर लाए, स्टोर करे, आटा पिसवाने हर महीने जाए...बस झट से किराना वाले को कहा और आकर्षक पैकिंग में आटा लेकर घर वापस...ये सोचने की फुर्सत किसे तेरह रुपये किलो वाली चीज़ के पच्चीस रुपये ज़ेब से जा रहे हैं...
जवाब देंहटाएंजय हिंद...
कई बाते कह गये गुरुवर!
जवाब देंहटाएंजब आराम से मिल रहा है, और फ़ुर्सत ही नहीं है तो गणित समझ में भी नहीं आती...
साल भर के लिये अनाज की आवश्यकता का अनुमान लगाकर यदि खरीद कर परिवारों में रख लिया जाये (यथासम्भव) तो भंडारण की समस्या का समाधान आंशिक रूप से सम्भव है.
जवाब देंहटाएंअर्थशात्रियों का क्या कहना है ? कोई है यहाँ ?
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