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मंगलवार, 3 मई 2011

बेरोजगार मक्खन ढक्कन कोटा में

सुबह पत्नी ने समय पर जगाया तो था, पर रात देर से सोने के कारण उठ नहीं पाया नींद फिर लग गई। फिर नींद खुली तो कॉलबेल बज रही थी। पत्नी ने आ कर बताया कि एक अधेड़ पुरुष और स्त्री और एक नौजवान खड़ा है। मैं समझा कोई नया मुवक्किल है। उसे कहा कि उन्हें ऑफिस में बिठाओ। मैं अपनी शक्ल दुरुस्त करने को बाथरूम में घुस गया। दस मिनट बाद बदन पर कुर्ता डाल कर ऑफिस में घुसा तीनों हाथ जोड़ कर खड़े हो गए। मैं ने उन्हें कहा -वकील तो फीस ले कर काम करता है, हाथ जोड़ने की जरूरत नहीं। वे तीनों फिर भी खड़े रहे। मैं अपनी कुर्सी पर बैठा तो भी खड़े रह गए। 

मैं ने पूछा -कहाँ से आए हो? कैसे आए हो? क्या काम है? तो अधेड़ पुरुष बोलने लगा।

-साहब! आप ने पहचाना नहीं? हम सीधे नोएडा से आ रहे हैं। मक्खन हूँ और ये मक्खनी और ये ढक्कन। कई महिनों से खुशदीप जी के यहाँ काम करते थे। उनको पता नहीं क्या हुआ। शनिवार को रात को घर लौटे तो गला एकदम खराब था। आते ही बोले -भई मक्खन-ढक्कन अपने यहाँ से तुम्हारा दाना-पानी उठ गया। हमारा स्लॉग ओवर बंद हो गया। एक महिने की एडवांस तनखा ले जाओ और काम ढूंढ लो। हम रात को कहाँ जाते तो रात उन के बरामदे में काटी। शायद सुबह तक साहब का मूड़ कुछ ठीक हो जाए। पर सुबह भी साहब का वही आलम था। गला इतना खराब था कि उन से बोले ही नहीं जा रहा था। हमें इशारे में समझाया कि हमें जाना ही पड़ेगा।

मैं मक्खन परिवार को देख एकदम सकते में आ गया। मैं ने पढ़ा तो था कि खुशदीप जी ने ब्लागरी को अलविदा कह दिया है। पर ये अंदाज नहीं था कि वे स्लॉग ओवर भी बंद कर देंगे। मैं ने मक्खन से पूछा- फिर तुम ने क्या किया? 

-साहब! हम ने साहब का नमक खाया है। हम तो उन की हालत देख कर कुछ कहने के भी नहीं थे। उन से महिने की एडवांस तनखा भी नहीं ली और चल दिए। हजरत निजामुद्दीन स्टेशन पहुँचे तो वहाँ जो ट्रेन खड़ी थी, उस में बैठ गए। टिकट तो था नहीं। टीटी ने पकड़ लिया और कोटा तक ले आया। हम ने टीटी को दास्तान सुनाई तो उसे हम पर रहम आ गया। बोला यहाँ किसी को जानते हो। हम ने आप का नाम बताया। तो वह आप को जानता था। उस ने कहा कि अभी रात है स्टेशन पर गुजार लो मैं द्विवेदी जी का पता दे देता हूँ। सुबह उन के यहाँ चले जाना। सुबह उजाला होते ही स्टेशन से चल दिए। पूछते-पूछते आप के घर आ गए हैं। 

मैं सकते में था, मुझे समझ ही नहीं आ रहा था इन तीनों का क्या करूँ? फिर उन से ही पूछा -मुझ से क्या चाहते हो? मक्खन फिर कहने लगा।

-अब साहब का मूड तो लगता है हफ्ते-दो हफ्ते ठीक नहीं होगा। तब तक हम चाहते हैं कि आप यहाँ ही काम दिला दें,अपने यहाँ ही रख लें। जब उन का मूड ठीक हो जाएगा तो वे स्लाग ओवर जरूर चालू करेंगे। हम उन के पास वापस लौट जाएंगे। 

अब मैं क्या करता? अंदर जा कर पत्नी को सारी दास्तान सुनाई। तो वह कहने लगी -बेचारे इतनी दूर से आए हैं। उन्हें चाय की भी नहीं पूछी। मैं उन्हें चाय देती हूँ। तब तक आप सोच लीजिए क्या करना है। मैं क्या सोचता? मुझे तो तैयार हो कर अदालत जाना था। मैं तैयार होने में जुट गया। घंटे भर बाद ऑफिस घुसा तो मक्खन-मक्खनी और ढक्कन चाय पी चुके थे। मैं ने उन से कहा -तुम यहीं रुको। मैं दोपहर बाद अदालत से लौटूंगा तब तुम्हारे बारे में सोचेंगे। 

अदालत में फुरसत हुई तो ध्यान फिर मक्खन परिवार की ओर घूम गया। खुशदीप जी को फोन लगा कर बताया कि मक्खन-मक्खनी और ढक्कन इधर मेरे यहाँ पहुँच गए हैं, चिंता न करना। आप का गला ठीक हो जाए तो इन्हें वापस भेज दूंगा जिस से स्लॉग ओवर फिर आरंभ हो सके। खुशदीप बोल तो रहे थे पर गले से आवाज कम ही निकल रही थी, जैसे-तैसे बताया कि वे एंटीबायोटिक खा रहे हैं। मुझे तो एंटीबायोटिक के नाम से झुरझुरी छूट गई। मैं ने बताया कि मुझे तो इन से डर लगता है और मैं तो ऐसा मौका आने पर सतीश सक्सेना जी की होमियोपैथी की मीठी गोलियों से काम चला लेता हूँ। आप एंटीबायोटिक के बजाए सक्सेना जी को ट्राई क्यों नहीं करते? खुशदीप कहने लगे -शाम को चैनल की नौकरी भी करनी है। अब की बार तो एंटीबायोटिक खा ली हैं। सक्सेना जी को अगली बार ट्राई करूंगा। फोन कट गया। मैं असमंजस का असमंजस में रहा। सोचने लगा मक्खन-ढक्कन को अपने यहाँ ही रख लूँ। पर फिर ख्याल आया कि कहीं इन को रखने से खुशदीप नाराज न हो जाए। मुझे उपाय सूझ गया। 

ऑफिस से लौटते ही तीनों को कह दिया कि मैं तुम्हें काम दे भी सकता हूँ और दिलवा भी सकता हूँ। लेकिन खुशदीप जी से  नो-ऑब्जेक्शन लाना पड़ेगा। बेचारा मक्खन सुन कर सकते में आ गया। कहने लगा मेरे पास तो दिल्ली जा कर नो-ऑब्जेक्शन लाने का पैसा भी नहीं है। 

मैं ने उसे कहा -मैं तीनों का टिकिट कटा देता हूँ। कल सुबह की गाड़ी से दिल्ली चले जाना। हो सकता है तब तक खुशदीप जी स्लॉग ओवर चालू कर ही दें तो तुम्हारी पुरानी नौकरी ही बरकरार हो जाएगी, वापस न आना पड़ेगा और यदि कुछ दिन और लगें तो यहाँ आने की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी। मैं शाहनवाज को फोन करता देता हूँ। तुम उन से मिल लेना वे स्लॉग ओवर शुरू होने तक तुम्हारा इंतजाम कर देंगे। तीनों इस पर राजी हो गए हैं। पत्नी ने उन्हें खाना परोस दिया है। तीनों बहुत तसल्ली से भोजन कर रहे हैं। अब ये कल तक मेरे मेहमान हैं। शाहनवाज को फोन किया तो वे छूटते ही बोले -वे तो गुड़गाँव शिफ्ट हो रहे हैं। फिर भी उन्हों ने मुझे तसल्ली दी कि वैसे तो स्लाग ओवर कल-परसों तक शुरू हो जाएगा। मक्खन-ढक्कन को परेशानी नहीं होगी। नहीं भी शुरू हुआ तो शुरू होने तक वह दोनों को सतीश सक्सेना जी के यहाँ काम दिला देंगे। अब मैं भी निश्चिंत हूँ कि आज रात की ही तो बात है सुबह जल्दी ही तीनों को गाड़ी में बिठा दूंगा। 

सतीश सक्सेना जी को फोन नहीं किया है। यदि वे भी कहीं टूर पर जा रहे होंगे तो फिर मक्खन-ढक्कन का क्या करूंगा। कल सुबह उन्हें गाड़ी से रवाना होने के बाद ही उन्हें फोन करूंगा। 

17 टिप्‍पणियां:

  1. अरे बाप रे .....
    विकट मामले में फंस गए हो भाई जी ! खुशदीप भाई की सबसे बड़ी विशेषताओं में एक , मक्खन ढक्कन एंड फॅमिली को झेलना था ! यह किसी के बस की चीज़ नहीं हैं अगर इन पर दया खाई तो थोड़े दिनों में अपने सर के बाल नोचने पर मजबूर हो जाओगे ( अरे नहीं नहीं....कोर्ट जाना भूल जाओगे ) !

    यह कुछ समय पहले जनरल मुशर्रफ के पास थे ........उनको इनके नाम पर आज भी गश आ जाता है ! हाँ मेरा एक सुझाव है, आप इन्हें ब्लॉग जगत में इलेक्शन कराने का जिम्मा दे दीजिये ! कम से कम खुशदीप भाई के मूड में आने तक यह व्यस्त रहेंगे !

    आपको हार्दिक शुभकामनायें !!

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  2. bhaai gzab andaaz me likhdala hai bhtrtin bdhaai ho ....akhtar khan akela kota rajsthan

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  3. आप ऐसा क्यों नहीं करते.... एक कानूनी नोटिस भे दीजिए खुशदीप भाई को कि वो जो कर रहे हैं वो अल्ट्रा वायरस है:)

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  4. इन्‍हें दिल्‍ली के जंतर-मंतर पर बैठा दो, दो-चार बैनर बनवा दो, स्‍लोग आवर चालू करो आदि आदि। मीडिया का भी प्रबंध करा दो फिर देखते हैं कि इनकी नौकरी पक्‍की होती है या नही।

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  5. अजीब समस्या में डाल दिया इन मक्खन-ढक्कन ने तो खुशदीप भाई के मित्रों को. वैसे आप सबकी सामूहिक पहल इनके लिये भी व्यवस्थित राह निकाल ही लेगी । शुभकामनाओं के साथ...

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  6. आप तो गाड़ी मे बैठाकर खुशदीप के पास भेज दो...इतना तंग दिल भी नहीं है हमारा खुशदीप...बहाल कर देगा इनकी नौकरी...आखिर एक पूरे परिवार का मामला है जी.

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  7. गजब के रहे मख्खन और ढक्कन ....

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  8. गुरुवर जी, मैं मक्खन ढक्कन एंड फॅमिली को तो नहीं जानता हूँ.हो सकता है यह श्री खुशदीप जी के ब्लॉग के पात्र हो.मगर आपने श्री खुशदीप जी के दर्द को इन पात्रों के माध्यम से बेख़ुबी समेटा है.जो मैंने अपने कैमरे(फ़िलहाल बंद हो गया है अनिश्चित काल के लिए)द्वारा चित्र लेने के दौरान जाना था और कई ब्लोगों पर कार्यक्रम से संबंधित पोस्टों को पढ़कर जाना है.

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  9. ब्लॉग राजभाषा हिंदी की पोस्ट परिकल्पना सम्मान २०१० और एक बैक बेंचर ब्लोगर की रिपोर्ट पर श्री अविनाश वाचस्पति जी, आपने कहा कि-निकेतन ने अपने प्रकाशन की एक एक प्रति प्रत्‍येक दर्शक को बतौर उपहार दी थी और अपनी पत्रिका शोध दिशा की प्रति भी। किसी भी समारोह में इस प्रकार की पुस्‍तकें फ्री में देने का चलन नहीं है।
    शोध दिशा का पुराना अंक (अक्तूबर-दिसंबर 2010) था. उसका अवलोकन करने पर पता चला कि-पत्रिका त्रेमासिक है और उसके बाद जनवरी-मार्च 2011 व अप्रैल-जून 2011 भी प्रकाशित हो चुकी हैं. इसके अलावा डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा "अरुण" की ग़ज़लों वाली किताब "बहती नदी हो जाइए" भी 2006 में प्रकाशित हो चुकी थीं. अब पुराना माल तो कोई भी दे सकता है, कुछ थोड़ा-बहुत नया मिला भी तो "वटवृक्ष" त्रेमासिक पत्रिका है,वो उनकी नहीं है.

    हम ब्लोगिंग जगत के "अजन्मे बच्चे" हैं और ब्लोगिंग जगत की गुटबाजी के जानकार भी नहीं है, लेकिन ब्लोगिंग जगत का अनपढ़, ग्वार यह नाचीज़ इंसान प्यार, प्रेम और इंसानियत की अच्छी भावना के चलते एक ब्लॉगर के बुलाने(आपके अनुसार बिन बुलाये) चला आया था. वैसे मेरे पेशेगत गलत भी नहीं था, क्योंकि जहाँ कहीं चार-पांच व्यक्ति एकत्रित होकर देश व समाजहित में कोई चर्चा करें. तब वहां बगैर बुलाये जाना बुरा नहीं होता है. बाकी हमारा तो गरीबी में आटा गिला हो गया है. इन दिनों कुछ निजी कारणों से हमें भूलने की बीमारी है और उसी के चलते ही हम अपने डिजिटल कैमरे के एक सैट सैल(दो) और उसका चार्जर बिजली के प्लग में लगाये ही भूल आये क्योंकि हमें संपूर्ण कार्यक्रम की रुपरेखा की जानकारी नहीं थीं. हमने सोचा शायद कार्यक्रम अभी और चलने वाला है. तब क्यों नहीं "विक" सैलों को चार्जर कर लिया जाये. घर पहुंचकर याद आया तो आपको मैसेज किया और अगले दिन आपके 9868xxxxxx पर छह बार और 9717xxxxxx पर दो बार फ़ोन किया. मगर हमारी उम्मीदों के मोती बरसात के बुलबलों की तरह तुरंत खत्म हो गए.एक फ़ोन कई घंटों तक व्यस्त रहा और दूसरा रिसीव नहीं हुआ. अगले दिन हमें श्री अन्ना हजारे के इण्डिया गेट की कवरेज करने जाना था. जो उम्मीदों का टूटने का सदमा सहन नहीं कर पाने और सैल का सैट के साथ चार्जर तुरंत न खरीद(इन दिनों आर्थिक स्थिति डावाडोल है) पाने की व्यवस्था के चलते संभव नहीं हो पाया. अब यह तो पता नहीं कि-हमारा कैमरा कब दुबारा चित्र लेना शुरू करेगा, मगर उसकी कुछ "गुस्ताखी माफ़ करें" पोस्ट एक दो दिन में मेरे ब्लॉग डब्लूडब्लूडब्लू.सिरफिरा.ब्लागस्पाट.कॉम पर पढना न भूले.

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  10. द्विवेदी जी क्यों फंसा रहे हो??? इस मक्खन-ढक्कन की फॅमिली को संभालना केवल खुशदीप भाई के ही जिगरे के बस का है... अभी सतीश जी ने बताया ही है कि कैसे मुशर्रफ जैसा तानाशाह भी इन्हें नहीं झेल पाया तो मैं क्या चीज़ हूँ....

    अब तो लग रहा है की खुशदीप भाई नहीं माने तो मक्खन-ढक्कन चाहे जंतर-मंतर पर हड़ताल करे या ना करे... मैं ज़रूर भूख-हड़ताल पर बैठ जाऊँगा...

    मुझे लगता है समीर जी इस मसले में मदद कर सकते हैं... गुरुदेव आप ही मदद कीजिए....

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  11. मुझे तो यह 'मक्खन' का ही काम लग रहा है, जो खुशदीप अलविदा कह गए :-)

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  12. कितना रगड़ा है यह तो झेलने वाला जाने।

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  13. जब तक कोई इन्हे नही रखता, इन्हे मेरे पास भेज दो, अगर यहां आने का किराया नही तो रोहतक वाले मकान मे भेज दो, मक्खन को बोलो को ताला खोल कर आराम से रहे, जब खुशदीप भाई का मुड ठीक हो जाये गा वो इन्हे ले जायेगे, वहां काफ़ी, चाय ओर कापू चीनो हे, बाकी खाने का समान गुलशन पंसारी दे ले आये मेरा नाम ले कर, गेस का सिलेंडर अंतर सोहिल से मंगवा ले, खुब मस्ती से रहे,

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  14. राज भाटिया जी, क्यों बैठे-बिठाए मुसीबत मूल लेना चाहते हैं? क्या आपको अपने सर के बालों की ज़रा भी परवाह नहीं है?

    यह मुसीबत तो खुशदीप भाई ही झेल पाएंगे... वैसे यह भी पता नहीं कि खुशदीप भाई मक्कन एंड फॅमिली को झेलते हैं या मक्कन एंड फॅमिली खुशदीप भाई को.... हे हे हे :-) :-) :-)

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  15. कहते हैं न खोटा सिक्का भी काम आ जाता है...

    मेरे मक्खन,मक्खनी,ढक्कन, गुल्ली और अब शहनवाज की कृपा से छक्कन और आ गया है...द्विवेदी जी और शहनवाज ने मुझे इतना हंसाया है, इतना हंसाया है कि सारा गुस्सा नजले की तरह बह गया है...अब इस मक्खन परिवार के आंसू देखे नहीं जा रहे...ये देख और भी कष्ट हुआ कि बेचारों का मेरे सिवा कहीं और ठिकाना भी नहीं है...और मैं भी इनके बिना कहां एक पल भी चैन से रह पाया...लेता हूं बेचारों का हाल...

    जय हिंद...

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