इन दिनों हम लोग जो ब्लागीरी में हैं, गालियों से तंग हैं। एक तो जो नहीं होनी चाहिए वे गालियाँ ब्लागों में दिखाई पड़ती हैं, और जो होनी चाहिए, वे नदारद हैं। हिन्दी बोलियों के लोक साहित्य में गालियों का एक विशेष महत्व है। जब भी समधी मेहमान बन कर आता है, तो रात के भोजन के उपरांत घर की महिलाएँ अपने पड़ौस की महिलाओं को भी बुला लेती हैं और मधुर स्वर में गालियाँ गाना आरंभ कर देती हैं। इन में तरह तरह के प्रश्न होते हैं। धीरे-धीरे गालियाँ समधी बोलने पर बाध्य हो जाता है। जैसे ही वह बोलता है। महिलाएँ जोर से गाना आरंभ कर देती हैं -बोल पड्यो रे बोल पड्यो ... फिर आगे पुनः गालियाँ आरंभ हो जाती हैं। लोक साहित्य की इन गालियों को हमें संग्रह करना चाहिए। लोकभाषाओं और बोलियों के कवि और साहित्यकार इन का पुनर्सृजन भी कर सकते हैं। कुछ ब्लागर और ब्लागपाठक सड़क छाप गालियों का प्रयोग कर रहे हैं। उन में क्या रचनात्मकता है? सड़क से उठाई और दे मारी। गाली देना ही हो तो मेरे मित्र पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की हाडौती भाषा में रची इस ग़ज़ल से सीखें जिस में गालियों का परंपरागत स्वरूप दिखाई पड़ता है। यह भी देखिए 'यक़ीन' किसे गालियाँ दे रहे हैं ...
'गाली ग़ज़ल'
- पुरुषोत्तम 'यक़ीन'
सात खसम कर मेल्या पण इतरा री छै
या सरकार छंद्याळ घणी छणगारी छै
(सात पति रख कर इतराती है, ये सरकार बहुत श्रंगार किए हुए छिनाल नारी है)
पोथी कानूनाँ की, रखैल डकैताँ की
अर चोराँ-दल्लालाँ की महतारी छै
( कानून की किताब रखने वाली यह डकैतों की रखैल और चोरो व दलालों की माँ है)
पीढ़्याँ सात तईं तू साता न्हँ पावे
थारा बाप कै माथे अतनी उधारी छै
(सात पीढ़ी तक भी इसे शांति नहीं मिल सकती इस के पिता पर इतनी उधारी है)
बारै पाड़ोस्याँ पे तू भुज फड़कावै काँईं
भीतर झाँक कै जामण तंगा खारी छै
(बाहर के पडौसियों पर बाहें तानती है भीतर इस की माँ धक्के खा रही है)
लत्ता फाट्या, स्याग का पीसा बी न्हैं बचे
नळ-बिजळी का बिलाँ में तनखा जारी छै
(तन के कपड़े फट गए हैं, सब्जी के लिए भी पैसे नहीं बचते, वेतन नल-बिजली के बिलों में ही समाप्त हो जाता है)
च्हारूँ मेर जुलम को बंध्र्यो छे धोरो
ज्हैर बुछी सत्ता की तेग दुधारी छै
(चारों ओर जुल्म की नहरें बह रही हैं इस सत्ता की तलवार ज़हर बुझी और दो धार वाली है)
मूंडौ देखै र भाया वै काढ़े छै तलक
ईं जुग में पण या ई तो हुस्यारी छै
(वे मुहँ देख देख कर तिलक लगातै हैं, यही तो इस युग की होशियारी है)
दळदारी की बात 'यक़ीन' करै काँईं
थारी ग़ज़ल बी अठी फोड़ा पा री छै
(यक़ीन तुम अपने दारिद्र्य की बात क्या करोगे यहाँ तो तेरी ग़ज़ल ही दुखः पा रही है )
बिल्कुल ठीक है.. लेकिन रचनात्मकता तो कई ब्लाग्स पर दिखाई देती है, गालियों के मामले में.
जवाब देंहटाएंमौज मस्ती में तेरी गाली मेरे कान की बाली हो जाती है। सुंदर लोग गीतों और रस्मों को फिर से याद दिलाने के लिए आभार। वर्ना इस चूहादौड़ में ये रस्में तो इतिहास बन गई है॥
जवाब देंहटाएंगलियां तो आज भी लोकाचारों में जीवंत हैं ....मनोरंजक ...लास्य भाव से सराबोर !
जवाब देंहटाएंनयी गालियाँ कहाँ उतनी रचनात्मक !
रचनात्मकता की मिसाल है, यह पोस्ट।
जवाब देंहटाएंदेख तो रहे हैं हालात..काश!! कुछ बुद्धि आये.
जवाब देंहटाएंवैसे हमारे इस्टर्न यू पी में भी शादी में खूब गाली गाई जाती है.
सही कहा जी जब हम छोटे थे तो उस समय पंजाब मे बरातियो को खाने से पहले खुब गालिया मिलती थी, आज पुरुषोत्तम 'यक़ीन' जी की यह गालियो युक्त रचना पढ कर मजा आ गया, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत खूब सर क्या बात है वाह । ये अंदाज़ और अहसास पहले न देखा पढा था । शुक्रिया इसे पढवाने के लिए
जवाब देंहटाएंभ्रष्टाचार के खिलाफ़
यह गालियो युक्त रचना, क्या बात है वाह....
जवाब देंहटाएंविवाहों में जब लड़के वाले खाना खाने बैठते हैं तो लड़की वालों के यहां आज भी गालियां गाने का रिवाज़ है
जवाब देंहटाएंऔर हमारे वेस्टर्न यू.पी मे भी
जवाब देंहटाएंब्लाग्स में चलताऊ गालियों का प्रयोग करने वाले स्वप्न में भी इस स्तर तक पहुंचने की नहीं सोच सकेंगे ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर पेशकश वकील साहब।
जवाब देंहटाएंच्हारूँ मेर जुलम को बंध र्यो छे धोरो
जवाब देंहटाएंज्हैर बुछी सत्ता की तेग दुधारी छै...
क्या बात है...
गालियों का बेहतरीन उपयोग तो यही लग रहा है :)
जवाब देंहटाएंयही है लोक संस्कृति....आपका और पुरुषोत्तम यकीन का आभार
जवाब देंहटाएं'लोक' की व्यंजना के तीखेपन और मिठास को वही जाने जिसने इसे जीया हो।
जवाब देंहटाएंबढ़िया रही यह भी.
जवाब देंहटाएंआदरणीय दिनेशराय द्विवेदी जी
जवाब देंहटाएंसादर अभिवादन !
बहुत शानदार पोस्ट के लिए आभार - बधाई
पुरुषोत्तम 'यक़ीन' जी की ग़ज़ल बहुत पसंद आई ,शुक्रिया आपका !
च्हारूँ मेर जुलम को बंधर्यो छे धोरो में धोरो के स्थान पर शायद धारो होना चाहिए , देखलें …
कृपया , यक़ीन जी को मेरा नमस्कार कहिएगा ।
पुनः हार्दिक बधाई और मंगलकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
@Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार
जवाब देंहटाएंमूल ग़ज़ल में धोरो शब्द का ही प्रयोग किया गया है। वैसे हाडौती में नहर की सब से छोटी श्रेणी जो खेत तक पहुँचती है उस के लिए एक वचन में धोरो शब्द का ही प्रयोग होता है।
गाली में भी इतना मजा!!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ...जवाब नहीं आपका !
जवाब देंहटाएंlarke ka 'mundan' hone wala hai.......khus hai ke bahut kuch achha-achha nava-nava milega......lekin dar bhi raha hai
जवाब देंहटाएं......ye soch kar ke 'mami-mousi'
hazzam(nai) le lega......
pranam.
मित्रों,
जवाब देंहटाएंरविकुमार ने इस शैर को उदृत किया है।
च्हारूँ मेर जुलम को बंध र्यो छे धोरो
ज्हैर बुछी सत्ता की तेग दुधारी छै...
इस शैर में 'बंध र्यो छे' का उच्चारण सही नहीं आ रहा था। मैं ने इस शब्द को 'बंध्र्यो छे' कर दिया है। अब पाठक इस के मूल उच्चारण से नजदीकी उच्चारण कर सकेंगे।
दिनेशराय जी,
जवाब देंहटाएंच्हारूँ मेर जुलम को बंध र्यो छे धोरो
ज्हैर बुछी सत्ता की तेग दुधारी छै...
'धोरो'से कवि का आशय दोरो (धागा) से न होगा?
बंध र्यो से अर्थ निकलता है बंध रहयो। धोरो से रेत का ढेर भी अर्थ प्रकट कर रहा है। खैर जो भी हो…
अर्थ तो स्पष्ठ हो ही रहा है।
यह लोकसंस्कृति में गालियों का उद्देश्य चुहलभरा मनोरंजन ही हुआ करता था।
क्या बात है ... गालियों के माध्यम से ऐसा व्यंग्य बाण !! ... इसी लिये तो कहते हैं "दाग अच्छे हैं" :)
जवाब देंहटाएंयकीनन खास तरह की गालियां.
जवाब देंहटाएंयकीनन is-se bhi farq pad-ta hai ki गालियाँ किसे दे रहे हैं ...
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