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रविवार, 17 अक्टूबर 2010

महाजनी सभ्यता ----- मुंशी प्रेमचन्द भाग-1

मुंशी जी के जन्मदिन 31 जुलाई को मैं ने अफसोस जाहिर किया था कि मैं उस दिन उन का एक महत्वपूर्ण आलेख "महाजनी सभ्यता" को जो अंतर्जाल पर उपलब्ध नहीं है, अनवरत पर लाना चाहता था। लेकिन पुस्तक नहीं मिल सकने के कारण ऐसा नहीं कर सका। मैं प्रेमचन्द जयन्ती नहीं मना सका था। लेकिन कल अपना कार्यालय पुनर्व्यवस्थित करने के दौरान पुस्तक मुझे मिल गयी और मैं उसे अंतर्जाल पर ले आने में सफल हो गया हूँ। इस आलेख के दो भाग हैं। मैं इन्हें एक-एक कर प्रस्तुत कर रहा हूँ। प्रथम भाग प्रस्तुत है।

महाजनी सभ्यता
  • मुंशी प्रेमचन्द
जागीरदारी सभ्यता में बलवान भुजाएँ और मजबूत कलेजा जीवन की आवश्यकताओं में परिगणित थे और साम्राज्यवाद में बुद्धि और वाणी के गुण तथा मूक आज्ञापालन उन के आवश्यक साधन थे, पर उन दोनों स्थितियों में दोषों के साथ कुछ गुण भी थे। मनुष्य के अच्छे भाव लु्प्त नहीं हुए थे। जागीरदार अगर दुश्मन के खून से प्यास बुझाता था, तो अक्सर अपने किसी मित्र या उपकारक के लिए जान की बाजी भी लगा देता था। बादशाह अगर अपने हुक्म को कानून समझता था और उस की अवज्ञा को कदापि सहन नहीं कर सकता था, तो प्रजापालन भी करता था, न्यायशील भी होता था। दूसरे के देश पर चढ़ाई या तो किसी अपमान-अपकार का बदला फेरने के लिए करता था या अपनी आन-बान, रोब-दाब कायम रखने के लिए या फिर देश विजय और राज्य विस्तार की वीरोचित महत्वाकांक्षा से प्रेरित होता था। उस की विजय का उद्देश्य प्रजा का खून चूसना कदापि न होता था। कारण यह कि राजा और सम्राट जनसाधारण को स्वार्थसाधन और धन शोषण की भट्टी का ईंधन न समझते थे, किन्तु उन के दुख-सुख में शरीक होते थे और उन के गुण की कद्र करते थे। 
गर इस महाजनी सभ्यता में सारे कामों की गरज महज पैसा होती है। किसी देश पर राज्य किया जाता है, तो इसलिए कि महाजनों-पूंजीपतियों को ज्यादा से ज्यादा नफा हो। इस दृष्टि से मानो आज दुनिया में महाजनों का ही राज्य है। मनुष्य समाज दो भागों में बँट गया है। बड़ा हिस्सा तो मरने और खपने वालों का है, और बहुत ही छोटा हिस्सा उन लोगों का, जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े समुदाय को बस में किए हुए हैं। इन्हें इस बड़े भाग के साथ किसी तरह की हमदर्दी नहीं, जरा भी रुरियायत नहीं। उस का अस्तित्व केवल इसलिए है कि अपने मालिकों के लिए पसीना बहाए, खून गिराए और चुपचाप इस दुनिया से विदा हो जाय। अधिक दुख की बात तो यहग है कि शासक वर्ग के विचार और सिद्धान्त शासित वर्ग के भीतर भी समा गये हैं, जिस का फल यह हुआ है कि हर आदमी अपने को शिकारी समझता है और उस का शिकार है समाज। वह खुद समाज से बिलकुल अलग है, अगर कोई संबंध है तो यह कि किसी या युक्ति से बस समाज को उल्लू बनाये और उस से जितना लाभ उठाया जा सकता हो, उठा ले।
न लोभ ने मानव भावों को पूर्ण रूप से अपने आधीन कर लिया है। कुलीनता और शराफत, गुण और कमाल की कसौटी पैसा है।  जिस के पास पैसा है, देवता स्वरूप है, उस का अंतःकरण कितना ही काला क्यों न हो। साहित्य, संगीत, कला सभी धघन की देहली पर  माथा टेकने वालों में है। यह हवा इतनी जहरीली हो गयी है कि इस में जीवित रहना कठिन होता जा रहा है। डॉक्टर और हकीम है कि वह बिना लम्बी फीस लिए बात नहीं करता। वकील और बैरिस्टर है कि वह मिनटों को अशर्फियों से तौलता है। गुण और योग्यता की सफलता उस के आर्थिक मूल्य के हिसाब से मानी जा रही है। मौलवी साहब और पण्डित जी भी पैसे वालों के बिना पैसों के गुलाम हैं, अखबार उन्हीं का राग अलापते हैं। इस पैसे ने आदमी के दिलो-दिमाग पर इतना कब्जा जमा लिया है  कि उस के राज्य पर किसी ओर से भी आक्रमण करना कठिन दिखाई देता है। वह दया और स्नेह, सचाई और सौजन्य का पुतला मनुष्य दया-ममता शून्य जड़ यन्त्र बन कर रह गया है।  इस महाजनी सभ्यता ने नये नये नीति नियम गढ़ लिए हैं जिन पर आज समाज व्यवस्था चल रही है, उन में एक यह है कि समय ही धन है, पहले समय जीवन था, उस का सर्वोत्तम उपयोग विद्या-कला का अर्जन अथवा दीन-दुखी जनों की सहायता था। अब उस का सब से बड़ा सदुपयोग पैसा कमाना है। डॉक्टर साहब हाथ मरीज की नब्ज पर रखते हैं और निगाह घड़ी की सुई पर, उन का एक-एक मिनट एक-एक अशर्फी है। रोगी ने अगर एक अशर्फी नजर की है तो वह उसे मिनट से ज्यादा वक्त नहीं दे सकते, रोगी अपनी दुखगाथा सुनाने के लिए बैचेन है, पर डॉक्टर साहब का उधर बिलकुल ध्यान नहीं, उस से उन्हें जरा भी दिलचस्पी नहीं। उन की निगाह में उस व्यक्ति का अर्थ केवल इतना ही है, कि वह उन्हें फीस देता है। वह जल्द से जल्द नुस्खा लिखेंगे औऱ दूसरे रोगी को देखने चले जाएंगे। मास्टर साहब पढ़ाने आते हैं, उन का एक घंटा वक्त बंधा है। वह घड़ी सामने रख लेते हैं। जैसे ही घंटा पूरा हुआ, वह उठ खड़े हुए। लड़के का सबक अधूरा रह गया है तो रह जाय, उन की बला से, वह घंटे से अधिक समय कैसे दे सकते हैं? क्यों कि समय रूपया है। इस धन-लोभ ने मनुष्यता और मित्रता का नाम शेष कर डाला है। पति को पत्नी या लड़कों से बात करने की फुर्सत नहीं, मित्र और सम्बन्धी किस गिनती में हैं। जितनी देर वह बात करेगा, उतनी देर में तो कुछ कमा लेगा, कुछ कमा लेना ही जीवन की सार्थकता है, शेष सब कुछ समय का नाश है। बिना खाए-सोये काम नहीं चलता, बेचारा लाचार है और इतना समय नष्ट करना पड़ता है। 
प का कोई मित्र या सम्बन्धी अपने नगर में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है, तो समझ लीजिए, उस के यहाँ आप की रसाई मुमकिन नहीं। आप को उस के दरे दौलत पर जा कर कार्ड भेजना होगा, उन महाशय को बहुत से काम होंगे, मुश्किल से आप से एक दो बातें करेंगे या साफ जवाब दे देंगे कि आज फुरसत नहीं है। अब वे पैसे के पुजारी हैं, मित्रता और शील-संकोच के नाम पर कब की तिलांजलि दे चुके हैं।
प का कोई दोस्त वकील है और आप किसी मुकदमे में फँस गए हैं, तो उस से किसी तरह की सहायता की आशा न रखिए, अगर वह मुरौवत को गंगा में न डुबो चुका है, तो आप से लेन-देन की बात शायद न करेगा, परक आप के मुकदमे की ओर तनिक भी ध्यान न देगा, इस से तो कहीं अच्छा है कि आप किसी अपरिचित के पास चले जाँय और उस की पूरी फीस अदा करें। ईश्वर न करे कि आज किसी को किसी चीज में कमाल हासिल हो जाय, फिर मनुष्यता नाम को न रह जायेगी, उस का एक-एक मिनट कीमती हो जाएगा। 
स का अर्थ यह नहीं कि व्यर्थ की गपशप में समय नष्ट किया जाय, पर यह अर्थ अवश्य है कि धन-लिप्सा को इतना बढ़ने न दिया जाय कि वह मनुष्यता-मित्रता-स्नेह-सहानुभूति सब को निकाल बाहर करे। 
र आप उस पैसे के गुलाम को बुरा नहीं कह सकते। सारी दुनिया जिस प्रवाह में बह रही है, वह भी उसी में बह रहा है, मान-प्रतिष्ठा सदा से मानवीय आकांक्षाओं का लक्ष्य रहा है। जब विद्या कला मान-प्रतिष्ठा का साधन थी, उस समय लोग इन्हीं का अभ्यास अर्जन करते थे। जब धन उस का एक मात्र उपाय है तब मनुष्य मजबूर है कि एक निष्ठ भाव से उसी की उपासना करे। वह कोई साधु-महात्मा-सन्यासी-उदासी नहीं, वह देख रहा है कि उस के तपेशे में जो सौभाग्यशाली सफळता की कठिन यात्रा पूरी कर सके हैं, वह उसी राज-मार्ग के पथिक थे, जिस पर वह खुद चल रहा है। समय धन है एक सफल व्यक्ति का, वह इस सिद्धान्त का अनुसरण करते देखता है, फिर वह भी उसी के पद चिन्हों का अनुसरण करता है, तो उस का क्या दोष? मान-प्रतिष्ठा की लालसा तो दिल से गिरायी नहीं जा सकती। वह देख रहा कि जिन के पास दौलत नहीं और जिन्हों ने वक्त को दौलत नहीं समझा, उन को कोई पूछने वाला नहीं। वह अपने पेशे में उस्ताद है फिर भी उन की कहीं पूछ नहीं। जिस आदमी में तनिक भी जीवन की आकांक्षा है, वह तो उपेक्षा की स्थिति को सहन नहीं कर सकता। उसे तो मुरौवत, दोस्ती और सौजन्य को धता बता कर लक्ष्मी की आराधना में अपने को लीन कर देना होगा, तभी इस देवी का वरदान उसे मिलेगा, और यह इच्छाकृत कार्य नहीं किन्तु सर्वथा बाध्यकारी है। उस के मन की अवस्था अपने आप कुछ इस तरह की हो गयी है कि उसे धनार्जन के सिवा और किसी कार्य से लगाव नहीं रहा। अगर उसे किसी सभा या व्याख्यान में आधा घंटा बैठना पड़े, तो समझ लो, वह कैद की घड़ी काट रहा है। उस की सारी मानसिक, भावगत और सास्कृतिक दिलचस्पियाँ इसी केन्द्र बिन्दु पर आ कर एकत्रित हो गयी हैं, और क्यों न हों? वह देख रहा है, कि पैसे के सिवा उस कोई अपना नहीं, स्नेही मित्र भी अपनी गरज ले कर ही उस के पास आते हैं, स्वजन सम्बन्धी भी उस के पैसे के ही पुजारी हैं। वह जानता है कि अगर वह निर्बल होता तो वह जो दोस्तों का जमघट लग रहा है, उस में एक के भी दर्शन न होते, इन स्वजन सम्बन्धियों में से एक भी पास न फटकता, उसे समाज में अपनी एक हैसियत बनानी है, बुढ़ापे के लिए कुछ बचाना है, लड़कों के लिए कुछ कर जाना है जिस से उन्हें दर-दर की ठोकरें न खानी पड़ें। इस निष्ठुर, सहानुभूति शून्य स्थिति का उसे पूरा अनुभव है। अपने लड़कों को वह उन कठिन अवस्थाओं में पड़ने नहीं देना चाहता, जो सारी आशाओं उमंगों पर पाला गिरा देती हैं, हिम्मत-हौंसले को तोड़ कर रख देती हैं। उसे वह सारी मंजिलें जो एक साथ जीवन के आवश्यक अंग हैं, खुद तय करनी होंगी और जीवन को व्यापार के सिद्धान्तों पर चलाये बिना वह इन में से एक भी मंजिल पार नहीं कर सकता।  

5 टिप्‍पणियां:


  1. भाई साहब सार्थक पहल की है आपने

    विजयादशमी पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं

    दशहरा में चलें गाँव की ओर-प्यासा पनघट

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  2. आलेख का प्रथमांश पढकर आश्‍चर्य हुआ। इसलिए नहीं कि यह सब आज का सच है बल्कि इसलिए कि यह सब उस समय का भी सच था।

    तो क्‍या मान लिया जाए कुछ भी नहीं बदला है? अन्‍तर केवल स्थितियों के 'विरल' अथवा 'घनी' होने भर का लगता है। आलेख पढते हुए क्षण भर को भी नहीं लगा कि कुछ अनूठा पढ रहा हूँ। सब कुछ तो वही है जो आज मेरे, हम सबके सामने है?

    यदि वास्‍तविकता यही है तो फिर हम अतीत की दुहाइयॉं देकर 'आज' को क्यों कोस रहे हैं? लेख तो यही बताता है कि न तब सत युग था न अब है। सब कुछ तो वही का वही है? नया या अनूठा क्‍या है?

    आप यह आलेख ढूँढ कर लाए, धन्‍यवाद। लेख के समापन अंश की प्रतीक्षा रहेगी।

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  3. जो खाका उस समय खींचा था, अभी भी कुछ नहीं बदला है।

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  4. कमेंट सिरीज के खात्में पर ! फिलहाल तो हमारी हाज़िरी और शुभकामनायें कुबूल फरमायें !

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  5. अजीब समय है……इशारा समाजवाद की तरफ़ जाता है…मैंने भी आइन्सटीन का लिखा 'समाजवाद ही क्यों?' इधर लगाया था…प्रेमचन्द को गये 75 साल हो गए और इस लेख को लगभग सौ साल…मानव प्रगति कर रहा है और सब कुछ वैसा ही है…

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कैसा लगा आलेख? अच्छा या बुरा? मन को प्रफुल्लता मिली या आया क्रोध?
कुछ नया मिला या वही पुराना घिसा पिटा राग? कुछ तो किया होगा महसूस?
जो भी हो, जरा यहाँ टिपिया दीजिए.....