दैनिक भास्कर के कोटा संस्करण ने स्थानीय नगर निगम के बारे में खबर प्रकाशित की है, " तंगी में भी बदहाली" । यह किसी घटना से उपजा समाचार नहीं, अपितु नगर निगम कोटा की कार्य प्रणाली से संबद्ध कुछ सूचनाओँ से उत्पन्न की गई एक रिपोर्ट है। जिस का निष्कर्ष यह है कि नगर निगम के पास अपने कामों के लिए पर्याप्त कर्मचारी नहीं हैं। उसे बहुत सारे कर्मचारियों को ठेकेदारों के माध्यम से नियोजित करना पड़ता है। ठेकेदार दो तरह के हैं एक तो वे जिन्हें नगर निगम द्वारा निविदा के माध्यम से ठेका दिया गया है। दूसरी बहुद्देशीय सहकारी समितियाँ हैं जिन्हें बिना निविदा आमंत्रित किए काम दिया जा सकता है। समाचार कहता है कि निविदा ठेकेदारों को प्रत्येक कर्मचारी के लिए नगर निगम को 100 से 115 रुपए प्रतिदिन मजदूरी देनी होती है, जब कि बहुद्देशीय सहकारी समितियों के माध्यम से नियोजित 132 कर्मचारियों के निए नगर निगम को 172 से 178 रुपए प्रति कर्मचारी प्रतिदिन भुगतान करना पड़ता है। इस से नगर निगम को 29 लाख रुपए वार्षिक चूना लग रहा है। यह हालात तब हैं जब नगर निगम आर्थिक तंगी से गुजर रहा है। समाचार एक तरह से यह कह रहा है कि नगर निगम बहुद्देशीय सहकारी समितियों के माध्यम से कर्मचारी जुटा कर गलती कर रहा है और उसे यह काम भी निविदा के माध्यम से ठेकेदारों को देना चाहिए। इस समाचार में गलती से एक पंक्ति यह भी अंकित हो गई है कि " निगम में कार्यरत सफाई ठेका कर्मचारियों को न्यूनतम मजदूरी 100 रुपए रोजाना हासिल करने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है।"
इस समाचार का शीर्षक ही भ्रामक है, जिस मे तंगी और दरियादिली शब्दों का उल्लेख किया गया है, समाचार की जमीनी हकीकत बिलकुल भिन्न है। आज से पचास वर्ष पहले नगरपालिका में एक भी ठेका कर्मचारी या दैनिक वेतनभोगी कर्मचारी नहीं हुआ करता था। केवल स्थाई या मासिक रुप से वेतन प्राप्त करने वाले कर्मचारी होते थे। सफाई व्यवस्था आज के मुकाबले बहुत अच्छी हुआ करती थी। गलियोँ और बाजारों की नालियों को साफ करने के लिए भिश्ती और झाड़ू वाला आया करता था। अन्य कामों में भी इसी तरह के कर्मचारी नियुक्त थे। जनता पर टैक्सों की इतनी भरमार भी नहीं थी। नगर निगम के पास धन की कमी भी होती थी तो उस का प्रदर्शन नहीं किया जाता था अपितु पार्षद उस का मार्ग तलाश करते थे। लेकिन अब स्थिति बिलकुल बदल गई है। सफाई दिखाने भर की नजर आती है। नगरपालिकाएँ स्थाई कर्मचारियों की भर्ती नहीं करती हैं। वे इन्हें ठेकेदारों से प्राप्त करती है। ठेकेदार का काम सिर्फ कर्मचारी उपलब्ध कराना और उन्हें मजदूरी देना होता है। उन से काम लेना और उन पर नियंत्रण रखना नगरपालिकाओं का काम है। व्यवस्था में यह परिवर्तन क्यों आया यह एक बड़ा प्रश्न है।
वास्तविकता यह है कि तब पार्षद और नगरपालिकाएँ नगर के प्रति अपना दायित्व समझती थीं। आज वह स्थिति नहीं है। आज जिस तरह चुनाव होते हैं उन में चुने जाने के लिए उम्मीदवारों को अत्य़धिक धन खर्च करना होता है। जिस पद के लिए वे चुने जाते हैं उसी के प्रभाव से वे उस धन से कई गुना धन की वसूली करते हैं। वस्तुतः चुनाव में धन खर्च करना एक तरह का निवेश हो गया है जो सर्वाधिक लाभप्रद है। जो उम्मीदवार चुनाव लड़ते हैं। उन में से एक ही जीतता है बाकी हार जाते हैं। हारने वाले उम्मीदवारों का धन व्यर्थ चला जाता है। ठीक जुए की मेज की तरह जहाँ बैठने वाले जुआरियों में से एक सब का धन समेट कर चल देता है। दूसरे दिन भिर जुए की मेज लग जाती है। वस्तुतः चुनाव लड़ने का धन्धा दुनिया का सब से बड़ा जुआ बन गया है और यह वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था की देन है।
मजदूरी के बारे में हम यह पढ़ते हैं कि यह अनेक प्रकार की होती है। एक न्यूनतम मजदूरी होती है जिसे सरकार यह मान कर चलती है कि यह व्यक्ति के जीवन निर्वाह के लिए केवल न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। अनेक बीच के स्तरों को पार करते हुए एक उचित मजदूरी होती है जो कि कर्मचारी को जीवन निर्वाह के सभी साधन उपलब्ध कराती है और उन के भविष्य का ख्याल भी रखती है। एक सरकारी या सार्वजनिक संस्था को अपने सभी कर्मचारियों को उचित मजदूरी देनी चाहिए। लेकिन हुआ यह है कि इन संस्थाओं के लिए काम करने वाले मजदूरों को उचित वेतन तो क्या न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती। हो यह रहा है कि कर्मचारी उपलब्ध कराने के लिए ठेके उठा दिए जाते हैं जिन का मूल्य न्यूनतम मजदूरी के बराबर या उस से कुछ अधिक होता है। उन दरों को देखें तो पता लगेगा कि ठेकेदार अपनी जेब से कुछ पैसा लगा कर मजदूर उपलब्ध करवा रहा है। लेकिन वास्तविकता यह है कि जितने मजदूर कागजों पर उपलब्ध कराए जाते हैं उन से आधे ही वास्तव में काम कर रहे होते हैं। वास्तव में उपलब्ध न कराए जाने वाले मजदूरों के लिए जो पैसा नगरपालिकाओं से उठाया जाता है उस में ठेकेदारों, पार्षदों, नगरपालिकाओं के अधिकारियों और पदाधिकारियों का हिस्सा शामिल होता है।
इसी व्यवस्था से देश चल रहा है। नगरपालिकाएँ तो उन का नमूना मात्र हैं, पंचायतें, राज्य और केंद्र सरकारें इसी तरह चल रही हैं। सारा देश और जनता इस बात को जानती है। लेकिन मौन रहती है। पर कब तक वह मौन रह सकेगी? शायद पाप का घड़ा फूटने तक या फिर पानी सर से गुजर जाने तक? मेरा मकसद यहाँ जनतंत्र के चौथे खंबे के काम की ओर ध्यान दिलाना था। यह समाचार लिखने वाले पत्रकार का क्या यह कर्तव्य नहीं था क्या कि वह ठेकेदारों द्वारा उपलब्ध कराए जाने वाले कर्मचारियों की वास्तविक संख्या का भी पता लगाता और पार्षदों, ठेकेदारों, पदाधिकारियों और अफसरों के अंतर्सबंधों की खोज करता औऱ उस के परिणामों को अपनी कलम के माध्यम से सब के सामने रखता। वह रखना भी चाहता तो शायद ऐसा नहीं कर सकता था। क्यों कि अखबार विज्ञापनों से चलते हैं। विज्ञापन इन्हीं ठेकेदारों, अफसरों, पदाधिकारियों और पार्षदों के माध्यम से प्राप्त होते हैं और अखबार का मालिक इसी कारण से अपने पत्रकारों को इस से आगे बढ़ने की इजाजत नहीं दे सकता। एक प्रश्न यह हो सकता है कि ये खबरें छापी ही क्यों जाती हैं? अब ठेकेदारों को ज्यादा काम चाहिए वे चाहते हैं कि सहकारी समितियों के माध्यम से काम कर रहे लोगों के बजाय उन्हें काम मिले। तो इस तरह की खबरें बनती हैं, बनवाई और बनाई जाती हैं।
दिल्ली में, जहां मैं रहता हूं वहां कभी पता ही नहीं चलता कि कोई चुनाव होने वाला है, क्योंकि कोई पोस्टरबाज़ी नहीं होती, नेता लोग वोट मांगने नहीं आते, जुलूस नहीं निकलते, तंबूबाज़ी नहीं होती, लाउडस्पीकरबाज़ी भी नहीं होती. जो कहीं कुछ थोड़ा बहुत हो भी जाए तो वह बस अपवादस्वरूप ही होता है. कारण:- यहां के निवासियों का शिक्षास्तर 100 प्रतिशत है इसलिए नेता लोगों को पता है कि कोई भी उनके बहकावे में आकर वोट डालने नहीं जाएगा बल्कि जिसे चुना चाहिये उसके बारे में वोटर भलि-भांति जानता है. यही है, एक मात्र रास्ता किसी भी सुधार का. सामाजिक शिक्षा बहुत बड़ा हथियार है जिसे अपना कर ही किसी भी क्षेत्र में अपेक्षित सफलता पाई जा सकती है.
जवाब देंहटाएं@ काजल कुमार Kajal Kumar
जवाब देंहटाएंइस के बावजूद भी चुनाव में मतों को प्रभावित करने के लिए करोंडो़ खर्च होता है, उस का प्रदर्शन भले ही बंद हो गया हो। व्यवस्था पहले से अधिक चालाक हो गई है।
" ठेकेदार दो तरह के हैं..."
जवाब देंहटाएंजी नहीं, तीन तरह के हैं .... तीसरे वे जो केवल बिल बनाते हैं और कागज़ी खानापूर्ति करते हैं और सरकारी माल जेब में :)
लगी खेलने लेखनी सुख-सुविधा के खेल । फ़िर सत्ता की नाक में , डाले कौन नकेल ??
जवाब देंहटाएंअखबारी सच तो प्याज के छिलके की तरह हो जाता है -एक उतारो तो दूसरा मौजूद!
जवाब देंहटाएंबहुत से बड़े अख़बारों में भी जूनियर सब-एडिटर ही पेज बनाने का काम करते हैं. उन्हें एक दिए गए स्पेस में बहुत सी ख़बरों को अटकाना पड़ता है. कई बार बड़ी खबर को समय कम होने पर बेतरतीब काट दिया जाता है. यदि खबर छोटी और स्पेस ज्यादा हो तो उसमें उद्धरण-टप्पे आदि बौक्स में डाल देते हैं. इन कारणों से खबरें कभी-कभी अपूर्ण और हास्यास्पद भी बन जाती हैं.
जवाब देंहटाएंसर दिल्ली में , लगभग सत्ताईस सौ अखबार निकलते हैं , यदि सब आपकी इस पोस्ट की तरह ही पूरी खबर लगा दें , तो फ़िर तो अगले एडिशन तक खबरों का अकाल पड चुका होगा । फ़िर अब कौन सा अखबार अखबार रह गया है ........सब बिजनेस है बाबू .......दर्द हो या नंगापन , मजबूरी हो या मौत .........पैकिंग अच्छी हो तो .....माल बिकता ही है
जवाब देंहटाएंअखबार चलानें वाले जब पूरे नहीं तो खबरों का क्या ?
जवाब देंहटाएंपता नही यह क्या हो रहा है,आप के लेख से सहमत है जी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हम तो तीसरी तरह के ठेके लेते हैं, अब कहीं चुनाव हो तो खबर किजियेगा.:)
जवाब देंहटाएंरामराम.
अखबारी खबरों पर पूरी तरह विश्वास करने वाले का जीवन अखबारी कागज की भाँति हो जाता है।
जवाब देंहटाएंपोस्ट शानदार है और प्रवीण जी की टिप्पणी मेजेदार। अपना काम तो हो गया।
जवाब देंहटाएंएक बार गोरखपुर महानगर की जनता ने एक हिजड़े को मेयर चुन लिया। ठेकेदारों की बन आयी। हजार-पाँच सौ कमाने वाला एकाध लाख पाकर मस्त हो गया और ठेकेदारों ने अधिकारियों के साथ मिलकर खूब चाँदी काटी।
द्विवेदी सर,
जवाब देंहटाएंमेरठ में जब रहता था तो पता चलता था कि नगर पालिका के कुछ स्थायी कर्मचारी हैं जो मोटी तनख्वाह लेते हैं लेकिन काम धेले का नहीं करते...उन्होंने अपनी जगह आगे दो-तीन हज़ार रुपये महीने पर डमी कर्मचारी ढूंढ रखे होते थे...ये डमी कर्मचारी जो उनसे बन पड़ता था कर देते थे...अब मेरठ की नहीं जानता, पता नहीं कि व्यवस्था में कुछ सुधार हुआ या नहीं...
जय हिंद...
अखबार जब से कलम नवीसों के हाथ से निकल कर, व्यवसायियों के हाथ में पहुंचे हैं। तभी से हाल बेहाल है।
सार्थक लेखन के शुभकामनाएं
दांत का दर्द-1500 का फ़टका
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