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सोमवार, 19 जुलाई 2010

नागरिक और मानवाधिकार हनन का प्रतिरोध करने को समूह बनाएँ

विगत आलेख  पुलिस को कहाँ इत्ती फुरसत कि ..............?   पर अब तक अंतिम  टिप्पणी श्री Bhavesh (भावेश ) की है कि 'रक्षक के रूप में भक्षक और इंसानियत के नाम पर कलंक इस देश की पुलिस से जितना दूर रहे उतना ही ठीक है.'  मुझे भावेश की ये टिप्पणी न जाने क्यों अंदर तक भेद गई। मुझे लगा कि यह रवैया समस्या से दूर भागने का है, जो आजकल आम दिखाई पड़ता है। 
दालत पुलिस को सिर्फ जाँच के लिए मामला भेजती है जिस में पुलिस को केवल मात्र गवाहों के बयानों और दस्तावेज आदि के आधार पर अपनी रिपोर्ट देनी है कि मामला क्या है। इस रिपोर्ट से कोई अपराध होना पाया जाता है या नहीं पाया जाता है इस बात का निर्णय अदालत को करना है। अपराध पाया जाने पर क्या कार्यवाही करनी है यह भी अदालत को तय करना है ऐसे में पुलिस एक व्यक्ति को जिस ने कोई अपराध नहीं किया है। यह कहती है कि तुम बीस हजार रुपए दे दो और आधा प्लाट अपने भाई को दे दो तो हम मामला यहीं रफा-दफा कर देते हैं, अन्यथा तुम्हें मुकदमे में घसीट देंगे। ऐसी हालत में पुलिस जो पूरी तरह से गैर कानूनी काम कर रही है उस का प्रतिरोध होना ही चाहिए। 
ब से पहला प्रतिरोध तो उस के इन अवैधानिक निर्देशों की अवहेलना कर के होना चाहिए। संबंधित पुलिस अफसर के तमाम बड़े अफसरों को इस की खबर की जानी चाहिए और अदालत को भी इस मामले में सूचना दी जानी चाहिए। यह सीधा-सीधा मानवाधिकारों का हनन है। यदि इस का प्रतिरोध नहीं किया जाता है तो सारे नागरिक अधिकार और मानवाधिकार एक दिन पूरी तरह ताक पर रख दिए जाएंगे।  कुछ तो पहले ही रख दिए गए हैं। वास्तव में जब भी किसी देश के नागरिक अपने नागरिक अधिकारों के हनन को सहन करने लगते हैं तो यह आगे बढ़ता है। 
ब भी एक अकेला व्यक्ति ऐसा प्रतिरोध करता है तो यह बहुत संभव है कि पुलिस उसे तंग करे। उस के विरुद्ध फर्जी मुकदमे बनाने के प्रयत्न करे। लेकिन जब यही प्रतिरोध एक समुदाय की और से सामने आता है तो पुलिस की घिघ्घी बंध जाती है। क्यों कि वह जानती है समुदाय में ताकत होती है, जिस से वह लड़ नहीं सकती। समुदाय की जायज मांगों पर देर सबेर कार्यवाही अवश्य हो सकती है। फिर पुलिस एक मुहँ तो बंद कर सकती है लेकिन जब मुहँ पचास हों तो यह उस के लिए भी संभव नहीं है। जब समुदाय बोलने लगता है तो राजनैताओं को भी उस पर ध्यान देना जरूरी हो जाता है, शायद इस भय से ही सही कि अगले चुनाव में जनता के बीच कैसे जाया जा सकता है। इस तरह की घटनाएँ समुदाय के मुहँ पर आ जाने के बाद अखबारों और मीडिया को भी बोलना आवश्यक प्रतीत होने लगता है।
म में से कोई भी ऐसा नहीं जो किसी न किसी समुदाय का सदस्य न हो। वह काम करने के स्थान का समुदाय हो सकता है। वह मुहल्ले को लोग हो सकते हैं। वे किसी अन्य जनसंगठन के लोग भी हो सकते हैं। निश्चित रूप से हमें इस तरह की घटनाओं की सूचना सब से पहले समुदाय को दे कर उसे सक्रिय करना चाहिए। एक बाद और कि हमें समुदाय को संगठित करने की ओर भी ध्यान देना चाहिए। हम कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि जहाँ हम रहते हैं वहाँ के निवासियों की एक सोसायटी तो कम से कम बना ही लें और उस का पंजीयन सोसायटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट के अंतर्गत करा लें। इस से उस क्षेत्र के बाशिंदों को एक सामाजिक और कानूनी पहचान मिलती है। इस के लिए कुछ भागदौड़ तो करनी पड़ सकती है। लेकिन यह सोसायटी है बड़े काम की चीज और ऐसे ही आड़े वक्त काम आती है। एक बात और कि सोसायटी बनने पर चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार भी सोसायटी को पूछने लगते हैं। निश्चित रूप से एक-एक वोट के स्थान पर समूहबद्ध वोटों का अधिक महत्व है। लोगों का संगठनीकरण आवश्यक है।

7 टिप्‍पणियां:

  1. जागरूकता की बहुत कमी है भाई जी ! हमारे यहाँ अपने अधिकारों के बारे में ही नहीं पता ...शायद शिक्षा के साथ कुछ सुधर हो ! आपका यह लेख बहुत बढ़िया है ...मगर आम आदमी को सपोर्ट कहीं से नहीं दिखता भाई जी !!

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  2. बहुत ही उम्दा विचार व प्रस्तुती ,लेकिन सिर्फ संगठन और सोसाइटी बनाने भर से काम नहीं चलेगा बल्कि लोगों को इमानदार,न्यायप्रिय,तर्कसंगत व्यवहार करने वाला तथा देशभक्त भी बनाना होगा नहीं तो सरकार की तरह संगठन भी भ्रष्ट हो जायेगा और उसका उद्देश्य उल्टा हो जायेगा जैसे इस देश की सरकार का हो गया है | आज जरूरत है स्थानीय स्तर पर नहीं बल्कि राष्ट्रिय स्तर पर ऐसे संगठन की जो किसी भी सच्चे,अच्छे,इमानदार व देशभक्त की सहायता व सुरक्षा देश के किसी भी कोने में कर सके | बाकि का काम तो ये देशभक्त खुद कर देंगे पूरी ईमानदारी से |

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  3. @ सतीश सक्सेना
    आम आदमी जब तक अकेला है उसे अधिकारों के बारे में पता लग भी जाए तो उस का कोई अर्थ नहीं। इसी कारण से बिलकुल जमीनी स्तर पर नागरिक संगठनों का बनना आवश्यक है। तभी जनतंत्र सफल भी हो सकता है। बिना नागरिक और मानवाधिकारों के जनतंत्र का कोई अर्थ नहीं है। हमारे यहाँ तो कहा जाता है कि एक और एक ग्यारह होते हैं।
    @honesty project democracy
    इमानदार,न्यायप्रिय,तर्कसंगत व्यवहार करने वाले और देशभक्त की परिभाषा क्या है। क्या हमारा आम आदमी यह सब नहीं है। यदि वह व्यक्तिगत रुप से नहीं भी है तो भी समाज और समूह में बैठ कर वह ऐसा ही व्यवहार करता है। वैसे आप की टिप्पणी पूरे एक आलेख का विषय हो सकती है।

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  4. समाज पर से उठ गये विश्वास के कारण व्यक्ति अकेला है।

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  5. हम सब दुसरे का मजा लेते है, अगर सब मिल कर लडे तो... जनता मै बहुत ताकत है,हमारे यहां हर मुहल्ले मै एक पंचायत होती है जो साल मै दो चार बार किसी ना किसी बहाने आपस मै मिलते है, ओर किसी भी अन्होनी पर सब मिल कर बिरोध करते है..
    आप ने बहुत सुंदर लिखा काश हम सब मिल कर अपने हक के लिये लडे तो हालात अलग हो

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  6. बात घूम फिर कर समाज पर आ टिकती है उसे ही आत्मालोचन की जरुरत है ! भले ही स्थानीय समूहों बतौर सही !

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  7. कठिनाई यही है कि सामूहिक स्‍तर पर कोई भी बात नहीं उठाई जाती। प्रत्‍येक कहता है - मुझे क्‍या करना।

    पूरी तरह आशावादी और संघर्ष में विश्‍वास करनेवाला होने के बाद भी कहना पड रहा है - हम लोग चुन-चुन कर मारे जाने के लि‍ए अभिशप्‍त हो गए हैं।

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