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रविवार, 23 मई 2010

प्रकृति उस पर हर विजय का हम से प्रतिशोध लेती है

प्रकृति पर अपनी मानवीय विजयों के कारण हमें आत्मप्रशंसा में विभोर नहीं हो जाना चाहिए, क्यों कि वह हर ऐसी विजय का हम से प्रतिशोध लेती है। यह सही है कि प्रत्येक विजय से प्रथमतः वे ही परिणाम प्राप्त होते हैं जिन का हम ने भरोसा किया था, पर द्वितीयतः और तृतीयतः उस के परिणाम बिल्कुल ही भिन्न तथा अप्रत्याशित होते हैं, जिन से अक्सर पहले परिणाम का असर जाता रहता है। मेसोपोटामिया, यूनान. एशिया माइनर, तथा अन्य स्थानों में जिन लोगों ने कृषि योग्य भूमि प्राप्त करने के लिए वनों को बिल्कुल ही नष्ट कर डाला, उन्हों ने कभी यह कल्पना नहीं की थी कि वनों के साथ आर्द्रता के संग्रह-केन्द्रों और आगारों का उन्मूलन कर के वे इन देशों की मौजूदा तबाही की बुनियाद डाल रहे हैं। एल्प्स के इटालियनों ने जब पर्वतों की दक्षिणी ढलानों पर चीड़ के वनों को (ये दक्षिणी ढलानों पर खूब सुरक्षित रखे गए थे) पूरी तरह काट डाला, तब उन्हें इस बात का आभास नहीं था कि ऐसा कर के वे अपने प्रदेश के दुग्ध उद्योग पर कुठाराघात कर रहे हैं। इस से भी कम आभास उन्हें इस बात का था कि अपने कार्य द्वारा वे अपने पर्वतीय स्रोतों को वर्ष के अधिक भाग के लिए जलहीन बना रहे हैं तथा साथ ही इन स्रोतों के लिए यह सम्भव बना रहे हैं कि वे वर्षा ऋतु में मैदानों में और भी अधिक भयानक बाढ़ें लाया करें। यूरोप में आलू का प्रचार करने वालों को यह ज्ञात नहीं था कि असल मंडमय कंद को फैलाने के साथ-साथ वे स्क्रोफुला रोग का भी प्रसार कर रहे हैं। अतः हमें हर पग पर यह याद कराया जाता है कि प्रकृति पर हमारा शासन किसी विदेशी जाति पर एक विजेता के शासन जैसा कदापि नहीं है, वह प्रकृति से बाहर के किसी व्यक्ति जैसा शासन नहीं है, बल्कि रक्त, मांस, और मस्तिष्क से युक्त हम प्रकृति के ही प्राणी हैं, हमारा अस्तित्व उस के मध्य है और उस के ऊपर हमारा सारा शासन केवल इस बात में निहित है कि अन्य सभी प्राणियों से हम इस मानों में श्रेष्ठ हैं कि हम प्रकृति के नियमों को जान सकते हैं और ठीक-ठीक लागू कर सकते हैं।  

स्क्रोफुला के परिणाम
वास्तव में, ज्यों-ज्यों दिन बीतते जाते हैं हम उस के नियमों को अधिकाधिक सही ढंग से सीखते जाते हैं और प्रकृति के नैसर्गिक प्रक्रम में अपने हस्तक्षेप के तात्कालिक परिणामों के साथ उस के दूरवर्ती परिणामों के भी देखने लगे हैं। खा़स कर प्रकृति-विज्ञान की वर्तमान शताब्दी की प्रबल प्रगति के बाद तो हम अधिकाधिक ऐसी स्थिति में आते जा रहे हैं जहाँ कम से कम अपने सब से साधारण उत्पादक क्रियाकलाप के अधिक दूरवर्ती परिणामों तक को हम जान सकते हैं और फलतः उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं। लेकिन जितना ही ज्यादा ऐसा होगा उतनी ही ज्यादा मनुष्य प्रकृति के साथ अपनी एकता न केवल महसूस करेंगे बल्कि उसे समझेंगे भी और तब यूरोप में प्राचीन क्लासिकीय युग के अवसान के बाद उद्भूत होने वाली ईसाई मत में सब से अधिक विशद रूप में निरूपित की जाने वाली मस्तिष्क और भूतद्रव्य, मनुष्य और प्रकृति, आत्मा और शरीर के वैपरीत्य की निरर्थक एवं अस्वाभाविक धारणा उतनी ही अधिक असम्भव होती जायेगी। 

अकाल
रन्तु उत्पादन की दिशा में निर्देशित अपने कार्यकलाप के अधिक दूरवर्ती प्राकृतिक फलों का आकलन सीखने में जहाँ हमें हजारों वर्षों की मेहनत लग चुकी है, वहाँ इन क्रियाओं के अधिक दूरवर्ती सामाजिक फलों का आकलन करने का काम और भी दुष्कर रहा है। आलू के प्रचार के फलस्वरूप स्क्रोफुला रोग के प्रसार की हम चर्चा कर चुके हैं। परन्तु श्रम जीवियों के आलू के आहार पर ही आश्रित हो  जाने का पूरे के पूरे देशों के अन्दर जनसमुदाय की जीवनावस्था पर जो प्रभाव पड़ा है, उस के मुकाबले स्क्रोफुला रोग भी भला क्या है? अथवा उस अकाल की तुलना में ही यह रोग क्या था  जिस ने आलू की फसल में कीड़ा लग जाने के फलस्वरूप 1847 में आयरलैंड को अपना ग्रास बनाया था और सम्पूर्णतया या लगभग सम्पूर्णतया आलू के आहार पर पले दस लाख आयरलैंडवासियों को मौत का शिकार बना दिया तथा बीस लाख को विदेशों में जा कर बसने को मजबूर किया था? जब अरबों ने शराब चुआना सीखा तो यह बात उन के दिमाग में बिल्कुल नहीं आयी थी कि ऐसा कर के वे उस समय अज्ञात अमरीकी महाद्वीप के आदिवासियों के भावी उन्मूलन का एक मुख्य साधन उत्पन्न कर रहे थे। और बाद में जब कोलम्बस ने अमरीका की खोज की तो उसे नहीं पता था कि ऐसा कर के वह यूरोप में बहुत पहले मिटायी जा चुकी दास-प्रथा  को नवजीवन प्रदान कर रहा था और नीग्रो-व्यापार की नींव डाल रहा था। सत्रहवीं और अठारवीं शताब्दियों में भाप का इंजन आविष्कार करने में संलग्न लोगों के दिमाग में यह बात नहीं आयी थी कि वे वह औजार तैयार कर रहे हैं जो समूची दुनिया के अन्दर सामाजिक सम्बन्धों में अन्य किसी भी औजार की अपेक्षा बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन ला देने वाला होगा, खास कर के यूरोप में यह औजार थोड़े से लोगों के हाथ में धन को संकेंद्रित करते हुए और विशाल बहुसंख्यक को सम्पत्तिहीन बनाते हुए पहले तो पूंजीपति वर्ग को सामाजिक और राजनीतिक प्रभुता प्रदान करने वाला, लेकिन उस के बाद पूंजीपति और सर्वहारा वर्गों के उस वर्ग-संघर्ष को जन्म देनेवाला होगा जिस का अन्तिम परिणाम पूंजीपति वर्ग की सत्ता का खात्मा और सभी वर्ग विग्रहों की समाप्ति ही हो सकता है। परन्तु इस क्षेत्र में भी लम्बे और प्रायः कठोर अनुभव के बाद तथा ऐतिहासिक सामग्री का संग्रह और विश्लेषण कर के धीरे-धीरे हम अपने उत्पादक क्रियाकलाप के अप्रत्यक्ष, अधिक दूरवर्ती सामाजिक परिणामों को स्पष्ट देखना सीख रहे हैं। इस प्रकार इन परिणामों को भी नियंत्रित और नियमित करने की सम्भावना हमारे सामने प्रस्तुत हो रही है। 
र ऐसे नियमन को क्रियान्वित करने के लिए ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है। इस के लिए हमारी अभी तक की उत्पादन-प्रणाली में, और उस ेक साथ हमारी समूची समकालीन समाज-व्यवस्था में आमूल क्रांति अपेक्षित है।
फ्रेडरिक एंगेल्स की पुस्तक 'वानर से नर बनने में श्रम की भूमिका' का पंचम अंश।

13 टिप्‍पणियां:

  1. प्रकृति पर जब से मानव ने विजय पा लेने का दंभ भरा है, परिणाम सामने हैं वर्ना भाररतीय व तथाकथित अन्य पिछड़ी सभ्यताएं तो प्रकृति की पूजा ही करती आई हैं.

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  2. बहुत उम्दा आलेख. आपका आभार.

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  3. भांति-भांति के उदहारण दे कर आपने अच्छे से समझाया है कि "प्रकृति उस पर हर विजय का हम से प्रतिशोध लेती है."
    ..उम्दा पोस्ट.

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  4. शीर्षक से सहमत...।
    एंगेल्स का प्रतिपादन अब संशोधन की अपेक्षा रखता है। मार्क्सवादियों ने इतिहास की व्याख्या तो ठीक की है लेकिन भविष्य का आकलन सटीक नहीं हो पाया।

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  5. @सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
    यदि मार्क्स-एंगेल्स ने इतिहास की सटीक व्याख्या की है और समाज के बदलने के नियमों को खोज निकाला है तो इन दो महापुरुषों के एक जीवन के लिए यह बहुत बड़ा काम था। उन के उपरांत बहुत से लोगों ने और समूहों ने भी भविष्य का तानाबाना बुना है, कुछ सही, कुछ गलत। पर वर्तमान पूंजीवाद समाज के विकास की अंतिम सीढ़ी नहीं है। अन्य व्यवस्थाओं की तरह इसे भी जाना होगा। नई व्यवस्था कैसी होगी? यही तो हमें करना है। और वह इस-उस की आलोचना से नहीं जाना जा सकता। हमें इतिहास के अंत की वकालत करने वालों को छोड़ कर संपूर्ण मानवता के लिए आगे का मार्ग तो प्रशस्त करना ही होगा।

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  6. जब जब मानव प्रकृति से लडा तब तब हारा है, साथ मै बेकसुरो को भी उस का फ़ल भुगतना पडा है, कुछ भी कर लो प्रकृति को इंसान कभी भी आंहकार से जीत नही सकता.तभी तो हमारे बुजुर्ग इसी प्रकृति की पुजा अलग अलग रुप मे करते थे, ओर सब से ज्यादा भारत मै ही प्रकृति मेहरबान थी,

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  7. जो हमें प्रगटतः प्रकृति के विरुद्ध मानव अभियान लगते हैं हो न हों वे प्रक्रति के ही कोई गुप्त गुम्फित नियोजन ही न हों ? प्रकृति एक बड़ी परीक्षक है !

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  8. शीर्षक ऐसा लगा जैसे प्रकृति में कोई आत्मा समाई हो, जो बदला लेने पर उतारू हो...

    हम यदि प्राकृतिक परिवेश को नष्ट करेंगे, तो चूंकि हम भी काफ़ी कुछ उस पर निर्भर है, अपनी बारी में उससे हमारी तकलीफ़े बढेंगी ही...

    बेहतर प्रस्तुति...

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  9. प्रकृति हमारी अतिक्रमणता का प्रतिशोध लेती है ।

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  10. यही सब सोचता तो मैं भी रहता हूँ किन्‍तु जब भी कहने बैठता हँ तो उलझ जाता हूँ और कहने की प्रत्‍येक शुरुआत, शुरु होने के साथ ही समाप्‍त हो जाती है।

    कहना न होगा कि अपनी भावनाओं को इस तरह प्रस्‍तुत देख मुझे अत्‍यधिक आह्लाद हुआ है।

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  11. चिंतनपरक आलेख ! प्रस्तुति के लिए आभार !

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  12. आपकी बात से शत प्रतिशत सहमत हूँ....

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  13. प्रकृति का चीरहरण मानवता के अस्तित्वा के लिए खतरनाक है. प्रकृति का दोहन उसी तरह है जैसे लिमिट से ज्यादा शक्कर या मीठा खाने से पहले तो मीठे का अहसास होता है पर बाद में ये स्वस्थ्य के लिए हानिकारक ही साबित होती है ऐसे ही वर्तमान में तो विकास दिखता है पर भविष्य अंधकारमय है .
    पश्चिमी देश सबसे ज्यादा प्रकृति के साथ खिलवाड़ करते नजर आये थे और अब भारत भी उसी राह पर है. और इसलिए आज की GDP ग्रोथ डराने वाली लगाती है.

    मार्क्सवाद की सोच ठीक हो सकती है पर उनका क्रियान्वयन रानजीति, स्वार्थ और अहम् से प्रेरित होकर बेकार होकर रह गया है.

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कैसा लगा आलेख? अच्छा या बुरा? मन को प्रफुल्लता मिली या आया क्रोध?
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