अर्थशास्त्रियों का दावा है कि श्रम समस्त संपदा का स्रोत है। वास्तव में वह स्रोत है, लेकिन प्रकृति के बाद। वही इसे वह सामग्री प्रदान करती है जिसे श्रम संपदा में परिवर्तित करता है। पर वह इस से भी कहीं बड़ी चीज है। वह समूचे मानव-अस्तित्व की प्रथम मौलिक शर्त है, और इस हद तक प्रथम मौलिक शर्त है कि एक अर्थ में हमें यह कहना होगा कि स्वयं मानव का सृजन भी श्रम ने ही किया।
लाखों वर्ष पूर्व, पृथ्वी के इतिहास के भू-विज्ञानियों द्वारा तृतीय कहे जाने वाले महाकल्प की एक अवधि में, जिसे अभी ठीक निश्चित नहीं किया जा सकता है, पर जो संभवतः इस तृतीय महाकल्प का युगांत रहा होगा, कहीं ऊष्ण कटिबंध के किसी प्रदेश में -संभवत- एक विशाल महाद्वीप में जो अब हिंद महासागर में समा गया है -मानवाभ वानरों की विशेष रूप से अतिविकसित जाति रहा करती थी। डार्विन ने हमारे इन पूर्वजों का लगभग यथार्थ वर्णन किया है। उन का समूचा शरीर बालों से ढका रहता था, उन के दाढ़ी और नुकीले कान थे, और वे समूहों में पेड़ों पर रहा करते थे।
संभवतः उन की जीवन-विधि, जिस में पेड़ों पर चढ़ते समय हाथों और पावों की क्रिया भिन्न होती है, का ही यह तात्कालिक परिणाम था कि समतल भूमि पर चलते समय वे हाथों का सहारा कम लेने लगे और अधिकाधिक सीधे खड़े हो कर चलने लगे। वानर से नर में संक्रमण का यह निर्णायक पग था।
सभी वर्तमान मानवाभ वानर सीधे खड़े हो सकते हैं और पैरों के बल चल सकते हैं, पर तभी जब सख्त जरूरत हो, और बड़े भोंडे ढंग से ही। उन के चलने का स्वाभाविक ढंग आधा खड़े हो कर चलना है, और उस में हाथों का इस्तेमाल शामिल होता है। इन में से अधिकतर मुट्ठी की गिरह को जमीन पर रखते हैं, और पैरों को खींच कर शरीर को लम्बी बाहों के बीच से झुलाते हैं, जिस तरह लंगड़े लोग बैसाखी के सहारे चलते हैं। सामान्यतः वानरों में हम आज भी चौपायों की तरह चलने से ले कर पांवो पर चलने के बीच की सभी क्रमिक मंजिलें देख सकते हैं। पर उन में से किसी के लिए भी पावों के सहारे चलना एक आरज़ी तदबीर से ज्यादा कुछ नहीं है।
हमारे लोमश पूर्वजों में सीदी चाल के पहले नियम बन जाने और उस के बाद अपरिहार्य बन जाने का तात्पर्य यह है कि बीच के काल में हाथों के लिए लगातार नए नए काम निकलते गए होंगे। वानरों तक में हाथों और पांवो के उपयोग में एक विभाजन पाया जाता है। जैसा कि पहले ही उल्लेख किया जा चुका है, चढ़ने में हाथों का उपयोग पैरों से भिन्न ढंग से किया जाता है। जैसा कि निम्न जातीय स्तनधारी जीवों में आगे के पंजे के इस्तेमाल के बारे में देखा जाता है, हाथ प्रथमतः आहार संग्रह, तता ग्रहण के काम आते हैं। बहुत से वानर वृक्षों में अपने लिए डेरा बनाने के लिए हाथों का इस्तेमाल करते हैं अथवा चिंपाजी की तरह वर्षा-धूप से रक्षा के लिए तरुशाखाओं के बीच छत सी बना लेते हैं। दुश्मन से बचाव के लिए वे अपने हाथों से डण्डा पकड़ते हैं या दुश्मनों पर फलों अथवा पत्थरों की वर्षा करते हैं। बंदी अवस्था में वे मनुष्यों के अनुकरण से सीखी गई सरल क्रियाएँ अपने हाथों से करते हैं। लेकिन ठीक यहीं हम देखते हैं कि मानवाभ से मानवाभ वानरों के अविकसित हाथ और लाखों वर्षों के श्रम द्वारा अति परिनिष्पन्न मानव हाथ सैंकड़ों ऐसी क्रियाएँ संपन्न कर सकते हैं जिन का अनुकरण किसी भी वानर के हाथ नहीं कर सकते। किसी भी वानर के हाथ पत्थर की भोंडी छुरी भी आज तक नहीं गढ़ सके हैं।
अतः आरंभ में वे क्रियाएँ अत्यंत सरल रही होंगी, जिन के लिए हमारे पूर्वजों ने वानर से नर में संक्रमण के हजारों वर्षों में अपने हाथों को अनुकूलित करना धीरे-धीरे सीखा होगा। फिर भी निम्नतम प्राकृत मानव भी वे प्राकृत मानव भी जिन में हम अधिक पशुतुल्य अवस्था में प्रतिगमन तथा उस के साथ ही साथ शारीरिक अपह्रास का घटित होना मान ले सकते हैं, इन अंतर्वर्ती जीवों से कहीं श्रेष्ठ हैं। मानव हाथों द्वारा पत्थर की पहली छुरी बनाए जाने से पहले शायद एक ऐसी अवधि गुजरी होगी जिस की तुलना में ज्ञात ऐतिहासिक अवधि नगण्य सी लगती है। किन्तु निर्णयक पग उठाया जा चुका था। हाथ मुक्त हो गया था और अब से अधिकाधिक दक्षता एवं कुशलता प्राप्त कर सकता था। तथा इस प्रकार प्राप्त उच्चतर नमनीयता वंशागत हेती थी और पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ती जाती थी।
अतः हाथ केवल श्रमेन्द्रिय ही नहीं हैं, वह श्रम की उपज भी है। श्रम के द्वारा ही, नित नयी क्रियाओं के प्रति अनुकूलन के द्वारा ही, इस प्रकार उपार्जित पेशियों, स्नायुओं- और दीर्घतर अवधियों में हड्डियों-के विशेष विकास की वंशागतता के द्वारा ही, तथा इस वंशागत पटुता के नए, अधिकाधिक जटिल क्रियाओं मे नित पुनरावृत्त उपयोग के द्वारा ही मानव हाथ ने वह उच्च परिनिष्पन्नता प्राप्त की है जिस की बदौलत राफ़ायल की सी चित्रकारी, थोर्वाल्दसेन की सी मूर्तिकारी और पागनीनी का सा संगीत आविर्भूत हो सका।
फ्रेडरिक एंगेल्स की पुस्तक वानर से नर बनने में श्रम की भूमिका का प्रथमांश
इवोल्यूशन ऑफ़ मैन --वानरों से मानव विकास का सफ़र , आवश्यकता पर निर्भर रहा । शरीर के जिस अंग का प्रयोग ज्यादा हुआ , उसका विकास होता गया । अस्तित्व के संघर्ष में , जो सबसे ज्यादा अनुकूलित होता गया , वही बचा रहा । और इसी तरह मानव बाकी जीवों से आगे बढ़ गया ।
जवाब देंहटाएंआपने बहुत अच्छा ग्राफिक प्रेजेंटेशन दिया है , मानव विकास का ।
It is a refreshing article.
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंमतलब, आ बात सांची हे के बांदरा सुं ही मिनख बणयोड़ो हे।
जवाब देंहटाएंराम राम सा
डॉ टी एस दराल जी से सहमत है,हम ने भी पढा तो यही है
जवाब देंहटाएंbahut sahi likha hai aapne.
जवाब देंहटाएंयह समझा जाना जरूरी है...
जवाब देंहटाएंएक बहुत ही जरूरी पोस्ट...उम्दा प्रस्तुति....
पिछले पांच दिवस की अनुपस्थिति में क्या क्या गुज़रा ये तो धीरे धीरे पता चलेगा !
जवाब देंहटाएंआज के आलेख पर रवि कुमार से सहमत !
भारतीय मनीषियों ने हाथों का प्रतीकार्थ और उसका आध्यात्मिक महत्व बहुत पहले जान लिया था इसीलिए "प्रभाते करदर्शनम्" जैसे आत्मानुशासन की व्यवस्था की। वे हाथ, जो हमारे भाग्यविधाता हैं, उनकी स्तुति दर्शनमात्र से हो जाती है। मनुष्य के हाथों में ही पुरुषार्थ है। संस्कृत की कृ धातु से बना है "कर" जिसका अर्थ होता है हाथ, हथेलियां। अथर्ववेद में कहा गया है कि अगर पुरुषार्थ मेरे दाएं हाथ में है तो सफलता बाएं में अवश्यंभावी है। इसी तरह श्रमार्जित सफलता के सामाजिक बंटवारे के बारे में भी वेदों में उल्लेख है कि सैकड़ों हाथों से अर्जित करो और हजारों हाथों से वितरित करो।
जवाब देंहटाएंविचारणीय आलेख है। आभार।
रोचक विश्लेषण ।
जवाब देंहटाएंशायद इसी लिए कहा है " करे वसते लक्ष्मी " ।
जवाब देंहटाएंमनुष्य के इवोलुसन पर उत्तम पोस्ट । बहुत पहले पढ़ी बातें याद हो आयीं ।
बहुत सुंदर पोस्ट.
जवाब देंहटाएंरामराम.
पिछले साल डार्विन की पुस्तक On the Origin species(२४ नवम्बर,१८८५९) की १५०वी, और उसके जनम की २०० वीं(१२ फरबरी,१८०९) वर्षगाँठ थी.बहुत दुनिया इन महत्वपूर्ण दिनों को भूल गयी.. आप ने डार्विन पर लिख कर बहुत अच्छा काम किया.भारत में वैज्ञानक चेतना फैलाने की बहुत जरूरत है. वैसे डार्विन के सिधान्तों को भारत में मानाने में इतनी दिक्कत नहीं है जितनी अमरीका में. यहाँ अभी भी ४०% लोग बायबल के अनुसार उत्पति को ही मान रहे हैं. इस सिधांत में श्रम को जोड़ कर एंगल्स ने महत्वपूरण योग्यदान दिया था.बहुत बहुत धन्यवाद
जवाब देंहटाएंइसके अगले अंश पढ़ने के बाद शायद वेद के कोटेशन और कराग्रे वसते लक्ष्मी नहीं सुनाये जायेंगे… :-)
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति…अगली क़िस्त का इंतज़ार रहेगा…
बहुत-बहुत आभार यह लिंक देने के लिए, यह पोस्ट मुझे दूसरे खण्ड के बाद पढ़ने में अलग ही आनन्द मिला।
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