शिवराम के संपादन में प्रकाशित हो रही "सामाजिक यथार्थवादी पत्रिका अभिव्यक्ति" का 36वाँ अंक प्रेस से आ गया है। इस का वितरण आरंभ कर दिया है। प्रकाशक की पाँच सुरक्षित पाँच प्रतियाँ मुझे मिलीं। अभी पूरी तरह इस अंक को देख नहीं पाया हूँ। पर इस में पाकिस्तानी कवि जावेद अहमद जान की एक नज़्म मुझे पसंद आई जो लाहौर के दैनिक जंग में 11 अप्रेल 1989 को प्रकाशित हुई थी। नज़्म आप के लिए पुनर्प्रस्तुत कर रहा हूँ ----
मैं बागी हूँ
- जावेद अहमद जान
मैं बागी हूँ, मैं बागी हूँ
जो चाहो मुझ पर जुल्म करो।
इस दौर के रस्म रिवाजों से
इन तख्तों से इन ताजों से
जो जुल्म की कोख से जनमे हैं
इन्सानी खून से पलते हैं
ये नफरत की बुनियादें हैं
और खूनी खेत की खादें हैं
मैं बागी हूँ, मैं बागी हूँ
जो चाहो मुझ पर जुल्म करो।
मेरे हाथ में हक का झण्डा है
मेरे सर पे जुल्म का फन्दा है
मैं मरने से कब डरता हूँ
मैं मौत की खातिर जिन्दा हूँ
मेरे खून का सूरज चमकेगा
तो बच्चा बच्चा बोलेगा
मैं बागी हूँ, मैं बागी हूँ
जो चाहो मुझ पर जुल्म करो।
फ्रेंच कारटूनिस्ट, चित्रकार, मूर्तिकार डौमियर ऑनर (1808-79).की एक कृति
मैं बागी हूँ, मैं बागी हूँ
जवाब देंहटाएंजो चाहो मुझ पर जुल्म करो।
बहुत सुंदर गजल पढ कर ऎसा लगा जेसे हम कोई देश भगती का गीत गा रहे हो, जल्द ही भारत मै भी ऎसे गीतो की जरुरत पडेगी....
आप का ओर "जावेद अहमद जान साहब"" का धन्यवाद
जावेद अहमद जान साहब की नज़्म पसंद आई, आभार पढ़वाने का.
जवाब देंहटाएंमैं बागी हूँ, मैं बागी हूँ
जवाब देंहटाएंजो चाहो मुझ पर जुल्म करो।
इस वक़्त हमारी यही हालत है...
शायद हर सच लिखने वाले की होती है...
एक सशक्त विद्रोही -रचना !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर.
जवाब देंहटाएंमैं मरने से कब डरता हूँ
जवाब देंहटाएंमैं मौत की खातिर जिन्दा हूँ
जिन्दगी का मोल ऐसे लोग ही जानते हैं।
आपने आज का सवेरा बहुत शानदार करा दिया यह नज्म पढवा कर।
धन्यवाद।
एक अच्छी रचना पढवाने के लिए धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंवाकई यह तेवर...
जवाब देंहटाएंयह ज़िंदादिली...
अपने आप में टटोलता हूं...
वाकई यह तेवर...
जवाब देंहटाएंऔर यह ज़िंदादिली...
अपने आप में टटोलता हूं...
बहुत सुन्दर रचना ।
जवाब देंहटाएंखूबसूरत कविता ! प्रस्तुति का आभार ।
जवाब देंहटाएंआक्रोश की सचेत अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंनज़्म भी अच्छी लगी और डॉमियर की पेंटिंग भी। इस पेंटिंग का शीर्षक संभवत: 'अपराइजिंग' है...
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