मैं ने सहज ही डॉ हैनिमेन जन्मदिवस पर अपनी बात अपने अनुभव के साथ रखी थी। उस पर आई टिप्पणियों में होमियोपैथी को अवैज्ञानिक और अंधविश्वास होने की हद तक आपत्तियाँ उठाई गईं। तब मैं ने अपनी अगली पोस्ट में एक सवाल खड़ा किया कि क्या होमियोपैथी अवैज्ञानिक है?
इस पोस्ट पर उन्हीं मित्रों ने पुनः होमियोपैथी को अवैज्ञानिक बताया और कुछ ने उस पर विश्वास को अंधविश्वास भी कहा। भाई बलजीत बस्सी ने तो यहाँ तक कहा कि---
"दावे पर दावा ठोका जा रहा है. मैं हैरान हूँ हमारे देश का पढ़ा लिखा तबका अंध-विश्वास में पूरी तरह घिर चूका है. यहाँ तो विज्ञानं पर से ही विश्वास उठ चूका है. मनुष्य के शरीर में बीमारी से लड़ने की ताकत होती है और ६०% प्लेसीबो प्रभाव भी होता है"।
डॉ. अमर की प्रारंभिक टिप्पणी बहुत संयत थी कि -
"मैं विरोधी तो नहीं, किन्तु इसे लेकर अनावश्यक आग्रहों से घिरा हुआ भी नहीं !
सिबिलिया सिमिलिस आकर्षित तो करती है, और इसमें मैंनें मगजमारी भी की है ।
ऍलॉस पैथॉस के सिद्धान्त को लेकर आलोच्य ऎलोपैथिक से जुड़े विज्ञान सँकाय, आज जबकि मॉलिक्यूलर मेडिसिन की ओर उन्मुख हो रहा है । होम्योपैथी को अपनी तार्किकता सिद्ध करना शेष है । लक्षणों के आधार पर दी जाने वाली दवायें सामान्य स्थिति में उन्हीं लक्षणों के पुनर्गठन में असफ़ल रही हैं । अपने को स्पष्ट करने के लिये मैं कहूँगा कि The results of any scientific experiment should be repeatedly reproducible in universality ! जहाँ बात जीवित मानव शरीर से छेड़खानी की हो, वहाँ सस्ते मँहगे और मुनाफ़े से जुड़े मुद्दों से ऊपर उठ कर, उपचार की तार्किकता देखनी चाहिये ।" लेकिन बाद की टिप्पणियों में वे भी संयम तोड़ गए।
सिबिलिया सिमिलिस आकर्षित तो करती है, और इसमें मैंनें मगजमारी भी की है ।
ऍलॉस पैथॉस के सिद्धान्त को लेकर आलोच्य ऎलोपैथिक से जुड़े विज्ञान सँकाय, आज जबकि मॉलिक्यूलर मेडिसिन की ओर उन्मुख हो रहा है । होम्योपैथी को अपनी तार्किकता सिद्ध करना शेष है । लक्षणों के आधार पर दी जाने वाली दवायें सामान्य स्थिति में उन्हीं लक्षणों के पुनर्गठन में असफ़ल रही हैं । अपने को स्पष्ट करने के लिये मैं कहूँगा कि The results of any scientific experiment should be repeatedly reproducible in universality ! जहाँ बात जीवित मानव शरीर से छेड़खानी की हो, वहाँ सस्ते मँहगे और मुनाफ़े से जुड़े मुद्दों से ऊपर उठ कर, उपचार की तार्किकता देखनी चाहिये ।" लेकिन बाद की टिप्पणियों में वे भी संयम तोड़ गए।
मैं मानता हूँ कि होमियोपैथी को अभी अपनी तार्किकता सिद्ध करनी शेष है। होमियोपैथी का अपना सैद्धांतिक पक्ष है। उस का अपना एक व्यवहारिक पक्ष भी है। ऐलोपैथी के समर्थकों का एक ही तर्क होमियोपैथी पर भारी पड़ता है कि आखिर उस की 30 शक्ति वाली दवा इतनी तनुकृत हो जाती है कि उस की एक खुराक में मूल पदार्थ के एक भी अणु के होने की संभावना गणितीय रूप से समाप्त हो जाती है। इस तर्क पर होमियोपैथी के समर्थकों की ओर से जो तर्क दिए जाते हैं वे निश्चित रूप से आज गले उतरने लायक नहीं हैं। उन्हीं तर्कों के आधार पर होमियोपैथी को अवैज्ञानिक करार दिया जाता है।
यदि हम बलजीत बस्सी के कथन पर ध्यान दें कि शरीर में स्वयं खुद को ठीक करने की शक्ति होती है और 60 प्रतिशत प्लेसबो प्रभाव होता है। यदि ऐसा है तो फिर किसी भी प्रकार की चिकित्सा पद्धति की आवश्यकता ही समाप्त हो जाएगी। मनुष्य के अतिरिक्त इस हरित ग्रह पर संपूर्ण जीवन बिना किसी चिकित्सा पद्धति पर निर्भर रहा है और उस ने अपना विकास किया है। लेकिन यह कह देने से काम नहीं चल सकता। हम स्वयं जानते हैं कि मनुष्य को चिकित्सा की आवश्यकता है और यदि चिकित्सा पद्धतियाँ नहीं होती तो आज मानव विश्व पर सर्वश्रेष्ठ प्राणी नहीं होता। निश्चित रूप से ऐलोपैथी ने मानव को आगे बढ़ने, उस की आबादी में वृद्धि करने और उस की उम्र बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान किया है। लेकिन ऐलोपैथी की इस विश्वविजय के उपरांत भी दुनिया भर में अन्य औषध पद्धतियाँ मौजूद हैं और समाप्त नहीं हुई हैं। ऐलोपैथी का यह साम्राज्य भी उन्हीं प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों की नींव पर खड़ा हुआ है। आज भी विभिन्न प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों से ऐलोपैथी निरंतर कुछ न कुछ ले कर स्वयं को समृद्ध करती रहती है।
यह भी एक तथ्य है कि स्वयं डॉ. हैनीमेन एक एलोपैथ थे। ऐलोपैथी के लिए ही मैटीरिया मेडीका लिखते समय अनायास पदार्थो (प्राकृतिक अणुओं) के व्यवहार पर ध्यान देने और फिर उस व्यवहार को परखने के फलस्वरूप ही होमियोपैथी का जन्म हुआ। होमियोपैथी कोई प्राचीन पद्धति नहीं है। उस का जीवन काल मात्र दो सौ वर्षों का है। मेरे विचार में होमियोपैथी के प्रति कठोर आलोचनात्मक और उसे सिरे से खारिज कर देने वाला रुख उचित नहीं है। वह भी तब जब कि वह बार बार अपनी उपयोगिता प्रदर्शित करती रही है। मैं स्वयं अवैज्ञानिक पद्धतियों का समर्थक नहीं हूँ। यदि मैं ने उसे प्रभावी नहीं पाया होता तो शायद मैं आज यह आलेख नहीं लिख रहा होता। मैं ने पिछले अट्ठाईस वर्षों में अनेक बार और बार बार इसे परखा है और प्रभावी पाया है। मैं भी होमियोपैथ चिकित्सकों से सदैव ही यह प्रश्न पूछता हूँ कि आखिर होमियोपैथी दवा काम कैसे करती है?
मुझे इस प्रश्न का उत्तर आज तक भी प्राप्त नहीं हुआ है। लेकिन मैं ने होमियोपैथी को प्रभावी पाया है और बारंबार प्रभावी पाया है। मैं यह भी जानता हूँ कि होमियोपैथी मात्र एक औषध पद्धति है। ऐलोपैथी ने अनेक परंपरागत और प्राचीन औषध पद्धतियों के अंशो को अपनाया है। यह नवीन पद्धति भी खारिज होने योग्य नहीं है। इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है, इस पर शोध की आवश्यकता है, इस के उपयोगी तत्वों को साबित कर उन्हें विज्ञान सम्मत साबित करने की आवश्यकता है। ठीक उसी तरह जैसे धार्मिक मान्यताओं को आज के विज्ञान पर खरा उतरने की आवश्यकता है। अधिक कुछ नहीं कहूँगा पर समय-समय पर होमियोपैथी के अपने उन अनुभवों को अवश्य साझा करना चाहूँगा जो मेरे लिए उसे विश्वास के योग्य बनाते हैं। भाई सतीश सक्सेना जी को यह अवश्य कहूँगा कि मैं किसी भी तरह का डाक्टर नहीं हूँ। मुझे वकील ही रहने दें। एक प्रश्न यह भी कि हिन्दी ब्लाग जगत में कुछ होमियोपैथी चिकित्सक भी हैं, वे क्यों इस बहस से गायब रहे?
"ऐलोपैथी का यह साम्राज्य भी उन्हीं प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों की नींव पर खड़ा हुआ है।"
जवाब देंहटाएंसही बात कही है। काफी ज्ञानवर्धक विमर्श रहा यहां। होमियोपैथी पर लिखनेवाले भी यहां कई हैं, पर वे इस बहस से नदारद रहे। आपका यह पूछना सही है। मैं किसी चिकित्सा विधि से परहेज नहीं करता और आपके दृष्टिकोण का समर्थक हूं। यूनानीपैथी के ख़मीरा गावज़बानअंबरी जवाहरवाला खास की तासीर भी आज़मा चुका हूं, होम्यों के बेलाडोना समेत न जाने कितने नुस्खे आजमाए, ऐलोपैथी का कहना क्या, आयुर्वैदिक दवाओं में जीवन-रस है और सर्वाधिक मनोरंजक और लाभदायक है प्राकृतिक चिकित्सा, जिसका मुरीद हूं।
बलजीत बासी बड़ी मुद्दे की बात ढूंढ कर लाते हैं। पर मेरा फिर यही कहना है कि वे होम्योपैथी पर बहस क्यों कर रहे हैं जब उसे मानते नहीं। क्या शब्द व्युत्पत्ति से उनकी आस्था खत्म हो गई है ?
मुझे लगता है कि उनकी निगाह में आपकी पोस्ट आई न होगी वरना इस विचार मंच पर उनके विचार तो अवश्य आना चाहिये.
जवाब देंहटाएं"यह भी एक तथ्य है कि स्वयं डॉ. हैनीमेन एक एलोपैथ थे।"
जवाब देंहटाएंद्विवेदी जी, सभी जगह इसी बात का महिमामंडन किया जाता है की हैनीमेन जी ने एलोपैथ होते हुए भी होम्योपैथी को बेहतर माना और उसे विकसित किया. लेकिन हैनीमेन के जमाने में एलोपैथी आज की तुलना में एक प्रतिशत भी उन्नत नहीं थी. उस काल में कोई एंटी बायोटिक या अन्य रसायन नहीं थे. सर्जरी भी बिलकुल प्रिमिटिव थी जिसमें कोई निश्चेतक नहीं होते थे.
आपको शायद पता न हो लेकिन हर एलोपैथिक दवा का परीक्षण प्लेसिबो के साथ होता है. यदि सौ लोगों को सर दर्द है तो पचास को असली दवा और पचास को प्लेसिबो देते हैं. यदि असली दवा पाए चालीस लोग और प्लेसिबो पाए तीस लोग दर्दमुक्त हो जाते हैं तो दवा को अप्रभावी मानकर खारिज कर दिया जाता है. प्लेसिबो प्रभाव बहुत बड़ा है और आधुनिक चिकत्सा विज्ञान इसके महत्व को समझता है.
आयुर्वेद विज्ञान सम्मत है क्योंकि हम जानते हैं की इसकी औषधियां क्या गुण धर्म रखती हैं और कैसे काम करती हैं. होम्योपैथी के बारे में हम कुछ नहीं जानते. होम्योपैथी को अपनी तार्किकता सिद्ध करना शेष है ।
आपने अच्छीखासी हलचल मचा दी। मुझ जैसे, किनारे पर बैठे 'बौरे' लाभान्वित हो रहे हैं। बैठे-बैठाए नवनीत मिल रहा है।
जवाब देंहटाएंयह विमर्श निरन्तर रहे, बिना किसी कडवाहट के। इस पध्दति से जुडे लोग आगे आऍंगे ही।
मेरा निष्कर्ष - 'आप होम्योपेथी से असहमत हो सकते हां किन्तु इसकी उपेक्षा नहीं कर सकते।'
@ अजीत वडनेरकर,
जवाब देंहटाएंकल यही मैंने डॉ अमर कुमार , को कहने का प्रयत्न किया था की जब आप एलोपैथ हो तो उस पैथी से, जिसपर आपका विश्वास ही नहीं है , नाराज क्यों हो ? एक एलोपैथिक डॉ की नाराजी स्वाभाविक है जब उनके रोगी उस बीमारी से स्वस्थ होने की खबर उन्हें देते हैं जो एलोपैथिक नज़रिए से असाध्य है ! तो एक सबसे अधिक पढ़े लिखे आदमी ( एम् बी बी एस , एम् एस ) का झल्ला जाना स्वाभाविक है ! जहाँ तक वैज्ञानिक विवेचना का सम्बन्ध है, तो आज तक विज्ञान ईश्वर के पास भी नहीं पंहुच पाया है तो उसकी बनाई शक्तियों को कैसे पहचानेगा सिर्फ उनके अहसास होने पर अपने आपको चमत्कृत ही पाता है ! मैंने यहाँ कुछ सज्जनों को बिना समझे ही होमिओपैथी का मज़ाक बनाते देखा है ! सबूत और इनामी राशि देने की बात कही जा रही है..कम से कम, मैं जो एक होमिओपथी श्रद्धालु और ३० साल से इन पुस्तकों का एक विद्यार्थी मात्र हूँ, इस मूर्खता पूर्ण बहस को, और चैलेन्ज को स्वीकार नहीं करूंगा ! डरने के कारण नहीं बल्कि विद्वान् मगर इस महान वैकल्पिक चिकित्सा के प्रति नासमझ लोगों की जमात के सामने, अपने आपको खड़ा करने में झिझक के कारण !
अब आप मेरी शौक से मज़ाक उड़ाइए ... बेहतरीन विश्वासों की ऐसी मज़ाक हज़ारों सालों से आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा उड़ाई जाती रही हैं सो मैं होमिओपैथी की मज़ाक उड़ाने पर आपको मुस्कराते हुए शुभकानाएं देता हूँ !
आरोप लगने से पहले मैं बता दूं कि बचपन से अंधविश्वासों और अंध धार्मिक आस्थाओं का घोर विरोधी रहा हूँ ! सवाल सिर्फ अपनी अपनी शिक्षा का है और समझ का है !
मैं एलोपैथिक पर श्रद्धा रखता हूँ परन्तु एलोपैथिक डॉ से बहुत डरता हूँ क्योंकि अक्सर वे भयभीत रोगी से पहला सवाल " क्या करते हो " का ही करते हैं, और बदकिस्मत रोगी अगर सर्जन के सामने हो तो भगवान् ही मालिक है ( डॉ अमर कुमार से क्षमा याचना सहित ) :-) . मेरे एक सर्जन मित्र जो एक मशहूर क्लिनिक में कार्य करते थे इस लिए नौकरी छोड़ने को विवश होना पड़ा क्योंकि उन्होंने एक रोगी को बिना आपरेशन ही ठीक कर दिया था ! आज से लगभग २६-२७ वर्ष पहले दिल्ली के मशहूर आर्थो स्पेशलिस्ट डॉ विरमानी ने मुझे गले में कालर लगाना और मोटर साइकिल छोड़ना अति आवश्यक बताया था
स्पोंडलाइटिस के दर्द से कराहते हुए, मैंने अपनी इच्छा शक्ति को चैलेन्ज करते हुए, अपने आपको ३ महीने में इसी होमिओपैथी से ठीक किया था और तब से आज तक अपने परिवार का ही लाखों रुपया डॉ को देने से और अपने शरीर को गिनी पिग बनाने से बचा लिया !
होमिओपैथी एक आश्चर्यजनक विधा है और बेहद खतरनाक बीमारियों से तुरंत आराम दिलाती है !
जो बातें कहने आया था वह निशांत मिश्र जी ने पहले ही कह दी हैं.
जवाब देंहटाएं@ स्मार्ट इंडियन ,
जवाब देंहटाएंमगर विद्वान् दोस्त ! होमिओपैथ किसी रोगी को प्लेसिबो से कभी ठीक नहीं करता और न ही प्लेसिबो एक्ट से किसी गंजे सर पर बाल उगे हैं ( मज़ाक का बुरा नहीं मानना :-),
ये तो बड़ी लम्बी बहस चल पड़ी ...खैर हम अपने विश्वास पर कायम रहेंगे जब तक कि किसी और पैथी से कन्विंस ना हो जायें !
जवाब देंहटाएंमुझे एलोपैथी और बाज़ार के अनन्य रिश्ते से भी कई चीज़ें उभरी लगती हैं। पर चूंकि मैं इस सब पर कोई ख़ास ज्ञान नहीं रखता तो अभी सिर्फ़ सुनना पसंद करुंगा
जवाब देंहटाएंएक-दो बातें हैं जो विज्ञान के नियम या कॉमन सेन्स पर सही साबित नहीं होतीं:-
जवाब देंहटाएं१. होम्योपैथी में दवा जितनी कम सांद्रता में हो उतनी प्रभावी होती है. अर्थात वह उतनी अधिक पोटेंट होती है.
२. दवा को बनाते समय उसे जितना अधिक हिलाया जाय, दवा उतनी अधिक प्रभावी होती है. यह बात अजीब है. आप एक गिलास पानी में एक चम्मच शक्कर अनंत काल तक भी हिलाएं तो भी वह घोल उतना ही 'शक्तिशाली' रहेगा जितना उसे सिद्धान्ततः होना चाहिए.
3. स्वस्थ मरीज को वह दवा दिए जाने पर उसमें वे लक्षण उत्पन्न होने चाहिए जो रोगी के शरीर में होते हैं.
हाल में ही किसी ने यह क्लेम किया है की जिस द्रव में होम्योपैथी की दवा बनाई जाती है उस द्रव में उस मूल पदार्थ की मेमोरी रह जाती है. यही तथाकथित मेमोरी चिकित्सा गुणों से युक्त होती है और इसी से इलाज होता है. यह तो बहुत भयंकर कॉन्सेप्ट है. यदि हर द्रव में उसमें मिलाये गए पदार्थों की मेमोरी रह जाती है तो हम शुद्ध किया गया जल पीने के लिए प्रयोग में नहीं ला सकते क्योंकि उसमें न जाने कितने अपशिष्ट एक समय उपस्थित रह चुके हों.
एक अन्य होम्योपैथिक रिसर्च में यह भी बताया गया है की इस मेमोरी को ई-मेल के मार्फ़त भेजा भी जा सकता है! This is the height of blunder!
हम तो फँसे हुए इसे लेकर। आप लोगों ने स्पष्ट नहीं किया है। प्रतीक्षारत…
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