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सोमवार, 8 मार्च 2010

खुशी, जो मिलती है आभासी के वास्तविक होने पर

ल रात मैं भोजन कर निपटा ही था कि मोबाइल घनघना उठा। जहाँ मैं था वहाँ सिग्नल कमजोर होने से आवाज स्पष्ट नहीं आती। मैं ने मोबाइल उठाया तो नमस्ते के बाद कहा गया कि मैं रतलाम से .......... बोल रहा हूँ। नाम स्पष्ट समझ नहीं आया। बाद में संदेश था कि वे सुबह मुंबई-जयपुर एक्सप्रेस से सवाईमाधोपुर जा रहे हैं। साथ में उन  के भतीजे की बेटी भी है। मेरे लिए उन के पास एक पार्सल है। यदि किसी को स्टेशन भेज सकें तो पार्सल उन्हें दे दूंगा। यह ट्रेन कोटा सुबह 8.40 पर पहुँचती है। मुझे सुबह छह बजे अपनी बेटी को स्टेशन छोड़ना था। घर से स्टेशन 12 किलोमीटर पड़ता है। सोचा दो घंटे स्टेशन के किसी मित्र से मिलने में गुजार लेंगे। मैं ने उन्हें कह दिया कि मैं खुद ही स्टेशन हाजिर होता हूँ। इस के बाद बात समाप्त हो गई। 
मुझे समझ नहीं आ रहा था कि रतलाम से किस का फोन हो सकता है। भतीजे की  बेटी साथ है तो निश्चित रूप से  उन की उम्र 55-60 तो होनी ही चाहिए थी। इस उम्र के केवल दो ही व्यक्ति  हो सकते थे। एक विष्णु बैरागी और दूसरे मंसूर अली हाशमी। बैरागी जी की भाषा और आवाज कुछ अलग है। निश्चित ही वे नहीं थे। जरूर वे मंसूर अली हाशमी रहे होंगे। फिर देर रात जी-मेल पर उन का चैट संदेश देखा तो पक्का हो गया कि वे ही हैं।  संदेश का उत्तर दिया, लेकिन वह संदेश शायद फोन करने के पहले का था। रात के बारह बजने वाले थे।  उत्तर का उत्तर नहीं आया। उन की ट्रेन रतलाम से सुबह चार बजे चलती है, जिस के लिए उन्हें निश्चित ही तीन बजे तो तैयारी करनी होगी। निश्चित ही वे तब तक सो चुके होंगे।
सुबह साढ़े चार नींद खुली तो घर में कोई उठा न था। मैं ने शोभा को कहा -उठो पूर्वा को जाना है न। तो उस ने बताया कि उस को रात पेट में बहुत दर्द था। वह नहीं जा रही है। मेरी भी नींद पूरी नहीं हुई थी। मैं फिर से सो गया। सुबह आठ बजे मैं घर से रवाना हुआ। गाड़ी कोई दो-सौ मीटर ही चली होगी कि हाशमी जी का फोन आ गया। मैं ने उन्हें बताया कि उन की गाड़ी दरा घाटी से गुजर रही होगी, वे उस का आनंद लें मैं उन से स्टेशन पर ही मिल रहा हूँ। 
 मैं प्लेटफार्म पर कोई पंद्रह मिनट पहले पहुँच गया था, वहाँ एक और ट्रेन खड़ी थी। अगले पाँच मिनट में वह चल दी। फिर कोच के लिए डिस्प्ले आने लगा तो मैं वांछित कोच के स्थान पर बैंच पर जा बैठा। कोई दस मिनट बाद प्रतीक्षित ट्रेन भी आ गई। हाशमी जी कोच के दरवाजे पर ही थे। ट्रेन रुकते ही उतरे और सीधे गले आ लगे। जैसे हम बचपन या किशोरावस्था के बहुत गहरे मित्र हों और बरसों बाद मिल रहे हों। उन्हों ने एक पोली-बैग मेरी तरफ बढ़ाया और बोले -बस रतलाम की सौगात है। मैं भी ऐसे ही एक छोटे बैग में कुछ सौगात लिए था । हमने बैग बदल लिये। पीछे से उन की पौत्री उतरी, यही कोई बाईस से पच्चीस के बीच की रही होगी। उस ने तुरंत हाथ बढ़ाया, मैं ने गौर से उस के चेहरे की ओर देखा। आँखें कह रही थीं -हैलो अंकल! शेक हैंड। मेरा हाथ तुरंत बढ़ गया। इतनी देर में जेब से कैमरा निकाल कर वे मेरा एक चित्र ले चुके थे। मैं लड़की से बात करने लगा। वे बड़ी तेजी से कोई पचास फुट दूर तक गए। लगा जैसे उन की उम्र 62 नहीं 20-22 हो। मैं चौंका, ऐसा क्या हुआ कि वे इतनी इतनी तेजी से दूर गए। उन की ओर देखा तो वे दूर से एक चित्र ले रहे थे। वे फिर पास आए तो मैं ने भी अपने मोबाइल से उन का चित्र लिया।
मारे पास केवल दस मिनट थे जिस में से तीन समाप्त हो चुके थे। इतने में उन की पौत्री ने बोला- वो लड़का डिब्बे में अपना बैग छोड़ कर भाग गया। अब हम दोनों के चौंकने की बारी थी।  बिटिया कह रही थी कि वह सुबह किसी स्टेशन से चढ़ा था और पास वाले से अजीब सी बातें कर रहा था। हाशमी जी ने बोला स्टाल पर कुछ लेने गया होगा। मैं ने कहा -बिटिया की सजगता को हलके से न लेना चाहिए। बिटिया ने कोच में चढ़ कर उस का बैग बताया। रंग में काला बैग पुराना था। मुझे उस में संदेहास्पद कुछ न लगा। हम फिर बातें करने लगे। उन्हें सवाई माधोपुर हो कर श्योपुर जाना था। मैं ने बोला वह तो मध्य प्रदेश में है, अब अलग जिला है पहले मुरैना जिले में हुआ करता था। हाशमी जी की प्रतिक्रिया थी -यानी हम मध्यप्रदेश से चल कर वापस वहीं पहुँच जाएंगे?
फिर रतलाम की बात चली। वे बताने लगे वहाँ मेडीकल स्टोर ठीक चल रहा है। पर मैं ने कुछ कृषि भूमि खरीद ली है और खेती करने का आनंद ले रहा हूँ।  उन्हों ने कैमरे में अपने परिजनों और खेत में गेहूँ की फसल के चित्र दिखाए। मैं न कवि अलीक के बारे में जानना चाहा तो उन्हों ने बताया कि उन का कविता संग्रह छप कर तैयार है बस विमोचन का तय नहीं हो पा रहा है। मैं ने उन से वादा किया कि विमोचन में शिवराम या महेन्द्र नेह अवश्य आएंगे और मैं भी उन के साथ चला आउंगा। वे कहने लगे -मैं ने कोटा आने का काम पूरा कर दिया है, अब आप की बारी है। गाड़ी अब चलने का संकेत दे रही थी। भागा हुआ लड़का दौड़ते हुए वापस आया और अपना बैग ले कर कोच के दूसरे हिस्से में चला गया। उसे वापस आया देख कर हमें संतोष हुआ, सब से अधिक हाशमी जी की पौत्री की चिंता खत्म हुई। गाड़ी चलने लगी तो हाशमी जी ने गाड़ी में चढ़ कर विदा ली।
हाशमी जी से परिचय इसी आभासी दुनिया में हुआ। उन के तीन ब्लॉग हैं आत्म-मंथन, अदब नवाज, और चौथा बंदर। मुझे उन के लेखन में अक्सर उन की जवानी के दिनों का जो उल्लेख होता है उस में और मेरी किशोरावस्था में बहुत समानता प्रतीत हुई। शायद उस जमाने की मेरी और उन की पसंद एक जैसी थी। उन के लेखन में वही जवानी वाली शरारतें अब भी हैं। जो उन्हें मेरी पसंदीदा बनाती हैं।  आज एक आभासी संबंध वास्तविकता में बदला। आप भी महसूस कर रहे होंगे कि आभासी संबंध जब वास्तविक होता है तो कितनी खुशी देता है।

11 टिप्‍पणियां:

  1. ये बढ़िया मुलाकात हो गई हाशमी साहब से. पार्सल में रतलामी सेव तो रही ही होगी..और क्या क्या निकला?? :)

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  2. अहा..हा, बड़ी अच्छी मुलाकात कर वायी,
    सर्वप्रथम तो ’ चौथे बँदर ’ से मिल आया । दिलचस्प तौर तरीकों के लगते हैं, ज़नाब हाशमी साहब !

    समीर भाई की यह बड़ी खराब बात है कि, खाने-पीने की चीजों की गँध लगते ही टोह लेने लग जाते हैं ।

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  3. आभासी सम्बन्ध जब वास्तविक होता है तो सचमुच बहुत खुशी होती है । इस तरह की खुशी के कुछ अवसर हम सभी लोगो को धीरे धीरे प्राप्त हो रहे हैं । यह परम्परा जारी रहे यह कामना । हाशमी साहब से मुलाकात का यह जीवंत वर्णन बहुत अच्छा लगा । हमारी भी शुभकामनायें ।

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  4. Blogging jis tarah se desh ke vibhinn hisson me rahne wale ajnabi logon se jan-pahichan badhane aur dilon ko milane ka sadhan ban raha hai usse lagta hai ki bahut jaldi buland bharat ka sapna poora hoga.. Hashmi ji vastav me ek sammaneeya vyaktitva aur sanjeeda insaan hain. aapka aabhar unki photo aur unse judee baten sunane ke liye..
    Jai Hind...

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  5. Udan ji aur Dr.Amar ji aap ne bilkul sahi kaha.Sarad ji aur Dipak ji aap ke vichaar buland bharat sahi hai..jai hind

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  6. द्विवेदी सर,
    हाशमी जी जैसे नेक इनसान से मुलाकात कराने के लिए आभार...

    डॉ अमर कुमार,
    क्यों नज़र लगाते हैं हमारे समीर जी के शौक पर...वो ताऊ ने पहले ही समीर जी की ज़ीरो फिगर बनाने की ठान रखी है...


    जय हिंद...

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  7. बहुत अच्छी लगी ।
    पहले लिखा था - बड़ा अच्छा लगा।
    ..देखिए कितना फर्क है !
    पहली पंक्ति पोस्ट को इंगित करती है तो मिटाई गई पंक्ति तब जमती जब मैं साक्षी होता या इस भेंट का पात्र होता और मिलने वाले से उसे कहता। बोलचाल की भाषा कभी कभी लिखे से कितना अलग अनुभव दे जाती है !

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  8. एक सुखानुभूति कि आभास नें एक जिस्म की शक्ल ली !

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  9. पत्र-मित्र जैसी मधुर स्थितियां जो समाप्त हो चुकी थीं उन्हें ब्लॉग ने फिर से जीवित किया है. हम तो पत्र-मित्र के कारण मिलते रहने वाली इस तरह की ख़ुशी को महसूस कर सकते हैं.

    जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड

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  10. धन्यवाद, दिनेश राय जी,
    इज्ज़त अफजाई के लिए शुक्रिया. आपकी लेखनी व् आपकी दास्ताने ज़िन्दगी [बकालम ख़ुद -शब्दों का सफ़र में पढ़ कर आपकी प्रतिभा का कायल तो अरसे से रहा हूँ, कल रु-ब-रु मिलना एक यादगार मौक़ा बन गया. 'फ़य्याज़ Taandvi' का ये क़ता आपकी शख्सियत की तर्जुमानी करता है.
    नाज़िशे हुस्ने आदमिय्यत है,
    काबिले एहतराम-ओ इज्ज़त है.
    जिसको हासिल हुआ शुउरे हयात,
    उसका जीना भी एक इबादत है,

    वर्णन करने की आपकी आकर्षक शैली ने उस छोटी सी मुलाक़ात को जीवंत बना दिया, और 'कोटे की कचौरी' ने कोठे को चक्चार कर दिया. अब आपकी बारी है रतलाम तशरीफ़ लाने की!

    -मंसूर अली हाश्मी.
    --

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  11. शहर से गुजरते हुए प्लेटफोर्म पर भी मुलाकात हो सकती है ! फिर किस बात का आभासी परिचय. बस कहने मात्र को ही तो आभासी से वास्तविक करना था.

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कैसा लगा आलेख? अच्छा या बुरा? मन को प्रफुल्लता मिली या आया क्रोध?
कुछ नया मिला या वही पुराना घिसा पिटा राग? कुछ तो किया होगा महसूस?
जो भी हो, जरा यहाँ टिपिया दीजिए.....