मेरे यहाँ कोटा में वकीलों की चार माह तक चली हड़ताल समाप्त हुए डेढ़ माह से ऊपर हो चला है। अदालतें अब पूरी शक्ति से काम करने लगी हैं। अपने निर्धारित कोटे से दुगना और कोई कोई तो उस से भी अधिक काम कर रही हैं। बहुत दिनों के बाद मुझे लग कर काम करना पड़ा है। दो मुकदमों में सोमवार को और दो में मंगलवार को बहस हो गई और उन में अन्तिम निर्णय के लिए तारीखें निश्चित हो गईँ। फिर भी सब वकीलों के पास काम इतना नहीं है और जो काम कर रहे हैं वे भी वर्तमान स्थिति से संतुष्ट नहीं हैं। मैं उस के कारणों में जाना चाहता हूँ।
कोटा में पंजीकृत वकीलों की संख्या 1700 के लगभग है जिन में से कोई 900 वकील नियमित रूप से वकालत के पेशे में हैं यहाँ अदालतों की संख्या 45 से अधिक है। एक मुकदमे में समस्त सुनवाई करने के उपरांत निर्णय करने के लिए अदालत के पीठासीन अधिकारी को दो दिन का समय मिलता है। यदि अदालतें एक दिन में दो निर्णय करती हैं तो वे निर्धारित कोटे से चार गुना काम कर रही हैं। इस से अधिक काम कर पाना तमाम तकनीकी मदद के भी असंभव है। इस गति से भी इस नगर की अदालतों में सौ से कम मुकदमों में ही निर्णय हो सकते हैं। इस तरह लगभग वकीलों की संख्या के अनुपात में केवल दस से बारह प्रतिशत मुकदमे ही निर्णीत हो सकते हैं।
उधर अदालतों में मुकदमों का अंबार लगा हुआ है जो कि कम होने का नाम नहीं ले रहा है। निश्चित रूप से बहुत से वकील फुरसत में हैं। वे काम करना चाहते हैं लेकिन काम करने के लिए अदालतें तो हों। अब वे इस फुरसत से भी खीजने लगे हैं। रोज बिना उपलब्धि के घर लौटना किसे सुहाता है। जब किसी वकील के खाते में माह में दो मुकदमों का निर्णय भी न लिखा जाए तो उस के पास किसी न्यायार्थी को खींच लाने के लिए क्या बचेगा? केवल डींग हाँकने से तो न्यायार्थी उस के पास टिकने से रहा। मैं ने तय किया था कि मैं अपने किसी कारण के कारण किसी मुकदमे में बिना कोई काम किए अदालत से तारीख बदलने के लिए नहीं कहूँगा। पर काम की अधिकता के कारण खुद अदालतें ही मुकदमों में तारीखें बदलें तो क्या किया जा सकता है। श्रम न्यायालय में जहाँ मेरे पास के लगभग एक चौथाई मुकदमे लंबित हैं। आठ-दस साल पुराने मुकदमे में अगली तारीख पांच-छह माह की होती है। न्यायार्थी माह में एक सुनवाई तो अवश्य ही चाहता है। कहता है -वकील साहब! तारीख जल्दी की लेना। मैं उसे क्या कहूँ? मैं उसे कहता हूँ जल्दी की तारीख अदालत के स्टॉक में नहीं है।
बिलकुल सही कहा काम तो सब चाहते है, लेकिन जब काम आगे ही नही बढ रहा तो... आदलते ओर जज आबादी के अनुसार होने चाहिये. धन्यवाद इस लेख के लिये
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जवाब देंहटाएंका बरसा जब कृषी सुखानी
यही कारण है कि सुदृढ़ और अपवादरहित निष्पक्ष न्यायपालिका में आस्था होने के बावज़ूद न्यायालय की शरण लेने के नाम पर हनुमान-चालीसा पढ़ने लगते हैं..
डॉक्टर-ओकील निकट नहिं आवै, महावीर जब नाम सुनावै
तुम रियायत राठौड़ को दीन्हा गैर जमानती सज्जन को कीन्हा
तुम महान सीबीआई को फ़टकारै माया मुलायम को ललकारै
बहुत सही विश्लेषण किया है आपने स्थिति का. असल मे इसी व्यस्तता की वजह से न्याय प्रणाली का अनुचित लाभ असामाजिक तत्वों द्वारा उठाया जा रहा है.
जवाब देंहटाएंरामराम.
इस पर क्या किया जाये,कैसे सुधार होगा,होगा भी कि नहीं -यह एक अनुत्तरित प्रश्न लग रहा है.
जवाब देंहटाएंआपनें एक बहुत महत्त्वपूर्ण विषय पर लेखनी उठाई है.बहुत धन्यवाद.
कम से कम इसके लिये आम नागरिक जिम्मेदार है क्या? सरकारें क्या कर रही हैं आखिर. क्या मात्र टैक्स वसूलने के लिये बैठी हैं.
जवाब देंहटाएंये तो वस्तुस्थिति है !
जवाब देंहटाएंउपाय/सुझाव क्या हैं ?
आपने बिलकुल सच कहा और लिखा।
जवाब देंहटाएंजब वकील ही इतने बेबस हैं तो आम जनता कैसा महसूस करती होगी अंदाज़ा लगाया जा सकता है। शायद सब बेबस हैं अच्छी लगी जानकारी धन्यवाद्
जवाब देंहटाएंहालात सही मे बहुत ही चिन्तनीय है और कई बार तो ऐसा होता है कि न्याय पार्थी वकील साहब के साथ अदालत जाताअ है तो न्याय लेने नही तारीख लेने जाता है
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