पेज

रविवार, 24 जनवरी 2010

बीज ही वृक्ष है।

मेरे एक मित्र हैं, अरविंद भारद्वाज, आज कल राजस्थान हाईकोर्ट की जयपुर बैंच में वकालत करते हैं। वे कोटा से हैं और कोई पन्द्रह वर्ष पहले तक कोटा में ही वकालत करते थे। कुछ वर्ष पूर्व तक वे अपने पिता जी की स्मृति में एक आयोजन प्रतिवर्ष करते थे। एक बार उन्हों ने ऐसे ही अवसर पर एक आयोजन किया और एक संगोष्ठी रखी। इस संगोष्ठी का विषय कुछ अजीब सा था। शायद "भारतीय दर्शनों में ईश्वर" या कुछ इस से मिलता जुलता। कोटा के एक धार्मिक विद्वान पं. बद्रीनारायण शास्त्री को उस पर अपना पर्चा पढ़ना था और उस के उपरांत वक्तव्य देना था। उस के बाद कुछ विद्वानों को उस पर अपने वक्तव्य देने थे।

मैं संगोष्ठी में सही समय पर पहुँच गया। पंडित बद्रीनारायण शास्त्री ने अपना पर्चा पढ़ा और उस के उपरांत वक्तव्य आरंभ कर किया। जब बात भारतीय दर्शनों की थी तो षडदर्शनों को उल्लेख स्वाभाविक था। दुनिया भर के ही नहीं भारतीय विद्वानों का बहुमत सांख्य दर्शन को अनीश्वरवादी और नास्तिक दर्शन  मानते हैं। स्वयं बादरायण और शंकराचार्य ने सांख्य की आलोचना उसे नास्तिक दर्शन कहते हुए की है। पं. बद्रीनारायण शास्त्री जी को षडदर्शनों में सब से पहले सांख्य का उल्लेख करना पड़ा, क्यों कि वह भारत का सब से प्राचीन दर्शन है। शास्त्री जी कर्मकांडी ब्राह्मण और श्रीमद्भगवद्गीता में परम श्रद्धा रखने वाले। गीताकार ने कपिल को मुनि कहते हुए कृष्ण के मुख से यह कहलवाया कि मुनियों में कपिल मैं हूँ। भागवत पुराण ने कपिल को ईश्वर का अवतार कह दिया। कपिल सांख्य के प्रवर्तक भी हैं और गीता का मुख्य आधार भी सांख्य दर्शन है।  संभवतः इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए उन्हों ने धारणा बनाई कि सांख्य दर्शन एक अनीश्वरवादी दर्शन नहीं हो सकता, स्वयं ब्रह्म का अवतार कपिल ऐसे दर्शन का प्रतिपादन बिलकुल नहीं सकते? इस धारणा के बनने के उपरांत वे संकट में पड़ गए।
खैर, शास्त्री जी का व्याख्यान केवल इस बात पर केंद्रित हो कर रह गया कि सांख्य एक ईश्वरवादी दर्शन है। अब यह तो रेत में से तेल निचोड़ने जैसा काम था।  शास्त्री जी तर्क पर तर्क देते चले गए कि ईश्वर का अस्तित्व है। उन्हों ने भरी सभा में इतने तर्क दिए कि सभा में बैठे लोगों में से अधिकांश में जो कि  लगभग सभी ईश्वर विश्वासी थे, यह संदेह पैदा हो गया कि ईश्वर का कोई अस्तित्व है भी या नहीं? सभा की समाप्ति पर श्रोताओं में यह चर्चा का विषय रहा कि आखिर पं. बद्रीनारायण शास्त्री को यह क्या हुआ जो वे ईश्वर को साबित करने पर तुल पड़े और उन के हर तर्क के बाद लग रहा था कि उन का तर्क खोखला है। ऐसा लगता था जैसे ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं और लोग जबरन उसे साबित करने पर तुले हुए हैं।

मैं ने यह संस्मरण अनायास ही नहीं आप के सामने सामने रख दिया है। इन दिनों एक लहर सी आई हुई है। जिस में तर्कों के टीले परोस कर यह समझाने की कोशिश की जाती है कि अभी तक विज्ञान भी यह साबित नहीं कर पाया है कि ईश्वर नहीं है, इस लिए मानलेना चाहिए कि ईश्वर है। कल मुझे एक मेल मिला जिस में एक लिंक था। मैं उस लिंक पर गया तो वहाँ बहुत सी सामग्री थी जो ईश्वर के होने के तर्क उपलब्ध करवा रही थी। इधर हिन्दी ब्लाग जगत में भी कुछ ब्लाग यही प्रयत्न कर रहे हैं और रोज एकाधिक पोस्टें देखने को मिल जाती है जिस में ईश्वर या अल्लाह को साबित करने का प्रयत्न किया जाता है। इस सारी सामग्री का अर्थ एक ही निकलता है कि दुनिया में कोई भी चीज किसी के बनाए नहीं बन सकती। फिर यह जगत बिना किसी के बनाए कैसे बन सकता है, उसे बनाने वाली अवश्य ही कोई शक्ति है। वही शक्ति ईश्वर है। इसलिए सब को मान लेना चाहिए कि ईश्वर है।

मैं अक्सर एक प्रश्न से जूझता हूँ कि जब बिना बनाए कोई चीज हो ही नहीं सकती तो फिर ईश्वर को भी किसी ने बनाया होगा? तब यह उत्तर मिलता है कि ईश्वर या खुदा तो स्वयंभू है, खुद-ब-खुद है। वह अजन्मा है, इस लिए मर भी नहीं सकता। वह अनंत है। लेकिन इस तर्क ने मेरे सामने यह समस्या खड़ी कर दी कि यदि हम को अंतिम सिरे पर पहुँच कर यह मानना ही है कि कोई ईश्वर या खुदा या कोई चीज है जिस का खुद-ब-खुद अस्तित्व है तो फिर हमें उस की कल्पना करने की आवश्यकता क्यों है? हम इंद्रियों से और अब उपकरणों के माध्यम से परीक्षित और अनुभव किए जाने वाले इस अनंत जगत को जो कि उर्जा, पदार्थ, आकाश और समय व्यवस्था है उसे ही स्वयंभू और खुद-ब-खुद क्यों न मान लें? अद्वैत वेदांत भी यही कहता है कि असत् का तो कोई अस्तित्व विद्यमान नहीं और सत के अस्तित्व का कहीं अभाव नहीं। (नासतो विद्यते भावः नाभावो विद्यते सत् -श्रीमद्भगवद्गीता) विशिष्ठाद्वैत भी यही कहता है कि बीज ही वृक्ष है। अर्थात् जो भी जगत का कारण था वही जगत है। संभवतः इस उक्ति में यह बात भी छुपी है कि बीज ही वृक्ष में परिवर्तित हो चुका है। इसी तरह जगत का कारण, कर्ता ही इस जगत में परिवर्तित हो चुका है। इस जगत का कण-कण उस से व्याप्त है। जगत ही अपनी समष्टि में कारण तथा कर्ता है, और  खंडित होने पर उस का अंश।

13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर ..आनंद आ गया पढ़कर -ईश्वर भी क्या कोई जबरदस्ती साबित करने की चीज है ?

    जवाब देंहटाएं
  2. यही सत्‌ तो ब्रह्म है।
    ब्रह्म सत्यम्‌ जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।

    ईश्वर की अवधारणा तो साधारण लोगों के लिए इसी सत्य के करीब तक पहुँच पाने के एक कामचलाऊ मार्ग के रूप तैयार की गयी है। इसका बोध तर्क नहीं अपितु आस्था पर आधारित है। वैसे ही जैसे पत्थर की मूर्ति को ईश्वर मानने वाले अपने मन को उसी के दर्शन से पवित्र हुआ मान लेते हैं।

    जवाब देंहटाएं
  3. ""(नासतो विद्यते भावः नाभावो विद्यते सत् -श्रीमद्भगवद्गीता) विशिष्ठाद्वैत भी यही कहता है कि बीज ही वृक्ष है। अर्थात् जो भी जगत का कारण था वही जगत है। संभवतः इस उक्ति में यह बात भी छुपी है कि बीज ही वृक्ष में परिवर्तित हो चुका है। इसी तरह जगत का कारण, कर्ता ही इस जगत में परिवर्तित हो चुका है। इस जगत का कण-कण उस से व्याप्त है। जगत ही अपनी समष्टि में कारण तथा कर्ता है, और खंडित होने पर उस का अंश।""
    आज तो आपकी लेखनी में जादू है,बेहतरीन पोस्ट,आनंद आ गया,लाजवाब.

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत खूब सर जी, लाजवाब लगा पढने के बाद ।

    जवाब देंहटाएं
  5. एक सत्य,बहुत सुंदर लेख, आप के लेख मै बहुत गहरे भाव छिपे है इस जगत के

    जवाब देंहटाएं
  6. आपके जैसे ख़याल हम सभी के मन में उमड़ते हैं. मुझे भी इस सवाल ने काफी परेशान किया है. मैं क्यों मानू की कोई इश्वर भी होता है? जब कुछ अच्छा हो तो "भगवान् का आशीर्वाद है!", और कुछ बुरा हो तो "सब तुम्हारा पाप है!". पर बहुत सोंचने के बाद एक temporary जवाब पे पहुंचा हूँ, कुछ दिनों में उसकी चर्चा अपने बक-बक पत्र परकरूंगा.

    जवाब देंहटाएं
  7. बेहतरीन आलेख. शुभकामनाएं.

    रामराम.

    जवाब देंहटाएं
  8. जो चीज साबित ना हो उसे मान लेना कि वो सच ही होगा ये जरूरी नहीं. पर ईश्वर की उपस्थिति के बारे में सरे तर्क लगाना भी तो सही नहीं है... भरोसे की चीज है तर्क से ज्यादा विश्वास की बात है.

    जवाब देंहटाएं
  9. भरोसा, आस्था वगैरह क्या तर्क से परे होते हैं भाई?
    इनका सहारा लेकर लोग बहस से निकल जाते हैं। मेरे एक दोस्त हैं वह कहते हैं यार यह तो मै मानता हूं कि इश्वर नहीं होता…पर नास्तिक होकर जीना मुश्किल है!!!

    अपन तो जी रहे हैं नास्तिक होके पिछले 20 वर्षों से…मुश्किलों की ऐसी की तैसी!

    जवाब देंहटाएं
  10. बहस के लिए बहुत अच्छा लेख है। इसी प्रसंग में एक वाकया याद आ रहा है,हिन्दी के दो विद्वान बहस करते हुए तीसरे हिन्दी विद्वान के पास समाधान हेतु पहुँचे,विवाद का विषय था "ईश्वर है या नहीं", दोनों विद्वानों के पास शानदार लाजबाव तर्क थे, तीसरे विद्वान ने कहा " ईश्वर था ,मर गया।" इस उत्तर से दोनों को संतोष मिला। बहस आनंद की सृष्टि करती है।" वादे वादे जायते तत्वबोध:।"

    जवाब देंहटाएं
  11. Meri samaz me iswar ko jaanne se pehle khud ko jaanna ati aayasak hai.Yadi mai apne sthool,sukhsham
    aur kaaran sareer ko hi nahi jaan pata to iswar ko jaanne ki baat nirrarthak si lagati hai."jin khoja tin paiaa, gahare pani paith. Paani me pada misri ka dala paani ki thaah pane laga to paani me hi vileen ho gaya.

    जवाब देंहटाएं
  12. ईश्वर है ही। वह आदमी है, पत्थर है, कागज है, पानी है, यही सब कुछ है लेकिन उसकी परिभाषा किसी ठग और चापलूस ने बना ली है या तो किसी मूर्ख ने या मानसिक रोगी ने। लेकिन कम अगर अधिक में जी लेता है तो वह महत्व का है न कि अधिक कम में जी ले उसका। यानि नास्तिकों की संख्या गिनी चुनी है वे आस्तिकों के बीच जी लेते हैं लेकिन आस्तिक नास्तिकों के बीच जीते हैं?

    जवाब देंहटाएं

कैसा लगा आलेख? अच्छा या बुरा? मन को प्रफुल्लता मिली या आया क्रोध?
कुछ नया मिला या वही पुराना घिसा पिटा राग? कुछ तो किया होगा महसूस?
जो भी हो, जरा यहाँ टिपिया दीजिए.....