शिवराम की यह कविता सारी बात खुद ही कहती है-
पढ़िए और गुनिए ......
जेब से पैसे निकालो
- शिवराम
कुछ न कुछ डालो
देखते क्या हो, जेब से पैसे निकालो !
काम का उपदेश
यहाँ खूब मिलता है
मगर जनाब कहाँ
कोई काम मिलता है
यह मेरी मेहरबानी है
कि चोरी नहीं करता
जीना हक है, मेरा
सो, मर नहीं सकता
नजरें न चुराओ
जल्दी करो, पीछा छुड़ालो ।।1।।
देखते क्या हो, जेब से पैसे निकालो !
नजरें फेर लेने से
कुछ नहीं होगा
जब तक नहीं दोगे
यह मेरी करुणा है
कि हिंसा नहीं करता
जीना हक है, मेरा
सो, मर नहीं सकता
ऐंठ न दिखाओ
जल्दी करो, मुक्ति पा लो।।2।।
देखते क्या हो, जेब से पैसे निकालो !
लाल-पीले न होइए
गुस्सा न कीजिए
बहुत क्षुब्ध हैं हम भी
यह मेरी शालीनता है
कि मैं आपा नहीं खोता
जीना हक है, मेरा
सो, मर नहीं सकता
क्रोध मत दिखाओ
जल्दी करो, और न सालो ।।3।।
दमदार रचना ।
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जवाब देंहटाएंकहीं इस कविता का सँदर्भ राजनैतिक तो नहीं ?
क्योंकि मुझे लग रहा है कि वर्ल्ड बैंक के सम्मुख भारत सरकार रिरिया रही है !
लाल-पीले न होइए
गुस्सा न कीजिए
बहुत क्षुब्ध हैं हम भी
आपा न खोइए
न जाने क्यूँ जब ऎसा लग ही गया तो क्या किया जाय ?
आदरणीय सर,
जवाब देंहटाएंशिवराम साहब की तो फ़ोटो ही अपने आपमें एक कविता है। देखिए उनकी चश्म जिस सिम्त देख रही है वो एक ऐसा नेपथ्य है जहाँ से उद्गार नाज़िल हुआ करते हैं। उनकी बहुत ही रोचक और बेहतरीन कविता पढ़वाने के लिए आपका आभार।
बहुत सुंदर कविता, चित्र तो बिलकुल सच्चे है,यहां ऎसे भिखारी मिल जाते है, क्योकि खाने ओर रहने को तो सरकार दे देती है,पीने के लिये भी तो पेसा चाहिये,
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट के लिये शिवराम जी ओर आप का धन्यवाद
दिलचस्प, संवेदनशील और खरी रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ शिवराम के नुक्कड़ नाटकों के अनुकूल। इसका प्रयोग संभवतः वे या तो कर चुके हैं और नहीं तो करना चाहिए।
शिवराम की कविता दरअसल कवि की कविता नहीं बल्कि उनके नाटकों के चरित्र उसमें बोलते हैं। ये उनके उद्गार हैं।
पैसे का है खेल यहां,
जवाब देंहटाएंइंसान की कीमत कोई नहीं,
बच के निकल जा इस बस्ती से,
करता मुहब्बत कोई नहीं...
जय हिंद....
शिवराम जी की रचना समसामयिक है.
जवाब देंहटाएंवह यह भी कह सकता था कि सालों पैसा निकालो !
जवाब देंहटाएंबेचारा कितनी शिष्टता से मांग रहा है -लाओ दे ही देते हैं कुछ !
अच्छी कविता
जवाब देंहटाएंदमदार के साथ साथ रोचक भी है जेब से पैसे निकालो
जवाब देंहटाएंएक अनूठी कविता...सशक्त दमदार
जवाब देंहटाएंडा० अमर साब की टिप्पणी भी काबिले-गौर है...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सशक्त रचना है। यह ऐसी ही है जैसे एक भक्त भगवान को धमकाता है कि पैदा किया है तो खिला भी तू।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सटीक, धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंरामराम.
हुजूर,इस कटोरे में क्या डालें,जब जेब में पैसै बची हों तभी तो निकालें।काम मिलता नहीँ मांगने की हिम्मत नही,आपने तो बयाँ कर भी दिया,पर हमें तो कहने की हिम्मत नही।।
जवाब देंहटाएंइतनी विनम्रता,
जवाब देंहटाएंइतनी भलमनसाहत,
इतना आशावाद
खलता है।
मांगना बन्द कर गोगा,
छीन कर
क्यों नहीं लेता है।
जीना हक है, मेरा
जवाब देंहटाएंसो, मर नहीं सकता
ऐंठ न दिखाओ
जल्दी करो, मुक्ति पा लो।।2।।
देखते क्या हो, जेब से पैसे निकालो !
...सुंदर कविता.
जो शरीफ हैं भीख मागेंगे जो बदमाश हैं वे तो गुंडई कर ही रहे हैं. बेरोजगारों को काम नहीं मिलेगा तो यही होगा.