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शनिवार, 9 जनवरी 2010

कुहरे में लिपटा एक सर्द दिन


ब चार माह कुछ नहीं किया तो उस का कुछ तो वजन उठाना ही होगा। बृहस्पतिवार की रात एक मुकदमा तैयार करते 12 बज गए थे, तारीख बदल गई। फिर एक और काम को सुबह के लिए छोड़ना उचित न समझा, उसे निपटाते निपटाते सवा भी बज गए। फिर अनवरत पर टिपियाते हुए पौने दो। सुबह ही हो चुकी थी। ठंड से मुकाबले के लिए जीन्स थी पैरों में, लेकिन ठंड़ी इतनी हो गई थी कि पैरों को चुभने लगी थी। सोने गया तो सोचता रहा, कैसा बेवकूफ हूँ मैं भी, दफ्तर में ब्लोअर लगा है सिर्फ बटन चालू न कर सका। होता है, कभी कभी काम में यही होता है कि पैर दर्द कर रहा हो तो भी मुद्रा बदलने की तबियत नहीं करती, प्यास लगी हो तो पानी पीने के पहले सोचते हैं कि हाथ का काम निपटा लो। खैर, दो बजे सोने गए थे तो सुबह देर से उठना ही था। पर सात बजे ही उठ लिए। पत्नी ने कॉफी के लिए हाँक लगाई, तो हमने हाँ भर दी। वहीं बेड पर कॉफी पी गई। खिड़की से बाहर झाँका, तो सड़क पार पार्क की बाउंड्री और उस से लगे पेड़ धुंधले दिखाई दे रहे थे। पीछे कोहरे का महासागर लहलहारहा था। यह दृष्य कोटा के लिए तो अद्भुत ही है , जिस के दिखाई देने का अवसर साल में कुछ ही दिन होता है। इस बार तो कई सालों के बाद देखने को मिला।
चैनलों पर सुबह सुबह रोज दिल्ली दिखाई जाती है, कोहरे में डूबी हुई। हमें बिटिया की याद आने लगती है। वह फरीदाबाद में  पहली सर्दी झेल रही है, तीन सर्दियाँ मुम्बई की देखने के बाद। मुम्बई में उसे सिर्फ एक वर्ष एक कंबल खरीदना पड़ा था जो कुछ अधिक दिन काम न आया था।  सुबह कुछ काम आ गया तो घर से निकलते वही साढ़े ग्यारह बज चुके थे। कुहरा छंटा नहीं था। लेकिन कार चालीस की गति से चलाई जा सकती थी। पहली बार सड़क के किनारे अलाव दिखाई दिए, वह भी दिन में बारह के बजने के पहले। हवा ठंडी थी और नम भी। पान की दुकान के बाहर रिक्शे वाले गत्ते जला कर हाथ पैर गरम कर रहे थे। आज उन का माल ढोने का काम अभी नहीं लगा था।
क्षार बाग तालाब के पास से निकला तो सरोवर के बीचों-बीच रोज दिखाई पड़ने वाला जगमंदिर ऐसा दिखाई दे रहा था जैसे चित्रकार ने चित्र आरंभ करने के लिए केवल आउटलाइन बनाई हो। साफ-साफ दिखाई पड़ने वाला रामपुरा का इलाका कोहरे के पीछे गायब था। कोहरे में तालाब की सतह से कुछ ऊपर ठीक साईबेरिया तक से आए हुए पर्यटक पक्षी उड़ रहे थे। शायद कोहरे ने क्षुधा पूर्ति के लिए उन्हें अपने शिकार की तलाश में जल की सतह के बिलकुल नजदीक उड़ने को बाध्य कर दिया था। कैमरा पास न होने का अफसोस हुआ। होता तो कुछ दुर्लभ चित्र अवश्य ही मिलते।

दालत पूरी तरह से ठंडी थी। लोगों ने वहाँ भी जलाऊ कचरा तलाश लिया था और अलाव बनाए हुए थे। पहुँचते ही अदालत से बुलावा आ गया। कांम में लगे तो सर्दी हवा हो गई। कोहरा छंटने लगा। फिर एक बजते-बजते धूप निकल आई। जो धूप गर्मियों में शत्रु लगती है, आज उस का महत्व पता लग रहा था। अदालत परिसर में जहाँ जहाँ धूप थी वहाँ लोग खड़े नजर आ रहे थे। कुछ थे, जो  सर्दी को कोस रहे थे। शाम चार बजे एक अदालत में एक महिला जो मजिस्ट्रेट को बयान देने आई थी, बयान देने के पहले ही अचेत हो गई। एक और महिला उसे लगभग घसीट कर बाहर लाई। महिला वहाँ भी अचेत ही दीख पड़ी। मैं कहता कि शायद सर्दी से अचेत हुई है, तभी एक ने कहा कि पुलिस वाले कह रहे हैं कि नाटक कर रही है, बयान देने से बचने के लिए।  मेरे शब्द मेरे कंठ के नीचे ही दफ्न हो गए। फिर महिला पुलिस आ गई उसे उठा कर हवालात की तरफ ले गई। 
सुबह कलेवे में मैथी के पराठे और धनिया-टमाटर की चटनी थी, चटनी में ताजा गीली लाल मिर्च का इस्तेमाल होने से चिरमिराहट बढ़ गई थी। शाम के भोजन में मकई की रोटी और बथुई की कढ़ी और जुड़ गई। लगता है इस साल सर्दी बदन में लोहा भरने का काम कर रही है। हरी पत्ती भोजन में किसी बार गैर हाजिर नहीं होती। शाम का दफ्तर चला तो फिर तारीख बदल गया। आज पैरों में जीन्स के स्थान पर पतलून है। वह भी ठंडी हो चुकी है। अनवरत के लिए यह सब कुछ टिपियाना शुरू करने के पहले मैं ब्लोअर चला देता हूँ। पर इतना ही टिपियाने तक उस ने दफ्तर को इतना गर्म कर दिया है कि उसे बंद करने को उठना ही पड़ेगा। तो, मिलते हैं कल फिर से। अंग्रेजी कलेंडर में  दस नौ जनवरी की सुबह हो चुकी है।   आज सुबह दस बजे निकलना है। अदालत परिसर में बैठने वाले कोई अस्सी टाइपिस्टों ने यूनियन बना रखी है। उस के चुनाव होंगे। सोलह की कार्यकारिणी में से पन्द्रह निर्विरोध चुने जा चुके हैं। केवल अध्यक्ष के लिए चुनाव होने हैं। यह काम क्षार बाग में होगा। उसी  सरोवर के किनारे जहाँ जग मंदिर है और जहाँ आप्रवासी पक्षी सैंकड़ों की संख्या में डेरा जमाए हुए हैं।

20 टिप्‍पणियां:

  1. "जो धूप गर्मियों में शत्रु लगती है, आज उस का महत्व पता लग रहा था"

    और गर्मियों में इसका उल्टा होगा ! इंसान का स्वभाव भी कमाल हुआ करता है !

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  2. कोहरे की छोडिये पहले बताईये क्यों ललचाया आपने
    मकई की रोटी और बथुई की कढ़ी

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  3. आपका यह आलेख पढकर हमने तो आज मेथी के पराठें बनवाने का बोल दिया है.:)

    रामराम.

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  4. कई दिनों से आज कल ऐसे ही कोहरे का रंग है..ठंड के मौसम में मेथी के पराठे वाह..क्या बात है सुबह सुबह ही मुँह में पानी आ गया..बढ़िया चर्चा कोहरे में सिमटी दिन का..

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  5. मेथी के परांठे और आलू टमाटर की चटनी...
    वाह कितना हसीं ख्वाब है...

    द्विवेदी सर लगता है परांठे आपकी कमज़ोरी है...तभी दिल्ली जब भी आते हैं परांठे वाली गली ज़रूर जाते हैं...

    अरे सर, हड़ताल खुलने के बाद आप काम निपटाने में इतने मगन हो गए है कि एक तारीख एडवांस में ही निपटाने लगे हैं...आज कैलेंडर में दस जनवरी नहीं नौ जनवरी ही हुई है...

    जय हिंद...

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  6. @खुशदीप सहगल,
    खुशदीप भाई, वकील तो खुद तारीखों के चक्कर में चकरघिन्नी रहता है। अब देखिए मई 2009 से हम 2010 की तारीखें लिख रहे है। सुबह से जो तारीखें दर्ज करने का सिलसिला चलता है। उस दिन की तारीख ही भूल जाते हैं। जब भी किसी आवेदन या दस्तावेज पर तारीख डालनी होती है हर बार पूछते हैं आज क्या तारीख है? पास में जो भी होता है बताता रहता है। अब आदत ऐसी हो गई है। रात जब तारीख डालने लगा तो बताने वाला कोई था नहीं। केलेंडर देखा तो दूर से लाल रंग में दस ही तारीख दिखाई दी, वही चेप दी। अब जा कर आपने बताया तो सही कर दिया है। शुक्रिया!

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  7. अपका रोज़नामचा बहुत अच्छा लगा। दिन भर की तफ्सील इतने विस्तार मे वाह शुभकामनायें

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  8. बढि़या...
    हमें तो दुर्लभ चित्रों का मलाल रहा...

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  9. आप की दिन चर्या बहुत पसंद आई, लेकिन जब हम मेथी के पराठें पर पहुचे तो सुबह की पहली चार बेड पर बेठा पी रहा था, साथ मै बीबी बेठी थी, मेने पुछा अरे सुखी मेठी तो पडी है ना? बीबी ने कहा नही खत्म है, लेकिन क्यो, तो मेने कहा आज मेथी के परांठे खाने का दिल करता है क्यो कि दिनेश जी ने सदियो बाद आज याद दिला दिया, ओर उसे लिस्ट मै लिख लिया कि ्भारत से आती बार लानी है.
    धन्यवार

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  10. बप्पारे, कितना कोहरा है। रेल गाड़ियां चल ही न रही। मेरे सामने यह एस.एम.एस. है कि कोहरे के चक्कर में रेल से कोयले का लदान तीन दिन के लिये कर्टेल किया जा रहा है!

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  11. "अदालत पूरी तरह से ठंडी थी।".... ठंड का असर तो होना ही था :)

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  12. सर्दी कुहासे से लिपटी हर चीज नजर आई आपके इस लेख में :)

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  13. रोजमर्रा की सीदी सादी बातें कितनी सुंदर लगती हैं जब लेखन शैली इतनी सच्ची हो ।

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  14. वाह, मुझे लगा बरसों बाद मैं भी कड़ाके की ठंड देख रही हूँ। सुन्दर चित्र खींचा है।
    घुघूती बासूती

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  15. ्खुशनसीब हैं द्विवेदी जी जो सर्दियों का मजा ले पा रहे हैं यहां तो बारहों महीने पसीने से सरोबार रहना पड़ता है।

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  16. ठंढ और व्यस्तता दोनों का विवरण पढ़ा. ठंढ तो यहाँ पड़ती ही नहीं पर कुछ दिनों पहले ही घना कोहरा देख के आया हूँ... तो फिलहाल ये नहिब कह सकता की मिस कर रहा हूँ :)

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  17. इस बार सर्दी सचमुच मे कुछ अधिक तेज ही है। इण्‍डे पानी से नहाने का अब तक का मेरा क्रम इस बार 5 जनवरी से भंग हुआ पडा है।

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कैसा लगा आलेख? अच्छा या बुरा? मन को प्रफुल्लता मिली या आया क्रोध?
कुछ नया मिला या वही पुराना घिसा पिटा राग? कुछ तो किया होगा महसूस?
जो भी हो, जरा यहाँ टिपिया दीजिए.....