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बुधवार, 13 जनवरी 2010

शून्य से नीचे के तापमान पर 39000 बेघर रात बिताने को मजबर लोगों के शहर में कंपनियों ने जानबूझ कर कपड़े नष्ट किए

मरीका का न्यूयॉर्क नगर जहाँ आज का रात्रि का तापमान शून्य से चार डिग्री सैल्सियस कम रहा है और इस शीत में नगर के लगभग 39000 लोग घरों के बिना रात बिताने को मजबूर हैं वहाँ एच एण्ड एम और वालमार्ट कंपनियों ने अपने पूरी तरह से पहने जाने योग्य लेकिन बिकने से रह गए कपड़ों को नष्ट कर दिया।


स समाचार को न्यूयॉर्क टाइम्स को छह जनवरी के अंक में एक स्नातक विद्यार्थी सिंथिया मेग्नस ने उजागर किया। उस ने कचरे के थैलों में इन कपड़ों को बरामद किया जिन्हें जानबूझ कर इस लिए पहनने के अयोग्य बनाया गया था जिस से ये किसी व्यक्ति के काम में नहीं आ सकें। दोनों कंपनियों एच एण्ड एम और वालमार्ट के प्रतिनिधियों ने न्युयॉर्क टाइम्स को बताया कि उन की कंपनियाँ बिना बिके कपड़ों को दान कर देती हैं और यह घटना उन की सामान्य नीति को प्रदर्शित नहीं करती।
लेकिन अमरीका की पार्टी फॉर सोशलिज्म एण्ड लिबरेशन की वेबसाइट पर सिल्वियो रोड्रिक्स ने कहा है कि मौजूदा मुनाफा  कमाने वाली व्यवस्था की यह आम नीति है कि वे पहनने योग्य कपड़ों को नष्ट कर देते हैं, फसलों को जला देते हैं और आवास के योग्य मकानों को गिरने के लिए छोड़ देते हैं। यह सब तब होता है जब कि लोगों के पास पर्याप्त कपड़े नहीं हैं, खाने को खाद्य पदार्थ नहीं हैं और आश्रय के लिए आवास नहीं हैं।
रोड्रिक्स का कहना है कि एक उदात्त अर्थ व्यवस्था में इन चीजों के लिए कोई स्थान नहीं है लेकिन वर्तमान पूंजीवादी अर्थव्यवस्था एक उदात्त व्यवस्था नहीं है। इस व्यवस्था में वस्तुओं का उत्पादन मुनाफे के लिए होता है और वह उत्पादकों को एक दूसरे के सामने ला खड़ा करता है। जिस से अराजकता उत्पन्न होती है और उत्पादन इतना अधिक होता है कि जिसे बेचा नहीं जा सकता। जब किसी उत्पादन में मुनाफा नहीं रह जाता है तो उत्पादन को नष्ट किया जाता है, फैक्ट्रियाँ बंद कर दी जाती हैं, निर्माण रुक जाते हैं, खुदरा दुकानों के शटर गिर जाते हैं और कर्मचारियों से उन की नौकरियाँ छिन जाती हैं।

स तरह के संकट इस व्यवस्था में आम हो चले हैं। समय के साथ पूंजीपति उत्पादन से अपने हाथ खींच लेता है और संकट को गरीब श्रमजीवी जनता के मत्थे डाल देता है। माल को केवल तभी नष्ट नहीं किया जाता जब मंदी चरमोत्कर्ष पर होती है, अपितु छोटे संकटों से उबरने के लिए कम मात्रा में उत्पादन को निरंतर नष्ट किया जाता है। रोड्रिक्स का कहना है कि इस तरह उत्पादन को नष्ट करना मौजूदा व्यवस्था का मानवता के प्रति गंभीर अपराध है। अब वह समय आ गया है जब मौजूदा मनमानी और मुनाफे के लिए उत्पादन की अमानवीय व्यवस्था का अंत होना चाहिए और इस के स्थान पर नियोजित अर्थव्यवस्था स्थापित होनी चाहिए जिस में केवल कुछ लोगों के निजि हित बहुसंख्य जनता के हितों पर राज न कर सकें। 

19 टिप्‍पणियां:

  1. द्विवेदी सर,
    खुली अर्थव्यवस्था के नाम पर मल्टीनेशनल कंपनियों को छूट देने वाली भारत सरकार को उनका मानवता विरोधी ये विकृत चेहरा नज़र नहीं आता या उसने जानबूझकर आंखों पर पट्टी बांधी हुई है...

    जय हिंद...

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  2. अरे उन कपड़ों को ब्लॉग जगत में भिजवा दिए रहते। कितने नंगे घूम रहे हैं !
    ________________

    पूँजीवादी व्यवस्था का यह 'साइड इफेक्ट' है - अनिवार्य दोष। ऐसी ही बेहूदगियों पर राज्य को लगाम लगाना होता है।

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  3. बने-बनाए कपड़ों के अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय में out of fashion व रिजेक्ट कपड़ों की खेपों को यूं जला देना/ invalidate करना आम बात है. यह कई कारणों से किया जाता है जैसे brand-sanctity के चलते, inventory pile-up से बचने के लिए, स्थान खाली करने के लिए, इनको बेचने की कीमत व समय, बेचने के काम में manpower लगाने के बजाय उत्पादन में इसके प्रयोग आदि को देखते हुए...इसी तरह के कई अन्य कारण हैं.

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  4. हमारे यहाँ शून्य से १२ डीग्री नीचे चल रहा है पिछले ४ दिन से...

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  5. मानवता को ध्यान मे रखकर ऐसा नही करना चाहिए, इन कामो पर वहां की सरकार को संज्ञान लेकर इनके लिए नीति बनानी चाहिए।

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  6. इस घटना की भी कोई संवेदन शीलता न होगी,यह भी केवल एक खबर ही बन कर रह जायेगी.

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  7. "इस तरह उत्पादन को नष्ट करना मौजूदा व्यवस्था का मानवता के प्रति गंभीर अपराध है। अब वह समय आ गया है जब मौजूदा मनमानी और मुनाफे के लिए उत्पादन की अमानवीय व्यवस्था का अंत होना चाहिए और इस के स्थान पर नियोजित अर्थव्यवस्था स्थापित होनी चाहिए जिस में केवल कुछ लोगों के निजि हित बहुसंख्य जनता के हितों पर राज न कर सकें"

    सहमत !

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  8. इस व्यवस्था के फ़ल दिखना शुरु होगये हैं और भी खतरनाक हालात होने वाले हैं. देखते जाईये.

    रामराम.

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  9. मुझे तो लगता है कि इस लोकतंत्र नाम की चिड़िया
    में ही कहीं कुछ बड़ी खामी रह गई है !

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  10. आप की बात से सहमत है, हमारे यहां कई दिनो से-१५ -२० के आस पास चल रहा है, लेकिन सरकार की नीति के अनुसार कोई भी सडक पर नही सोता, सब को रेन बसेरे मै जगह मिलती है ओर खाना मिलता है, दवामिलती है, कई कम्पनिया अपना समान फ़ेंकने के वज्ये इन्हे दान कर देती है अनामी बन कर, ओर खाने का भी यही हाल है कई बडी कम्पनियां फ़ल फ़्रुट भी जो बिकने से बच जाता है इन रेन बसेरो मै छोड जाते है( वेसे इन रेन बसेरो मै शराबी कबाबी लोग ही होते है, जिन्होने कभी काम नही किया, बस सरकार के सहारे जिंदगी बिताते है)असल मै यह गरीब नही होते काम चोर होते है

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  11. ापकी बात सही है। मगर इस मल्टीनेशनल कंपनियों की आँधी मे इन गरीबों की कौन सुनेगा। धन्यबाद और शुभकामनायें

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  12. दिनेश जी, यह इन महान कंपनियों का असली और विकृत चेहरा है। अभी मैने भी वालमार्ट पर ज़ारी एक विस्तृत रिपोर्ट डाउनलोड की है। इरादा कुछ ठोस काम करने का है।

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  13. एच एण्ड एम और वालमार्ट की यह तो जघन्य निर्ममता है!

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  14. यह निर्मम आर्थिकी मानवता का कलंक है !

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  15. रोड्रिक्स का कहना है कि इस तरह उत्पादन को नष्ट करना मौजूदा व्यवस्था का मानवता के प्रति गंभीर अपराध है।

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  16. रोड्रिक्स का कहना है कि इस तरह उत्पादन को नष्ट करना मौजूदा व्यवस्था का मानवता के प्रति गंभीर अपराध है।

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  17. आशंका है कि अमेरीका का वर्तमान कहीं हमारा भविष्‍‍य न बन जाए।

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  18. यह तो गलत है ही, इसमें कोई दो राय नहीं. पर केंद्रीकृत अर्थव्यस्था के और भी ज्यादा नुकसान हैं, माओ के शासनकाल के दौरान चीन में माओ की अदूरदर्शी नीतियों के कारण बिना अकाल के ही भुखमरी के हालात पैदा हो गए थे. स्टालिन के कार्यकाल में सोवियत संघ और उसके उपनिवेशों में करोड़ों भूख से मरे जबकि गोदाम भरे हुए थे. यानि की कोई भी व्यवस्था इंसान की नियत के आगे नहीं टिक सकती. एडम स्मिथ के मतानुसार, विकेंद्रीकृत या खुली अर्थव्यस्था 'अदृश्य हाथ' की तरह काम करती है. और यह इसीलिए संभव होता है क्योंकि बाज़ार में सूचनाओं का खुला आदान प्रदान होता है. खुद अर्थव्यस्था और समाज यह तय करता है की उसके लिए क्या सही है, उनकी मांगे और ज़रूरतें बाज़ार और अर्थ के समीकरण को सीधे प्रभावित करते हैं.

    पर केंद्रीकृत अर्थव्यस्था में करोड़ों की आबादी वाले बड़े देश को कुछ सरकारी कर्मचारी नियंत्रित करते हैं. जिनका लोगों, उपभोक्ताओं और आम इंसान की ज़रूरतों से कोई सीधा वास्ता नहीं होता. न ही उनके पास सही सूचनाएं पहुँच पाती हैं, अगर सूचनाएं किसी तरह पहुंचा भी दी जाएँ तब भी सूचनाओं के पहाड़ तले दबे कुछ सौ कर्मचारी करोडो अरबों लोगों की अर्थव्यस्था के सभी मुख्य पहलुओं को कैसे नियंत्रित करेंगे? और यह भी तब, जब आज की अर्थव्यस्था इतनी जटिल है की अगर हिमाचल के सेबों की फसल अच्छी नहीं होती, तो इसका असर दक्षिण भारत के रबर मंडियों तक पहुँचता है, ऐसे में सरकारी मशीनरी भी कुछ समझ न आने के कारण मशीन की तरह तुगलकी हो जाती है.

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