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रविवार, 27 दिसंबर 2009

मैं ने चाहा तो बस इतना

ल बल्लभगढ़ पहुँचा  था। ट्रेन में राही मासूम रज़ा का उपन्यास 'कटरा बी आर्ज़ू' को दूसरी बार पढ़ता हुआ। किताब  पढ़ना बहुत अच्छा लगा। चौंतीस-पैंतीस वर्षों  पहले की यादें ताजा हो गईं। अभी पूरा नहीं पढ़ पाया  हूँ,  पूरी  होगी तो अपनी प्रतिक्रिया भी लिखूंगा। जैसा  कि मशहूर है रज़ा साहब जहाँ पात्र की  जरूरत  होती थी यौनिक  गालियों का उपयोग करने से नहीं चूकते थे। इस उपन्यास में भी  उनका उपयोग  किया गया है, जो कतई बुरा  नहीं लगता।  कोशिश करूंगा का  एक-आध वाक़या  आप के सामने भी रखूँ। आज  दिन भर पूरी तरह आराम  किया। धूप में नींद  निकाली। शाम बाजार तक घूम कर आया। अभी लोटपोट  पर  ब्लागिंग  की दुनिया पर  नजर डाली है।  एक दो टिप्पणियाँ भी की  हैं। अधिक इसलिए नहीं कर  पाया कि यहां पालथी  पर बैठ  कर टिपियाना पड़ रहा है,जिस की आदत नहीं है। पर ऐसा ही  चलता रहा तो दो -चार दिनों में यह भी आम हो जाएगा। शिवराम जी का कविता संग्रह "माटी मुळकेगी एक  दिन" साथ है, उसी से एक कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ.....

मैं ने चाहा तो बस इतना
  • शिवराम
मैं  ने  चाहा तो  बस इतना 
कि बिछ सकूँ तो बिछ  जाउँ
सड़क की तरह 
दो बस्तियों के बीच


दुर्गम पर्वतों  के आर-पार
बन जाऊँ  कोई सुरंग


फैल जाऊँ
किसी पुल की तरह
नदियों-समंदरों की छाती  पर


मैं ने  चाहा 
बन जाऊँ पगडंडी
भयानक जंगलों  के  बीच


एक प्याऊ 
उस रास्ते पर
जिस से लौटते हैं
थके हारे कामगार


बहूँ पुरवैया  की तरह
जहाँ सुस्ता रहे हों
पसीने से तर -बतर किसान


सितारा  आसमान का 
चाँद या सूरज
कब बनना  चाहा  मैं ने
 
मैं ने चाहा बस इतना 
कि, एक जुगनू
एक चकमक
एक मशाल
एक लाठी बन जाऊँ मैं
बेसहारों का सहारा।
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13 टिप्‍पणियां:

  1. पुस्तक समीक्षा का इन्तजार रहेगा.

    पालथी मार कर बैठना तो मानो अब हम भूल ही गये हैं, पेट शायद बैठने भी न दे, :)


    शिवराम जी की रचना हमेशा की तरह बेहतरीन!!

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  2. बहुत सुंदर लगा आज का यह पालथी मार कर टिपण्णी करना, हम से तो अब दो मिंट से ज्यादा नही बेठा जाता, ओर समीक्षा का इंतजार रहे गा, मै टांगे पसार कर लेप टाप को गोद मै रख कर, ओर पीठ को दिवार के सहारे रख कर बहुत राम से ब्लांगैग की दुनिया मै जाता हुं

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  3. यात्रा पुराण बढियां है -उपसंहार की प्रतीक्षा है !

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  4. कटरा बी आर्जू कई बार पढ़ा है। राही मासूम रज़ा अपने प्रिय हिन्दी लेखक हैं। फिल्मी लेखन में भी कामयाब होने वाले बिरले खांटी हिन्दी वाले।
    शिवराम जी की कविता उम्दा है।

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  5. प्रकाशित गालियों के चलते रज़ा साहब का 'ओस की बूंद' कालेज के दिनों में इतना प्रचलित हो गया था कि एक दिन लाइब्रेरियन ने इसे पढ़कर शेल्फ़ से हटाने का फ़ैसला कर लिया था...

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  6. बहुत सुंदर वृतांत, नये साल की रामराम.

    रामराम.

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  7. राही मासूम रजा को पढना कभी-कभी खुद से रू-ब-रू होने जैसा लगता है। इसका तो आनन्‍द ही अलग है। महाविद्यालीन दिनों में हम आठ-दस मित्रों ने 'आधा गॉंव' का सामूहिक और सस्‍वर वाचन किया था। आपकी पोस्‍ट ने वह सब याद दिला दिया।
    शिवरामजी की कविता सदैव की तरह बोलती हुई।

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  8. मुझे कटरा बी आर्जू राही साहब के उपन्यासों में कमज़ोर लगता है और आधा गांव सबसे उत्कृष्ट। टोपी शुक्ला सबसे रोचक

    आप पढ के बताईयेगा

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  9. बेहतरीन कविता। रॉबर्ट फ्रास्ट की याद आई।

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  10. लोटपोट पर ब्लागिंग की दुनिया!!?

    गनीमत है पालथी अभी भी मार लेता हूँ :-)

    अगली पोस्टों का इंतज़ार

    बी एस पाबला

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  11. आपके समस्त परिवार को , नव - वर्ष की मेरी हार्दिक शुभ कामनाएं
    ये कविता अच्छी लगी , राही साहब का लेखन पहले भी पसंद था और आज भी ..
    स्नेह सहीत,
    - लावण्या

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