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मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

यौनिक गाली का अदालती मामला


विगत आलेख में मैं ने लिखा था कि "यौनिक गालियाँ समाज में इतनी गहराई से प्रचलन में क्यों हैं, इन का अर्थ और इतिहास क्या है? इसे जानने की भी कोशिश करनी चाहिए। जिस से हम यह तो पता करें कि आखिर मनुष्य ने इन्हें इतनी गहराई से क्यों अपना लिया है? क्या इन से छूटने का कोई उपाय भी है? काम गंभीर है लेकिन क्या इसे नहीं करना चाहिए? मेरा मानना है कि इस काम को होना ही चाहिए। कोई शोधकर्ता इसे अधिक सुगमता से कर सकता है। मैं अपनी ओर से इस पर कुछ कहना चाहता हूँ लेकिन यह चर्चा लंबी हो चुकी है। अगले आलेख में प्रयत्न करता हूँ। इस आशा के साथ कि लोग गंभीरता से उस पर विचार करें और उसे किसी मुकाम तक पहुँचाने की प्रयत्न करें।"
स आलेख पर पंद्रह टिप्पणियाँ अभी तक आई हैं। संतोष की बात तो यह कि उस पर अग्रज डॉ. अमर कुमार जी ने अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी की, जिन से आज कल दुआ-सलाम भी बहुत कठिनाई से होती है। वे न जाने क्यों ब्लाग जगत से नाराज हैं? इन टिप्पणियों से प्रतीत हुआ कि जो कुछ मैं ने कहा था वह इतनी साधारण बात नहीं कि उसे हलके-फुलके तौर पर निपटा दिया जाए। इस चर्चा को वास्तव में गंभीरता की आवश्यकता है। पिछले लगभग चार माह से कोटा के वकील हड़ताल पर हैं। मैं भी उन में से एक हूँ। रोज अदालत जाना आवश्यकता थी, जिस से अदालतों में लंबित मुकदमों की रक्षा की जा सके। अदालत के बाद के समय को मैं ने ब्लागरी की बदौलत पढ़ने और लिखने में बिताया। उस का नतीजा भी सामने है कि मैं "भारत में विधि के इतिहास" श्रंखला को आरंभ कर पाया। 24 दिसंबर से अवकाश आरंभ हो रहे हैं जो 2 जनवरी तक रहेंगे। इस बीच कोटा के बाहर भी जाना होगा। लेकिन यह पता न था कि मैं अचानक व्यस्त हो जाउंगा। 21 जनवरी कुछ घरेलू व्यस्तताओं में बीत गई और 22 को मुझे दो दिनों की यात्रा पर निकलना है फिर लौटते ही वापस बेटी के यहाँ जाना है। इस तरह कुछ दिन ब्लागरी से दूर रह सकता हूँ और कोई गंभीर काम कर पाना कठिन होगा।

मैं इस व्यस्तता के मध्य भी एक घटना बयान करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ जो यौनिक गालियों से संबद्ध है और समाज में इन के आदतन प्रचलन को प्रदर्शित करती है .....
टना यूँ है कि एक व्यक्ति को जो भरतपुर के एक कारखाने में काम करता था अपने अफसर को 'भैंचो' कहने के आरोप से आरोपित किया गया और घरेलू जाँच के उपरांत नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। मुकदमा चला और श्रम न्यायालय ने उस की बर्खास्तगी को सही माना कि उस ने अपने अफसर के साथ अभद्र बर्ताव किया था। मामला उच्चन्यायालय पहुँचा। संयोग से सुनवाई करने वाले जज स्वयं भी भरतपुर क्षेत्र के थे। बर्खास्त किए गए व्यक्ति की पैरवी करने वाले एक श्रंमिक नेता थे जिन की कानूनी योग्यता और श्रमिकों के क्षेत्र में उन के अनथक कार्य के कारण हाईकोर्ट ने अपने निर्णयों में 'श्रम विधि के ज्ञाता' कहा था और  जज उलझे श्रम मामलों में उन से राय करना उचित समझते थे। जब उस व्यक्ति के मामले की सुनवाई होने लगी तो श्रमिक नेता ने उन्हें कहा कि मैं इस मामले पर चैंबर में बहस करना चाहता हूँ। अदालत ने उन्हें इस की अनुमति दे दी। दोनों पक्ष जज साहब के समक्ष चैंबर में उपस्थित हुए। श्रमिक नेता ने कहा कि इस मामले में यह साबित है कि इस ने 'भैंचो' शब्द कहा है। स्वयं आरोपी भी इसे स्वीकार करता है। लेकिन वह भरतपुर का निवासी है और निम्नवर्गीय मजदूर है। भरतपुर क्षेत्र के वासियों के लिए इस शब्द का उच्चारण कर देना बहुत सहज बात है और सहबन इस शब्द का उच्चारण कर देना अभद्र नहीं माना जा सकता। इस व्यक्ति की बर्खास्तगी को रद्द कर देना चाहिए। हाँ यदि अदालत चाहे तो कोई मामूली दंड इस के लिए तजवीज कर दे।
ज साहब स्वयं भी अपने चैम्बर में होने के कारण अदालत की मर्यादा से बाहर थे। उन के मुख से अचानक निकला "भैंचो, भरतपुर में बोलते तो ऐसे ही हैं।"
इस के बाद श्रमिक नेता ने कहा कि मुझे अब कोई बहस नहीं करनी आप जो चाहे निर्णय सुना दें। आरोपी की बर्खास्तगी को रद्द कर के उसे पिछले आधे वेतन से वंचित करते हुए नौकरी पर बहाल कर दिया गया।

स घटना के उल्लेख के उपरांत मुझे भी आज आगे कुछ नहीं कहना है। कुछ दिन ब्लागीरी के मंच से अनुपस्थित रहूँगा। वापस लौटूंगा तो शायद कुछ नया ले कर। नमस्कार!

20 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी यात्रा हेतु शुभकामनाएँ

    वैसे किस्सा-ए-भरतपुर मुस्कुराहट ले आया :-)

    बी एस पाबला

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  2. द्विवेदी सर,

    कभी कभी गाली किसी बड़े लफड़े में फंसने से बचा भी लेती है...कम से कम अपने क्रिकेटर हरभजन सिंह के साथ तो यही हुआ था...पिछले साल ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर भज्जी को नस्लभेद जैसे गंभीर आरोप में फंसने से गाली ने ही बचाया था...ऑस्ट्रेलियाई खिला़ड़ी एंड्रयू सॉयमन्डस ने भज्जी पर आरोप लगाया कि उन्हें मंकी
    कह कर संबोधित किया...मामले ने तूल पकड़ लिया...बाद में भज्जी ने पैनल को बताया कि उन्होंने मंकी नहीं... मां की....कहा था... यानि मां की गाली थी...ये गाली वाला तर्क ही भज्जी को बचा गया और नस्लभेद के आरोप से उन्हें मुक्ति मिल गई...

    जय हिंद...

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  3. ये तो धाँसू पोस्ट रही साली !

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  4. सही है। वैसे सवाल यह भी है और शायद था भी कि अधिकतर गालियां ऐसी क्यों होती हैं जिनमें महिलाओं के प्रति अपमान की भावना होती है। गालियों का यह प्रारूप शायद पूरे समाज में स्त्री की स्थिति का द्योतक है। स्त्री को पुरुष के संरक्षण में मानकर उसको स्त्री से संबंधित गाली दी जाती है जिससे वह अपमानित महसूस करे कि जिसका वह संरक्षक है गाली उसके लिये संबोधित है।

    जैसा आपने बताया उसी तरह की एक जांच मैंने भी की थी। एक कर्मचारी के ऊपर आरोप था कि उसने अपने अधिकारी को गाली दी। मैंने उस शब्द का अध्ययन किया और स्थापना दी कि जो शब्द बोला गया वह बहुअर्थी और तकिया कलाम की तरह उपयोग में लाया जाने वाला शब्द है। उस शब्द को बोलने के समय की परिस्थितियों का अध्ययन करते हुये बताया कि आक्रोश को अभिव्यक्त करते समय श्रमिक ने उस शब्द का प्रयोग किया।उन परिस्थितों का कारण उसका अधिकारी था इस तरह उस श्रमिक की प्रतिक्रिया सहज थी। और श्रमिक को बरी कर दिया।

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  5. दल्लील सच मे सही थी । धन्यवाद । यात्रा के लिये शुभकामनायें

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  6. यह टिप्पणी अमर जी और द्विवेदी जी के लिए है...
    जहाँ तक मैं जानती हूँ की जब तक समाज से इन स्थितिओं को दूर न किया जी जो कुंठा को पनपने का मौका देते हैं मुश्किल है की इन चीजों को हटाया जा सकेगा ..तो क्या तब तक हम इन्हें कानूनी मान्यता देते रहेंगे (इसे वेश्यावृति , खाद्य पदार्थों में कानून बनाकर गन्दगी को सही ठहराना आदि के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाए ) ..क्या तब तक नारी अपमानित होने को अभिशापित होती रहेगी जब तक व्यवस्थागत खामिओं को दूर न किया जाएँ ..क्या हमें आप (पुरुषों )से कोई आशा नही रखनी चाहिए की आप इनका सामाजिक बहिस्कार करानेगे जिससे सामने वाले के मन में ग्लानी भाव आए?

    मनोविज्ञान में किस भी प्रकार के व्यवहार गत विचलन का कारन दबी हुई कुंठाएं मानी गई है ..पर मेरा सवाल यह है की अगर कोई उस कुंठा का शिकार होकर अपमानित अथवा किसी प्रकार का आत्मघाती कदम उठाने को प्रेरित होता है तब आपका क्या मानना है उस अपराधी को दंड नही दिया जाना चाहिए ?

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  7. एक बात और अभी उपर हमारे एक मित्र अपशब्द का प्रयोग कर गए हैं ..जबकि उन्होंने कभी हिंदी ब्लोगिंग से कचड़ा साफ करने के लिए कई सारी पोस्टें लिखी थी .. कैसे मान लिया जाए की वह सब ईमानदारी से किया गया प्रयास था?

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  8. दिनेश जी-कई बार किसी एक क्षेत्र के सामान्य बोल चाल के शब्द स्थान परिवर्तन के कारण गालियों मे बदल जाते हैं। राजस्थान हरियाणा मे कुछ सामान्य शब्द 36गढी, भोजपुरी मे बड़ी गालियों मे बदल जाते हैं। यात्रा हेतु शुभकामनाएं

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  9. लोक प्रचलन की गालियां वास्‍तव में गालियां नहीं होतीं। भले ही यह अनुचित हो किन्‍तु वे तो तकिया कलाम की तरह होती हैं।

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  10. ये गलियां आजकल वाक्य में सहायक क्रियाओं की तरह पेश की जाती हैं, बिना इनके कोई वाक्य पूरा नहीं होता. आपके भरतपुर के किस्से की तरह हमारे शहर के एक विभाग का भी किस्सा है जिसमें मामला अदालत में तो नहीं बस उनके अधिकारी के सामने तक आया था.
    वैसे गलियों के मनोविज्ञान पर शोध की जरूरत है, शायद ये विषय ही किसी को पी-एच० डी० की डिग्री दिलवा दे?

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  11. मुम्बई में ‘साला’ शब्द आम बोलचाल में प्रयोग किया जाता है जब कि अन्य क्षेत्रों में इसे गाली माना जाता है। अच्छा या बुरा शब्द शायद क्षेत्र के हिसाब से बदल जाता है। आप व्यस्त रहें मस्त रहें :)

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  12. मौखिक परम्परायें स्वीकार किये जाते समय शायद ही ऐसे अर्थ खोजे/सोचे/समझे जाते होंगे जैसा की आप और अदालतें 'आज' खोज रही होती हैं !

    हमारा व्यक्तिगत मत ये है की 'मुद्दा लम्बी चर्चा' के योग्य है !

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  13. वाकई अदभुत पोस्ट और अदभुत उदाहरण। जहाँ तक भरतपुर के लोगो द्वारा गाली निकालने का सवाल है मैंने भी कुछ समय वहाँ बिताया है और वाकई वहाँ कुछ गालिया तकिया कलाम के अलावा कुछ नहीं और इन शब्दों या गालियों का इस्तेमाल पुत्र-पिता के मध्य भी होता है इसलिए ऐसे सन्दर्भ में निश्चित ही इन्हे गाली कहना तो गलत है।

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  14. श्रीमती लवली को ऐसे प्राणी से समस्या हुई जो उनकी सालगिरह पर उन्हें गधी कहता है और वह उसे मुस्कुरा कर जवाब देती है भैया कहते हुये...
    कैसे मान लिया जाए की वह ईमानदारी से किया गया ...

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  15. श्रीमान कूप कृषण जी बात में दम है ..पर "साली" का अर्थ आपको समझाना न पड़ेगा, ऐसा मुझे लगता है ...और मैंने जानवरों के नाम को इस्तेमाल करने के लिए टाइटल खेंचू पोस्टें लिख कर पुरे ब्लॉग जगत का ध्यान अपनी और खीचने जैसा कार्य नही किया है ..है न ?
    वह भी तब जब मुझे खुद उस कार्य को करने में समस्या न हुई हो, पर किसी और ने कर दिया तब हमे इतना कष्ट हो गया की एक नही दो -चार पोस्टें लिख बैठे. क्या ख्याल है ?

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  16. *टाइटल खेंचू पोस्टें = पाठक खेंचुं पोस्ट टाइटिल

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कैसा लगा आलेख? अच्छा या बुरा? मन को प्रफुल्लता मिली या आया क्रोध?
कुछ नया मिला या वही पुराना घिसा पिटा राग? कुछ तो किया होगा महसूस?
जो भी हो, जरा यहाँ टिपिया दीजिए.....