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शनिवार, 28 नवंबर 2009

वादा पूरा न होने तक प्रमुख की कुर्सी पर नहीं बैठेगी ममता

यात्रा की बात बीच में अधूरी छोड़ इधर राजस्थान में स्थानीय निकायों के चुनाव परिणाम की बात करते हैं। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बहुमत से कुछ स्थान कम मिले थे। लेकिन उस कमी को पूरा  कर लिया गया। राजस्थान में कांग्रेस के बाद दूसरी ताकत भाजपा है, लेकिन उस में शीर्ष स्तर से ले कर तृणमूल स्तर तक घमासान छिड़ा है। नतीजा यह हुआ कि लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने बढ़त बना ली। अब राजस्थान के आधे स्थानीय निकायों के चुनाव हुए हैं और जो परिणाम  आए हैं उन से कांग्रेस को बल्लियों उछलने का मौका लग गया है। कोटा में पिछले 15 वर्षों से भाजपा का नगर निगम पर एक छत्र कब्जा था। भाजपा चाहती तो इस 15 वर्षों के काल में नगर को एक शानदार उल्लेखनीय नगर में परिवर्तित कर सकती थी। लेकिन नगर निगम में बैठे महापौरों और पार्षदों ने अपने और अपने आकाओं के हितों को साधने के अतिरिक्त कुछ नहीं किया।

स चुनाव की खास बात यह थी कि आधे स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित थे। लेकिन कोटा के मामले में कुछ ऐसा हुआ कि 60 में से 29 महिलाओं के लिए आरक्षित हो सके और 31 पुरुषों के पास रह गए। महापौर का स्थान महिला के लिए आरक्षित था। चुनाव जीतने की पहला नियम होता है कि आप पार्टी का उम्मीदवार ऐसा चुनें जिस से घरेलू घमासान पर रोक लगे। इस बार कांग्रेस ने यहीं बाजी मार ली। वह नगर की एक प्रमुख गैर राजनैतिक महिला चिकित्सक को महापौर का चुनाव लड़ने के लिए मैदान में लाई जिस पर किसी को असहमति  नहीं हो सकती थी। अधिक से अधिक यह हो सकता था कि जिन नेताओं के मन में लड्डू फूट रहे होंगे वे रुक गए। उम्मीदवार उत्तम थी, जनता को भी पसंद आ गई।


भाजपा यह काम नहीं कर पाई। उस ने एक पुरानी कार्यकर्ता को मैदान में उतारा तो पार्टी के आधे दिग्गज घर बैठ गए चुनाव मैदान में प्रचार के लिए नहीं निकले। वैसे निकल भी लेते तो परिणाम पर अधिक प्रभाव नहीं डाल सकते थे। कांग्रेस की डॉ. रत्ना जैन  321 कम पचास हजार मतों से जीत गई। पार्षदों के मामले में भी यही हुआ। भाजपाइयों ने आपस में तलवारें भांजने का शानदार प्रदर्शन किया और 60 में से 9 पार्षद जिता लाए, कांग्रेस ने 43 स्थानों पर कब्जा किया बाकी स्थान निर्दलियों के लिए खेत रहे। जीते हुए पार्षदों में एक सामान्य स्थान से महिला ने चुनाव लड़ा और जीत गई। इस तरह 30-30 महिला पुरुष पार्षद हो गए। अब निगम में महापौर सहित 31 महिलाएँ और 30 पुरुष हैं। कहते हैं महिलाओं घर संभालने में महारत हासिल होती है। देखते हैं ये महिलाएँ किस तरह अगले पाँच बरस तक अपने नगर-घऱ को संभालती हैं।

कोटा, जयपुर, जोधपुर और बीकानेर चार नगर निगमों के चुनाव हुए।  चारों में मेयर का पद कांग्रेस ने हथिया लिया है। यह दूसरी बात है कि जयपुर में भाजपा के 46 पार्षद कांग्रेस के 26 पार्षदों के मुकाबले जीत कर आए हैं। एक वर्ष बाद मेयर के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव लाने का अधिकार है। देखते हैं साल भर बाद जयपुर की मेयर किस तरह अपना पद बचा सकेगी। यदि अविश्वास प्रस्ताव पारित होता है तो चुनाव तो फिर से जनता ने सीधे मत डाल कर करना है, वह क्या करती है।  कुल 46 निकायों में 29 में कांग्रेस, 10 में भाजपा, 6 में  निर्दलीय और एक में बसपा के प्रमुखों ने कब्जा किया है। भाजपा को मिली तगड़ी हार के बाद भी प्रदेश अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी का कहना है कि परिणाम निराशाजनक नहीं हैं। जहाँ कांग्रेस के 716 पार्षद विजयी हुए वहीं भाजपा ने भी अपने 584 पार्षद इन निकायों में पहुँचा दिए हैं। इन निकायों ने एक दार्शनिक का यह कथन एक बार फिर साबित किया कि जब दो फौजे युद्ध करती हैं तो हर फौज के सिपाही आपस में मार-काट करते हैं नतीजा यह होता है कि जिस फौज के सिपाही आपस में कम मारकाट करते हैं वही विजयी होती है।



ब से चौंकाने वाला परिणाम चित्तौड़गढ़ जिले की रावतभाटा नगर पालिका से आया है। जहाँ कांग्रेस और भाजपा के प्रत्याशी पालिका प्रमुख के चुनाव में अपनी लुटिया डुबो बैठे। यहाँ की जनता ने पालिका प्रमुख के पद के लिए एक किन्नर ममता को चुना है।  रावतभाटा नगर में सब से बड़ी समस्या यह है कि यहाँ भूमि स्थानांतरण पर बरसों से रोक है। किसी भी भूमि के क्रयविक्रय का पंजीयन नहीं हो पाता है। यह बात नगर आयोजना और विकास में बाधा बनी हुई है। ममता ने शपथ लेते ही घोषणा कर दी है कि जब तक भूमि स्थानांतरण पर से रोक नहीं हटती वह मेयर की कुर्सी पर नहीं बैठेगी, अलग से कुर्सी लगा कर या स्टूल पर बैठ कर अपना काम निपटाएगी।

13 टिप्‍पणियां:

  1. ममता ह्ठयोग पर उतर आई है शायद सकारात्मक परिणाम ही निकले, नही तो कुर्सी के लिए तो...

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  2. द्विवेदी सर,
    रावतभाटा से किन्नर का जीतना सुखद है...कम से कम ये खतरा तो नहीं रहेगा कि वो भाई-भतीजावाद फैलाएगा...यहां अपनी अगली पीढ़ी के लिए कुछ जोड़ कर रखने की फिक्र करेगा...अगर देश में सिर्फ किन्नरों के ही चुनाव लड़ने की व्यवस्था कर दी जाए तो आधी से ज़्यादा समस्याएं खुद ही हल हो जाएंगी...

    जय हिंद...

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  3. हा हा हा खुशदीप ने यहाँ भी स्लागओवर छोड दिया बात सही भी है शुभकामनायें

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  4. ( हालात पर किसी का शेर है पैबंद लगा कर पेश है ):-
    जमीं खा गई आसमां कैसे कैसे
    जनता नें मारे जवां कैसे कैसे !

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  5. ‘ कहते हैं महिलाओं घर संभालने में महारत हासिल होती है। देखते हैं ये महिलाएँ किस तरह अगले पाँच बरस तक अपने नगर-घऱ को संभालती हैं।’

    महिलाएं अब भी घर संभालेंगी और उनके पति नगर निगम। सर जी, अगर यह झूठ हुआ तो एक साल बात एक चर्चा ठेल देना :)

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  6. बहुत अच्छा विश्लेषण। जानकारी देने का धन्यवाद।

    खुशदीप जी से कहना चाहूंगा कि किन्नर को जिताने का अर्थ जनता द्वारा उसकी योग्यता का चुनाव नहीं है बल्कि यह फैसला आजकल के सभी राजनेताओं के प्रति तिरस्कार की भावना ज्यादा प्रबल होने को प्रतिबिम्बित करता है।

    पिछली बार पूर्वी उत्तरप्रदेश के गोरखपुर नगर निगम में भी एक किन्नर का चुनाव मेयर पद के लिए हो गया था लेकिन एक साल के भीतर ही जनता अपने फैसले पर पछताने लगी।

    अनपढ़ और भोले मेयर को बेवकूफ़ बनाकर अपनी झोली भरने वाले अधिकारियों और ठेकेदारों ने नगर निगम को जमकर लूटा। उसे तो लालबत्ती लगी एम्बेस्डर और नौकरों चाकरों वाले बंगले ने ही चमत्कृत कर दिया था। माफ़िया ठेकेदारों ने उसके लिए शहर में दो कमरे का एक छोटा सा मकान बनवाकर उससे करोड़ों के ठेके ऐंठ लिए और काम का स्तर रसातल में पहुँच गया।

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  7. बहुत बढिया विष्लेषण किया है आपने.

    रामराम.

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  8. @सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
    यह सही है कि किन्नर को गोरखपुर नगरनिगम का मेयर चुन लेना राजनैतिक दलों की असफलता का द्योतक है और यहाँ रावतभाटा के लिए भी यह सही है। लेकिन गोरखपुर के किन्नर की असफलता को उस की लैंगिक विकलांगता से जोड़ा जाना ठीक नहीं। अनेक पुरुष और महिलाएँ दलों के अच्छे नेता होते हुए भी असफल सिद्ध हुए हैं। वह भी उन्हीं की तरह असफल हो गया।
    रावतभाटा में यह किन्नर निर्दलीय होते हुए भी अकेला नहीं है। राजस्थान के एक प्रमुख आईएएस अधिकारी आर.एस.गठाला ने पिछली भाजपा सरकार के घोटालों को उजागर किया था। बाद में बदले की भावना से उन्हें आरोप पत्र दिया। उन्हों ने पद से त्याग पत्र दे कर सामाजिक कामों को करना उचित समझा। जाँच के बाद उन के विरुद्ध कोई भी आरोप साबित नहीं पाया गया। वे आर. एस. गठाला यहाँ ममता के साथ और पीछे हैं। किन्नर को एक नगर का प्रधान बनाना एक नया प्रयोग हो सकता है। जनता का काम करने का उत्साह और उचित मार्गदर्शन मिले तो यह प्रयोग सफल भी सिद्ध हो सकता है।

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  9. किन्नर भी तो हमी लोगो के है, अच्छा है हमारे अपने लोग तो है, फ़िर यह भी एक शरीरिक कमी है, वेसे भी हमारे यह सभी नेता चाहे किसी भी पार्टी के हो, किन्नरो से कम तो नही

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  10. आज के इन ठग्गुओं से बेहतर ही निकलेंगे किन्नर...शर्त रही

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  11. अच्छी नौटकीं है चुनाव भी किन्नरा भी।

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  12. यह आरक्षण अनेक बार अच्छे उमीदवारो को सामने लाता है और कई बार इसके कारन अच्छे लोग आने से वंचित रह जाते है । इसकी माया राम जाने । ममता तो ममता है ।

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कैसा लगा आलेख? अच्छा या बुरा? मन को प्रफुल्लता मिली या आया क्रोध?
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