बेटा वैभव की एमसीए पूरी हुए चार माह हो चुके हैं उस का कैंपस चयन हुआ था। लेकिन प्लेसमेंट के लिए पहले कॉलेज वाले अक्टूबर का समय दे रहे थे। जब अक्टूबर नजदीक आने लगा तो उन्हों ने जनवरी-फऱवरी का समय दे दिया। उस के लिए बैठा रहना कठिन हो गया। अनेक लोगों ने सलाह दी कि उसे बंगलूरु जाना चाहिए। वहाँ उसे इस से पहले भी नियोजन मिल सकता है। आखिर उस ने रेल में आरक्षण करवा लिया। उस की गाड़ी 2 नवम्बर को 22:50 पर थी। लेकिन जयपुर में इंडियन ऑयल कारपोरेशन के डिपो में लगी आग ने जयपुर-कोटा मार्ग को बाधित कर दिया। हमने जानकारी की तो पता चला कि गाड़ी अजमेर-चित्तौड़गढ़ होते हुए 3 नवम्बर को एक बजे कोटा पहुँचेगी। हमें अनुमान था कि गाड़ी में और देरी हो सकती है। इस कारण नेट पर जानकारी लेनी चाही तो वहाँ केवल यह जानकारी उपलब्ध थी कि गाड़ी को जयपुर-कोटा के बीच दूसरे मार्ग पर डाल दिया गया है। टेलीफोन कोई उठा नहीं रहा था। आखिर मैं और पत्नी शोभा रात्रि सवा बारह घर से निकल लिए और करीब पौन बजे स्टेशन पहुँचे। कार पार्क कर के जैसे ही प्लेटफॉर्म टिकट लेने पहुँचे तो पता लगा गाड़ी तीन बजे आने की संभावना है।
हम असमंजस में थे कि दो घंटा यहाँ प्रतीक्षा की जाए या 12 किलोमीटर वापस घर जाया जाए? फिर वहीं प्लेटफॉर्म पर प्रतीक्षा करना उचित समझा। प्लेटफार्म पर बहुत सी सवारियाँ गाड़ी के इंतजार में थीं। हम ने भी एक बैंच खाली देख कर वहाँ अपना अड्डा़ जमाया। यह स्थान प्लेटफार्म के एक कोने में था और चारों ओर से खुला था। वहीं एक महिला भी इसी गाड़ी की प्रतीक्षा में थी। वह झारखंड से आयी थी यहाँ कोचिंग ले रही अपनी बेटी से मिल कर बंगलूरु जा रही थी। उसे छोड़ने के लिए तीन लड़के आए थे जो उस की बेटी के सहपाठी थे। कुछ ही देर में हमारे लिए सर्दी बढ़ गई हवा चलती तो लगता आज जरूर बीमार हो लेंगे। सब लोग सर्दी का कुछ न कुछ इंतजाम किए थे। मैं सफारी में और शोभा साधारण साड़ी ब्लाउज में चले आए थे, वैभव भी केवल टी-शर्ट पहने था। कोटा में दो तरह के इलाके हैं, तालाब के दक्षिण में मौसम गर्म होता है और उत्तर में कम से कम तीन चार डिग्री ठंडा। हमारे निवास पर ठंड़ी बिलकुल नहीं थी। यहाँ हवा हलकी सी भी चलती तो कंपकंपी छूटने लगती। अधिक चली तो वैभव को तो उस के बैग में से जरकिन निकलवा कर पहनवा दी, हालांकि वह मना करता रहा था। मुझे सर्दी का इलाज यही नजर आया कि बैंच पर बैठने के बजाय प्लेटफार्म पर चहल कदमी करते रहा जाए।
जयपुर की ओर से आने वाली तमाम गाड़ियाँ पाँच से आठ घंटे देरी से चलना बताया जा रहा था। शेष सभी गाडियाँ समय पर थीं। यहाँ तक कि एक गाड़ी तो समय से करीब 35 मिनट पहले ही प्लेटफार्म पर आ गई और समय से पाँच मिनट पहले ही चल भी दी। हर घंटे चार-पांच गाड़ियाँ स्टेशन से छूट रही थीं। मुझे पहली बार इस बात का अहसास हुआ था कि कोटा इतना व्यस्त स्टेशन हो गया है। इस बीच पत्नी के सुझाव पर हम पिता-पुत्र ने एक बार कॉफी पी जो केवल गर्म थी वरना उसे कॉफी कहना कॉफी का अपमान होता। पत्नी कुछ परेशान दिखी पूछा तो पता लगा उसे शौच जाने की जरूरत है। स्टेशन के शौचालय पहुँचे तो वहाँ बड़े खूबसूरत रात्रि में चमकने वाले पट्ट पर अंकित था कि स्नानघर का एक रुपए में, शौचालय का 50 पैसे में और मूत्रालय का निशुल्क प्रयोग किया जा सकता था। मैं सोच में पड़ गया कि इसे 50 पैसे कैसे दूंगा। वह सिक्का तो कोटा के लिए कभी का अजनबी हो चुका है और रुपया ही इकाई हो चला है। शोभा को शौचालय का प्रयोग करना था। चौकीदार इतनी गहरी नींद में था कि उसे अच्छी तरह हिलाने पर भी वह फिर से सो गया। पत्नी निपट कर बाहर निकली तो मैं ने उसे पैसे देने के लिए जगाने लगा तो पास बैठा एक होमगार्ड ने कहा -पाँच रुपए? मैंने उसे कहा -वहाँ तो 50 पैसा लिखा है। उस ने बताया कि वह बोर्ड तो बाबा आदम के जमाने का है। मैं ने सोचा शायद तब का हो जब ज्ञानदत्त जी इस स्टेशन पर पदस्थापित रहे हों। मेरे पास पांच-दस का नोट-सिक्का न था। मैं ने सौ का नोट पकड़ाया तो होमगार्ड को लड़के को जगाना पड़ा। सौ का नोट पकड़ते ही उस की नींद तत्काल उड़ गई। उस ने टेबल की दराज में लगा ताला खोला और मुझे 95 रुपए वापस दिए। उस से पूछा कि उसे इतनी नींद कैसे आ रही है? तो बताने लगा कि वह चौबीस घंटे का नौकर है और उसे 2000 रुपए मात्र हर महिने मिलते हैं और ठेकेदार को कम से कम आठ सौ रुपए रोज की उगाही देनी होती है। इस से कम हो तो तनख्वाह में से काट लेता है। वह चौबीसों घंटे स्टेशन पर रहता है। बस दिन में दो-चार बार इस स्थान से इधर-उधऱ होता है तो स्टेशन का कोई भी कर्मी उस की जिम्मेदारी देख लेता है। वहीं कुर्सी टेबल पर ही वह नींद भी निकाल लेता है।
हम वापस बैंच पर आ गए थे। तीन बजने को ही थे कि घोषणा हुई कि ट्रेन अब पाँच बजे आएगी। हवा तेज हो चली थी, ठंड बढ़ गई थी। उसी मात्रा में रेल पर गुस्सा आने लगा था कि क्या रेल वाले गाड़ी की देरी का अनुमान लगा कर नहीं बता सकते कि वह कितनी लेट हो सकती है। कम से कम यात्री तब तक अपने ठिकानों पर तो रह सकते थे। मैं फिर प्लेटफार्म पर लेफ्ट-राइट करने लगा। दीगर गा़ड़ियाँ आती-जाती रहीं। पाँच भी बज गए लेकिन गाड़ी अब भी नदारद थी। पास की महिला कंबल में सिकुड़े बैठी थी। अब देरी उस की भी बर्दाश्त के बाहर जा रही थी। उसे छोड़ने आए लड़कों को उस ने विदा कर दिया था। उस ने बोला -भाई साहब जरा इन्क्वाइरी से तो पूछ आओ कि ट्रेन कब आएगी? आएगी भी कि नहीं?
मैं और वैभव पुल पार कर पूछताछ पर आए तो वहाँ पहले ही चार-पाँच पूछताछ करने वाले थे और जवाब देने वाले एक स्त्री और एक पुरुष। स्त्री बुरी तरह झल्लाई हुई और गुस्से में थी और तीन चार पूछताछ वालों को बेवकूफ कह रही थी। जब सब लोगों ने पूछताछ कर ली तो मैं ने अपनी गाड़ी के बारे में पूछा तो उस का जवाब था -वहाँ डिस्प्ले बोर्ड पर देखो। मैं ने उसे कहा कि वहाँ तो तीन बार समय बढ़ चुका है। मैं सिर्फ इतना जानना चाहता हूँ कि यह अब इतना ही रहेगा या और दो चार-बार आगे बढ़ाया जाएगा? इस सवाल पर महिला और झल्ला गई बोली -जयपुर में पाँच दिन से आग लगी है वह तो बुझाई नहीं जा रही है। हम से गाड़ियों के बारे में पूछते हैं। आएगी तभी आएगी। मैंने उसे इतना ही कहा कि रेलवे को इधर से निकलने वाली गाड़ियों के बारे में सब पता है। वे इतना तो अनुमान कर ही सकते हैं कि कौन सी गाड़ी निकलने में कितना समय लेगी? वही बता दें। उस में घंटा आध घंटा देरी हो जाए तो कोई बात नहीं। वह फिर बोल उठी -हमारे पास जो सूचना आती है वह बता देते हैं। आप उद्घोषणा पर ध्यान रखिए। उस से अधिक कुछ पूछना ठीक न था। उसे कुछ भी अनुमान न था। मैं ने डिस्प्ले बोर्ड पर निगाह दौड़ाई तो वहाँ हमारी गाड़ी पौने छह बजे आने की संभावना रोशन हो रही थी।
मैं ने वापस आ कर उस महिला को बताया कि वहाँ पौने छह के लिए लिखा है, पर यह केवल संभावना है। साढ़े पाँच बजे अचानक गाड़ी के कोच दर्शाने वाले बोर्डों पर हमारी गाड़ी का नंबर दिखा तो हम आशान्वित हो उठे कि अब गाड़ी पोने छह नहीं तो छह तक तो आ ही लेगी। हमने बैंच त्याग दी और जहाँ हमारा डिब्बा दिखाया जा रहा था वहाँ आ खड़े हुए। छह बजे तक कोच स्थिति दिखाई जाती रही। फिर बोर्ड बुझ गए। कुछ देर बाद गाड़ी आती दिखाई दी तो हम बिलकुल तन कर खड़े हो गए। पास आने पर पता लगा वह कोई अन्य पैसेंजर गाड़ी थी। वह आधे घंटे खड़ी रह कर चल दी। फिर पौने सात बजे फिर कोच स्थिति दिखने लगी। राम-राम करते गाड़ी पौने सात प्लेटफार्म पर लगी। वैभव को बैठाया। गाड़ी ने सात बीस पर स्टेशन छोड़ा तो हम ने वापस घर की तरफ प्रस्थान किया। तब तक सूरज बहुत ऊपर आ चुका था। ठंड से पैर और पीठ अकड़ चुकी थी। प्लेटफार्म पर टहलने के कारण पिंडलियाँ बुरी तरह दर्द कर रही थीं। शोभा से पूछा तो उस का भी यही हाल था। मैं ने उसे बताया कि घर पहुँचते ही अदरक वाली गर्म कॉफी पिएंगे उस के बाद एकोनाइट-200 की एक-एक खुराक खा कर सोएँगे। घर पहुँचने पर यह सब किया, फिर गृहणी तो घर संभालने में लगी। मैं ने दिन के काम की रूप रेखा देखी और पीछे के कमरे में कंबल ओढ़ कर सो गया। मुश्किल से दो घंटे सोया उस में भी चार बार फोन घनघनाहट ने व्यवधान किया लेकिन हमने उस की उपेक्षा की। अभी भी लग रहा है कि हम दोनों को सामान्य होने में एक-दो दिन लगेंगे। रात साढे़ ग्यारह पर वैभव ने फोन पर बताया कि गाड़ी दो घंटे और पीछे हो गई है और नागपुर के पहले किसी छोटे अनजान स्टेशन पर खड़ी है।
दिनेशजी,
जवाब देंहटाएंहमको २००२-०४ के दिन याद आ गये जब मथुरा स्टेशन से कर्नाटक एक्सप्रेस से बंगलौर जाया करते थे। एक बार दिसमबर में ट्रेन १.५ घंटा लेट थी तो हम वेटिंग रूम में बैठे बैठे किताब पढने लगे। समय का अंदाजा नहीं लगा और खिडकी से बाहर देखा तो नीले डिब्बों वाली कर्नाटक एक्सप्रेस चली जा रही थी।
तुरन्त ट्रेन की तरफ़ भागे। ट्रेन के दरवाजे बन्द थे और अटैची पकडे चलती ट्रेन का दरवाजा खोल कर चढना मुश्किल था। हमसे पीछे कुछ कुली खडे थे और उन्होनें हमारी मुश्किल समझी और पीछे के डिब्बों के दरवाजे खोलना शुरू कर दिया। जब खुला दरवाजा हमारे सामने से गुजरा तो जैसे तैसे उसमें चढ पाये।
स्टेशन पर सर्दी कुछ अधिक भी लगती है।
द्विवेदी सर,
जवाब देंहटाएंसबसे पहले तो वैभव को शुभकामना कि वो अर्जुन की तरह अपना लक्ष्य भेदने में सफल रहे...
रही बात स्टेशन पर ट्रेन के इंतज़ार की तो ये कितना भागीरथ काम होता है, इसका आपके अनुभव ने सटीक चित्रण किया है...न छोड़ते बनता है और न ही पकड़ते...बस कोसा ही जा सकता है कभी रेलवे को और कभी वक्त को...वैसे ये गाना भी बड़ा फिट बैठता है...
इंतेहा हो गई इंतजार की...
आई न कुछ खबर मेरे यार(ट्रेन) की...
है हमे ये पता, बेवफ़ा वो नहीं...
फिर क्या वजह हुई इंतज़ार की...
जय हिंद...
खीज उठता है मन....बड़ा सजीव चित्रण किया स्टेशन पर बीते समय का. आशा है वैभव कुशल मंगल से पहुँच रहे होंगे.
जवाब देंहटाएंपच्चीस साल पुराना समय याद आता है जब भाप वाले इंजन चला करते थे और गाड़ियों के चलने-रुकने का कुछ भरोसा नहीं था.
जवाब देंहटाएंएक बार पिताजी ने नर्मदा एक्सप्रेस को समय पर आया देखकर ख़ुशी में कहा - "वाह, ये गाड़ी तो आज ठीक समय पर आई है".
पास खड़े किसी सज्जन ने कहा - "नहीं जनाब, पूरे चौबीस घंटे की देरी से आई है आज!"
हमें भी आपने गाडी की प्रतीक्षा में डाल दिया ? अरे आयी कब मुई वो ?
जवाब देंहटाएंएकोनाइट-200 = ये क्या होती है ?
जवाब देंहटाएंदीनेश भाई जी
आप बहुत , बढिया लिखते हैं -
- सौ. शोभा जी भी थक गयी होंगीं--
चि. वैभव बेटे को स्नेहाशिष सह:
- लावण्या
आप एक बार में ही थक गए? हमने तो न जाने कितनी बार और न जाने कैसी-कैसी व्यथा झेली है। कभी मन करता है कि सारी घटनाओं को कलमबद्ध किया जाय तो एक उपन्यास बन जाए। लेकिन आपने अपनी आपबीती को हम सबके साथ साझा करके नेक काम किया है। लिखा भी अच्छा है। यह जानकर प्रसन्नता भी हुई कि कोटा में ठण्ड पड़ने लगी है, नहीं तो वहाँ इन दिनों गर्मी से ही बेहाल हुआ जाता है।
जवाब देंहटाएंसटीक शब्द चित्रण
जवाब देंहटाएंरोचक भी
लेकिन लगता है आपने हमारी कौन सी रेलगाड़ी किस स्टेशन पर है, एक क्लिक में पता लगाएं वाली पोस्ट नहीं पढ़ी :-)
... और खुशदीप जी आज तो कमाल ही हो गया! आपकी टिप्पणी पढ़ते हुए मुझे उठकर घर के बाहर जाना पड़ा!! कारण? बाहर सड़क पर यही गाना एक फेरी वाला बजाते हुए निकल रहा था। मैं यह देखने गया कि कहीं मेरे कान तो नहीं बज रहे।
है ना कमाल?
बी एस पाबला
क्या खूब वर्णन किया है आपने रेल के इंतजार का हम भी इसे २-३ बार भुगत चुके हैं । स्टेशन फोन कर के फिर जाने की सोचो तो स्टेशन पर कोई फोन उठाले तो समझिये किस्मत वाले हैं आप । वैभव के नये जॉब के लिये शुभ कामनायें ।
जवाब देंहटाएंसर मै अभी १ तारीख को जबलपुर से घूम कर लौट रहा था |मेरी ट्रेन गोदान एक्सप्रेस लेट थी , डिसप्ले बोर्ड पर संभावित समय २३.५५ दिख रहा था , और १२ (२४ ) बजे तक संभावित समय संसोधित नहीं हुआ |
जवाब देंहटाएंजयपुर वाली दुर्घटना ने बहुत अस्त-व्यस्त किया रेल यातायात को। यह तो सवारी गाड़ियों का हाल है। बेचारी मालगाड़ियां तो अभी भी अपना रास्ता ढूंढ़ रही हैं। :)
जवाब देंहटाएंाज तो बस धन्यवाद करने और शुभकामनायें देने ही आयी हूँ बाद मे पढूँगी आपकी ये रचना। आभार्
जवाब देंहटाएंआपकी पीडा बहुत अच्छे से समझ सकती हूँ! पिछली ही ठंडों में मालवा एक्सप्रेस का इसी तरह रात के एक बजे से सुबह आठ बजे तक इंतजार किया था!
जवाब देंहटाएंआशा है कि आपकी थकन दूर हो गई होगी। यदि एकोनाइट से लाभ न हो तो आर्निका ट्राई करें।
जवाब देंहटाएंहमें तो ये मालूम था कि वैभव हैदराबाद आने वाले थे?
जवाब देंहटाएंबहुत सधा हुआ लिखा आपने. बिल्कुल सजीव.
जवाब देंहटाएंरामराम.
हमने तो सजीव चित्रण फोन पर ही सुन लिया था।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया जो इसे यहां भी डाला।
सुनने की बजाय लिखे को पढ़ने में ज्यादा आनंद आता है। ऐसे कई मौके हमें भी याद आ गए।
वैभव के लिए खूब सारी शुभकामनाएं ....
दिनेश जी बहुत गुस्सा आता है,लेकिन आप का लेख पढ कर मेरी हिम्मत भी जागी अपनी रेल यात्रा को लिखने की, जल्द ही लिखूगां
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
ऐसी रातों का कई बार साक्षी रहना पड़ा है. एक बार जब अपनी सीट पर जाकर बैठा तो पता चला कि एक और सज्जन बैठे थे उसी सीट पर टिकट उनके पास भी था. समझ में नहीं आया कि हो क्या रहा है फिर पता चला की जिस ट्रेन में बैठा हूँ वो कल वाली ट्रेन है ! अब जाना तो उसी ट्रेन से हुआ लेकिन... आगे की स्थिति का आप अनुमान लगाइए. एक बार सो गया तो ट्रेन ही छूट गयी :)
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