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सोमवार, 28 सितंबर 2009

कल को खु़र्शीद भी निकलेगा, सहर भी होगी

वकीलों की हड़ताल का असर महसूस होने लगा है। काम पर मन जम नहीं रहा है। उस का असर अपने ब्लाग लेखन पर भी आया। अनवरत पर पिछले आठ दिनों में मात्र तीन पोस्टें ही हो सकीं। आज ब्लागवाणी ने खुद को समेट लिया। मन दुःखी है। जब कोई अनजान और बिना संपर्क का व्यक्ति भी असमय चल बसे तो दुःख होता है, यह मानवीय स्वभाव है। जब भी नेट चालू होता ब्लागवाणी एक टैब पर खुली ही रहती थी।  ब्लागवाणी ने हिन्दी ब्लागरी के विकास में जो भूमिका अदा की वह ऐतिहासिक है, उसे इतिहास के पृष्ठों से नहीं मिटाया जा सकता।  अभी उस के लिए भूमिका शेष थी, जिसे निभाने से उस के कर्ताओं ने इन्कार कर दिया, या कहें वे पीछे हट गए।  पीछे हटने की जो वजह बताई गई, वह तार्किक और पर्याप्त नहीं लगती। लेकिन यह उस के कर्ताओं का व्यक्तिगत निर्णय है।  उसे कोई चुनौती भी नहीं दे सकता।  खुद कर्ता पहले ही ब्लागवाणी को निजि प्रयास कह चुके हों, तब कोई क्या कह सकता है?  सिवाय इस के कि इस घड़ी का दुख और पीड़ा चुपचाप सहन करे या उसे अभिव्यक्त करे।  मुझे मेरे पिता जी के दिवंगत होने का वक्त स्मरण हो रहा है। जब वे गए तो गृहस्थी कच्ची थी। चार भाइयों में मैं अकेला वकालत में आकर संघर्ष कर रहा था। जब तक मैं कोटा से बाराँ पहुँचा तो मेरे आँसू सूख चुके थे। पिता जी के जाने के ख़याल से अधिक, बचे हुए परिवार को जोड़े रखने और उसे संजोने की चिंता बड़ी हो गई थी। मेरी हालत देख लोग कहने लगे थे कि उसे रुलाओ वर्ना शरीर घुल जाएगा। मुझे आज कुछ वैसा ही महसूस हो रहा है।



हालांकि ब्लागवाणी निजत्व की सीमा से परे जा चुकी थी। कोई अकेला व्यक्ति भी जब समाज या उस के एक भाग से जुड़ता है तो उस का कुछ भी निजि नहीं रह जाता है।  ब्लागवाणी हिन्दी ब्लाग जगत के ब्लागरों और पाठकों से जुड़ी थी। ब्लागवाणी को बंद कर के उस के कर्ताओं ने हिन्दी ब्लाग जगत को दुःख पहुँचाया है और उन्हें रिक्तता के बीच छोड़ दिया है।  आज जब हिन्दी ब्लाग जगत को और बहुत से विविध प्रकार के ऐग्रीगेटरों और साधनों की जरूरत है, उस समय यह रिक्तता सभी को अखरेगी। लेकिन ऐसा भी नहीं कि इस की पूर्ति नहीं की जा सकेगी। सभी महान कही जाने वाली संस्थाओं और व्यक्तियों के जाने के बाद ऐसा ही महसूस होता है। लेकिन जल्दी ही वह रिक्तता भरने लगती है। कम सक्षम ही सही, लोग आते हैं, काम करते हैं और अपनी भूमिका अदा करते हैं। कभी-कभी अधिक सक्षम लोग भी आते हैं और ऐसा काम कर दिखाते हैं जो पहले कभी न हुआ हो। तब लोग ऐतिहासिक भूमिका अदा करने वालों को भी विस्मृत कर देते हैं। लोगों को स्मरण कराना पड़ता है कि कभी किसी ने ऐतिहासिक भूमिका अदा की थी। ब्लागवाणी के मामले में क्या होगा? यह अभी नहीं कहा जा सकता।  इतना जरूर है कि ब्लागवाणी को बंद हुए अभी बारह घंटे भी न गुजरे थे, कि लोगों ने नए ऐग्रीगेटरों की तलाश आरंभ कर दी। एक एग्रीगेटर तो 'महाशक्ति समूह' तलाश भी कर लाया है। हो सकता है शीघ्र ही ब्लागवाणी के स्थान पर अनेक ऐग्रीगेटर दिखाई देने लगें और उस की छोड़ी हुई भूमिका को अदा करें।

सब से अफसोस-जनक बात जो है, वह यह कि ब्लागवाणी के बंद होने के लिए कुछ लोगों को जबरन जिम्मेदार ठहराया जा रहा है,  जिन में मैं भी एक हूँ।  यहाँ तक कि गालियाँ तक परोस दी गई हैं।  लेकिन मेरी दृढ़ मान्यता है कि जब भी, कुछ भी पुष्ट होता है तो वह अपने अंदर की मजबूती (अंतर्वस्तु)  के कारण और जब वह नष्ट होता है तब भी उस की अंदरूनी कमजोरी (अंतर्वस्तु) ही उस का मुख्य कारण होती है।  बाहरी तत्व उस में प्रधान भूमिका अदा नहीं कर सकते। रोज कपड़े सुखाने वाले से एक दिन डोरी टूट जाती है तो भी सुखाने वाले पर इल्जाम आता है, हालांकि वह टूटती अपनी जर्जरता के कारण है।

मेरे मित्र पुरुषोत्तम 'यक़ीन' के भंडार में इतनी रचनाएँ हैं कि  हर वक्त के लिए कुछ न कुछ मिल जाता है। इस रिक्तता के बीच मुझे उन की रचनाओं में से यह ग़ज़ल मिली है। आप भी पढ़िए। शायद इस ग़मज़दा माहौल में हिम्मत अफ़जाई कर सके।




कल को खु़र्शीद भी निकलेगा, सहर भी होगी
  •   पुरुषोत्तम 'यक़ीन'

हम अंधेरे में चराग़ों को जला देते हैं
हम पे इल्ज़ाम है हम आग लगा देते हैं


कल को खु़र्शीद* भी निकलेगा, सहर भी होगी
शब के सौदागरों! हम इतना जता देते हैं


क्या ये कम है कि वो गुलशन पे गिरा कर बिजली 
देख कर ख़ाके-चमन आँसू बहा देते हैं


बीहड़ों में से गुज़रते हैं मुसलसल** जो क़दम 
चलते-चलते वो वहाँ राह बना देते हैं


जड़ हुए मील के पत्थर ये बजा*** है लेकिन
चलने वालों को ये मंजिल का पता देते हैं


अधखिले फूलों को रस्ते पे बिछा कर वो यूँ 
जाने किस जुर्म की कलियों को सज़ा देते हैं


अब गुनहगार वो ठहराएँ तो ठहराएँ मुझे 
मेरे अश्आर शरारों को हवा देते हैं


एक-इक जुगनू इकट्ठा किया करते हैं 'यक़ीन'
रोशनी कर के रहेंगे ये बता देते हैं





ख़ुर्शीद*= सूरज,  
मुसलसल**=निरंतर,  
बजा***=उचित, सही




10 टिप्‍पणियां:

  1. द्विवेदी सर, आपको इतना जज़्बाती पहले कभी नहीं देखा...रही बात जो हो रहा है, वो हमारे बस का नहीं है...जो हमारे बस का ही नहीं तो उस पर मलाल कैसा...कहते हैं हर मुश्किल घड़ी में कोई न कोई अच्छाई छिपी होती है...शायद ये सब वैसे ही सफाई के लिए हो रहा हो, जैसे दीवाली से पहले हम अपने घरों की सफाई करते हैं...वैसे दुर्गा पूजन और दशहरे के साथ आने का भी कुछ महत्व होता है...अब कदम-कदम पर रावण, दुर्गा करे भी तो क्या करे...कितने रावणों को मारे...एक मरता नहीं कि हाइड्रा के सिर की तरह दस और निकल आते हैं...लेकिन आखिर में जीत राम के रूप में दुर्गा की ही होगी...

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  2. ब्लागवाणी के बंद होने का दुख सभी ब्लागर भाइयों को है पर आप अपने दिल पर यह इल्ज़ाम न लें कि आप भी एक कारण है उसके बंद होने के....सुबह ज़रूर आएगी, सुबह का इन्तेज़ार कर.....

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  3. आप कतई निराश न हों. आप अपना काम करते रहें.

    पुरुषोत्तम यकीन जी गज़ल बहुत कुछ कह रही है.

    ब्लॉगवाणी का जाना बेहद दुखद एवं अफसोसजनक.
    हिन्दी ब्लॉगजगत के लिए यह एक बहुत निराशाजनक दिन है.
    संचालकों से पुनर्विचार की अपील!

    विजया दशमी की हार्दिक शुभकामनाएँ।

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  4. यह एक सार्विक चिंता का विषय है...
    पर रास्ते निकलेंगे...

    यक़ीन साहेब बख़ूबी यक़ीन दिला ही रहे हैं...

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  5. अव्वल तो ब्लागजगत में ज्यादा विचरण हो नहीं पाता, सो ब्लागवाणी के बंद होने के जो जो कारण मैथिलीजी ने गिनाए, वे अविनाश वाचस्पति द्वारा दी गई लिंक जो ब्लागवाणी का यूआरएल ही था पर पढ़ डाले।

    अब आपको यह कहते देखता हूं कि इस विवाद में आपका नाम भी था तो आश्चर्य है। क्या कुछ घटा, पता नहीं, पर कोई महत्वपूर्ण कार्य इसलिए तो बंद नहीं हो जाता कि लोग आपत्ति जता रहे हैं।

    खैर, नई शुरुआत हर चीज़ की होती है। हर चीज़ की आयु भी होती है। नियामक चाहें तो ही आयु बढ़ सकती है। आप तो मस्त रहें। एग्रीगेटर जरूरी प्लेटफार्म है, इतना मैं समझ पाया हूं मगर उसे चलाना तो उसके संचालक की मर्जी है।

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  6. गम छोड़ के मनाओ रंगरेली ...

    देर आयद दुरुस्त आयद।

    धन्यवाद ब्लॉगवाणी!!!

    द्विवेदी जी, जो कुछ भी होता है ऊपरवाले की मर्जी से होता है पर किसी न किसी को निमित्त बनना पड़ता है। अब मैं भला आपको क्या समझाऊँ आप तो स्वयं ज्ञानी हैं। सिर्फ आपसे अनुरोध है कि मन से किसी भी प्रकार का मलाल, यदि कोई हो तो, निकाल दे्।

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  7. अब तो ब्लोगवाणी वापस आ गयी है. वैसे दुखद तो था लेकिन किया भी क्या जा सकता है.

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  8. दिनेश जी , मै आप के दर्द को समझता हुं , किसी का नाम बेकार मै ही किसी अप्वाद मै आ जाये तो शरीफ़ आदमी अपनी बेज्जती महसुस करता है, लेकिन आप को ओर हमे पता है कि आप के बारे तो फ़िर आप काहे उदास होते है,
    ओर अब तो ब्लांगबाणी वापिस भी आ गया है, लेकिन अब ब्लांग बानी को कुछ सख्त होना चहिये लोग चाहे ताना शाह हि क्यो ना कहे...क्योकि जिस घर का मुखिया सख्त होता है, वो घर हमेशा बना रहता है.
    दिनेश जी आप हमारे दिल मै बस ते है , ओर ब्लांग बाणी के बन्द होने का कारण तो अन्य लोग है जिन्हे ज्यादा पसंद ओर ज्यादा ओर ज्यादा का लालच था, लेकिन हमारे जेसे लोगो को तो टिपण्णीयो का भी लालच नही. इस लिये यह बहम मन से निकाल दे, आप हम सब के चहेते ही है, ओर आप के बारे सब के मन मै इज्जत ओर प्यार है,
    अब जल्दी से खुश हो कर ओर यह बुरा ख्याल मन से निकाल कर एक अच्छी सी पोस्ट लिख दे.
    धन्यवाद

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  9. ब्लॉगवाणी के बन्द होने से जिस व्यक्ति को अपने पिता के दिवंगत होने की दुखद घड़ी का स्मरण हो आये उस व्यक्ति की प्रतिबद्धता और सभी के हित की भावना पर सन्देह किया जाये यह दुखद है । इसकी पुनरावृत्ति न हो इस बात का हमें खयाल रखना है ।

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कैसा लगा आलेख? अच्छा या बुरा? मन को प्रफुल्लता मिली या आया क्रोध?
कुछ नया मिला या वही पुराना घिसा पिटा राग? कुछ तो किया होगा महसूस?
जो भी हो, जरा यहाँ टिपिया दीजिए.....